Monday, August 30, 2010

गुमशुदा...


बहुत परेशाँ हूँ कल से
कितना ढूंढा मिल ही नहीं रही
जाने कहाँ रख के भूल गयी हूँ
कल तुम्हें रुखसत करते वक़्त
दिखी थी आख़री बार
तब से पता नहीं कहाँ खो गयी है
मन के आले पे ही तो रखी थी
उतार कर शायद
पर अब वहाँ नहीं है
कमबख्त! जाने कहाँ गयी
अभी तुम आते होगे
और फिर डांटोगे
"कितनी बार कहा
ये मुस्कराहट हमेशा पहने रहा करो,
तुम मुस्कुराती हुई अच्छी लगती हो..."

-- ऋचा

Wednesday, August 18, 2010

सब "गुलज़ार" हो जाये...


सबसे पहले तो अपने सबसे पसंदीदा शायर को उनके जन्मदिन पर ढेर सारी दुआएँ, बधाईयाँ और प्यार और ये चंद अल्फ़ाज़ हमारी ओर से उनको जन्मदिन का छोटा सा तोहफ़ा -

वो जो फूँक दे जान लफ़्जों में
तो नज़्म भी साँस लेने लगे
धड़क उठे ग़ज़लों का दिल
और त्रिवेणियाँ बह निकलें
सफ़्हा दर सफ़्हा
किरदार जी उठें
हर्फ़ों को मानी मिल जाये
सब "गुलज़ार" हो जाये...

गुलज़ार साब के बारे में क्या कहें या कहाँ से कहना शुरू करें... कुछ धुंधला-धुंधला सा याद पड़ता है... जब छोटे थे तो लोग उनके बारे में ये मज़ाक में कहा करते थे जो समझ ना आये वो गुलज़ार... आज सोचते हैं तो हँसी आती है... गर वो लोग समझ पाते तो शायद जानते की गुलज़ार कौन हैं और क्या हैं... कलम के ऐसे जादूगर जो अपने शब्दों से बस जादू सा कर देते हैं... वो भी ऐसा जादू जो सीधे दिल को छूता है और सर चढ़ के बोलता है... नज़्मों, ग़ज़लों, त्रिवेणियों, कविताओं या कहानियों की गलियों से जब भी गुज़रे हैं, हर बार, बात को कहने का उनका मुख्तलिफ़ अंदाज़ दिल से "वाह !" निकलवाये बिना नहीं माना... ज़िन्दगी को देखने, समझने और अभिव्यक्त करने का उनका अनूठा अंदाज़, रिश्तों की बारीकियाँ, कुछ कही-अनकही बातें, आपको हर बार एक नया नज़रिया दे जाती हैं चीज़ों को देखने और समझने का...

गुलज़ार साब के लेखन की सबसे बड़ी विशिष्टता ये है की वो "आम" होते हुए भी ख़ास है... वैसी ही भाषा जैसा हम रोज़-मर्रा की आम ज़िन्दगी में बोलते हैं... शायद इसीलिए उनके लेखन से हम इनती आसानी से जुड़ पाते हैं... लगता है यही तो हम कहना चाह रहे थे... बस गुलज़ार साब ने हमारी सोच को शब्द दे दिये... उनकी नज़्मों में कभी एकदम बेबाक सी सच्चाई होती है जो आपको सोचने पे मजबूर कर देती है तो कभी कोई ख़ूबसूरत सी फैंटसी जो दिल को भीतर तक गुदगुदा जाती है... उनकी नज़्मों में पिरोई हुई उदासी भी हसीन लगने लगती है... अपने शब्दों से वो ऐसे बिम्ब और लैंडस्केप्स उकेर देते हैं की मानो किसी पेंटर ने शब्दों की कोई ख़ूबसूरत सी पेंटिंग बना दी हो या किसी फोटोग्राफ़र ने तमाम ख़ूबसूरती को अपनी फोटो में क़ैद कर लिया हो...

वो जो भी लिखते हैं बिलकुल उस किरदार में घुस के लिखते हैं... फिर चाहे वो संजीदा सी नज्में या कहानियाँ हों या बच्चों के लिये लिखे गीत और कवितायें... वो तो याद ही होगा आपको "जंगल जंगल बात चली है पता चला है, अरे चड्डी पहन के फूल खिला है, फूल खिला है..." स्कूल टाइम में हम बच्चों के लिये किसी नेशनल एंथम से कम नहीं हुआ करता था वो... :)

और चाँद के साथ उनका राब्ता तो जग ज़ाहिर हैं... वो एक सौ सोलह चाँद की रातें कोई कैसे भुला सकता है भला :) ... या फिर वो "बल्लीमारां के मोहल्ले की पेचीदा दलीलों की सी गलियाँ"... अरे उनके पसंदीदा शायर की ग़ालिब साब की बात कर रहे हैं हम जिनके ऊपर उन्होंने एक कमाल का सीरियल बनाया था "मिर्ज़ा ग़ालिब" जो की एक ज़माने में दूरदर्शन पर आया करता था... तब तो ख़ैर क्या ही समझ आता था पर अभी हाल ही में दोबारा देखा सी.डी. पर और बस मज़ा आ गया... क्या कमाल का डायरेक्शन था और क्या बेहतरीन श्रद्धांजलि थी अपने पसंदीदा शायर को... आपने नहीं देखा तो हमारी मानिये और ज़रूर देखिये... ग़ालिब के लिये ना सही गुलज़ार के लिये ही सही :)

वैसे तो आजतक गुलज़ार साब की बहुत सी नज़्में शेयर करीं हैं आप सब के साथ पर आज उनकी अपनी नज़्मों के साथ एक गुफ़्तगू शेयर करने जा रहे हैं... अस्तित्व की लड़ाई यहाँ भी है... एक शायर और उसकी नज़्म के बीच... पर उम्मीद है आपको पसंद आएगी...

कभी-कभी, जब मैं बैठ जाता हूँ
अपनी नज़्मों के सामने निस्फ़ दायरे में
मिज़ाज पूछूँ
कि एक शायर के साथ कटती है किस तरह से ?

वो घूर के देखती हैं मुझ को
सवाल करती हैं ! उनसे मैं हूँ ?
या मुझसे हैं वो ?
वो सारी नज़्में,
कि मैं समझता हूँ
वो मेरे 'जीन' से हैं लेकिन
वो यूँ समझती हैं उनसे है मेरा नाक-नक्शा
ये शक्ल उनसे मिली है मुझको !

मिज़ाज पूछूँ मैं क्या ?
कि एक नज़्म सामने आती है
छू के पेशानी पूछती है -
"बताओ गर इन्तिशार है कोई सोच में तो ?
मैं पास बैठूँ ?
मदद करूँ और बीन दूँ उलझने तुम्हारी ?"

"उदास लगते हो," एक कहती है पास आ कर
"जो कह नहीं सकते तुम किसी को
तो मेरे कानों में डाल दो राज़
अपनी सरगोशियों के, लेकिन,
गर इक सुनेगा, तो सब सुनेंगे !"

भड़क के कहती है एक नाराज़ नज़्म मुझसे
"मैं कब तक अपने गले में लूँगी
तुम्हारी आवाज़ कि खराशें?"

एक और छोटी सी नज़्म कहती है
"पहले भी कह चुकी हूँ शायर,
चढ़ान चढ़ते अगर तेरी साँस फूल जाये
तो मेरे कंधे पे रख दे,
कुछ बोझ मैं उठा लूँ !"

वो चुप-सी इक नज़्म पीछे बैठी जो टकटकी बाँधे
देखती रहती है मुझे बस,
न जाने क्या है उसकी आँखों का रंग
तुम पर चला गया है
अलग-अलग हैं मिज़ाज सब के
मगर कहीं न कहीं वो सारे मिज़ाज मुझमे बसे हुए हैं
मैं उनसे हूँ या....

मुझे ये एहसास हो रहा है
जब मैं उनको तखलीक़ दे रहा था
वो मुझे तखलीक़ दे रही थीं !!

-- गुलज़ार


जाते जाते गुलज़ार साब के जन्म दिन पर एक बार फिर से उनको ढेरों बधाईयाँ और ढेर सारी दुआएँ... ईश्वर उन्हें लम्बी उम्र दे और सदा स्वस्थ रखे... लॉन्ग लिव गुलज़ार साब !!!

Wednesday, August 11, 2010

वक़्त की कतरने...


ये जो रंग बिरंगी कतरने हैं ना
तुम्हारे साथ बिताये वक़्त की
जी चाहता है इन कतरनों को जोड़
एक मुकम्मल उम्र सी लूँ
एक ख़ूबसूरत ज़िन्दगी बना लूँ

एक लम्बा सा दिन सियूँ
तुम्हारे साथ का
और एक लम्बी सी रात
हाँ कुछ सुस्त से लम्हों को चुन
एक फ़ुर्सत भरी दोपहर भी

वो कुछ पल कि जिनमे तुम
सिर्फ़ मेरे पास होते हो
दिल और दिमाग से
उन चमकीले पलों को जोड़
एक शबनमी शाम भी सी लूँ

सोचो गर ऐसा कर पाऊँ
ये ज़िन्दगी कितनी ख़ूबसूरत हो जाये
हर एक पल में तुम्हारा साथ पा के
और मैं इस ख़ूबसूरत उम्र को पहन
इतराती फिरूँ इस दुनियाँ में...

-- ऋचा

Tuesday, August 3, 2010

दिल तो बच्चा है जी...


लखनऊ कल सुबह से ही चेरापूंजी बना हुआ था... सारा दिन रुक रुक कर बरसात होती रही... और ऐसे मौसम में ऑफिस की जेल जैसी दीवारों के भीतर, मन को बड़ी मुश्किल से समझा बुझा के किसी छोटे बच्चे की मानिंद बैठाया हुआ था... लॉलीपॉप का लालच दे के... की बस थोड़ी देर और फिर यहाँ से रिहा हो के खुली फिज़ा में साँस लेते हुए चलेंगे वापस... मौसम को एन्जॉय करते हुए...

किसी तरह बेमन जैसे-तैसे ऑफिस का काम निपटाया... शाम होते होते बादल एक बार फिर बाँवरे हो उठे... सूरज अंकल को तो खैर सुबह से ही किडनैप कर रखा था उन्होंने... ऊपर से एकदम काले बादल... इतना रूमानी मौसम हो गया था की क्या बतायें... काश की ऐसे में "कोई" साथ होता तो कसम से आज निकल ही जाते लॉन्ग ड्राइव पे... हम्म... ख़्वाहिशें :) ...

हाँ तो उस "जेल" से छूट के चंद क़दम ही आगे बढ़े थे की बरखा रानी फुल मूड में आ गयीं हमसे मिलने... और बस मन मचल गया उन्हें गले लगाने को... अब इतने प्यार से आयी थीं तो इनकार कैसे करते... हमने भी सोचा अब थोड़ा तो भीग ही गये हैं और जब तक गाड़ी रोक के रेनकोट पहनेंगे और ज़्यादा भीग जायेंगे... पर दिमाग़ था की अपनी ही लगा रखी थी... ज़्यादा भीग गये तो, बीमार पड़ गये तो... दिल बेचारा दिमाग़ को समझाने में लगा ही था की इतने में अन्दर छुपा बच्चा भी लॉलीपॉप वॉलीपॉप छोड़-छाड़ के बाहर आ ही गया... छोड़ो यार... घर ही तो जाना है... आज भीगते हुए चलते हैं... :)

बस फिर क्या था... हम और हमारी एक्टिवा चल पड़े मौसम और बारिश से बातें करते हुए... अमूमन ४५ - ५० मिनट लगते हैं ऑफिस से घर आने में... पिछले कुछ दिनों से मन कुछ अच्छा नहीं हो रहा था... तो आज पूरा टाइम था उसे आराम से मनाने बहलाने का... मन का रेडियो जाने कौन कौन से गाने प्ले करता रहा सारे रास्ते... कभी ओल्ड मेलोडीज़... आज मौसम बड़ा बेईमान है... रिमझिम गिरे सावन... मौसम मौसम लवली मौसम... तो कभी गुलज़ार साब ये कहते हुए आ जाते... याद है वो बारिशों के दिन पंचम... और बैकग्राउंड में बजता... कच्चे रंग उतार जाने दो... आ चल डूब के देखें... उफ़... दिल तो बच्चा है जी :)

बारिश कुछ और तेज़ हुई तो रेडियो में बजते गानों ने कॉमर्शियल ब्रेक लिया... और मन की ख़याली फैक्ट्री ने एक ख़याल और प्रड्यूस किया... ये हेलमेट में वाइपर्स क्यूँ नहीं होते... अँधेरा भी कुछ बढ़ गया था... आगे चलती गाड़ियों की लाइट्स और बारिश की बूँदें अब मिल कर हेलमेट के शीशे पर बॉल-डांस कर रही थीं... कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था तो शीशा हटाना पड़ा... अब चेहरे पे बूँदें इस तेज़ी से पड़ रही थीं की मानो ढेर सारी चीटियाँ एक साथ काट रही हों... उहूँ... थोड़ा रूमानी अंदाज़ में कहें तो यूँ लग रहा था मानो बारिश ने बढ़ के अपने आग़ोश में ले लिया हो और प्यार से चूम रही हो और रोम-रोम वो एहसास जज़्ब करता जा रहा हो... इक ठंडक भरा सुकून डायरेक्ट आत्मा तक पहुँच रहा था...

खैर ऑलमोस्ट ५० मिनट बाद ये रूमानी सफ़र ख़त्म हुआ और फाइनली हमने अपने रूमानी ख़यालों और एकसासों के साथ घर के गेट में एंट्री करी...

कट... सीन चेंज... जिरह शुरू... :)

मम्मी जो परेशान सी बाहर बरामदे में बैठी इंतज़ार कर रही थीं देखते ही बोलीं...
- भीग गयीं ?
- नहीं तो... एकदम सूखे हैं... भगवान जी ने वॉटरप्रूफिंग कर के जो भेजा है ऊपर से :)
( अब इतनी बारिश हो रही है, कपड़ों से पानी चू रहा है, ऐसे में क्या लॉजिकल क्वेस्चन है... मम्मी भी ना... पर हँस भी नहीं सकते अभी... बड़ी मजबूरी है )

अगला सवाल, नहीं ऐक्चूअली सवाल ही सवाल, जवाब देने का मौका ही नहीं...
- रेनकोट नहीं ले गयी थी ? पहना क्यूँ नहीं ? ठण्ड लगी ? गाड़ी तेज़ तो नहीं चलाई ? वगैरा वगैरा वगैरा...

फिर जैसे अचानक उन्हें याद आया की वो मेरी मम्मी हैं...

कट... सीन चेंज... ट्रॅन्स्फर्मेशन... अब प्यार बरसना शुरू... :)

इतनी बड़ी हो गयी है भगवान जाने कब अक्ल आएगी इस लड़की को...
पागल हो एकदम...
जाओ जा के जल्दी चेंज करो नहीं तो ठण्ड लग जायेगी... हम अदरक वाली चाय बना देते हैं तब तक... :)

और हम चल देते हैं एक बार फिर गाते हुए... दिल तो बच्चा है जी... :)


चलिए जी फिर मिलते हैं... और जाते जाते गुलज़ार साब को छोड़े जाते हैं आपके पास -


कल सुबह जब बारिश ने आ कर
खिड़की पर दस्तक दी थी
नींद में था मैं - बाहर अभी अँधेरा था !
ये तो कोई वक़्त नहीं था,
उठ कर उससे मिलने का
मैंने पर्दा खींच दिया
गीला गीला इक हवा का झोंका उसने
फूँका मेरे मुँह पर, लेकिन
मेरी "सेन्स ऑफ़ ह्यूमर" भी कुछ नींद में थी
मैंने उठ कर ज़ोर से
खिड़की के पट उस पर भेड़ दिये
और करवट ले कर फिर बिस्तर में डूब गया !
शायद बुरा लगा था उसको
गुस्से में खिड़की के कांच पे
हत्थड़ मार के लौट गयी वो,
दोबारा फिर आयी नहीं
खिड़की पर वो चटख़ा काँच अभी बाक़ी है !

-- गुलज़ार





एक त्रिवेणी भी सुन लीजिये जाते जाते... अभी लिखी.... एकदम लेटेस्ट... ताज़ा :)

बहुत भरा था मन पिछले कुछ दिनों से
बारिशें ओढ़ वो जी भर के रोई कल शब

कुछ नक़ाब जज़्बात भी छुपा लेते हैं

-- ऋचा
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