Saturday, October 13, 2012

आजा तेरे कोहरे में धूप बन के खो जाऊँ... तेरे भेस तेरे ही रूप जैसी हो जाऊँ !



मौसम ने फिर करवट ली है... सर्दी की ख़ुश्बू एक बार फिर फिज़ा में घुलती हुई सी महसूस होने लगी है... ठीक वैसे ही जैसे तुम्हारी ख़ुश्बू घुली हुई है मेरी साँसों में... कल ऑफिस से वापस आते वक़्त हवा में ठंडक थी... तुम्हें सोचते हुए जाने कब रास्ता कट गया तुम्हारे एहसास की गर्मी ने कितनी राहत पहुँचायी सारे रास्ते...

कितने दिन हो गए कुछ लिखा नहीं... आज दिल किया कुछ लिखूँ तो तुम्हारे सिवा और तुमसे बेहतर कोई दूसरा मौज़ू ही नहीं मिला... गोया मेरी लेखनी को भी प्यार हो गया है तुमसे...

तुमसे बात करना हमेशा ही दिल को एक सुकून दे जाता है... दुनिया भर की परेशानियों के बीच दो पल तुम्हारी आवाज़ रूह को ऐसे ठंडक पहुंचती है जैसे पसीने से भीगे बदन पर ठंडी हवा का झोंका... सारा तनाव सारी परेशानियाँ सब चंद लम्हों में ही काफ़ूर हो जाते हैं... सारे दिन की थकन के बाद तुमसे बात होती है तो यूँ लगता है मानो हर की पौड़ी पर बैठ कर संध्या आरती देख रहे हों... गंगा के ठन्डे पानी में पैर डाल के... तृप्ति !

जाने तुम्हारी आवाज़ का जादू है या तुम्हारे साथ का, पर कुछ तो ज़रूर है... कभी कभी तो जी करता है तुम्हें बिना बताये तुम्हारी आवाज़ का एक टुकड़ा चुरा कर रख लूँ अपने पास और फ़ुर्सत में उससे खूब सारी बातें किया करूँ...

जानते हो तीन दिन पहले एक सपना देखा था... हम साथ काम कर रहे थे एक ही ऑफिस में, एक ही बिल्डिंग में... पर तुम इस कदर मसरूफ़ थे कि एक पल के लिए बात करने का भी समय नहीं था... हम बस एक दूसरे को देख भर पा रहे थे... फिर सब काम छोड़ कर अचानक तुम मेरे पास आये... बोला कुछ भी नहीं बस मेरा हाथ पकड़ा था... तुम्हारा वो स्पर्श बिन कुछ बोले भी कितना कुछ कह गया था... उस एक स्पर्श में सहानुभूति थी, संवेदना थी, करुणा थी, समय न दे पाने की तकलीफ़ थी और सबसे बढ़ कर बेहद गहरा प्यार था... तीन दिन बाद भी सपने में महसूस किया वो तुम्हारे हाथों का स्पर्श अब भी अंकित है मन के पन्नों पर...

तुम ज़्यादा बोलते नहीं... तुम्हारे होंठ अक्सर ख़ामोश रहते हैं... पर तुम्हारी आँखें बेहद बातूनी हैं... जाने किस भाषा में बातें करती हैं मेरी आँखों से कि सीधे दिल तक पहुँचती है उनकी आवाज़... बहुत से ऐसे एहसास हैं जिन्हें महसूस तो किया है तुम्हारी आँखों के ज़रिये पर शब्दों में उनका तर्जुमा करना मुमकिन नहीं है... कहाँ से सीखी ये भाषा ? सीधे दिल पे दस्तक देने वाली !

जानते हो पहला अक्षर और पहली भाषा कैसे बने ? और संगीत का पहला सुर ? नहीं जानते ? आओ आज बताती हूँ तुम्हें...

आदि रचना
मैं - एक निराकार मैं थी

ये मैं का संकल्प था
जो पानी का रूप बना
और तू का संकल्प था
जो आग की तरह नुमाया हुआ
और आग का जलवा
पानी पर चलने लगा
पर वो परा-ऐतिहासिक समय की बात है

ये मैं की मिट्टी की प्यास थी
कि उसने तू का दरिया पी लिया
ये मैं की मिट्टी का हरा सपना था
कि उसने तू का जंगल खोज लिया
ये मैं की मिट्टी की गंध थी
और तू के अम्बर का इश्क़ था
कि तू का नीला सा सपना
मिट्टी की सेज पर सोया
ये तेरे और मेरे मांस की सुगंध थी
और यही हक़ीक़त की आदि रचना थी

संसार की रचना तो बहुत बाद की बात है !

आदि पुस्तक
मैं थी और शायद तू भी
शायद एक सांस के फासले पे खड़ा
शायद एक नज़र के अँधेरे पे बैठा
शायद एहसास के मोड़ पे चल रहा
पर वो परा-ऐतिहासिक समय की बात है

ये मेरा और तेरा अस्तित्व था
जो दुनिया की आदि भाषा बना
मैं की पहचान के अक्षर बने
तू की पहचान के अक्षर बने
और उन्होंने आदि भाषा की आदि पुस्तक लिखी

ये मेरा और तेरा मिलन था
हम पत्थर की सेज पर सोये
और आँखें, होंठ, उँगलियाँ, पोर
ये मेरे और तेरे बदन के अक्षर बने
और उन्होंने आदि पुस्तक का अनुवाद किया

ऋगवेद की रचना तो बहुत बाद की बात है !

आदि चित्र
मैं थी और शायद तू भी
मैं छाँव के भीतर थिरकती सी छाया
और तू भी शायद एक खाकी सा साया
अंधेरों के भीतर अंधरों के टुकड़े
पर वो परा-ऐतिहासिक समय की बात है

रातों और पेड़ों का अँधेरा था
जो तेरी और मेरी पोशाक थी
एक सूरज कि किरण आयी
वो दोनों के बदन में से गुज़री
और परे एक पत्थर पर अंकित हो गयी
सिर्फ़ अंगों की गोलाई थी,
चाँदनी की नोकें
ये दुनिया का आदि चित्र था
पत्तों ने हरा रँग भरा
बादलों ने दूधिया, अम्बर ने सिलेटी
और फूलों ने लाल, पीला, कासनी

चित्रों की कला तो बहुत बाद की बात है !

आदि संगीत
मैं थी और शायद तू भी
एक असीम खामोशी थी
जो सूखे पतों कि तरह झड़ती
या यूँ ही किनारों की रेत कि तरह घुलती
पर वो परा-ऐतिहासिक समय की बात है

मैं ने तुझे एक मोड़ पर आवाज़ दी
और जब तू ने पलट कर आवाज़ दी
तो हवाओं के गले में कुछ थरथराया
मिट्टी के कान कुछ सरसराये
और नदी का पानी कुछ गुनगुनाया
पेड़ की टहनियाँ कुछ कस सी गयीं
पत्तों में एक झंकार उठी
फूलों की कोपल ने आँख झपकाई
और एक चिड़िया के पंख हिले
ये पहला नाद था
जो कानों ने सुना था

सप्त सुरों की संज्ञा तो बहुत बाद की बात है !

आदि धर्म
मैं ने जब तू को पहना
तो दोनों के बदन अंतर्ध्यान थे
अंग फूलों की तरह गूंथे गये
और रूह की दरगाह पर अर्पित हो गये

तू और मैं हवन की अग्नि
तू और मैं सुगन्धित सामग्री
एक दूसरे का नाम होंठों से निकला
तो वही नाम पूजा के मन्त्र थे
ये तेरे और मेरे अस्तित्व का एक यज्ञ था

धर्म की कथा तो बहुत बाद की बात है !

आदि क़बीला
मैं की जब रुत गदराई थी
मांस के पौधे पर बौर आया था
पवन के आँचल में महक बंध गयी
तू का अक्षर लहलहाया था

मैं और तू की छाँव में
जहाँ "वह" आ कर निश्चिन्त सो गया
ये "वह" का एक मोह था
गेंहूँ का दाना हमने बाँट लिया
"वह" सहज था, स्वाभाविक था
मैं की और तू की तृप्ति

क़बीलों की कथा तो बहुत बाद की बात है !

आदि स्मृति
काया की हकीक़त से लेकर
काया की आबरू तक मैं थी
काया के हुस्न से लेकर
काया के इश्क़ तक तू था

यह मैं अक्षर का इल्म था
जिसने मैं को इख्लाक़ दिया
यह तू अक्षर का जश्न था
जिसने "वह" को पहचान लिया
भयमुक्त मैं की हस्ती
और भयमुक्त तू की, "वह" की

मनु स्मृति तो बहुत बाद की बात है !

-- अमृता प्रीतम

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