Wednesday, February 20, 2013

आओ चलें अब तीन ही बिलियन साल बचे हैं, आठ ही बिलियन उम्र ज़मीं की होगी शायद !


आज जब तुम्हें अपने एक दोस्त के बारे में बता रही थी तो तुमसे सुना नहीं गया... बात को कैसे टाल गए थे तुम... जानते हो जान पूरे दिन में सबसे ज़्यादा ख़ुशी का पल था वो मेरे लिए... तुम्हारी आवाज़ में वो चिढ़ बड़ी प्यारी लग रही थी... बहुत दिनों बाद आज तुम्हारे अन्दर वो पज़ेसिव्नेस दिखी अपने लिये... बहुत दिनों बाद आज फिर से ख़ुद पे गुमाँ हुआ...!




किसी पीर फ़कीर की दरगाह पर बंधा मन्नत का लाल धागा... या दुआओं का फ़ज़ल... के तुम मिले थे इक रोज़ यूँ ही... अचानक...!

मेरी बेनूर तन्हाई में घोला था तुमने एक मुट्ठी रँग अपने प्यार का... और मैं लरज़ उठी थी इन्द्रधनुष के रंगों से सजी एक कोरी चुनर सी... मेरे होंठों पे चिपका दी थी तुमने एक मुस्कान बिलकुल अपनी मुस्कराहट की कार्बन कॉपी जैसी... और मिडास के जैसे छू के सुनहरी कर दिए थे वो सारे ख्व़ाब जो तैरा करते थे मेरी पलकों में... मेरी मामूली सी ज़िंदगी में अपनी तिलिस्मी साँसें फूँक कर कहाँ खो गये तुम... ओ मेरे मायावी दोस्त...!




जानते हो ख्व़ाब क्यूँ आते हैं हमें ? सब उस उपरवाले का किया धरा है... ये ख़ुदा भी ना... दिल तो दे दिया हमें.. ख्वाहिशें भी दे दीं... पर हर ख्वाहिश पूरी कर सकें ऐसी क़िस्मत नहीं दी... सो ख्व़ाब दे दिये... कि जी सकें हम वो सारे पल ख़्वाबों में जिन्हें हक़ीक़त में नहीं जी सकते...

ख़्वाबों के सोपान पे पैर रख, कल रात आई थी तुम्हारे पास चाँदनी की ऊँगली थामे... जाने क्या देख रहे थे सपने में तुम... बड़ी प्यारी सी मुस्कुराहट थी होंठों पे... जी चाहा उस पल को वहीं थाम दूँ... या क़ैद कर लूँ पलकों में वो प्यारी सी निश्छल मुस्कुराहट बिलकुल बच्चों सी मासूम... आह ! के ये कमबख्त ख़्वाहिशें पूरी कहाँ होती हैं... के ख्व़ाब ख्व़ाब ही हुआ करते हैं... हरे काँच कि चूड़ियों जैसे... शोख़, चमकीले, खनकते... और कच्चे !!!





दो नन्हीं मुलायम कोपलें... पहले पहल जब तोड़ के बीज का खोल... झाँकती हैं बाहर... और लेती हैं पहली साँस खुली फिज़ा में... तो बेहद मासूम होती हैं... बड़ी ही ऑप्टिमिस्टिक... चारों तरफ़ खुशहाली ही दिखती है उन्हें... नहीं जानती कि कितने दिन बच पायेंगी किसी के पैरों तले कुचले जाने से... तुमसे मिलने की उम्मीद भी गोया उन नाज़ुक कोपलों सी है... हर रोज़ फूट के निकलती है दिल के खोल से... हर शाम कुचल जाती है सच के पैरों तले... उदास होती है... नाकाम भी... ना-उम्मीद पर नहीं होती...!

हर शब इक उम्मीद सोती हैं... हर सहर नयी उम्मीद जगती है...!





कहते हैं आखें दिल का आईना होती हैं... लब झूठ बोल भी दें पर आँखें झूठ नही बोल पातीं... दो पल झाँक के देखो उनमें तो दिल के सारे गहरे से गहरे राज़ खोल देती हैं... तुम्हारी गहरी कत्थई आँखें भी बिलकुल किसी मरीचिका सी हैं... एकटक उनमें देखने की गलती करी नहीं किसी ने कि बस मोहपाश में बाँध के बिठा लेती हैं अपने ही पास...

जानते हो तुम्हारी आँखें बेहद बातूनी हैं... हर रोज़ रात के आखरी पहर तक बातों में उलझा के मुझे जगाये रखती हैं... हर दिन ऑफिस के लिये लेट होती हूँ मैं... देखना किसी दिन लिख ही दूंगी अटेंडेंस रजिस्टर में देर से आने कि वजह...!





कुछ अक्षर बिखरे हुए थे... बेतरतीब से... यहाँ वहाँ... तुम जो आये तो... उन्हें इक आकार मिला... अक्षर अक्षर शब्द बने... शब्द शब्द कविता, और कविता कविता ज़िन्दगी...

सुनो जान... तुम मुझसे यूँ रूठा न करो... तुम रूठते हो तो मेरे शब्द भी गुम हो जाते हैं कहीं... गोया तुम्हारा साथ मेरे कलम की रोशनाई हो... तुम चुप होते हो तो ये भी सूख जाती है... गोया मेरे सारे ख्याल तुम्ही से हैं... तुम नहीं होते तो एक वॉइड आ जाता है पूरे थॉट प्रोसेस में... शब्द उड़ते फिरते हैं दिमाग की ख़लाओं में... तुम्हारे साथ का गुरुत्व मिले तो शायद ठहरें वो मन की ज़मीं पर...!



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