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Saturday, May 16, 2020

बनारस डायरीज़ 2 - सुबह-ए-बनारस !



बनारस ! ये नाम लेते ही कुछ चीज़ें अनायास ही जुबां पर चली आती हैं.. जैसे बनारस की गलियाँ, बनारसी साड़ी, काशी विश्वनाथ मंदिर और सुबह-ए-बनारस... बनारस गए और इनसे रु-ब-रु नहीं हुए तो यूँ समझिये आप बनारस से मिले ही नहीं पूरी तरह.. उसे देखा तो पर जिया नहीं... और बनारस तो फिर बनारस है...  इसका नशा चढ़ते चढ़ते चढ़ता है और एक बार चढ़ गया तो रूह में बस जाता है हमेशा के लिए... बनारस का नशा भी कुछ कुछ प्रेम में होने जैसा है... कि होता है तो बस हो जाता है... आप ठीक ठीक कह नहीं सकते कि उसकी वजह क्या है...

गंगा आरती देखने के बाद जो देखने की सबसे ज़्यादा इच्छा थी वो थी बनारस की सुबह... न जाने कब से सुनते आ रहे थे सुबह-ए-बनारस और शाम-ए-अवध का कोई जोड़ नहीं... अब लखनऊ में जन्म लिया और पले-बढ़े तो यहाँ की शाम से तो बहुत अच्छे से वाबस्ता हैं... पर हिन्दुस्तान के इतने शहरों की एक से बढ़कर एक खूबसूरत सुबहें देखने के बाद ये उत्सुकता ज़रूर थी की बनारस की सुबह में ऐसा क्या ख़ास है... तो सुबह होते ही चल दिये दशाश्वमेध घाट, की सूर्योदय तो वहीं से देखेंगे... 

घाट की सीढ़ियाँ उतरते हुए जो सामने का दृश्य था उस एक पल में समझ आ गया की सुबह-ए-बनारस इतनी मशहूर है तो आख़िर क्यूँ कर है... गंगा पार से उगता हुआ सूरज गंगा के माथे पे यूँ तिलक लगा रहा था गोया किसी ब्राह्मण ने सुबह सवेरे गंगा स्नान कर के चन्दन का तिलक लगाया हो... आखें सुनहरी आभा में लिपटी गंगा माँ को निहारते नहीं थक रही थीं... घाट पर दूर तलक लोग गंगा स्नान और पूजा पाठ करते दिख रहे थे... किनारे हर तरह की छोटी बड़ी नाव की कतारें लगी थीं... सुना था की बनारस की ख़ूबसूरती को देखने का सबसे अच्छा तरीका नाव में बैठ के गंगा की लहरों के बीच से होता है... तो नौकाविहार भला कैसे ना करते... नाव पर बैठ कर जब आप गंगा की स्वर्णिम  धाराओं के बीच पहुँचते हैं तो बनारस की एक अलग ही छवि आपको दिखती है... चमचमाती हुई... एकदम अद्भुत ! मानो शिव के माथे पे सजा अर्ध चन्द्र गंगा किनारे आ लगा  हो... एक दुसरे से जुड़े फिर भी एक दुसरे से जुदा तकरीबन चौरासी घाट जिन पर पूरी की पूरी एक सभ्यता बसी थी...



बनारस के बारे में कहा जाता है की ये शहर इतिहास से भी ज़्यादा प्राचीन है.. ये शिव की काशी है.. शिव की वो नगरी जिसका उल्लेख स्वयं ऋग्वेद में है... और तबसे ही मानो ये नगरी यूँ ही गंगा किनारे अर्ध चंद्रकार रूप में खड़ी है... सुबह का सूरज जब इन घाटों और इमारतों पर पड़ता है तो वो यूँ चमक उठते हैं मानो आज ही रंग रोगन कर के इन्हें सजाया संवारा गया हो... कहते हैं कभी यहाँ 360 घाट हुआ करते थे... अब 84 बचे हैं पर वो भी अपने आप में बहुत हैं... एक छोर पर अस्सी घाट से ले कर दूसरे छोर पर आदि केशव घाट तक...


कुछ प्रमुख घाटों की बात करें तो उनमें हैं अस्सी घाट जो अस्सी और गंगा नदी के संगम पर बसा है, यहाँ रोज़ सुबह गंगा जी की आरती करी जाती है और सुबह-ए-बनारस नाम से शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम का आयोजन भी करा जाता है.. दशाश्वमेध घाट कहते हैं इसे स्वयं ब्रह्मा जी ने शिव के स्वागत में बनवाया था और यहाँ यज्ञ में दस अश्वों की बलि दी थी,  मणिकर्णिका घाट और हरिश्चंद्र घाट जहाँ कहते हैं चिता की अग्नि कभी ठंडी नहीं पड़ती... तुलसी घाट, ऐसा कहा जाता है कि यहीं बैठ कर तुलसीदास जी ने रामचरित मानस लिखी थी...













बनारस के मल्लाह भी बड़े किस्सागो होते हैं.. उनसे तमाम सच्चे झूठे किस्से कहानी सुनते सुनते घंटों कब बीत जाते हैं पता ही नहीं चलता... संगीत से ले कर राजनीति तक और इतिहास से लेकर भविष्य तक वो घंटों आपके साथ हर विषय पर चर्चा कर सकते हैं... नाव में बैठे बैठे सारे घाटों को देखते बनारस की जो छवि मन में बस चुकी थी उसका रंग जल्दी फीका नहीं पड़ने वाला... इसे वरुणा और अस्सी नदियों के संगम से बना वाराणसी कहिये या महादेव की काशी या फक्कड़पन में डूबा बनारस... इस शहर को जानना हो तो इसके घाटों पर बैठिये... इसकी गलियों में भटकिये... ये शहर ज़िन्दगी के तमाम रसों से आपका साक्षात्कार करवाता है !

Friday, May 15, 2020

बनारस डायरीज़ 1 - रस रस बनारस !


बनारस ! पहली नज़र में यूँ लगता है मानो भीड़ का अम्बार... जैसे कोई मेला देखने, रेला का रेला भागता चला जा रहा हो... रिक्शा, ऑटो, साइकिल, कार, पैदल... जिसको जैसी सुविधा हो... पहली नज़र में आप घबरा जाते हैं.. उफ़ इतनी भीड़! ये कहाँ फंस गये... क्या यही शिव की प्रिय काशी है? क्या यही इतिहास का वो सबसे पुराना शहर है जहाँ लोग मोश प्राप्त करने आते हैं... इतने शोर शराबे के बीच... मोक्ष... सोच के ही अजीब सा लगता है... जी उकताने लगता है पहले १० मिनट में ही... फ़िर आप सोचते हैं अब आ ही गये हैं तो एक दिन रुक के गंगा घाट तो देख ही आते हैं कम से कम...

आप भी भीड़ के रेले में शामिल हो जाते हैं और मन में अनेक पूर्वाग्रह पाले जगह जगह लगे जाम के बीच बढ़ चलते हैं शहर-ए-बनारस से मिलने... इतनी भीड़ के बावजूद आप देखते हैं की हर कोई अपने आप में मस्त है... किसी के चेहरे पर कोई ख़ास शिकन नहीं... सब बस चले जा रहे हैं... कोई काशी विश्वनाथ मंदिर... कोई लंका.. कोई सिगरा... कोई बी.एच.यू. ... कितने ही देशों के टूरिस्ट आपको रास्ते में मिलते हैं और आप सोचते हैं की हम हिन्दू तो चलो मोक्ष पाने की लालसा में आये हैं पर उन्हें भला दूर देशों से यहाँ क्या खींच लाया बनारस... कैसे इतनी भीड़ में वो ख़ुशी ख़ुशी हर चीज़ इतने अचरज से देखते हैं... 

गंगा घाट पहुँच के थोड़ी शांति तो मिलती है पर सुकून तब भी नहीं... थोड़ी देर एक जगह बैठ के मन होता है चलो थोड़ा टहल के देखते हैं.. एक घाट से दूसरे घाट पैदल चलते आप तमाम रंगों से रूबरू होते हैं... कोई गंगा नहा के आपने पाप धोने में मशगूल है.. तो कोई साधू वहीँ घाट पे धुनी रमाये बैठा है... कोई चिलम फूँक रहा है... कहीं कोई चित्रकार बैठा किसी घाट के रंग अपनी पेंटिंग में उतारने में व्यस्त है... वहीं कोई अघोरी तन पे शमशान की राख लपेटे अपनी ही दुनिया मे खोया है... कुछ लोग नावों में बैठ कर घाट के चक्कर लगा रहे हैं... वहीं कुछ और हैं जो गंगा पार जा कर तर्पण आदि कर रहे हैं... कहीं बच्चे उसी गंगा में तैरना सीख रहे हैं... कहीं कोई कपड़े धो रहा है... कोई घाट की सफाई में लगा है... कोई खोमचा लगा कर समोसा कचौरी बेच रहा है तो कोई चाय... यूँ तो कहने को आज बस चौरासी घाट ही हैं पर एक पूरी की पूरी सभ्यता बसी है इन घाटों पर...



आपको धीरे धीरे ये अनोखापन ख़ुद से बांध लेता है... अब आप फिर थक के घाट पे बैठते हैं तो घंटों बैठे रहते है... शून्य में देखते हुए.. जाने क्या सोचते हुए... वहाँ से उठने का मन ही नहीं होता... 

संध्या आरती का समय हो आया है... आप क्योंकि पहले से वहाँ हैं तो आराम से जगह ले कर बैठ जाते हैं... आरती की तैयारी होते देखना भी अपने आप में एक अनुभव है... कैसे हर किसी का काम बंटा हुआ है... पहले धुलाई सफाई... फिर पूजा आरती के लिये एक जैसे पाँच मंच तैयार करना जिसपर खड़े हो कर पाँच पुरोहित एक साथ संध्या आरती करेंगे... एक लड़का आता है जो पाँचो जगह घंटी लोटे और पूजा थाल रख जाता है.. फिर कोई आता है जो धूप कपूर रख जाता है.. फिर कोई फूल.. कोई कपड़ा.. कोई जल... 

बीच वाले मंच पर गंगा माँ की प्रतिमा श्रृंगार कर के तैयार करी जाती है... इधर आरती का समय पास आते आते भीड़ बेहद बढ़ जाती है.. एक एक व्यक्ति को ठीक से बैठाना, उसके लिए जगह बनाना अपने आप में बढ़े ही धैर्य का काम है जो उतने ही धैर्य और शालीनता से किया जाता है... कब आपके आसपास सौ पचास की भीड़ हज़ार, दो हज़ार, पाँच हज़ार में तब्दील हो जाती है आपको पता ही नहीं चलता.. जितने लोग मंच के पीछे ज़मीन और सीढ़ियों पर उससे कहीं ज़्यादा सामने गंगा जी मे नावों पर... अजीब समां बंध जाता है... और जब आरती शुरू होती है तो यूँ लगता है मानो कोई जादूगर आपको सम्मोहित कर के किसी दूसरे ही लोक में ले जाता है... आलौकिक !



पाँचों पुरोहित जब एक साथ आरती करते हैं बिल्कुल सिंक्रनाइज़ तरीके से तो जो समां बंधता है और दिल को जिस ख़ुशी का एहसास होता है उस एहसास को ख़ुद महसूसना पड़ता है... शब्दों में उसे बयान करना बेहद मुश्किल है.. आप आस्तिक न भी हों... किसी भी देश धर्म के हों... आप उसे देख कर उस पल की ख़ूबसूरती से प्रभावित हुए बिना रह ही नहीं सकते... मन में एक तसल्ली एक सुकून के साथ वापस लौटते हैं... बनारस अब कुछ कुछ अच्छा लगने लगता है... वो भीड़ भी अब ज़्यादा परेशान नहीं करती...!


Friday, January 18, 2019

शाम की आग़ोश में आमेर !



आमेर... समय की धुरी पे सदियों से टिका एक किला... जो सिर्फ़ एक किला नहीं... पत्थरों में तराशी हुई एक दिलकश दास्तां है... जिसे जितनी बार भी सुनो हर बार ही कोई न कोई नई परत खुल जाती है... पहले से भी ज़्यादा दिलफ़रेब... पहले से भी ज़्यादा अनूठी... इतनी दिलचस्प की आप आवाक से बस उसे सुनते ही रह जाते हैं... जैसे पहली बार सुन रहे हों..

यूँ तो जाने कितनी बार आमेर जा चुके हैं.. पर हर बार उसे दिन के उजाले में ही देखा है... तमाम टूरिस्ट्स की भीड़ के बीच... दिन के समय आप जब भी वहाँ जाते हैं तो उस किले की भव्यता से रूबरू होते हैं... लंबा चौड़ा प्रांगण... विशाल द्वार.. ख़ूबसूरत फ्रेस्को पेंटिंग्स से सजी गणेश पोल की दीवारें... अनगिन शीशों से चमचमाता शीश महल... माओटा झील... केसर क्यारी... दीवान-ए-आम... दीवान-ए-ख़ास... और भी पता नहीं क्या क्या... पर कुछ है जो उस दिन के उजाले में नहीं दिखता.. या यूँ कहें महसूस नहीं होता...

दिन ढले आमेर से रूबरू होना अपने आप में एक बेहद रूहानी अनुभव है... बेहद ख़ास ! सियाह रात के सन्नाटे में जब आमेर तमाम रंगों की रौशनी में नहा जाता है तो जैसे किले की दीवारें, झरोखे, दरवाज़े सब आपसे बातें करने लगते हैं... यूँ लगता है जैसे आसमान के सारे तारे उतर कर आमेर के आंचल में आ कर सज गए हैं... पार्श्व में बजते राजस्थानी लोक गीत आपको मोहपाश में बांध लेते हैं... गोया सैकड़ों अप्सराएँ आमेर के प्रांगण में घूमर खेल रही हों... आप ठगे से एक एक लम्हें को अपने दिल की गहराइयों में संजोने की कोशिश में लगे रहते हैं... अंधेरे उजाले की इस कशमकश के बीच शीश महल की ख़ूबसूरती अपने चरम पे होती है...











यूँ तो शाम के समय आप आमेर के कुछ ही हिस्से में घूम पाते हैं फ़िर भी आपका दिल एक तृप्ति महसूस करता है जो दिन के समय नहीं महसूस होती... पूरे माहौल में एक रूमानियत सी तारी रहती है... न ज़्यादा भीड़ भाड़ न शोर शराबा... चारों ओर बस शांति... ऐसा सन्नाटा जो आपको डराता नहीं है... अपनी ओर खींचता है... आमेर एक प्रेमी के जैसे आपको रिझाता है... यूँ लगता है गोया आमेर और आप दुनिया से छुप कर अकेले में कुछ प्यार भरे लम्हें बिता रहे हैं... एक दूसरे को समझ रहे हैं... आत्मसात कर रहे हैं... मन होता है समय का पहिया बस यहीं रुक जाए... आप यूँ ही आमेर के आग़ोश में बैठे रहें.. ये जादू कभी न टूटे...!



Monday, July 3, 2017

केरल डायरीज़ - ६ : फिरोज़ी इश्क़... कोवलम !




२ फरवरी २०१७

कोवलम... यानी नारियल के पेड़ों का उपवन... इससे बेहतर और उपयुक्त नाम हो ही नहीं सकता इस जगह का... दूर तक फैला नीला अरब महासागर और किनारे लगे असंख्य नारियल के पेड़... आने वाले दो दिनों में ये जगह हमारी ऑल टाइम फेवरेट लिस्ट में शामिल होने वाली है ये हमें भी नहीं पता था....

बीती रात लहरों के शोर ने समंदर से मिलने की उत्सुकता कुछ और बढ़ा दी... रात उठ उठ के जाने कितनी बार खिड़की से झाँका कि सुबह हो गयी क्या... पर सुबह को तो अपने तय समय पर ही होना था सो वो तभी हुई... हाँ हम जैसे तैसे तो ६ बजे तक पड़े रहे बिस्तर में फ़िर बस आ कर टंग गये बालकनी में और लहरों को साहिल संग अठखेलियाँ करते देखते रहे एक टक... कोवलम में तीन मेन बीच हैं... सबसे बड़ा और टूरिस्टों से हमेशा भरा रहने वाला कोवलम बीच, विदेशी सैलानियों के लिए प्रसिद्द हावा बीच और तीसरा समुद्र बीच जो अपने शान्त वातावरण के लिये प्रसिद्द है... हम जिस रिसोर्ट में रुके थे वो दरअसल यहीं समुद्र बीच के किनारे था... यहाँ बहुत कम ही लोग आते हैं... ज़्यादातर वो जो इस रिसोर्ट में या आसपास के होटलों में रुके होते हैं... तो एक तरह से ये बीच अनौपचारिक तौर पर इस रिसोर्ट के लिए प्राइवेट बीच का काम करता है...

समुद्र बीच से सामने पहाड़ी पर लाल और सफ़ेद रंग की जो बिल्डिंग दिख रही है
वो होटल लीला कोवलम है
किसी तरह ६.३० बजा और जैसे ही थोड़ी चहलपहल दिखी बीच पर हम भी निकल गए लहरों से मिलने... यूँ लहरों से भोर का राग सुनने का ये बिलकुल अलहदा तजुर्बा था... बेहद रूहानी... जाने कितनी देर किनारे बैठे लहरों को यूँ आते जाते देखते रहे... अजब सम्मोहन था उनकी चाल में... दूर से उठती कोई लहर ढेर सारा सफ़ेद दूधिया झाग अपने संग लिये आपकी ओर दौड़ती आती है और छपाक से गिरती है साहिल पे... कोई बस चुपके से दबे पाँव आती है और पैरों में गुदगुदी मचा में खिलखिलाती हुई वापस भाग जाती है... तो कोई दुष्ट लहर ढेर सारी रेत बहा ले जाती है आपके पैरों तले से और आपके पैर धंस जाते हैं साहिल की रेत में... जी करता कि बोलें उसे, रुको, अभी बताते हैं तुम्हें और दौड़ जायें दूर तक उस पागल लहर के पीछे... कितने तो मासूम खेल और कितने ही बचकाने ख़यालात... दिल सच में बच्चा हुआ जाता था वहाँ पहुँच के...

नाव में बैठ कर दूर समंदर में जाल डालने जाते मछुआरे

फ़ोटो बड़ा कर के देखने पर समंदर में दूर तक तिकोना आकार बनाते छोटे छोटे से सफ़ेद डिब्बे जैसे दिखेंगे
वो दरअसल मछुआरों के द्वारा डाले हुए जाल के दो सिरे हैं
 

जाल के एक सिरे पर रस्सी खींचते मछुआरे 
लहरों के संग खेलने और यहाँ की आधी काली आधी भूरी रेत में देर तलक चहलकदमी करने के बाद थोड़ा सुस्ताने बैठे तो देखा दूर समुद्र में जा के जो मछुआरों ने जाल डाला था अब उसे खींचना शुरू करने वाले थे... उन्हें जाल की रस्सी खींचते देखना भी अपने आप में एक अजब अनुभव था... पहली चीज़ जिसने आकर्षित किया वो था उनका सिंक्रोनाइजेशन... दोनों छोर पे तकरीबन २०-२० मछुआरे जाल की रस्सी खींच रहे थे और साथ में एक अजब ही आवाज़ निकल रहे थे... शायद एक दूसरे का उत्साह बढ़ने के लिये... ये मछली पकड़ने का पूरा साईकल तकरीबन ३ घंटे का होता है जो दरअसल सुबह करीब ६ - ६.३० शुरू होता है जब कुछ मछुआरे एक नाव में बैठ कर समुद्र में काफ़ी दूर तक जाते हैं और जाल को पानी में डालते हैं... फ़िर वापस किनारे पर आ कर अपने अन्य साथियों के साथ मिलकर जाल के दोनों छोर में बंधी रस्सी खींचते हैं मछलियों से भरे जाल को वापस लाने के लिए... उस दिन कितनी मछलियाँ फँसी जाल में ये तो हमने नहीं देखा... अलबत्ता भीगे हुए, १५-२० मिनट तक मछुआरों का रस्सी खींचना देख कर ठण्ड ज़रूर लगने लगने लगी.. तो पास में ही एक चाय की दूकान पर जा कर चाय पी और साथ में गरम गरम मैगी खायी तब जाकर ज़रा जान में जान आयी :)

१० दिन की इस हेक्टिक ट्रिप के बीच कोवलम का ये दिन हमने रिलैक्स करने के लिए चुना था तो लगभग सारा दिन ही रिसोर्ट में आराम किया और आगे की यात्रा के लिए री-एनर्जाइज़ हुए... और उसके लिये ये रिसोर्ट बेस्ट था... यूँ तो कमरा भी शानदार था खुला खुला हवादार... पर अन्दर मन किसका लगता है... हमें तो रूम के बहार की बालकनी बहुत पसंद आयी... जी चाहे तो सारा दिन वहाँ बैठे समंदर को निहारिये... किताबें पढ़िये... सामने नारियल से लदे पेड़ों को देखिये... उस सब से थक जाइये तो स्विमिंग पूल का लुत्फ़ उठाइये या केरल की फेमस आयुर्वेदिक मसाज का...






सारा दिन रिलैक्स करने के बाद शाम को सोचा पद्मनाभ स्वामी मन्दिर देख आया जाये... देखें तो ज़रा आख़िर क्यूँ इसे दुनिया का सबसे अमीर मन्दिर कहा जाता है और भगवान आख़िर इतने सोने का करते क्या हैं... मन्दिर बेहद भव्य और ख़ास द्रविडियन वास्तुशैली में बना हुआ था... भव्य गोपुरम और विशाल प्रांगण... चारों ओर ऊँची दीवारों से घिरा... सामने एक तालाब... कैमरा और फ़ोन सब काफ़ी दूर ही जमा करा लिए गए थे तो कोई भी फ़ोटो लेना संभव नहीं हो पाया... पर मन्दिर ऐसा है की ख़ुद देख के ही अनुभव कर सकते हैं... कैमरा उसका अंश मात्र भी कवर नहीं कर सकता... सख्त पत्थरों में कैसे बोलती हुई मूर्तियाँ उकेरी गयी थीं पूरे प्रांगण में... कहीं दीवारों पर कहीं खंभों पर कहीं छत में... हर छोटी बड़ी मूर्ति लगता था बस अभी बोल पड़ेगी... जाने कौन शिल्पकार थे वो जिन्होंने पत्थरों में यूँ जान डाल दी थी... 

यूँ तो मन्दिर में दर्शन के लिए बहुत लंबी लाइन लगती है पर जब हम मन्दिर पहुँचे तो संध्या आरती का समय होने वाला था और पट बंद होने वाले थे आधे घंटे के लिये तो लाइन में लगे सभी लोगों को जल्दी जल्दी दर्शन कराये गये... मन्दिर में मुख्य मूर्ति भगवान विष्णु की है जो "अनंत शयनं" मुद्रा में शेष नाग पर लेटे हुए हैं... उनका दाहिना हाथ शिव लिंग के ऊपर रखा हुआ है... उनकी नाभि से स्वर्ण कमल निकल रहा है जिस पर ब्रह्मा विराजमान हैं... साथ ही श्रीदेवी लक्ष्मी, भूदेवी, भृगु मुनि और मारकंडेय मुनि की मूर्तियाँ भी हैं... कहते हैं विष्णु भगवान की मूर्ति १२००८ सालिग्रामों से बनी है... और ये सारे सालिग्राम नेपाल में बहने वाली गण्डकी नदी से लाये गए थे... मूर्ति इतनी विशाल है की उसे तीन दरवाज़ों से पूरा देखा जा सकता है... पहले दरवाज़े से भगवान का सिर और हाथ... दूसरे से नाभि से निकलता कमल और तीसरे से उनके चरण... सच पूछिये तो ऐसी विशाल और इतनी सुन्दर मूर्ति हमने आजतक नहीं देखी... कुछ क्षणों का ही सही पर ये एक अनूठा अनुभव था...

मन्दिर से वापस आये तब तक अँधेरा हो चूका था और एक बार फ़िर से सनसेट देखना मिस कर दिया था हमने... खैर खाना वाना खा कर आज जल्दी सोने की तैयारी करनी है... कल का दिन भी लंबा होने वाला है... आज केरल में हमारी आखरी रात है... कल कन्याकुमारी जाना है...



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Friday, June 2, 2017

केरल डायरीज़ - ५ : पानियों पे बहती ज़िन्दगी...



१ फरवरी २०१७

मुन्नार की ख़ुमारी अभी उतरी भी नहीं थी कि आज एक और सफ़र पर निकलना था... आज का दिन थोड़ा लंबा होने वाला था... कोच्ची से तकरीबन २२० किलोमीटर का सफ़र तय कर के आज हमें कोवलम पहुँचना था... इस ट्रिप पर मुन्नार के बाद अगर किसी डेस्टिनेशन के लिए हम बहुत ज़्यादा एक्साइटेड थे तो वो था कोवलम और अल्लेप्पी... अल्लेप्पी के बैक वाटर्स के बारे में बहुत कुछ सुन और देख रखा था टीवी और मैगज़ीन्स में... कोच्ची से ये अल्लेप्पी कोई ५५ किलोमीटर की दूरी पर है कोवलम जाने वाले रास्ते में ही... शेड्यूल बहुत टाइट होने की वजह से वहाँ रात रुकना तो मुमकिन नहीं था पर यहाँ तक आ कर अल्लेप्पी जाना तो था ही.. सो रास्ते में २ घंटे का हॉल्ट ले कर बैक वाटर्स का मज़ा लिया जाना तय हुआ... ये जानने-समझने के लिये की आख़िर क्यूँ अल्लेप्पी को "वेनिस ऑफ़ दा ईस्ट" कहते हैं... 

यूँ तो केरल में बैकवाटर्स का तकरीबन ९०० किलोमीटर लंबा नेटवर्क है जो लगभग केरल की आधी लम्बाई के बराबर है... ये बैकवाटर्स असंख्य झील, तालाब, नदी, नहर और खाड़ियों की परस्पर जुड़ी हुई एक लंबी चौड़ी पानी की भूल भुलैया जैसे हैं... जो दरअसल अरब महासागर की तेज़ लहरों द्वारा पैदा किये करंट की देन हैं... ये करंट साग़र की ओर बह कर आ रही नदियों और पानी के अन्य स्रोतों की राह में एक तरह का व्यवधान डालता है और उन्हें पीछे ज़मीन की ओर धकेलता है जिससे ये बैकवाटर्स बनते हैं... 

इन ख़ूबसूरत बैकवाटर्स को एक्स्प्लोर करने का एक ही तरीका है... किसी हाउस बोट में बैठ कर पानी के दोनों किनारों पर लगे असंख्य नारियल के पेड़ों को देखते हुए प्रकृति में बस खो जाइये और उस प्रकृति का हिस्सा हो जाइये... ऐसे ही एक हॉउस बोट पर बैठ कर हम भी कुछ देर उस ख़ूबसूरती का हिस्सा हो गये... केरल की जो छवि न जाने कब से मन में बसी हुई थी वो आज हमसे रु-ब-रु थी... मीलों तक पानी ही पानी... पानी के दोनों किनारों पर लगे नारियल के पेड़... जो झुक कर पानी को चूमते हुए से प्रतीत होते हैं... पानी पे तैरती हाउस बोट्स... मछली पकड़ते मछुआरे... नाव पर ढेर सारे नारियल इकठ्ठा करते नाविक... किनारों पर बने छोटे छोटे घर... तकरीबन हर घर में ही नारियल के अलावा आम, केला, कटहल और लाल लाल फूलों से लदे गुड़हल के पेड़... घरों के आगे बंधी नाव और पीछे धान के हरे भरे खेत... सब कुछ कितना सौम्य, कितना शांत...



पानी के साथ साथ समय भी मानो थम सा गया था यहाँ... कुछ था जो शहर की भाग दौड़ से परे समय को थामे हुए था यहाँ... पानी के किनारे बसे लोग इस जीवन के अभ्यस्त हो चुके थे... ये पानी उनकी लाइफलाइन था... कोई घर से निकल कर चार जीने उतर कर इसी पानी में कपड़े धो रहा था और कोई बर्तन... तो कोई बस पानी के किनारे बने लकड़ी के छज्जों में बैठा बातें कर रहा था... किनारे बसे कई घरों में छोटे छोटे ढाबे नुमा रेस्टोरेंट खुले थे, जहाँ घर की महिलायें ही खाना बना रही थीं और पुरुष खाना परोस रहे थे... यही इनकी आजीविका का साधन है... यहाँ टूरिस्ट्स ख़ास तौर पर विदेशी सैलानी बड़े चाव से केले के पत्तों पर परोसा हुआ खाना खाते हैं... इसके अलावा मछली पकड़ना और नारियल पानी बेचना भी इनके जीवन यापन का साधन है... ये लोग इतने में ही संतुष्ट रहते हैं... यहाँ की महिलायें बहुत मेहनती हैं... पुरुषों के साथ साथ महिलायें भी बहुत अच्छे से नाव चला रही थी... हालांकि उनके लिए ये रोज़ मर्रा का काम था क्यूंकि कहीं भी जाने के लिये उनके पास यही एक रास्ता था पानी का और यही एक साधन यानी की नाव... पर यूँ इतने अच्छे से तैयार हो कर, सुन्दर सी साड़ी पहने, बालों में गजरा लगाये, नाव खेती महिलायें पहली बार देखी थी हमने सो थोड़ा विस्मित थे और थोड़ा अभिभूत...





पानी पर यूँ तैरते बहते समय कैसे तेज़ी से बीता पता ही नहीं चला... २ बजने को आया था... अभी कोवलम तक का सफ़र बहुत लंबा था सो ज़्यादा देर नहीं करते हुए हमने आगे का सफ़र जारी रखा... कोवलम पहुँचते तक शाम हो चुकी थी... सनसेट देख पाने की उम्मीद ख़त्म हो चुकी थी... रिसोर्ट में चेक इन कर के रूम में पहुँचते तक बिलकुल अँधेरा हो गया था... अब कमरे की बालकनी में खड़े हो कर सिर्फ़ लहरों का शोर सुना जा सकता था... उन्हें देखने और उनसे खेलने के लिए सुबह तक का इतज़ार और सही...!


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Monday, May 15, 2017

केरल डायरीज़ - ४ : साहिर सुबह पहाड़ों की...



३१ जनवरी २०१७

आपने पहाड़ों की सुबह देखी है कभी ? पहाड़ों से ज़्यादा आलौकिक सुबह शायद ही कहीं होती हो धरती पर... जब रात की सियाही को भेदती भोर की सुनहरी किरणें पहाड़ की चोटी पर पड़ती हैं तो यूँ लगता है गोया धीरे धीरे किसी रंगमंच का पर्दा उठा रहा हो... पर्त दर पर्त कोहरा छनता जाता है... ओस की बूंदे खिड़की के शीशों पर पानी में तब्दील होते हुए अपने निशां छोड़ती जाती हैं... हौले हौले आपके सामने वो बड़ा सा रंगमंच जीवंत हो उठता है... सामने घट रहा दृश्य यूँ साफ़ होता जाता है गोया फेड इन ट्रांज़िशन पे सेट हो... पंछी चहकने लगते हैं... पेड़ हरे हो जाते हैं... दूर कहीं बहते पानी की कल कल बैकग्राउंड में संतूर सी बज उठती है... कहीं किसी पहाड़ी घर की रसोई जाग जाती है... चूल्हे से धुआं उठता है.. चाय की महक घुलती है... भोर की सुनहरी ठंडक क़तरा क़तरा आपकी रूह के भीतर कहीं जज़्ब हो जाती है... 

मुन्नार में ऐसी ही एक दिव्य सुबह से मुलाकात हुई... सुबह कोई ५.३० बजे आँख खुली और बस खिड़की के पास बैठे बैठे सहर के साहिर का जादू देखते देखते, उस सुनहरी ठंडक को भीतर जज़्ब करते करते कब एक घंटा बीत गया पता ही नहीं चला... दिल फ़िर भी नहीं भरा... मन हुआ बस सारा दिन यहीं इस खिड़की के पास बैठे रहें.. प्रक्रति की ख़ूबसूरती में खोये हुए... पर ये न थी हमारी क़िस्मत... सो उठाना पड़ा... नहा धो के तैयार हो कर नाश्ते के लिए बैंक्वेट में पहुँचे तो बड़ा भला सा लगा... चारों ओर काँच की खिड़कियों से छन के आती धूप ने फ़िर मोह लिया... खैर आज बहुत कुछ और नया देख कर वापस कोच्ची भी जाना था तो ज़्यादा फ़ुर्सत से नहीं बैठे.. जल्द ही नाश्ता कर के होटल से चेक-आउट किया और चल पड़े आज के सफ़र पर...

चाय के ख़ूबसूरत बागानों के बीच से होते हुए हम जा रहे थे १३ किलोमीटर दूर आज के पहले पड़ाव मत्तुपेट्टी डैम और झील देखने... मौसम बेहद ख़ुशगवार था... हवा में हल्की ठंडक.. इतनी हल्की की सुबह की धूप भली सी लग रही थी... चारों ओर इतनी हरियाली दिल को बेहद सुकून दे रही थी... हमारे शहरों में कहाँ अब इतनी हरियाली एक साथ देखने को मिलती है... दिल हो रहा था यहीं कहीं एक छोटी सी झोपड़ी बना के बस जायें... जैसे जैसे आगे बढ़ते गए चाय के बागान घने जंगल में तब्दील होते गये... सर्पीले मोड़ों पर गाड़ी दौड़ती जा रही थी... एक पहाड़ से दूसरे पहाड़... जंगल की गंध अपना सुरूर दिल-ओ-दिमाग पर काबिज़ करती जा रही थी... इस बीच पहाड़ों से घिरी हुई हरे रंग की एक झील नज़र आयी... मतलब हम मत्तुपेट्टी डैम पहुँच चुके थे और ये झील दरअसल उस डैम के पानी का रिज़रवॉयर थी... डैम तो कुछ ख़ास नहीं था पर झील ने मन मोह लिया... चारों ओर बेइन्तेहाँ ख़ूबसूरत पहाड़ियों से घिरी बेहद शान्त झील... सुबह के शान्त वातावरण में झील की शान्त ख़ूबसूरती घुल के एक अनोखा ऐम्बीअंस क्रिएट कर रही थी... ऐसे लग रहा था मानों पूरी प्रकृति मेडीटेट कर रही है... दिल हो रहा था बिना उस तारतम्य को बिगाड़े बस चुपचाप वहीँ बैठे रहें देर तलक... 






थोड़ी देर रुक कर आगे बढ़े इको पॉइंट की तरफ़ जो वहाँ से थोड़ी ही दूर है... इको पॉइंट की ज्योग्राफिकल लोकेशन ऐसी ही की उस जगह आवाज़ नेचुरली इको करती है... वहाँ जाते हुए एक ख़ूबसूरत इत्तेफ़ाक हुआ... रास्ते में एक जगह रुक के झील की कुछ फ़ोटो खींच रहे थे... सड़क से हल्की सी ढलान उतर के झील तक पहुँचा जा सकता था... उत्सुकता में भरे नीचे उतरे तो देखा झील किनारे किसी का बेहद सुन्दर कत्थई रंग का घोड़ा बंधा था... जो वहाँ के माहौल को और ज़्यादा पिक्चरिस्क बना रहा था... शांत ख़ूबसूरत झील.. किनारे बंधा घोड़ा... और सामने पहाड़ी पर ऊँचे ऊँचे हरे भरे पेड़... यहाँ आकर पल भर को किसी स्विस इलाके में होने का सा गुमां होता है... सच पूछिये तो ये एक ऐसी जगह थी जहाँ बिना किसी काम या किसी से बात किये पूरा दिन बिताया जा सकता था सिर्फ़ प्रकृति की ख़ूबसूरती में खोये हुए और ईश्वर की इस रचना को निहारते हुए... इको पॉइंट पहुँचे तो वहाँ आसपास थोड़ी बहुत दुकाने थी... जो अब धीरे धीरे खुल रही थीं और लोग अपनी दिनचर्या शुरू करने जा रहे थे... नीचे झील में बोटिंग भी हो रही थी.. पर ज़्यादातर लोग वहाँ की ख़ूबसूरती को आँखों और कैमरे में क़ैद करने में लगे थे... हमने भी कुछ देर रुक कर वही किया और फ़िर वापस चल दिये... 





हमारा अगला पड़ाव था रोज़ गार्डन... इस गार्डन को केरला फ़ॉरेस्ट डेवलपमेंट कारपोरेशन के सहयोग से मेन्टेन किया जाता है... मुन्नार इको-टूरिज़्म की कड़ी में एक बेहद ख़ूबसूरत सौगात जो यहाँ आने वाले टूरिस्टों को एक ही जगह पर रंग बिरंगे फूलों की असंख्य प्रजातियों को देखने का और लुत्फ़ उठाने का मौका देती है... कहने को रोज़ गार्डन पर शायद ही कोई ऐसा फूल हो जो यहाँ देखने को न मिला हो... और्किड्स से लेकर एन्थूरियम तक और इम्पेशंस से लेकर वाटर लिली तक... गुलाब की भरमार तो खैर थी ही... किस फूल को देखें और किसे नहीं... आपकी इसी दुविधा को दूर करने के लिए बड़ी ही कुशलता से फूलों के इस पार्क में वे रोड ही बनायी गयी है... पहाड़ की ढलान पर इस गार्डन को कुछ इस तरह से बनाया गया है की आप एक ओर से फूलों को देखते हुए नीचे उतरते जाते हैं और दूसरी ओर से फूलों को देखते हुए ही वापस चढ़ते जाते हैं... वापस आते तक फूल का शायद ही कोई ऐसा रंग हो जो आपने न देखा हो... आँखें रंगों से भर जाती हैं.. और दिल सुकून से...













अब इतनी ख़ूबसूरती देखने के बाद और कहीं जाने का मन तो नहीं था पर मुन्नार आयें और टी म्यूजियम न देखें ऐसा कैसे हो सकता है... हालाँकि पहले भी कई टी म्यूजियम देखे हैं उत्तराखंड में पर सोचा देखते हैं यहाँ क्या अलग है... कुछ ख़ास तो खैर नहीं था... चाय के इतिहास पर एक डॉक्युमेंट्री दिखायी जा रही थी.. पर उसका दूसरा बैच स्टार्ट होने में काफ़ी टाइम था... सो उसके लिए रुके नहीं... अन्दर दो कमरों में चाय बनाने की पुरानी मशीने रखी हुई थीं और कानन देवन की पहाड़ियों पर कब और कैसे चाय का प्लांटेशन लगाया गया और कैसे चाय का प्रोडक्शन शुरू हुआ ये पूरा इतिहास फ़ोटो समेत संजोया हुआ था वहाँ की दीवारों पे... फ़िर अन्दर एक बड़े से हॉल में चाय बनाने का पूरा प्रोसेस समझाया जा रहा था किस तरह पत्तियों का चुनाव होता है... फ़िर कैसे उन्हें सुखाया जाता है.. रोल किया जाता है... और कैसे ग्रेडिंग कर के हम तक पहुँचाया जाता है... ग्रीन टी और उसके फायदों के बारे में भी बताया गया... ग्रीन टी को बनाने और पीने का सही तरीका भी बताया गया... सबसे अनोखी बात जो पता चली वो ये की चाय का पेड़ कभी मरता नहीं... हर १०-१५ दिनों में नयी कोपलें आ जाती हैं और उन्हें तोड़ लिया जाता है... और पेड़ सालों साल चलता रहता है... 


टी म्यूज़ियम देख कर निकले तो दोपहर होने को आयी थी... हमें अब कोच्ची वापस लौटना था... मन को वहीं मुन्नार की पहाड़ियों पर छोड़ के... हम वापस चल तो दिये वहाँ से पर दिल में अजीब सी बेचैनी थी... जैसे कुछ अधूरा सा रह गया हो... एक दिन के इस छोटे से प्रवास ने जाने क्या जादू किया था कि दिल को ये यकीं हो चला था यहाँ ज़रूर वापस आना है एक दिन.. जल्द ही... फ़ुर्सत वाली एक लम्बी छुट्टी पर.. मुन्नार को और क़रीब से जानना बाक़ी है अभी...


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