Monday, May 17, 2010

ख़ाहिशों की कश्ती...


गुलज़ार साब ने ठीक ही कहा है "दिल तो बच्चा है जी"... एक बच्चे की तरह ख़ुद अपनी ही उँगली थामे दुनिया के मेले में घूमता रहता है और हर प्यारी चीज़ को देख कर ठिठक जाता है... मचल जाता है... और हर बार एक मासूम सी ख़्वाहिश जाग उठती है दिल में "मुझे ये चाहिये...प्लीज़ दिला दो ना"... अब इस बच्चे को कौन समझाए की हर ख़्वाहिश पूरी नहीं होती... पर इस बच्चे की ख़्वाहिशें भी उसकी ही तरह इतनी मासूम होती हैं की मन करता है एक जादू की छड़ी आ जाये कहीं से हाथ में... आबरा का डाबरा... छू... और बस ख़्वाहिश पूरी :-)

वैसे किसी बच्चे की कोई ख़्वाहिश पूरी करी है कभी आपने... बहुत मासूम होते हैं सच में... एक चॉकलेट दिला दो या एक गुब्बारा या प्लास्टिक का चश्मा या बर्फ़ का गोला... और उसके बाद इनके चेहरे की ख़ुशी पढ़िये बस... इतनी सरल मुस्कान... इतनी प्यारी हँसी... और परितृप्ति के इतने अनोखे रंग कि मानो लगता है सारी दुनिया का ख़ज़ाना मिल गया हो उन्हें... काश हम भी उनके जैसे बन सकते... मासूम और भोले भाले... सारी दुनियावी मोह माया से दूर... अपनी मासूम सी दुनिया में रहते... बिना किसी लड़ाई झगड़े... बिना किसी बैर भाव के... सिर्फ़ प्यार होता वहाँ और ढेर सारी ख़ुशियाँ... देखा फिर एक और ख़्वाहिश... सच हमारा कुछ नहीं हो सकता...

और आजकल तो पूछिये मत... हमारे दिल की "मैन्युफैक्चरिंग यूनिट" में ख्वाहिशों का "प्रोडक्शन" इतनी तेज़ी से हो रहा है की क्या बतायें... ये बच्चा कुछ ज़्यादा ही मचल रहा है आजकल... अब देखिये ना... अभी पिछली ही पोस्ट में एक ख़्वाहिश बतायी थी आप लोगों को... दिन को कस्टमाईज़ करने की... और आज एक और ख़्वाहिश जागी है दिल में... पूरी होने की कोई शर्त इस बार भी नहीं है वैसे... बस ख़्वाहिश है... सोचा आप सब के साथ भी शेयर कर लें...

मन के शान्त साहिल पे
खड़ी थी ख़ाहिशों की इक कश्ती
अडोल, चुप चाप, शान्त सी
ना जाने कब से...

तुम आये तो कुछ हलचल हुई
कुछ लहरें खेलती हुई आयीं
और एक मासूम सी ख़ाहिश और दे गयीं
अब ये कश्ती लहरों संग खेलने को बेताब है

चलो ना...
इस कश्ती में बैठ के
हम भी कुछ दूर घूम आते हैं
मन बहल जाएगा

ज़्यादा दूर नहीं जायेंगे
बस वो क्षितिज है ना
जहाँ सूरज गुरूब होता है हर शब
उसे छू के वापस आ जायेंगे...

-- ऋचा

Wednesday, May 12, 2010

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी...


हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
-- मिर्ज़ा ग़ालिब

ख़्वाहिशें ही ख़्वाहिशें बिखरी पड़ी हैं जिधर देखो... जितना भी मिलता है कम लगता है... कुछ और... बस कुछ और... ये इंसान भी ना... फितरत से ही लालची होता है... उसकी ख्वाहिशों का कोई अंत नहीं... एक पूरी होती नहीं कि एक और नयी ख़्वाहिश अंगड़ाई लेने लगती है दिल में और ये दिल है की कभी मुत्मईं नहीं होता...

अजीब है ये इन्सां भी, दिल भी और ख़्वाहिशें भी... पता नहीं क्या क्या सोच लेता है और क्या क्या चाह लेता है... पर एक मासूम सी चाहत ही तो होती है... पूरा होने की कोई शर्त कहाँ रखते हैं हम... बस चंद ख़्वाहिशें... कुछ ख़्वाब... कुछ मुस्कुराहटें...

अभी कल ही की बात लीजिये... सुबह सुबह अलार्म बजने से नींद खुली... पर आँख नहीं... आँखें मूंदे मूंदे ही अलार्म बन्द किया... और करवट ले कर फिर से सोने की कोशिश करी... रोज़ ही यही होता है...  रात में देर तक उल्लुओं की तरह जागते रहते हैं और फिर सुबह दिन को कोसते हैं ... उफ़ आज भी इतनी जल्दी निकाल आया... अभी तो सोये थे... ह्म्म्म.... फिर वही रूटीन... वही ऑफिस... वही काम... वही नीरस सा दिन... इन्हीं सब ख़यालों के बीच एक बड़ा अजीब सा पर अनोखा सा ख़याल आया मन में... देखिये तो ज़रा...


कितना अच्छा होता ना
गर हम
दिन को भी "customize" कर सकते
अपने हिसाब से...

दिन भी उठता हमारे संग
हमारे मोबाइल के अलार्म से
साथ बैठ के बालकनी में चाय पीते
सुबह की सारी ताज़गी मन में भर लेते

हम उससे जल्दी तैयार हो जाते
और हाथ पकड़ कर ऑफिस ले जाते
ये उलाहना देते हुए - "जल्दी करो...
रोज़ तुम्हारी वजह से देर होती है"

और वो सर झुकाए चलता रहता
पीछे पीछे...

सुबह को खींच कर थोड़ा लम्बा कर देते
दोपहर के उन सुस्त अलसाए पलों को
जल्दी से "fast forward" कर देते
और शाम को थोड़ा रूमानी बना देते

रात को चाँद की गोल बिंदी लगा कर
सितारों की इक झिलमिल चुनर उढ़ाते
फिर उसके पहलू में बैठ कर
किसी के तसव्वुर में खो जाते

यूँ ही लम्हा लम्हा दिन गुज़र जाता
कुछ ख़ुशनुमा, कुछ रूमानी सा
उफ़... इस technology के युग ने
ख्वाहिशों को भी technical कर दिया...

-- ऋचा
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