तुम्हारा वजूद मेरे चारों ओर बिखरा हुआ है… कुछ भी करती हूँ तो जाने
कहाँ से तुम चले आते हो… पेड़ों को पानी दे रही होती हूँ तो तुम पानी का
पाइप छीन कर मुझे भिगो देते हो… खाना बना रही होती हूँ तो आ कर पीछे से जकड़
लेते हो बाहों में... कोई गाना सुन रही होती हूँ तो उसमें भी किरदार की
जगह तुम ले लेते हो… कोई इमेज सर्च करती हूँ गूगल पे तो तुम्हारी यादें घेर
लेती हैं आ के… तुमसे मिलने के बाद आज तक कभी अकेले चाय-कॉफ़ी नहीं पी पायी
हूँ… कप से पहला सिप हमेशा तुम लेते हो…
पीले गुलाब की
ख़ुशबू... पूरनमासी का चाँद... झील... पहाड़... झरने... जंगल... बर्फ़...
पानी... रेत... सागर… क्या क्या भूलूँ मैं और कैसे भूलूँ... साँस लेना भूल
सकता है क्या कोई ?
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जानते हो जब भी तैयार होकर
आईने के सामने खड़ी होती हूँ तो "मैं" "तुम" में तब्दील हो जाती हूँ... ख़ुद
को तुम्हारी नज़र से देखती हूँ... खूबसूरत हो जाती हूँ… ख़ुद पर ही रीझती
हूँ... ख़ुश होती हूँ... मुस्कुरा उठती हूँ...
वो देखा होगा न पिक्चरों में… कैसे एक इंसान के अन्दर दो
आत्माएं रहती हैं... एक सफ़ेद और एक काली… एक अच्छी एक बुरी… एक सही एक ग़लत…
मेरे अन्दर भी दो लोग रहते हैं… "तुम" और "मैं"… अच्छे वाले "तुम" और बुरी
वाली "मैं"…
सुना है अंत में जीत हमेशा अच्छाई की होती है…
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मैं
रोती हूँ तो आँसू बन कर तुम गालों पे ढुलगते हो… हँसती हूँ तो होठों पर
मुस्कराहट बन तुम महकते हो… दिल धड़कता है कि इसमें तुम रहते हो… साँसे चलती
हैं कि उन्हें पता है दूर कहीं तुम साँस ले रहे हो… अपनी ज़िन्दगी में ख़ुश
हो… आगे बढ़ चुके हो…
तुमने बहुत देर कर दी जान… बस दो कदम पहले बता देते मुझे तो मैं
संभाल लेती ख़ुद को… पर अब तुम इस क़दर आत्मसात हो चुके हो मुझमें कि तुमसे
दूरी बना पाना बहुत मुश्किल हो रहा है… हर पल तुम्हें ही सोचते रहने के बाद
ये दिखाना कि तुम्हें अब पहले की तरह नहीं याद करती… कि पहले के जैसे
महसूस नहीं करती तुम्हारे बारे में… कि मैं ख़ुश हूँ… कि मन को किसी और काम
में उलझा लिया है…
तुमसे झूठ भी तो नहीं बोल सकती… लड़ सकती हूँ… सो लड़ रही हूँ… तुमसे… ख़ुद से… ज़िन्दगी से…
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कब
क्यूँ कहाँ कैसे किसलिए… सवालों की फ़हरिस्त लम्बी है… जवाब बस इतना भर कि
ज़िन्दगी है… और तुम्हें सज़ा मिली है जीने की… "यू हैव टू लिव टिल डेथ" दूर
कहीं ये कह के कलम तोड़ दिया किसी ने…
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कभी कभी सोचती हूँ मीरा के बारे मे… अजीब दीवानी थी… बिलकुल
नॉन-प्रैक्टिकल… कोई ऐसे किसी के प्यार में अपना घर-द्वार सारा सँसार भूल
बैठता है क्या… सिर्फ़ उसका नाम लेकर ज़हर का प्याला पी लेना कोई समझदारी है
क्या… वो न समझता उसके प्यार को तो… मर जाती तो… उसे फ़र्क पड़ता क्या…
कभी मैं पी लूँ ज़हर तुम्हारे प्यार में तो… तुम आओगे क्या बचाने ?