Sunday, December 14, 2014

कहाँ हो मेरे सैंटा... ख़्वाहिशों ने फिर दस्तक दी है...!


आज बड़ी सारी भीगी सीली रातों के बाद एक ख़ुशनुमा दिन खिला तो सोचा यादों की गठरी खोल के उन्हें भी थोड़ी सी धूप दिखा दूँ...  बैठी बैठी यूँ ही कुछ पुराने वर्क़ पलट रही थी यादों के कि अचानक ढेर सारी मीठी मीठी ख़्वाहिशों से लबरेज़ एक विश लिस्ट पर नज़र पड़ी...  कितनी तो प्यारी प्यारी ख़्वाहिशें लिखीं थीं उसमें... मेरी तुम्हारी... याद है वो दौर कि जब हर रोज़ हम उसमें अपनी एक ख़्वाहिश जोड़ा करते थे... एक दिन मेरी बारी होती, दूसरे दिन तुम्हारी... क्या पागलपन भरे दिन थे वो भी... कितने उजले, कितने प्यारे... ख़ुशियों से छलकते... बांवरा सा ये मन हर पल जाने किस दुनिया में विचरता रहता... अपनी ही धुन में मग्न... आज भी सोचो तो मुस्कुराहट होंठों पे बेसाख़्ता तैर जाती है...

एक एक कर सारी ख़्वाहिशों को पढ़ती गई तो पाया कि लगभग सारी ही तो पूरी हो चली हैं... समय भी तो बीत गया ना कितना... तो आओ आज इस उजले दिन में मिलकर एक नयी विश लिस्ट बनाते हैं... कुछ तुम अपनी ख़्वाहिशें जोड़ो इसमें... कुछ मैं अपने ख़्वाब टाँकती हूँ... कि कुछ ख़्वाहिश, कुछ ख़्वाब बचे रहें तो ज़िन्दगी जीने की ललक भी बची रहती है... और साथ मिल कर उन ख़्वाबों,  ख़्वाहिशों को पूरा करने का उत्साह भी बचा रहता है...

ऐसे ही किसी उजले से दिन एक लॉन्ग ड्राइव पे जाना है तुम्हारे साथ... दूर बहुत दूर तलक... जहाँ धरती और आसमां मिल कर एक होने का भ्रम देते हों... साथ ना होते हुए भी एकदम करीब... एक दूसरे में घुलते हुए से... एकसार... हमारी तरह...

किसी पूरनमासी की रात किसी ऊंचे पहाड़ की चोटी से चाँद देखना है... बिलकुल साफ़ शफ़्फ़ाक... इतना बड़ा गोया किसी ने आसमां से तोड़ के सामने वाली अल्हड़ पहाड़ी के माथे पे सजा दिया हो, बिंदिया बना के... इतना पास कि हाथ बढ़ाऊँ तो छू ही लूँ उसे... उसकी चाँदनी का शॉल ओढ़े पूरी रात तुम्हारे काँधे पे सर रख के ढेर सारी बातें करनी हैं...

किसी शांत नदी के तट पे बैठ तुम्हारी बाँसुरी सुननी है, भोर की पहली किरण के साथ... जब सुरों में बदल रही होंगी तुम्हारी साँसे उस बाँस के टुकड़े से गुज़र के... मेरे वजूद में भी घुल जायेंगे सातों सुर... तुम्हारी सिम्फनी के...
याद है हमारा पसंदीदा शहर वेनिस... पानी पे तैरते किसी ख़ूबसूरत जज़ीरे सा... वहाँ की सर्पीली गलियों में घूमना है तुम्हारे साथ हाथों में हाथ डाले... गंडोला पे बैठ के पानी में उतरता शाम का सूरज देखना है... दीवार से लग कर लकड़ी की ख़ूबसूरत नक्काशीदार खिड़की तक बढ़ती पीले गुलाब की बेल के नीचे तुम्हारा माथा चूमना है... मेरी ज़िन्दगी में आने के लिये...

देखो मैंने दर्ज करा दी अपनी चंद ख़्वाहिशें अब तुम्हारी बारी... तुम भी कुछ कहो...

तुम ये ही सोच रहे हो ना कि हमारी इन बाँवरी ख़्वाहिशों को पूरा करने के लिये इतने पैसे कहाँ से लायेंगे... पर हमारी ख़्वाहिशों को पूरा करने के लिये पैसों की ज़रूरत कब से पड़ने लगी जान... भूल गये क्या... हमारी दुनिया में बस चाहतों की करेंसी चलती है... जानते हो जान मैं दुनिया की सबसे अमीर लड़की हूँ कि मेरे पास एक पूरी गुल्लक भर के तुम्हारी हँसी के सिक्के हैं...

अच्छा छोड़ो ये सब... बाकी ख़्वाहिशें जब पूरी होंगी तब होंगी... एक ख़्वाहिश अभी पूरी कर दोगे... बोलो... कैन आई गेट अ टाईट हग... राईट नाओ ???


Friday, December 5, 2014

जागते जीते हुए दूधिया कोहरे से लिपट कर, साँस लेते हुए इस कोहरे को महसूस किया है ?



सर्दियाँ हमेशा से बड़ी पसंद हैं हमें... कि थोड़ा अलसाया, थोड़ा रूमानी, थोड़ा मिस्टीरियस, थोड़ा सूफ़ियाना सा ये मौसम बिलकुल अपने जैसा लगता है...

इन सर्दियों के पहले कोहरे ने आज सुबह सवेरे दस्तक दी... अमूमन आजकल देर से ही उठाना हो रहा है... गलती हमारी नहीं है... ये कम्बख्त रज़ाइयाँ तैयार ही नहीं होती अपनी गिरफ़्त से आज़ाद करने को... ख़ैर आज सुबह उनकी तमाम कोशिशों को नाकाम कर के बरामदे में पहुँचे तो देखा नर्म शफ्फाफ़ कोहरा अपनी पुर असरार ख़ुश्बू का मलमली शॉल ओढ़े लिपटा हुआ है धरती के आग़ोश में... जैसे सदियों से बिछड़े प्रेमी मिले तो बस एक दूजे से लिपट गए सब लोक लाज छोड़ छाड़ के... कितने देर तलक उनके इस पाकीज़ा मिलन को यूँ एक टक तकती रही... सोचा के फ्रीज़ कर लूँ इन दिव्य लम्हों को मन के कैमरे में...

मेरी इस टकटकी को तोड़ा बातूनी कबूतरों के एक जोड़े ने... जाने क्या गुटर गूं  - गुटर गूं लगा रखी थी सुबह सुबह... आप बेवजह हमें बोलते हो की हम बहुत बक बक करते हैं.. देखो इन्हें... इत्ती ठंडी में भी चैन नहीं है... ज़रूर मम्मी को कोई बहाना मार के आये होंगे सुबह सुबह कि बड़ा ज़रूरी कोई काम है और यहाँ कोहरे में छुप के बातें कर रहे हैं... ख़ैर करने दो.. हमें क्या...

ये कोहरा देख के हर बार ही मन होता है कि हाथ बढ़ा के छू लूँ इसे... या फूँक कर उड़ा दूँ... ताज़ी धुनकी रुई के जैसे कोहरे के इन फाहों को... जो बैठ गए हैं हर एक चीज़ पर और सब कुछ इनके ही रंग में रंग गया है.. या चुटकी भर ये कोहरा चाय में घोल के पी जाऊँ... या फ़िर लेप लूँ अपने तन मन पर मुट्ठी भर ये मदहोश कर देने वाली गंध... के जैसे साधू कोई भस्म लगा लेता है तन पर...

जानते हो कैसे मिली इसे ये भीनी ख़ुश्बू ? कोहरे और धरती के उस पाकीज़ा मिलन से... पर तुम तो न कुछ समझते ही नहीं... याद है कितना हँसे थे तुम... इक बार जब कहा था मैंने कि मुझे इस कोहरे की ख़ुश्बू बहुत अच्छी लगती है... कितना मज़ाक बनाया था तुमने मेरा... ये कह के कि तुम पागल हो बिलकुल... कोहरे की भी भला कोई ख़ुश्बू होती है... देखो न जान आज फिर से वही महक तारी है फिज़ा में अल-सुबह से... आज फिर तुम हँस रहे हो मुझ पर...

मुझे इस कोहरे की ख़ुश्बू वाला कोई इत्र ला दो न जानां.. कि ये कोहरे वाली सर्दियाँ पूरे साल नहीं रहतीं...!


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