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Saturday, September 3, 2016

सात साल... सात जन्म... सात रंग इन्द्रधनुष के...!



ठीक ठीक याद नहीं अब सिवा इसके की ऐसे ही किसी मौसम में तुमसे पहली बार मिली थी... एक लंबा अर्सा गुज़र गया यूँ साथ चलते... आज सोचो तो लगता ही नहीं कि हम कभी अलग भी थे... इतने सालों में जाने कितने लम्हें बिताये तुम्हारे साथ... हर रंग में रंगे... सुर्ख भी... सब्ज़ भी... चमकीले भी... स्याह भी... कभी चटख गुलाबी तो कभी झील से नीले... हर लम्हें हर रंग का अपना मज़ा... पर वो पहला लम्हा वो पहला पल क्या कभी बुलाया जा सकता है... कोहिनूर सा चमकीला... सबसे अलग... कुछ अलग ही स्पार्क था उसमें... अलौकिक सा... रूहानी... जैसे उस एक लम्हे को वाकई उस ऊपर वाले ने ख़ुद ही रचा था हमारे लिये... रूहानी ही तो था हमारा मिलना.. है न ?

उस एक पल से ले कर आज तक हर लम्हा ये सफ़र ये हमारा साथ एक अलग ही एक्सपीरियंस रहा है.. कितना कुछ जिया हमने... हर वो ख़्वाब जो बिना हमारे मिले ख़्वाब ही रहता... वो सारी बचकानी ख़्वाहिशें जिन्हें तुमने पूरा किया... कितना कुछ तो लिख चुकी हूँ अपनी उन सारी ख़्वाहिशों के बारे में... साथ बिताये उन सारे पलों के बारे में... अब और क्या नया लिखूँ...

आज सोच रही हूँ... तुम्हारे साथ बिताये उन सारे चमकीले लम्हों को इक्कट्ठा कर के गर एक कलाइडोस्कोप बनाया जाये तो दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत रंग उनमें देखे जा सकेंगें... हर बदलते एंगल के साथ एक नयी पेंटिंग उभरेगी... बेहद ख़ूबसूरत... हमारे प्यार के रंगों में रंगी...

हमारे साथ का ये हर लम्हा तुम्हें भी मुबारक़ हो जान... तुम्हारी बहुत याद आ रही है आज.. बहुत मिस कर रही हूँ तुम्हें... बहुत ज़्यादा... बोलो न आज रात मिलोगे क्या... सपने में ?

ज़मीं पे न सही तो आसमां में आ मिल.. तेरे बिना गुज़ारा ऐ दिल है मुश्किल...!!!




*Paintings - Leonid Afremov

Thursday, September 3, 2015

छाप तिलक सब छीनी...!!!



जानते हो दोस्त जब तुमसे पहली बार बात हुई थी जाने क्यूँ कोई स्पेशल कनेक्ट फील हुआ था उसी दिन... एक अजीब सा खिंचाव... ऐसा जिसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता... ऐसा पहले कभी नहीं हुआ.. किसी के भी साथ... तुमसे भागने की बहुत कोशिश करी मैंने... कितने बहाने बनाये... दिल को समझाने के... पर दिल नहीं माना... तुम किसी फरिश्ते कि तरह आये मेरी ज़िंदगी में... और उसे बेहद खूबसूरत बना दिया... अपने रंगों में रँग के...

पाता है मैं कुछ कुछ तुमसी होती जा रही हूँ आजकल... और तुम मुझसे... सोचो तो हँसी भी आती है और प्यार भी... तुम इमोशनल होते जा रहे हो और मैं प्रैक्टिकल... इस रोल रिवर्सल में बड़ा मज़ा आ रहा है इन दिनों... ऐसा भी नहीं है की तुम पहले इमोशनल नहीं थे.. हाँ इतने एक्सप्रेसिव नहीं थे जितने आजकल हो रहे हो... अच्छा लगता है तुम्हारे मुँह से सुनना की तुम मुझे मिस कर रहे हो... कि फलां-फलां काम करते हुए तुम्हें मेरी याद आयी... जैसे मेरी ज़िन्दगी के हर लम्हे में तुम बसे हुए हो.. अब मैं भी शामिल होने लगी हूँ तुम्हारी ज़िन्दगी के लम्हों में...

पर आजकल ना दिन कुछ अच्छे नहीं जा रहे... एक बार फिर से हम बहुत बहस करने लगे हैं... बात बात पे... जाने क्यूँ हर कुछ टाइम बाद ज़िन्दगी में ये फेज़ वापस आ जाता है... हमें बिलकुल अच्छा नहीं लगता.. पर जितना इससे निकलने की कोशिश करो उतना ही और फँसते जाते हैं इसमें किसी दलदल की तरह... पर तुम हो मेरे साथ और मुझे भरोसा है की निकाल ही लोगे हमें इस दलदल से और ये फेज़ भी बीत जायेगा...

जानते हो इस पूरी दुनिया में सिर्फ़ एक तुम हो जो मुझे इतना रुलाते हो... इस पूरी दुनिया में सिर्फ़ एक तुम हो जिसे ये हक़ है... इस पूरी दुनिया में सिर्फ़ एक तुम हो जिसे मैं इतना प्यार करती हूँ...

रात के इस पहर तुम्हारी बड़ी याद आ रही है... मेरा कमरा मानो कोई बड़े से बाइस्कोप में तब्दील हो गया है और तुम्हारे साथ गुज़रे हर खट्टे मीठे लम्हों की रील किसी फ़िल्म के जैसे इसकी दीवारों पर चल रही है... आँखें ख़ुशी से भर आयी हैं ये सब एक बार फिर से महसूसते... दिल से ढेर सारी दुआ निकल रही है तुम्हारे लिये... तुम्हारी पेशानी चूम के वो सब तुम तक पहुँचा दी हैं... क़ुबूल करो...!

Friday, February 27, 2015

कलाइयों से खोल दो ये नब्ज़ की तरह धड़कता वक़्त तंग करता है...


फरवरी तकरीबन बीत चुकी है... ठंड भी रुखसती की कगार पर है... बस इत्ती सी बाकी है मानो हाथ छूटने के बाद उँगलियों के पोरों पर उसका स्पर्श बाकि रह गया हो... हालाँकि सुबहें और शामें अभी भी उसके मोहपाश से आज़ाद नहीं हो पायीं हैं... हल्की सी सिहरन घुली रहती है अभी सुबहों और शामों में... कुल मिला के गुलाबी सी ठंड वाला ये मौसम बहुत ही सुहाना है... एक अजीब सी मदहोशी तारी है हवाओं में... रँग बिरंगे फूलों से घर आँगन गुलज़ार है... फिज़ाओं में प्यार की ख़ुश्बू बिखरी हुई है... "लव इज़ इन दी एयर" शायद ऐसे ही किसी मौसम के लिये कहा गया होगा... प्यार के लिये परफेक्ट वेदर... दिल खामखाँ कितने तो सपने सजाये घूमता है ऐसे में... फागुन के रंगों से चमकीले... तितली के परों से नाज़ुक... वैसे भी ये तो हमारा सबसे पसंदीदा शगल है... सबसे फेवरेट वाला...

आज यूँ ही सोच रही थी इतनी बड़ी दुनिया और अरबों लोगों के बीच कैसे ढूँढ लेता है कोई... उस एक इंसान को... जो सिर्फ़ उसी के लिये बना है... जिसके लिये वो ख़ुद बना है... दो लोग... एक दूसरे से बिलकुल अलग... एक दूसरे से एकदम अनजान... पर एक दूसरे के लिये बेहद अहम... जिगसॉ पज्ज़ल के दो हिस्सों जैसे... एक दूसरे के बिना अधूरे... क्या सच में किस्मत जैसी कोई चीज़ होती है ? या फिर सोल मेट्स कि थ्योरी वाकई सही है... जानते हो जान पाँच अरब से भी ज़्यादा लोग हैं इस धरती पर... इत्ती बड़ी दनिया में इत्ते सारे लोगों के बीच भी इस दिल ने तुम्हें ढूँढ लिया... तुम्हारे शहर में होती तो ?

यूँ तो तुम्हें कभी तुम्हारे नाम से नहीं बुलाती हूँ... पर जाने क्यूँ तुम्हारे नाम से भी इक लगाव सा है... जब कभी भी तुम्हरा नाम कहीं सुनती या पढ़ती हूँ तो एक पल के लिये ठिठक जाती हूँ... यूँ लगता है मनो तुम करीब हो... कहीं आस पास ही... उस नाम में बसे हुए... जैसे ये ही नाम परफेक्ट है तुम्हारे लिये... जैसे उस ऊपरवाले ने मेरी दुआओं भरी चिट्ठियों के जवाब में ही लिखा हो ये नाम... तुम्हारा नाम... उसके आशीर्वाद जैसा...

तुम भी सोच रहे होगे जाने क्या बड़बड़ा रही हूँ इत्ती देर से... कभी वेदर... कभी सोल मेट्स... कभी नाम... हम्म... मुद्दा दरअसल ये है जान की तुम्हें मिस कर रही हूँ... बहुत... तुमसे बात नहीं हो पाती तो तुम्हारे बारे में बात कर के ही जी को बहला लेती हूँ... कितना बिज़ी रहने लगे हो आजकल... समय ही नहीं मिलता साथ बिताने को... मिलता भी है तो जैसे छुपन छुपाई खेलता रहता है... झलक दिखा के गायब... बहुत दुष्ट हो गया है... इस बार मिलेंगे न तो इसे ख़ूब मज़ा चखाएंगे... इस वक़्त को स्टैचू बोल के भाग चलेंगे कहीं दोनों...!

Thursday, January 22, 2015

बेसबब बातों की गर्माहट से खिलते बेसाख्ता हँसी के सूरजमुखी...


- सुनो हमें क्रूज़ पे जाना है.. चलोगे ?

- क्रूज़ पे ? अचानक क्या हुआ तुम्हें ?

- अरे बताओ ना... ले चलोगे ?

- हम्म... ले चलूँगा जान... पर बताओ तो क्यूँ जाना है ?

- अरे वो ना हमें समुद्र के बीचों बीच पानी में खेलती हुई डॉल्फिन्स देखनी हैं..

- हम्म :) तो उसके लिये इत्ती दूर जाने कि क्या ज़रूरत है... टीवी ऑन करो.. डिसकवरी चैनल लगाओ और देख लो.. तुम भी ना...

- अरे नहीं और भी कुछ काम है...

- वहाँ समुन्दर के बीच में भला कौन सा काम है तुम्हें...

- हमें ना सूरज को सागर के आग़ोश में सिमटते हुए देखना है... और ये मिलन देख पानी को शर्म से सुर्ख होते भी...

- तो वो तो तुम यहाँ साहिल पे खड़े हो के भी देख सकती हो... उसके लिये क्रूज़ पे क्यूँ जाना है..

- नहीं ना... यहाँ बहुत से डिस्ट्रैक्शंस होते हैं... और यहाँ किनारे तक आते आते वो लहरों का सुर्ख रँग डायल्यूट हो जाता है... मुझे वो सुर्ख नारंगी रँग की लहरों का फोटो लेना है...

- और करोगी क्या उसका ?

- उस रँग का दुपट्टा रँगवाऊँगी एक...

- अच्छा... और ?

- और वहाँ शिप के डेक पे लेट के तारे देखने हैं तुम्हारे साथ... सारी रात... कितने चमकीले दिखते हैं ना वहाँ से तारे...

- हम्म... सो तो है... :) एक बात बताओ...

- क्या ?

- तुम्हें तो पानी से डर लगता है ना... फिर वहाँ समुद्र के बीच में कैसे जाओगी... वहाँ तो चारों तरफ़ पानी ही पानी होता है ना..

- हाँ तो.. तुम होगे ना वहाँ मेरे साथ...

- तो..

- तो ये कि तुम्हारे साथ तो वहाँ डीप सी डाइविंग भी कर सकती हूँ...

- डर नहीं लगेगा... ?

- ना... बिलकुल भी नहीं... डर तब लगता है जब तुम साथ नहीं होते... तुमसे दूर हो जाने का डर लगता है... तुमसे बिछड़ जाने का डर लगता है... तुम साथ होते हो तो सुकून रहता है... ये आखिरी साँस भी हुई तो उसे लेते वक्त तुम साथ होगे...

- तुम पागल हो पूरी...

- हाँ हाँ... पता है जानेमन... रोज़ रोज़ याद क्यूँ दिलाते हो :)

- उफ्फ़... मेरे गले कहाँ से पड़ गईं आ के तुम :)

- अब तो सारी ज़िंदगी ऐसे ही टंगी रहूँगी तुम्हारी गर्दन पे.. बेताल के जैसे... विक्रम अब तू तो गया... हू हा हा हा...

- हाहाहा... चलो अब नौटंकी... क्रूज़ के टिकट बुक करते हैं ऑनलाइन... वरना फिर जान खाओगी :)

- लव यू मेरे विक्रम :):):)

- लव यू टू मेरी बेताल :):):)




Wednesday, January 14, 2015

ये सारे रँग तेरे रँग हैं...



- क्या हो गर मैं मिकोनोज़ के सफ़ेद गिरजे जैसे घरों पे एक बड़ी सी कूंची से ढेर सारे रँग छिड़क दूँ  ?

- तो.. ज़्यादा कुछ नहीं... तुम्हें पकड़ के मारेंगे वहाँ के लोग और पुलिस के हवाले कर देंगे... बस..

- हाय क्यूँ ?? किसी की बेरंग ज़िंदगी में रँग भरना कोई जुर्म है क्या ?

- नहीं... पर किसी के साफ़ सुथरे घर को ऐसे गन्दा करना कौन सा बड़ा पुण्य काम है ? और वैसे तुम्हें ये बे-सिर-पैर के खुराफ़ाती आइडियाज़ आते कहाँ से हैं ?

- हम्म... तुम जैसा नीरस इंसान नहीं समझ पायेगा... और काहे के साफ़ सुथरे जी...

- क्यूँ... देखो कैसे बर्फ़ से सफ़ेद हैं... दूर से ही चमक रहे हैं... साथ में... नीला सागर... नीला आकाश.. नीली खिड़कियाँ... बिलकुल किसी खूबसूरत पेन्टिंग सरीखे...

- ना... हमें तो ये हमेशा सूने सूने से लगते हैं... जैसे कोई बेस कोट कर के पेंटिंग बनाना भूल गया हो... इन्हें देख कर हमेशा एक बड़े से लाइफ साइज़ कैनवस का भ्रम होता है.. और दिल करता है बस रँग डालूँ इन्हें... ढेर सारे रंगों से...

- तुम पागल हो सच में :)

- हाँ तो :) मुझे तो ना इटली का बुरानो आइलैंड पसंद है... कैसा रँग बिरंगे घरों वाला द्वीप है... यूँ लगता है मानों किसी ने रँग बिरंगे फूलों से भरा पूरा एक बगीचा तैरा दिया हो पानी में...

- हम्म... तुम्हारी तरह... रँग बिरंगा...

- मैं कोई आइलैंड हूँ क्या... एक सीधी सादी साधारण लड़की हूँ...

- तुम क्या जानो... कितने किरदार बस्ते हैं तुम में... अपने आप में एक पूरी सभ्यता हो तुम...

- वाह... और तुम... मेरे मिकोनोज़ के बेरंग शहज़ादे... :)

- हाँ... तुम मुझमें यूँ ही रँग भरती रहना... हमेशा... :)

- अच्छा... आओ एक हग करो... अभी ट्रान्सफर कर देती हूँ आज के रँग :)

- हाहाहा... पागल...!

- हाँ... तुम्हारी... :):):)



Sunday, December 14, 2014

कहाँ हो मेरे सैंटा... ख़्वाहिशों ने फिर दस्तक दी है...!


आज बड़ी सारी भीगी सीली रातों के बाद एक ख़ुशनुमा दिन खिला तो सोचा यादों की गठरी खोल के उन्हें भी थोड़ी सी धूप दिखा दूँ...  बैठी बैठी यूँ ही कुछ पुराने वर्क़ पलट रही थी यादों के कि अचानक ढेर सारी मीठी मीठी ख़्वाहिशों से लबरेज़ एक विश लिस्ट पर नज़र पड़ी...  कितनी तो प्यारी प्यारी ख़्वाहिशें लिखीं थीं उसमें... मेरी तुम्हारी... याद है वो दौर कि जब हर रोज़ हम उसमें अपनी एक ख़्वाहिश जोड़ा करते थे... एक दिन मेरी बारी होती, दूसरे दिन तुम्हारी... क्या पागलपन भरे दिन थे वो भी... कितने उजले, कितने प्यारे... ख़ुशियों से छलकते... बांवरा सा ये मन हर पल जाने किस दुनिया में विचरता रहता... अपनी ही धुन में मग्न... आज भी सोचो तो मुस्कुराहट होंठों पे बेसाख़्ता तैर जाती है...

एक एक कर सारी ख़्वाहिशों को पढ़ती गई तो पाया कि लगभग सारी ही तो पूरी हो चली हैं... समय भी तो बीत गया ना कितना... तो आओ आज इस उजले दिन में मिलकर एक नयी विश लिस्ट बनाते हैं... कुछ तुम अपनी ख़्वाहिशें जोड़ो इसमें... कुछ मैं अपने ख़्वाब टाँकती हूँ... कि कुछ ख़्वाहिश, कुछ ख़्वाब बचे रहें तो ज़िन्दगी जीने की ललक भी बची रहती है... और साथ मिल कर उन ख़्वाबों,  ख़्वाहिशों को पूरा करने का उत्साह भी बचा रहता है...

ऐसे ही किसी उजले से दिन एक लॉन्ग ड्राइव पे जाना है तुम्हारे साथ... दूर बहुत दूर तलक... जहाँ धरती और आसमां मिल कर एक होने का भ्रम देते हों... साथ ना होते हुए भी एकदम करीब... एक दूसरे में घुलते हुए से... एकसार... हमारी तरह...

किसी पूरनमासी की रात किसी ऊंचे पहाड़ की चोटी से चाँद देखना है... बिलकुल साफ़ शफ़्फ़ाक... इतना बड़ा गोया किसी ने आसमां से तोड़ के सामने वाली अल्हड़ पहाड़ी के माथे पे सजा दिया हो, बिंदिया बना के... इतना पास कि हाथ बढ़ाऊँ तो छू ही लूँ उसे... उसकी चाँदनी का शॉल ओढ़े पूरी रात तुम्हारे काँधे पे सर रख के ढेर सारी बातें करनी हैं...

किसी शांत नदी के तट पे बैठ तुम्हारी बाँसुरी सुननी है, भोर की पहली किरण के साथ... जब सुरों में बदल रही होंगी तुम्हारी साँसे उस बाँस के टुकड़े से गुज़र के... मेरे वजूद में भी घुल जायेंगे सातों सुर... तुम्हारी सिम्फनी के...
याद है हमारा पसंदीदा शहर वेनिस... पानी पे तैरते किसी ख़ूबसूरत जज़ीरे सा... वहाँ की सर्पीली गलियों में घूमना है तुम्हारे साथ हाथों में हाथ डाले... गंडोला पे बैठ के पानी में उतरता शाम का सूरज देखना है... दीवार से लग कर लकड़ी की ख़ूबसूरत नक्काशीदार खिड़की तक बढ़ती पीले गुलाब की बेल के नीचे तुम्हारा माथा चूमना है... मेरी ज़िन्दगी में आने के लिये...

देखो मैंने दर्ज करा दी अपनी चंद ख़्वाहिशें अब तुम्हारी बारी... तुम भी कुछ कहो...

तुम ये ही सोच रहे हो ना कि हमारी इन बाँवरी ख़्वाहिशों को पूरा करने के लिये इतने पैसे कहाँ से लायेंगे... पर हमारी ख़्वाहिशों को पूरा करने के लिये पैसों की ज़रूरत कब से पड़ने लगी जान... भूल गये क्या... हमारी दुनिया में बस चाहतों की करेंसी चलती है... जानते हो जान मैं दुनिया की सबसे अमीर लड़की हूँ कि मेरे पास एक पूरी गुल्लक भर के तुम्हारी हँसी के सिक्के हैं...

अच्छा छोड़ो ये सब... बाकी ख़्वाहिशें जब पूरी होंगी तब होंगी... एक ख़्वाहिश अभी पूरी कर दोगे... बोलो... कैन आई गेट अ टाईट हग... राईट नाओ ???


Friday, December 5, 2014

जागते जीते हुए दूधिया कोहरे से लिपट कर, साँस लेते हुए इस कोहरे को महसूस किया है ?



सर्दियाँ हमेशा से बड़ी पसंद हैं हमें... कि थोड़ा अलसाया, थोड़ा रूमानी, थोड़ा मिस्टीरियस, थोड़ा सूफ़ियाना सा ये मौसम बिलकुल अपने जैसा लगता है...

इन सर्दियों के पहले कोहरे ने आज सुबह सवेरे दस्तक दी... अमूमन आजकल देर से ही उठाना हो रहा है... गलती हमारी नहीं है... ये कम्बख्त रज़ाइयाँ तैयार ही नहीं होती अपनी गिरफ़्त से आज़ाद करने को... ख़ैर आज सुबह उनकी तमाम कोशिशों को नाकाम कर के बरामदे में पहुँचे तो देखा नर्म शफ्फाफ़ कोहरा अपनी पुर असरार ख़ुश्बू का मलमली शॉल ओढ़े लिपटा हुआ है धरती के आग़ोश में... जैसे सदियों से बिछड़े प्रेमी मिले तो बस एक दूजे से लिपट गए सब लोक लाज छोड़ छाड़ के... कितने देर तलक उनके इस पाकीज़ा मिलन को यूँ एक टक तकती रही... सोचा के फ्रीज़ कर लूँ इन दिव्य लम्हों को मन के कैमरे में...

मेरी इस टकटकी को तोड़ा बातूनी कबूतरों के एक जोड़े ने... जाने क्या गुटर गूं  - गुटर गूं लगा रखी थी सुबह सुबह... आप बेवजह हमें बोलते हो की हम बहुत बक बक करते हैं.. देखो इन्हें... इत्ती ठंडी में भी चैन नहीं है... ज़रूर मम्मी को कोई बहाना मार के आये होंगे सुबह सुबह कि बड़ा ज़रूरी कोई काम है और यहाँ कोहरे में छुप के बातें कर रहे हैं... ख़ैर करने दो.. हमें क्या...

ये कोहरा देख के हर बार ही मन होता है कि हाथ बढ़ा के छू लूँ इसे... या फूँक कर उड़ा दूँ... ताज़ी धुनकी रुई के जैसे कोहरे के इन फाहों को... जो बैठ गए हैं हर एक चीज़ पर और सब कुछ इनके ही रंग में रंग गया है.. या चुटकी भर ये कोहरा चाय में घोल के पी जाऊँ... या फ़िर लेप लूँ अपने तन मन पर मुट्ठी भर ये मदहोश कर देने वाली गंध... के जैसे साधू कोई भस्म लगा लेता है तन पर...

जानते हो कैसे मिली इसे ये भीनी ख़ुश्बू ? कोहरे और धरती के उस पाकीज़ा मिलन से... पर तुम तो न कुछ समझते ही नहीं... याद है कितना हँसे थे तुम... इक बार जब कहा था मैंने कि मुझे इस कोहरे की ख़ुश्बू बहुत अच्छी लगती है... कितना मज़ाक बनाया था तुमने मेरा... ये कह के कि तुम पागल हो बिलकुल... कोहरे की भी भला कोई ख़ुश्बू होती है... देखो न जान आज फिर से वही महक तारी है फिज़ा में अल-सुबह से... आज फिर तुम हँस रहे हो मुझ पर...

मुझे इस कोहरे की ख़ुश्बू वाला कोई इत्र ला दो न जानां.. कि ये कोहरे वाली सर्दियाँ पूरे साल नहीं रहतीं...!


Wednesday, April 9, 2014

तुम्हारी बातों में कोई मसीहा बसता है...!



तुमसे बात करना हर रोज़ डायरी लिखने जैसे है... सारे दिन की उथल पुथल... मन के सारे अजीब-ओ-गरीब ख्य़ाल... दुविधाएँ... व्याकुलता... ख़ुशियों के छोटे छोटे लम्हें... सब कुछ तुम्हें बता के, तुम्हें सौंप के... ख़ुद को एकदम खाली कर देने जैसा... फिर से एक नये दिन के नये अनुभव इकट्ठे करने के लिये... जानते हो ना लिखने के मामले में थोड़ा आलसी हूँ... सो तुमसे ही काम चला लेती हूँ... जिस दिन तुम नहीं मिलते लगता है कितना कुछ रह गया है भीतर ही... जिसे निकलना था बाहर... जो तुम्हें बताना था... मन सारा दिन बेचैन रहता है...

तुमसे बात करना सारे दिन की थकन के बाद अपना पसंदीदा संगीत सुनते हुए शाम की ठंडी हवा में बैठ के इलायची वाली चाय पीने जैसा है... रिलैक्सिंग ! मन को नयी स्फूर्ति से भर देने वाला...

तुमसे बातें करना ऐसे है जैसे लू भरी दोपहर में ठन्डे पानी का एक घूँट मिल जाना... आत्मा को तृप्त कर देने जैसा... चिलचिलाती धूप में बरगद की विशाल छाया मिल जाने जैसा...

तुमसे बात करना किसी उमस भरी शाम पानी के पोखर में पैर डाल के घंटों बैठे रहने जैसा है... ठंडक तलवों से होते हुए कब मन तक पहुँच जाती है पता ही नहीं चलता...

तुमसे बात करना कोई तस्वीर पेंट करने जैसा है... मन के सारे रँग कैनवस पे उकेर देने जैसा... हल्के आसमानी... गहरे हरे... सुर्ख़ लाल...

तुमसे बात करना सृजन करने जैसा है... किसी बच्चे को जन्म देने जैसा... ख़ुद को परिपूर्ण करने जैसा...

तुमसे बात करना सिर्फ़ तुम्हारे साथ समय बिताने का एक निमित्त मात्र है... जिसे किसी भी वजह की ज़रूरत नहीं होती...

सांझ ढले तुम्हारी आवाज़ कानों में घुलती है तो दिन भर में मन पर उभर आयी सारी ख़राशों पर मलहम सा लग जाता है...

मानती हूँ हम बहुत झगड़ने लगे हैं इन दिनों... पर एक आदात जो हम दोनों में एक सी है... बुरे पल हम कभी याद नहीं रखते... तुम्हारी यादों की भीनी गलियों में उन पलों को आने की इजाज़त नहीं है... वहाँ सिर्फ़ तुम्हारी मिठास बसती है... और तुम... मुस्कुराते हुए... गुनगुनाते हुए... बादल बिजली... चन्दन पानी... जैसा अपना प्यार...!


Friday, February 14, 2014

हँसने रुलाने का आधा-पौना वादा है... !



बहुत कुछ है जो तुमसे कहने का दिल हो रहा है... क्या ये नहीं मालूम... पर कुछ तो है... कितने ही शब्द लिखे मिटाये सुबह से... कोई भी वो एहसास बयां नहीं कर पा रहा जो मैं कहना चाहती हूँ... गोया सारे अल्फ़ाज़ गूंगे हो गए हैं आज... बेमानी... तुम सुन पा रहे हो क्या वो सब जो मैं कहना चाहती हूँ ?

ऐसी ही किसी तारीख़ को ऐसे ही किसी प्यारे दिन की याद में ये लिखा था कभी... तुम्हारे लिए... आज भेज ही देती हूँ प्यार की ये चिट्ठी तुम्हारे नाम...

एक दूजे को देख कर जब
मुस्कुरायीं थी आँखें पहली बार
लम्हें का इक क़तरा थम गया था !
वो ख़ुशनुमा क़तरा आज भी बसा है ज़हन में

वो पहली बार जब थामा था तुम्हारा हाथ
मेरी उँगलियों ने बींध लिया था
तुम्हारी उँगलियों का लम्स भी 
वो लम्स अब भी महकता है मेरे हाथों में

उस आधे चाँद की मद्धम चाँदनी
उम्मीद के कच्चे दिए की लौ सी
टिमटिमाती हुई आज भी आबाद है
दिल के अँधेरे कोने में कहीं

सागर की उन बांवरी लहरों ने
बाँध के मेरे पैरों को रोका हुआ है वहीं
हमारे पैरों के निशां संजो रखे हैं
साहिल की गीली रेत ने अब तलक

जी करता है ठहरे हुए लम्हों के वो मोती
गूँथ के इक डोर में करधनी सा बांध लूँ
या पायल बना के पहन लूँ
और छनकाती फिरूँ मन का आँगन !



Wednesday, December 18, 2013

तेरा नाम इश्क़ मेरा नाम इश्क़ !


तुम्हारी हँसी की आवाज़ आज बहुत देर तलक कानों में गूँजती रही...

जानते हो आज कितने दिनों बाद तुम इतना खुल के हँसे हो... वो बच्चों सी उन्मुक्त हँसी... ख़ुशी से गीली हो आयी पलकों से पोंछ के काजल... जी किया कि तुम्हारी हँसी को काला टीका लगा दूँ... या फ़ेंक के कोई जाल क़ैद कर लूँ इस लम्हें को... तुम्हारी हँसी से गूँजता खिलखिलाता ये लम्हा...

रोज़ हँस दिया करो ना ऐसी हँसी एक बार... भले मेरा मज़ाक बना कर ही सही... दिन बन जाता है मेरा...!


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एक हूक सी उठती है कई दफ़े दिल में... कि तुम्हारा हाथ थाम के और तुम्हारे काँधे पे सर रख के बस बैठी रहूँ कुछ देर... बिन कुछ बोले... तुम्हारा लम्स महसूस करूँ अपनी हथेली में... कि तुम्हारे हाथों की गर्मी मन को बहुत ठंडक पहुँचाती है... जैसे कोई अनदेखी ऊर्जा तुम्हारी हथेलियों से होके मेरे मन तक पहुँच रही हो... ज़िन्दगी की ऊर्जा... तुम से मुझ तक बहती हुई... सारी थकन सारी उदासी चंद पलों ही में कहीं ग़ुम हो जाती है...

टच थेरेपी और क्वांटम टच के बारे में सुना है कभी तुमने... कभी सोचा कैसे एक रोता हुआ बच्चा माँ की गोद में आते ही चुप हो जाता है... आप कितनी भी असफ़ल कोशिश कर चुकें हों उसे चुप करने की पर कैसे माँ के सहलाते ही बच्चे का सुबकना बंद हो जाता है... स्पर्श का ये कैसा बेआवाज़ रिश्ता होता है माँ और बच्चे के बीच...

तुम मेरे लिए माँ का वही स्पर्श हो... !

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चाय - कॉफ़ी पीने का मुझे कभी भी बहुत शौक़ नहीं रहा...मेरे लिए वो सिर्फ़ तुम्हारे साथ समय बिताने का बहाना मात्र हुआ करती थीं...वो लॉन्ग ड्राइव्स... वो बेवजह की बातें... वो बेवजह के किस्से कहानियाँ... वो बेवजह के झगड़े... सब...

जानती हूँ बहुत कीमती है तुम्हारा समय... और मेरे पास बेवजह की बातें बहुत सी... फिर भी मेरे सारे प्यार के बदले क्या एक दिन उधार दे सकते हो मुझे ? सिर्फ़ चौबीस घंटे...

बहुत समय हो गया ज़िन्दगी जिये... बड़ी सारी बेवजह की बातें भी इकट्ठी हो गयी हैं...!


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कभी किसी को एक ही सी इंटेंसिटी से पसंद और नापसंद किया है ? नहीं ? मतलब कभी किसी से प्यार नहीं किया आपने... किसी से प्यार कर के देखिये हुज़ूर... सच्चा प्यार... उसकी अच्छाइयों पे जितना प्यार आएगा उसकी बुराइयों से आप उतनी ही नफ़रत करेंगे... प्यार जितना सच्चा होगा नफ़रत उतनी ही तीव्र...

अजीब रिश्ता था उन दोनों का... पल में तोला पल में माशा जैसा... एक पल एक दूसरे पे इतना प्यार बरसाते मानो इस धरती पर प्यार की नीव उन्हीं ने डाली हो और दूसरे ही पल ऐसे पागलों के जैसे लड़ते गोया इस धरती से प्यार का अंत भी उन्हीं के हाथों लिखा हो... शब्दों के तीर से कभी ज़ख्म देते तो कभी उन्हीं ज़ख्मों पर शहद जैसे शब्दों से मरहम लगते... दर्द भी ख़ुद ही, ख़ुद ही दवा भी... जाने किस दुनिया के बंदे थे...

हमारा रिश्ता भी तो कुछ ऐसा ही अजीब है ना जान... इंटेंस... इन्सेशियेबल... इनसेन...!





Monday, September 2, 2013

तेरा ज़िक्र है या इत्र है...


तुम्हारा वजूद मेरे चारों ओर बिखरा हुआ है… कुछ भी करती हूँ तो जाने कहाँ से तुम चले आते हो… पेड़ों को पानी दे रही होती हूँ तो तुम पानी का पाइप छीन कर मुझे भिगो देते हो… खाना बना रही होती हूँ तो आ कर पीछे से जकड़ लेते हो बाहों में... कोई गाना सुन रही होती हूँ तो उसमें भी किरदार की जगह तुम ले लेते हो… कोई इमेज सर्च करती हूँ गूगल पे तो तुम्हारी यादें घेर लेती हैं आ के… तुमसे मिलने के बाद आज तक कभी अकेले चाय-कॉफ़ी नहीं पी पायी हूँ… कप से पहला सिप हमेशा तुम लेते हो…

पीले गुलाब की ख़ुशबू... पूरनमासी का चाँद... झील... पहाड़... झरने... जंगल... बर्फ़... पानी... रेत... सागर… क्या क्या भूलूँ मैं और कैसे भूलूँ... साँस लेना भूल सकता है क्या कोई ?

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जानते हो जब भी तैयार होकर आईने के सामने खड़ी होती हूँ तो "मैं" "तुम" में तब्दील हो जाती हूँ... ख़ुद को तुम्हारी नज़र से देखती हूँ... खूबसूरत हो जाती हूँ… ख़ुद पर ही रीझती हूँ... ख़ुश होती हूँ... मुस्कुरा उठती हूँ...

वो देखा होगा न पिक्चरों में… कैसे एक इंसान के अन्दर दो आत्माएं रहती हैं... एक सफ़ेद और एक काली… एक अच्छी एक बुरी… एक सही एक ग़लत… मेरे अन्दर भी दो लोग रहते हैं… "तुम" और "मैं"… अच्छे वाले "तुम" और बुरी वाली "मैं"…

सुना है अंत में जीत हमेशा अच्छाई की होती है…

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मैं रोती हूँ तो आँसू बन कर तुम गालों पे ढुलगते हो… हँसती हूँ तो होठों पर मुस्कराहट बन तुम महकते हो… दिल धड़कता है कि इसमें तुम रहते हो… साँसे चलती हैं कि उन्हें पता है दूर कहीं तुम साँस ले रहे हो… अपनी ज़िन्दगी में ख़ुश हो… आगे बढ़ चुके हो…

तुमने बहुत देर कर दी जान… बस दो कदम पहले बता देते मुझे तो मैं संभाल लेती ख़ुद को… पर अब तुम इस क़दर आत्मसात हो चुके हो मुझमें कि तुमसे दूरी बना पाना बहुत मुश्किल हो रहा है… हर पल तुम्हें ही सोचते रहने के बाद ये दिखाना कि तुम्हें अब पहले की तरह नहीं याद करती… कि पहले के जैसे महसूस नहीं करती तुम्हारे बारे में… कि मैं ख़ुश हूँ… कि मन को किसी और काम में उलझा लिया है…

तुमसे झूठ भी तो नहीं बोल सकती… लड़ सकती हूँ… सो लड़ रही हूँ…  तुमसे…  ख़ुद से… ज़िन्दगी से…

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कब क्यूँ कहाँ कैसे किसलिए… सवालों की फ़हरिस्त लम्बी है… जवाब बस इतना भर कि ज़िन्दगी है… और तुम्हें सज़ा मिली है जीने की… "यू हैव टू लिव टिल डेथ" दूर कहीं ये कह के कलम तोड़ दिया किसी ने…

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कभी कभी सोचती हूँ मीरा के बारे मे… अजीब दीवानी थी… बिलकुल नॉन-प्रैक्टिकल… कोई ऐसे किसी के प्यार में अपना घर-द्वार सारा सँसार भूल बैठता है क्या… सिर्फ़ उसका नाम लेकर ज़हर का प्याला पी लेना कोई समझदारी है क्या… वो न समझता उसके प्यार को तो… मर जाती तो… उसे फ़र्क पड़ता क्या…

कभी मैं पी लूँ ज़हर तुम्हारे प्यार में तो… तुम आओगे क्या बचाने ?


Thursday, August 15, 2013

प्यार जब हद से बढ़ा सारे तकल्लुफ़ मिट गये...!


प्यार जब हद से बढ़ा सारे तकल्लुफ़ मिट गये
आप से फिर तुम हुए फिर तू का उन्वां हो गये


मेहदी हसन साहब ने अपनी रेशमी आवाज़ में ये गाते हुए बेहद गहरी सोच में डाल दिया... क्या यूँ सारे तकल्लुफ़ मिट जाना सही है... क्या थोड़ा तकल्लुफ़, थोड़ी मासूमियत रिश्तों को ज़्यादा खूबसूरत नहीं बनाए रखती ?

किसी भी रिश्ते में दो लोगों कि सोच एक हो ये ज़रूरी नहीं... वो दोनों ही दो अलग व्यक्तित्व होते हैं... अलग सोच अलग शख्सियत के लोग... यही उनकी विशेषता भी होती है और उनका यूँ अलग हो कर भी साथ होना उस रिश्ते की खूबसूरती भी...

एक रिश्ते की शुरुआत में आप अपने साथी कि सारी अच्छी बुरी आदतों को अपनाते हैं... बिना किसी शिकायत... या किसी बात से शिकायत हुई भी तो या तो नज़रंदाज़ कर दिया या प्यार से समझा के चीज़ों को सुलझा लिया... इस बात को ध्यान में रखते हुए कि सामने वाले को बुरा न लगे... फिर जैसे जैसे समय बीतता है आपका रिश्ता परिपक्व होता है... आपसी समझ और नज़दीकी बढ़ती है... और उसके साथ ही वो सारे तकल्लुफ़ भी खत्म होते जाते हैं जो कभी अपने साथी की ख़ुशी के लिये तो कभी उसे "स्पेशल" फील कराने के लिये किये जाते थे...

अब जो भी कहना होता है स्पष्ट, सपाट और साफ़ शब्दों में कहा जाता है... बिना किसी लाग लपेट के... बिना इस बात की फ़िक्र किये कि सामने वाले को शायद इतनी साफ़गोई बुरी भी लग सकती है...

सच बोलने में कोई बुराई नहीं है... किसी भी रिश्ते की नीव ही सच्चाई पे ही टिकी होती है... एक रिश्ते की खूबसूरती ही इसी में है कि आप अपने साथी से कुछ भी और सब कुछ बोल सकते है... हाँ, अगर इस तरह से कहा जाये कि सामने वाले को बुरा न लगे तो क्या ही अच्छा हो...

यूँ  तो समय के साथ रिश्तों में परिपक्वता आना सही भी है और ज़रूरी भी... पर प्रश्न ये है कि किस हद तक... क्या रिश्ते परिपक्व होते हैं तो सामने वाले के लिये आपकी चाह आपकी परवाह कम हो जाती है ? नहीं न... तो फिर उसकी ख़ुशी के लिये अगर कभी उसके मन की ही कर ली जाये तो उसमें क्या हर्ज़ है... ऐसा नहीं करेंगे तो भी वो आपको छोड़ कर नहीं चला जायेगा... वो भी उतना ही समझदार है जितने कि आप... उसे आपकी नियत पर कोई शुबा नहीं है... पर उसे ज़रा सी ख़ुशी दे कर आपका भी तो कुछ नहीं घटेगा...

बात दरअसल यहाँ परिपक्वता की है ही नहीं... शायद इतनी आदत हो जाती है हमें एक दूसरे की... हमारे हक़ का दायरा इतना बढ़ जाता है कि हम सख्त होते चले जाते है... हमारा वो कोमल, सौम्य, नर्म रूप कहीं खो सा जाता है... भावनायें वही हैं अब भी... बस उनकी अभिव्यक्ति या तो कम हो जाती है या उसका तरीका बिलकुल बादल जाता है... तकल्लुफ़ और मासूमियत से एकदम परे...

रिश्तों की खूबसूरती न बचा पाये ऐसी परिपक्वता फिर किस काम की...!

P.S. : ये अभी अभी दिल और दिमाग की उथल पुथल से निकला एक निष्कर्ष मात्र है... आप हमसे असहमत होने का पूरा हक़ रखते हैं...

Thursday, May 30, 2013

मिलेगी छाँव तो बस कहीं धूप में मिलेगी...!


एक दोस्त हमेशा कहता है, शायद मज़ाक में... सच बोलते हुए इंसान बहुत ख़ूबसूरत हो जाता है... पर महसूस करो तो उसकी बात सौ फ़ीसदी सही है... सच बोलते हुए या सच स्वीकारते हुए आप हमेशा ख़ूबसूरत महसूस करते हैं ख़ुद को... एक आभा आ जाती है चेहरे पर... शायद मन का सुकूं चेहरे पे झलक आता होगा... आज बहुत समय बाद अच्छा सा महसूस हो रहा है... ख़ुद से सच बोल के... मन बहुत हल्का सा लग रहा है...

हम अक्सर अपने रिश्तों को मुट्ठी में कस के पकड़ने की कोशिश करते हैं... भूल जाते हैं रिश्ते बहता पानी होते हैं... जितनी कस के पकड़ने की कोशिश करेंगे वो उतनी ही तेज़ी से हमारी मुट्ठी से बह जायेगा... छोड़ जायेगा बस बीते लम्हों की कसक लिए एक नम सी हथेली.. और आज़ाद छोड़ दो तो चाहे कितनी भी रुकावटें हो रास्ते में वो अपनी राह तलाशते हुए... अपनी जगह बनाते हुए... अविरल बहता हुआ आ मिलेगा अपनी बिछड़ी धारा से...

जैसे एक फूल को सिर्फ़ छाया में रख के खिला नहीं सकते आप... उसे अपने हिस्से की धूप भी ज़रूर चाहिए होती है... ठीक उसी तरह एक रिश्ते को भी हर वक़्त आप ज़िन्दगी और परिस्थितियों की धूप से बचाए नहीं रख सकते... उसे इस धूप में जलना होता है और इसमें तप के ही कुंदन बनना होता है... बहुत ज़्यादा पानी और छाया में पेड़ की जड़ें गल जाती हैं.. पेड़ पनप नहीं पाता... और बहुत ज़्यादा मीठे फल में कीड़े पड़ जाते हैं... कहने के मायने बस इतने की अति हर चीज़ की बुरी होती है.. भले ही वो अच्छी चीज़ हो या अच्छे के लिए हो...

पौ फूटने से पहले अँधेरा सबसे गहरा होता है... बेहद डरावना और उदास... ऐसी स्याह तारीकी जो सब कुछ ख़ुद में छुपा ले, जज़्ब कर ले... पर सूरज की पहली किरण जब उसे चीरती हुई धरती पे पड़ती है तो चिड़ियाँ  चहक उठती हैं... फूल खिल जाते हैं... धरती पर एक बार फिर जीवन शुरू हो जाता है...

अँधेरा छंट चुका है... दिन एक बार फिर निकल आया है... 

आज अपने रिश्ते को सारे बन्धनों से मुक्त कर दिया है मैंने... उसे खुली हवा में फिर से साँस लेने की आज़ादी दे दी है... उसे पनपने और मज़बूत होने की जगह दी है... बस अब इसे प्यार की हलकी बौछार से सींचना है... आस पास उग आये घास पतवार को हटाना है और उसे एक बार फिर से ख़ूबसूरत बनाना है...

बोलो दोगे मेरा साथ ?


मैं छाँव छाँव चला था अपना बदन बचा कर

कि रूह को एक ख़ूबसूरत सा जिस्म दे दूँ
न कोई सिलवट, न दाग़ कोई
न धूप झुलसे, न चोट खाये
न ज़ख़्म छुए, न दर्द पहुँचे
बस एक कोरी कुँवारी सुबह का जिस्म पहना दूँ रूह को मैं

मगर तपी जब दोपहर दर्दों की,
दर्द की धूप से जो गुज़रा
तो रूह को छाँव मिल गयी है

अजीब है दर्द और तस्कीं का साँझा रिश्ता
मिलेगी छाँव तो बस कहीं धूप में मिलेगी

-- गुलज़ार

Thursday, April 18, 2013

पिओनी और इनूरी के देस में...




नीले पॉपी के बगल से होकर
वो जो अलसायी सी पगडण्डी मुड़ती है न
ठीक उसी पर आगे बढ़ना
मील भर के फासले पर
आबशारों की इक टोली मिलेगी
सुना है पूरनमासी की रात
आसमां से परियाँ आती हैं वहाँ

थोड़ा आगे बढ़ने पर
शफ्फाक़ बर्फ़ का जज़ीरा मिलेगा
न न उसके रंग पर मत जाना
दिल का बड़ा पाजी है !
संभल संभल के चलना उस पर
ज़रा सा कोई फिसला गया तो
मुआं खिलखिला के हंस पड़ता है

वहां से कुछ ही दूर पर
अलसाई सी पीली पिओनी का झुण्ड
हरी घास पर धूप सेंकता मिलेगा
बस वहीं से दायें मुड़ना
संभल कर… आगे ढलान है
सामने रुई के फ़ाहे सा नर्म
बादलों का इक दरिया होगा

जानती हूँ, दिल करेगा
उस मखमली दरिया में
पैर डाल के बैठो कुछ देर
रस्ते की कुछ थकन उतारो
पर वो मायाजाल है
उसमें फँसना मत... आगे बढ़ना

ज़रा ध्यान से सुनोगे तो
पास बहती नदी की शरारत सुनाई देगी
उसकी अठखेलियों से लजाये
कुछ गुलाबी फूलों की कतारें
नदी के किनारे दूर तक फैली होंगी
तुम भी उनकी ऊँगली थाम बढ़ते आना

आगे लाल और सफ़ेद फूलों की
इक बस्ती मिलेगी
आजकल कुछ नाज़ुक नारंगी
मेहमां भी आये हैं उनके देस
आदतन सब के सब बैठे
गप्पें मार रहे होंगे देवदार तले
या फिर भँवरे और तितली का
वाल्ट्ज देखते होंगे !

उनसे मिल के आगे बढ़ोगे तो
ओस में भीगी सकुचाई सी इक
जामुनी इनूरी मिलेगी
पीले गुलाब की दीवानी है
पर वो निरा जंगली ठहरा
अब तक उसका मन न समझा !

आगे रास्ता थोड़ा संकरा है
थोड़ा सा पथरीला भी
कोहरे के धुंधलके में
परिन्दों की आवाज़ का पीछा करते
जुगनुओं से कुछ नूर उधार ले कर
अपनी राह तलाशते, ये सफ़र अब
तुम्हें ख़ुद तय करना होगा

कुदरत की इस नायाब पेंटिंग में
जहाँ सूरज अपनी सारी लाली
घाटी के नर्म गालों पर मल कर
उसकी आग़ोश में जज़्ब हो जाता है
पहाड़ी के उस अंतिम छोर पर
मैं मिलूँगी
धरती की इस जन्नत में
तुम्हारा इंतज़ार करती !

-- ऋचा 


* पॉपी, पिओनी, इनूरी - फूलों की घाटी में खिलने वाले ३०० फूलों में से तीन फूलों के नाम !

Thursday, April 4, 2013

उस मोड़ से शुरू करें फिर ये ज़िन्दगी...



Your Cheerful Looks Makes Day A Delight ! आज पलट के बीते सालों पे नज़र डालती हूँ तो यकीन नहीं होता... ये उसी लड़की के लिए कहा गया था कभी जो आज अपनों के लिए दुःख और उदासी का कारण बनी हुई है...

ये टाइटल ऐसे ही नहीं दिया गया था उसे क्लास ट्वेल्फ्थ की फेयरवेल पार्टी में... उसकी खुशमिज़ाजी ने उसे स्कूल कॉलेज, यार दोस्तों के बीच एक अलग पहचान दी हुई थी... बड़ी से बड़ी परेशानी में भी हमेशा ख़ुश और हँसती रहने वाली लड़की... वो कभी हर महफिल की जान हुआ करती थी जो आज ख़ुद से भी इतना कटी कटी रहती है... ख़ुद से ही नाराज़... कब वो इतना बदल गयी... उसकी वो हँसी कहाँ गायब हो गयी उसे भी कहाँ पता चला था...

बहुत चिड़चिड़ी हो गई थी वो... बात बात पे गुस्सा करने लगी थी... नाराज़ रहने लगी थी... लोग अक्सर उससे शिकायत करने लगे थे उसके स्वभाव को ले कर... पर जो लोग उसे अभी-अभी मिले थे वो उसे जानते ही कितना थे... वो हर किसी की शिकायत सुनती और चिढ़ जाती... एक अजीब सी खीझ भरती जा रही थी उसके मन में सबके प्रति... एक बेहद गहरी ख़ामोशी उसे घेरती जा रही थी जो सिर्फ़ उसे महसूस होती थी... वो ऐसी नहीं थी... वो ऐसी होना नहीं चाहती थी...

आज इतने सालों बाद जब ख़ुद को आईने में देखा तो पहचान नहीं सकी... ज़िन्दगी जाने कब उसका हाथ छुड़ा कर आगे बढ़ गयी... वो पीछे छूट गयी... बहुत पीछे... तन्हा... अकेली... किसी अनजाने से मोड़ पे... उसे बिलकुल भी समझ नहीं आ रहा था की वो अब क्या करे… ज़िन्दगी के सफ़र पर यूँ राह भटक जाना तकलीफ़देह होता है... पर ज़िदगी जीने की वजह का खो जाना... नृशंस !

जैसे कुछ टूट गया था उसके अन्दर... कुछ तो था जो मरता जा रहा था धीरे धीरे भीतर ही भीतर... एहसास सुन्न हो गए थे... दिमाग की सारी नसें जैसे सूज गयी थीं... सर दर्द से फटा जा रहा था... वो रोना चाहती थी... चीखना चाहती थी... शायद कुछ दर्द बह जाए आँसुओं के साथ तो जी थोड़ा हल्का हो... पर उसके एक दोस्त ने कभी उससे कहा था कि रोते तो कमज़ोर लोग हैं... उसका दिल हुआ वो आज पूछे उस दोस्त से... कभी कभी कमज़ोर पड़ जाना क्या इतना बुरा है... क्या ताक़तवर लोगों को तकलीफ़ नहीं होती कभी ?

उसकी ज़िन्दगी के सफ़र में बहुत से लोग आये... कहने को दोस्त पर कोई भी उसके साथ ज़्यादा दूर तक नहीं चला... हर रिश्ता उसे हमेशा टुकड़ों ही में मिला... कभी लोग उसके नज़दीक आये, कभी उसने लोगों को ख़ुद के नज़दीक आने का मौका दिया... पर अंत में ये उसकी अपनी ज़िन्दगी थी, उसका अपना सफ़र जो उसे अकेले ही तय करना था...

आज वो उदास है... बहुत उदास... इसलिए नहीं की वो अकेली पड़ गयी है... बल्कि इसलिए की उसने ख़ुद को कहीं खो दिया है... वो अब वो रह ही नहीं गयी है जो वो कभी हुआ करती थी... आज उस अनजान से मोड़ पे अकेली खड़ी वो ख़ुद को फिर से तलाशने की जद्दोजहद कर रही है... वो हताश है, निराश है, शायद थोड़ा डरी हुई भी... पर ज़िन्दगी आपके ख़्वाबों सी हसीन और आसान कब होती है... ख़ुशियों का सूरज हमेशा तो नहीं खिला रहता... ज़िन्दगी में कभी रात भी आती है… और रात के अँधियारे में ही तारे टिमटिमाया करते हैं... उसे भरोसा है ऐसा ही कोई तारा उसे भी मिलेगा... जो ख़ुद को वापस पाने की उसकी राह को रौशन करेगा...



Saturday, October 13, 2012

आजा तेरे कोहरे में धूप बन के खो जाऊँ... तेरे भेस तेरे ही रूप जैसी हो जाऊँ !



मौसम ने फिर करवट ली है... सर्दी की ख़ुश्बू एक बार फिर फिज़ा में घुलती हुई सी महसूस होने लगी है... ठीक वैसे ही जैसे तुम्हारी ख़ुश्बू घुली हुई है मेरी साँसों में... कल ऑफिस से वापस आते वक़्त हवा में ठंडक थी... तुम्हें सोचते हुए जाने कब रास्ता कट गया तुम्हारे एहसास की गर्मी ने कितनी राहत पहुँचायी सारे रास्ते...

कितने दिन हो गए कुछ लिखा नहीं... आज दिल किया कुछ लिखूँ तो तुम्हारे सिवा और तुमसे बेहतर कोई दूसरा मौज़ू ही नहीं मिला... गोया मेरी लेखनी को भी प्यार हो गया है तुमसे...

तुमसे बात करना हमेशा ही दिल को एक सुकून दे जाता है... दुनिया भर की परेशानियों के बीच दो पल तुम्हारी आवाज़ रूह को ऐसे ठंडक पहुंचती है जैसे पसीने से भीगे बदन पर ठंडी हवा का झोंका... सारा तनाव सारी परेशानियाँ सब चंद लम्हों में ही काफ़ूर हो जाते हैं... सारे दिन की थकन के बाद तुमसे बात होती है तो यूँ लगता है मानो हर की पौड़ी पर बैठ कर संध्या आरती देख रहे हों... गंगा के ठन्डे पानी में पैर डाल के... तृप्ति !

जाने तुम्हारी आवाज़ का जादू है या तुम्हारे साथ का, पर कुछ तो ज़रूर है... कभी कभी तो जी करता है तुम्हें बिना बताये तुम्हारी आवाज़ का एक टुकड़ा चुरा कर रख लूँ अपने पास और फ़ुर्सत में उससे खूब सारी बातें किया करूँ...

जानते हो तीन दिन पहले एक सपना देखा था... हम साथ काम कर रहे थे एक ही ऑफिस में, एक ही बिल्डिंग में... पर तुम इस कदर मसरूफ़ थे कि एक पल के लिए बात करने का भी समय नहीं था... हम बस एक दूसरे को देख भर पा रहे थे... फिर सब काम छोड़ कर अचानक तुम मेरे पास आये... बोला कुछ भी नहीं बस मेरा हाथ पकड़ा था... तुम्हारा वो स्पर्श बिन कुछ बोले भी कितना कुछ कह गया था... उस एक स्पर्श में सहानुभूति थी, संवेदना थी, करुणा थी, समय न दे पाने की तकलीफ़ थी और सबसे बढ़ कर बेहद गहरा प्यार था... तीन दिन बाद भी सपने में महसूस किया वो तुम्हारे हाथों का स्पर्श अब भी अंकित है मन के पन्नों पर...

तुम ज़्यादा बोलते नहीं... तुम्हारे होंठ अक्सर ख़ामोश रहते हैं... पर तुम्हारी आँखें बेहद बातूनी हैं... जाने किस भाषा में बातें करती हैं मेरी आँखों से कि सीधे दिल तक पहुँचती है उनकी आवाज़... बहुत से ऐसे एहसास हैं जिन्हें महसूस तो किया है तुम्हारी आँखों के ज़रिये पर शब्दों में उनका तर्जुमा करना मुमकिन नहीं है... कहाँ से सीखी ये भाषा ? सीधे दिल पे दस्तक देने वाली !

जानते हो पहला अक्षर और पहली भाषा कैसे बने ? और संगीत का पहला सुर ? नहीं जानते ? आओ आज बताती हूँ तुम्हें...

आदि रचना
मैं - एक निराकार मैं थी

ये मैं का संकल्प था
जो पानी का रूप बना
और तू का संकल्प था
जो आग की तरह नुमाया हुआ
और आग का जलवा
पानी पर चलने लगा
पर वो परा-ऐतिहासिक समय की बात है

ये मैं की मिट्टी की प्यास थी
कि उसने तू का दरिया पी लिया
ये मैं की मिट्टी का हरा सपना था
कि उसने तू का जंगल खोज लिया
ये मैं की मिट्टी की गंध थी
और तू के अम्बर का इश्क़ था
कि तू का नीला सा सपना
मिट्टी की सेज पर सोया
ये तेरे और मेरे मांस की सुगंध थी
और यही हक़ीक़त की आदि रचना थी

संसार की रचना तो बहुत बाद की बात है !

आदि पुस्तक
मैं थी और शायद तू भी
शायद एक सांस के फासले पे खड़ा
शायद एक नज़र के अँधेरे पे बैठा
शायद एहसास के मोड़ पे चल रहा
पर वो परा-ऐतिहासिक समय की बात है

ये मेरा और तेरा अस्तित्व था
जो दुनिया की आदि भाषा बना
मैं की पहचान के अक्षर बने
तू की पहचान के अक्षर बने
और उन्होंने आदि भाषा की आदि पुस्तक लिखी

ये मेरा और तेरा मिलन था
हम पत्थर की सेज पर सोये
और आँखें, होंठ, उँगलियाँ, पोर
ये मेरे और तेरे बदन के अक्षर बने
और उन्होंने आदि पुस्तक का अनुवाद किया

ऋगवेद की रचना तो बहुत बाद की बात है !

आदि चित्र
मैं थी और शायद तू भी
मैं छाँव के भीतर थिरकती सी छाया
और तू भी शायद एक खाकी सा साया
अंधेरों के भीतर अंधरों के टुकड़े
पर वो परा-ऐतिहासिक समय की बात है

रातों और पेड़ों का अँधेरा था
जो तेरी और मेरी पोशाक थी
एक सूरज कि किरण आयी
वो दोनों के बदन में से गुज़री
और परे एक पत्थर पर अंकित हो गयी
सिर्फ़ अंगों की गोलाई थी,
चाँदनी की नोकें
ये दुनिया का आदि चित्र था
पत्तों ने हरा रँग भरा
बादलों ने दूधिया, अम्बर ने सिलेटी
और फूलों ने लाल, पीला, कासनी

चित्रों की कला तो बहुत बाद की बात है !

आदि संगीत
मैं थी और शायद तू भी
एक असीम खामोशी थी
जो सूखे पतों कि तरह झड़ती
या यूँ ही किनारों की रेत कि तरह घुलती
पर वो परा-ऐतिहासिक समय की बात है

मैं ने तुझे एक मोड़ पर आवाज़ दी
और जब तू ने पलट कर आवाज़ दी
तो हवाओं के गले में कुछ थरथराया
मिट्टी के कान कुछ सरसराये
और नदी का पानी कुछ गुनगुनाया
पेड़ की टहनियाँ कुछ कस सी गयीं
पत्तों में एक झंकार उठी
फूलों की कोपल ने आँख झपकाई
और एक चिड़िया के पंख हिले
ये पहला नाद था
जो कानों ने सुना था

सप्त सुरों की संज्ञा तो बहुत बाद की बात है !

आदि धर्म
मैं ने जब तू को पहना
तो दोनों के बदन अंतर्ध्यान थे
अंग फूलों की तरह गूंथे गये
और रूह की दरगाह पर अर्पित हो गये

तू और मैं हवन की अग्नि
तू और मैं सुगन्धित सामग्री
एक दूसरे का नाम होंठों से निकला
तो वही नाम पूजा के मन्त्र थे
ये तेरे और मेरे अस्तित्व का एक यज्ञ था

धर्म की कथा तो बहुत बाद की बात है !

आदि क़बीला
मैं की जब रुत गदराई थी
मांस के पौधे पर बौर आया था
पवन के आँचल में महक बंध गयी
तू का अक्षर लहलहाया था

मैं और तू की छाँव में
जहाँ "वह" आ कर निश्चिन्त सो गया
ये "वह" का एक मोह था
गेंहूँ का दाना हमने बाँट लिया
"वह" सहज था, स्वाभाविक था
मैं की और तू की तृप्ति

क़बीलों की कथा तो बहुत बाद की बात है !

आदि स्मृति
काया की हकीक़त से लेकर
काया की आबरू तक मैं थी
काया के हुस्न से लेकर
काया के इश्क़ तक तू था

यह मैं अक्षर का इल्म था
जिसने मैं को इख्लाक़ दिया
यह तू अक्षर का जश्न था
जिसने "वह" को पहचान लिया
भयमुक्त मैं की हस्ती
और भयमुक्त तू की, "वह" की

मनु स्मृति तो बहुत बाद की बात है !

-- अमृता प्रीतम

Wednesday, July 11, 2012

सूना पड़ा है तेरी आवाज़ का सिरा...



हमारे बीच मीलों लम्बी दूरी थी... हम एक दूसरे को देख नहीं सकते थे... बस सुन सकते थे... एक पुल था हमारे दरमियाँ... लफ़्जों का... जिसके एक सिरे पर तुम थे और दूसरे सिरे पर मैं... तुम्हारी आवाज़ को ही एक शक्ल दे दी थी मैंने... तुमने भी शायद वही किया हो... जब पहली बार सुना था तुम्हें... तो लगा था जैसे मेरी ही आवाज़ की परछाईं है... जैसे किसी पहाड़ी पर चढ़ कर आवाज़ लगाई हो और ख़ुद अपनी ही आवाज़ का अनुनाद सुनाई दिया हो...

हम रोज़ उस पुल पे जाते... जाने कब, बिना कुछ कहे, हमने एक वक़्त तय कर लिया था मिलने का... सूरज उगने का अब बेसब्री से इंतज़ार रहने लगा... सुबह के पहले पहर ही हम उस पुल पर जा बैठते... मैं अपने सिरे पर रहती और तुम अपने... जाने क्या तो बातें किया करते हम... दुनिया जहान की...पर उन बे-सिर-पैर की बातों में भी कितना नशा था... हमें होश ही नहीं रहता की कब सुबह से शाम हुई... लगता सूरज अभी तो उगा था... अभी डूब भी गया... हम पुल से लौट आते पर अगली सुबह फिर वापस आने के लिये...

मीलों की दूरी को उस पुल ने बेमानी कर दिया था... हमारे बीच आवाजों का सफ़र सालों यूँ ही चलता रहा... फिर एक दिन वो सफ़र थम गया... तुम नहीं आये... मैं रोज़ की तरह अपने सिरे पर बैठी सारा दिन इंतज़ार करती रही... वो दिन कितना लम्बा था... लगा जैसे सूरज भी तुम्हारे इंतज़ार में डूबना भूल गया हो... फिर हर गुज़रते दिन के साथ समय का ये चक्र गड़बड़ाता ही गया... सुबहें अब सूरज के साथ नहीं आती थीं... कभी दिन के तीसरे पहर तो कभी चौथे पहर आतीं... और कभी कभी तो जैसे सुबह आना भूल ही जाती, बस रात ही आती... तन्हा, गुमसुम...

इंतज़ार बोझिल हो चला है... बातों का वो कल-कल बहता झरना अब सूख गया है... लफ़्जों का पुल धीरे धीरे कमज़ोर पड़ने लगा है... आवाजों की शक्लें भी धुंधली हो गई हैं... मुझे कुछ नहीं दिखता... मेरी आवाज़ भी शायद अब नहीं पहुँचती तुम तक... तुम्हें सुनाई देती है? मेरी आवाज़ अब मुझ तक लौट कर नहीं आती... तुम्हारे सिरे पर कोई ब्लैक होल उग आया है क्या ?

मैं अब भी आती हूँ उस कमज़ोर हो चले पुल पर... हर रोज़... तुम्हारी आवाज़ का एक कतरा ढूंढ़ते... पुल से नीचे झाँकती हूँ तो बेहद गहरी खाई है निर्वात की... सामने देखती हूँ... तुम नहीं दिखते... हमारे बीच फिर मीलों लम्बी दूरी है...  इस धुँध के परे कोई भी आवाज़ नहीं है... मैं अब भी इंतज़ार करती हूँ... तुम आओगे क्या कभी... फिर मेरी आवाज़ का हाथ थामने ?


शब्दों का एक चक्रवात सा उठता है
हर रोज़, मेरे भीतर कहीं
बहुत कुछ जो बस कह देना चाहती हूँ
कि शान्त हो सके ये तूफ़ान

जाने पहचाने चेहरों की इस भीड़ में लेकिन
एक भी ऐसा कांधा नहीं
जो मेरी आवाज़ को सहारा दे सके
कि निकल सके बेबसी का ग़ुबार

उमस बढ़ती है अंतस की
तो शोर वाष्पित हो आँखों तक जा पहुँचता है
बहरा करती आवाज़ में गरजती है घुटन
बारिशें भी अब नमकीन हो चली हैं

आवाज़ की चुभन महसूस करी है कभी ?
या ख़ामोशी की चीख ?
भीतर ही भीतर जैसे छिल जाती हैं साँसें
कराहती साँसों की आवाज़ सुनी है ?

कभी रोते हुए किसी से इल्तेजा की है ?
कि बस चंद लम्हें ठहर जाओ मेरे पास
सुन लो मुझे दो पल
कि मैं शान्त करना चाहती हूँ ये बवंडर

कि मैं सोना चाहती हूँ आज रात
जी भर के...!

-- ऋचा

Thursday, July 5, 2012

तुम बिन आवे न चैन... रे साँवरिया...!



- मैं क्यों उसको फ़ोन करूँ ! उसे भी तो इल्म  होगा कल शब मौसम की पहली बारिश थी

- ये क्या बड़बड़ा रही हो ?

- तुम्हें क्या ?

- अरे बताओ तो...

- नहीं बताना... बातचीत बंद है तुमसे...

- ठीक है मत बताओ फिर...

- हाँ तो कहाँ बता रहे हैं... वैसे भी तुम्हें क्या फ़र्क पड़ता है हम बोलें या न बोलें...

- सो तो है :)

- ह्म्म्म... जाओ फिर काम करो अपना... क्यूँ बेकार में टाइम वेस्ट कर रहे हो...

- अच्छा... जाता हूँ... बाय...... बाय....... अब बाय का जवाब तो दे दो...

- क्यूँ... नहीं देंगे जवाब तो क्या नहीं जाओगे ?

- नहीं जाऊँगा तो तब भी... पर जवाब दे दोगी तो खुश हो के जाऊँगा... काम करने में मन लगेगा...

- ह्म्म्म... तुम्हें फिक्र है क्या हमारी ख़ुशी की... हम क्यूँ करें फिर...

- जाऊं फिर ?

- तुम्हारी मर्ज़ी...

- सच में जाऊं ?

- बोला न... तुम्हरी मर्ज़ी... मेरी मर्ज़ी का वैसे भी कब करते हो...

- हम्म... जा रहा हूँ फिर... बाय...

- रुको... वो मैकरोनी और कॉफी जो बनायी है उसका क्या होगा ? खा के जाओ...

- :)

- हँसो मत... रोक नहीं रहे हैं... खा के चले जाना... हमने भी नहीं खायी है अभी तक... बड़े मन से बनायी थी...

- :):):)

- बुरे हो सच में... बहुत बुरे... रोज़ लड़ते हो... रोज़ रुलाते हो... बुरा नहीं लगता तुम्हें...

- नहीं... मज़ा आता है तुम्हें गुस्सा दिलाने में... रुलाने में... :)

- हम्म... अच्छा सुनो... ये झगड़ा बरसात भर के लिये पोस्टपोन कर देते हैं... बारिशें तुम्हारे बिना बिलकुल अच्छी नहीं लगतीं...

- :)

- :)

- अच्छा अब तो बता दो... वो सब क्या था? वो पहली बारिश.. फ़ोन.. इल्म.. ???

- कुछ नहीं... बहुत बहुत बुरे हो तुम :):):)

- अरे बताओ तो...

- क्यूँ बतायें...

- ..........

- ..........



Tuesday, July 3, 2012

मेटामॉर्फसिस !



तुम्हारा भरोसा देता है मुझे पंख
और मैं तब्दील हो जाती हूँ
एक नन्ही सी चिड़िया में
सारा साहस समेट कर
भरती हूँ उड़ान, तो लगता है
आस्मां भी कुछ नीचे आ गया है

तुम्हारा भरोसा भर देता है मुझे
विश्वास से
उग आते हैं मेरे डैने
और मैं बन जाती हूँ नन्ही सी मछली
जो तमाम व्हेल मछलियों से बचते हुए
पार कर सकती है प्रशांत महासागर भी

तुम्हारा प्यार कर देता है लबरेज़ मुझे
ख़ुश्बू से
ख़िल जाती हैं नई कोपलें
नर्म पंखुड़ियों सी महक उठती हूँ मैं
गुलज़ार हो जाता है मेरा अस्तित्व
आशाएं तितलियाँ बन मंडराने लगती हैं

तुम रखते हो हाथ मेरी पलकों पे
तो भर जाता है रंग मेरे सपनों में
तुम्हारा भरोसा मेरे सपनों के साथ मिल
शिराओं में दौड़ते रक्त को
कर देता है कुछ और सुर्ख़
लाली से लबरेज़, खिल उठती हूँ मैं

आँखें कुछ खट्टा खाने को मचल रही हैं इन दिनों
लगता है नींद फिर उम्मीद से है
फिर कोई ख़्वाब जन्म लेने को है !

-- ऋचा



( धुन पियानो पर यिरुमा की - "ड्रीम")

Sunday, June 3, 2012

तुम्हारी यादों का केलाइडोस्कोप !



कल रात तुम्हारी बेशुमार यादें बिखरी पड़ी थीं बिस्तर पर... के जैसे केलाइडोस्कोप में रंग बिखेरते काँच के छोटे-छोटे रंग-बिरंगे टुकड़े... जिस ओर भी करवट लेती तुम्हारी याद का एक टुकड़ा खिलखिला के बिखर जाता मेरे आस पास... और मैं मुस्कुराती हुई हाथ बढ़ा के जैसे ही छूने को होती उसे तो दूसरी याद आ के पहली वाली का हाथ पकड़ के भाग जाती... तुम्हारी यादें भी ना बिलकुल तुम्हारी तरह ही हैं... बहुत तंग करती हैं मुझे... दुष्ट... शरीर... पर बेहद प्यारी... किसी छोटे बच्चे कि शरारतों जैसी...

ये यादें भी ना बड़ी बातूनी होती हैं... तुम हो कि कुछ बोलते नहीं और वो हैं कि चुप नहीं होतीं एक बार शुरू हो जाती हैं तो... ये तुम्हारी यादें बिलकुल मुझ पर गई हैं :) रात के बीते पहर ऐसे घेर के बैठी थीं मुझे कि गर कोई कमरे में आ जाता उस वक़्त तो चचा ग़ालिब की "छुपाये न बने" और "बताये न बने" वाली स्थिति हो जाती :) हँस लो हँस लो... सबका एक दिन आता है... किसी दिन तुमको आ के घेरेंगी मेरी यादें तो हम भी ऐसे ही हँसेंगे... हुंह !

पता है कल रात हमने ढेर सारी बातें करीं... यादों ने और मैंने... तुम्हारी यादें उन तमाम भूली बिसरी गलियों से होते हुए जाने सपनों के कौन से शहर ले गयीं थीं जहाँ बस हम दोनों थे... और चारों तरफ़ पीले रंग के फूल खिले थे... जैसे सूरज से सारी रौशनी चुरा लाये हों... एक अजीब सी मदहोश कर देने वाली गंध बिखरी थी सारी फिज़ा में... बड़ी जानी पहचानी सी लगी थी वो महक... जैसे जन्मों से उसे जानती हूँ... बहुत सोचा तो याद आया वो जब पहली बार तुम्हें गले लगाया था न, वैसी ही महक बिखरी थी फिज़ा में तब भी...

जानते हो आज सुबह सुबह तुम्हें सपने में देखा... तब से मुस्कुराती हुई घूम रही हूँ सारे घर में... गोया कोई खोयी हुई दौलत मिल गई हो... गहरे हरे रंग कि शर्ट में बड़े प्यारे लग रहे थे तुम... आमतौर पर मुझे वो रंग ज़रा भी नहीं भाता पर जब से तुम्हें देखा है उसमें, मेरा फ़ेवरेट हो गया है... बिलकुल वो ही शर्ट ढूंढ़ के लानी है तुम्हारे लिये... जानती हूँ अब बोलोगे "बिलकुल पागल हो तुम"... बोला ना ? और अब हँस रहे हो... पता था मुझे :)

तुम्हारी सबसे बड़ी ख़ासियत पता है क्या है ? कि तुम बेहद आम हो... तुम में हर वो कमी है जो तुम्हें एक ख़ास इन्सान बनाती है... तुम कोई कैसानोवा नहीं हो... इतने ख़ूबसूरत कि जिसे देखते ही लड़कियां पागल हो जाएँ... तुम मेरी ही तरह एकदम साधारण हो... बेहद सौम्य... और इसीलिए मुझे सबसे ज़्यादा पसंद हो... क्यूँकि तुम्हारी ख़ूबसूरती तुम्हारे दिल में बसती है... मेरी आँखों से देखना कभी ख़ुद को... ख़ुद अपने आप पे दिल ना आ जाये तो मेरा नाम बदल देना... वैसे वो तो तुमने पहले ही बदल दिया है... तुम्हारे मुँह से कभी अपना नाम सुनती हूँ तो कितना पराया सा लगता है ये दुनियावी नाम... सुनो, तुम मुझे मेरे नाम से मत पुकारा करो !


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