Showing posts with label Ahmad Faraaz. Show all posts
Showing posts with label Ahmad Faraaz. Show all posts

Thursday, April 8, 2010

ऐ दोस्त !!


मेरे दोस्तों की पहचान इतनी मुशिकल नहीं " फ़राज़"
वो हँसना भूल जाते हैं मुझे रोता देखकर...
-- अहमद फ़राज़


इस दौड़ती भागती तेज़ रफ़्तार ज़िन्दगी को ब्रेक लगा के जब कभी कुछ फ़ुर्सत भरे, कुछ सुकून भरे पल बिताने का मन होता है तो सबसे पहले ख़याल आता है किसी दोस्त का... कोई ख़ास दोस्त... यूँ तो सभी दोस्त ख़ास होते हैं पर वो भीड़ से कुछ अलग कुछ अपना सा होता है... बेहद ख़ास... वो जिसके साथ आपको कुछ भी दिखावा करने की ज़रुरत नहीं होती... वो जो आपको आपकी तरह समझता है... आपकी खुशियों को, आपके ग़म को महसूस कर सकता है... बिलकुल आपकी तरह... आपकी हँसी की खनक सुन सकता है और आपकी मुस्कान में छुपे दर्द को भी पहचान सकता है... वो जो आपकी कामयाबियों में आपसे भी ज़्यादा ख़ुश होता है और नाकामियों में भी आपके साथ मजबूती से खड़ा रहता है... एक अडिग स्तम्भ की तरह... जिसे एहसास होता है आपकी ज़रूरतों का... वो जो सुन सकता है आपके दिल की आवाज़ को और आपकी ख़ामोशियों को भी...

यूँ तो वो दोस्त हर पल आपके पास होता है... आपके मन में... पर इस ज़िन्दगी के अपने ही कुछ नियम हैं... कुछ ज़रूरतें हैं... हर किसी की बहुत सी ज़िम्मेदारियां हैं... और हम सबको ही उनका निर्वाह करना ही पड़ता है... हम ना चाहते हुए भी कभी कभी उस एक इंसान को वो समय नहीं दे पाते जो हम देना चाहते हैं... अब ऐसे में सामने वाले को बुरा लगना लाज़मी है... पर यही वो समय है जो आपकी परीक्षा लेता है... अपनी कसौटी पे आपके धैर्य और विश्वास को परखता है... ऐसे में ज़रुरत होती है आपसी समझ से काम लेने की... अपने विश्वास को बनाए रखने की... ख़ुद को उसकी जगह रख के देखने की... और यकीन मानिये अगर वो आपका उतना ही ख़ास दोस्त है जैसा की हमने अभी बताया, तो आप उसे कभी ग़लत नहीं पायेंगे... अपनी ज़िम्मेदारियों से फ़ुर्सत पाते ही वो वापस आपके पास होगा... हँसता, मुस्कुराता... आपका ख़याल रखता...

दोस्ती और प्यार कभी एक तरफ से नहीं निभाये जा सकते... परस्पर होना पड़ता हैं... दोनों ओर से एक सा विश्वास... एक सा समर्पण... एक सी निष्ठा... जो आप सामने वाले से चाहते हैं पहले ख़ुद दे के देखिये... बदले में हमेशा ज़्यादा ही मिलेगा...

हाँ... एक चीज़ और... अच्छा बुरा जैसा भी हो... कम ज़्यादा जितना भी मिले... समय साथ बिताइए... एक दूसरे को और करीब से जानने का, समझने का मौका मिलेगा...

चलिए जी, अब हम चलते हैं... एक दोस्त की ज़रुरत सी महसूस हो रही है... आवाज़ लगाते हैं उसे... दोस्त... ओ दोस्त... कहाँ हो ? देखो तुमसे मिलने आयीं हूँ... ज़िन्दगी से कुछ पल चुरा के...


कुछ घुटन सी है आजकल

मन सीला सीला सा रहता है

साँसे कुछ छोटी सी होती जा रही हैं

एक लम्बी सी साँस लेना चाहती हूँ तुम्हारे साथ

तुम्हारा हाथ थामे उस लकड़ी की बेंच पे बैठ के

पार्क के एक कोने में खिलते सूरज से ले कर

दूसरे कोने में उगते चाँद तक...

-- ऋचा
Related Posts with Thumbnails