Monday, October 25, 2010

ये भी साल जमा कर लो...


पिछले तकरीबन डेढ़ सालों की ब्लॉगिंग में ना जाने कितनी ही बार गुलज़ार साहब की नज्में आप सब के साथ बांटी... अब तक तो हमारा गुलज़ार प्रेम जग ज़ाहिर हो चुका है :) ख़ैर... अभी हाल ही में एक ख़ज़ाना हाथ लगा तो सोचा हमारी तरह ही ना जाने कितने गुलज़ार साहब के मुरीद हैं तो उन सब के साथ उस ख़ज़ाने को साँझा कर लूँ...

अब आप सोच रहे होंगे की ये किस ख़ज़ाने की बात कर रहे हैं हम... तो सुनिये... हुआ यूँ कि एक दिन यूँ ही गूगलिंग कर रहे थे :) अभी कुछ दिन पहले ही और ये हाथ लग गया... कहने को तो ये वर्ष 2010 का कैलेंडर है... अब आप सोचेंगे की यहाँ साल ख़त्म होने को आया और हम अब कैलेंडर की बात कर रहे हैं और उसे पा कर इतने ख़ुश हो रहे हैं... तो भईया राज़ की बात ये है की उस कैलेंडर में हर महीने के लिये गुलज़ार साहब ने एक ख़ास नज़्म लिखी है... जो हमने तो पहली बार ही पढ़ी हैं... कुछ एक तो बस कमाल हैं... बेहद ख़ूबसूरत तरीके से बेजान चीज़ों में जान फूंकी है गुलज़ार साब ने...

ये कैलेंडर मुझे मिला फोटोग्राफर विवेक रानाडे की वेबसाइट पर... चुराया नहीं है "डाउनलोड फ्री स्टफ़" में मिला :) इस कैलेंडर के लिये नज्में जैसा हमने अभी बताया लिखी हैं गुलज़ार साब ने, फोटोग्राफी है विवेक जी की और उन नज़्मों को ख़ूबसूरत तरीके से सजा के लिखा है कलिग्रफर अच्युत पलव जी ने...

लीजिये आप भी पढ़िये... देखिये... महसूस कीजिये और संजो लीजिये...

कैलेंडर की शुरुआत होती है गुलज़ार साहब की इस नज़्म से -

ये भी साल जमा कर लो २०१०

अकबर का लोटा रखा है शीशे की अलमारी में
रना के "चेतक" घोड़े की एक लगाम
जैमल सिंह पर जिस बंदूक से अकबर ने
दाग़ी थी गोली

रखी है !

शिवाजी के हाथ का कब्जा
"त्याग राज" की चौकी, जिस पर बैठ के रोज़
रियाज़ किया करता था वो
"थुन्चन" की लोहे की कलम है
और खड़ाऊँ "तुलसीदास" की
"खिलजी" की पगड़ी का कुल्ला...

जिन में जान थी, उन सब का देहांत हुआ
जो चीज़ें बेजान थीं, अब तक ज़िन्दा हैं !!

-- गुलज़ार



(कैलेंडर के सभी फोटो को बड़े साइज़ में देखने के लिये फोटो पर क्लिक करें और पॉप-अप विंडो को अलाऊ कर दें)

जनवरी -
(कैमरा)
सर के बल आते थे
तस्वीर खिंचाने हम से
मुँह घुमा लेते हैं अब
सारे ज़माने हम से


फ़रवरी -
(छाता)
सर पे रखते थे
जहाँ धूप थी, बारिश थी
घर पे देहलीज़ के बाहर ही
मुझे छोड़ दिया


मार्च -
(शीशा)
कुछ नज़र आता नहीं
इस बात का ग़म है
अब हमारी आँख में भी
रौशनी कम है


अप्रैल -
(अलार्म घड़ी)
कोई आया ही नहीं
कितना बुलाया हमने
उम्र भर एक ज़माने को
जगाया हमने


मई -
(बाइस्कोप)
वो सुरैया और नर्गिस का ज़माना
सस्ते दिन थे, एक शो का चार आना
अब न सहगल है, न सहगल सा कोई
देखना क्या और अब किस को दिखाना


जून -
(सर्च लाइट)
दिल दहल जाता है
अब भी शाम को
आठ दस की जब कभी
गाड़ी गुज़रती है


जुलाई -
(टाइप राइटर)
हर सनीचर,
जो तुम्हें लिखता था दफ़्तर से
याद आते हैं वो
सारे ख़त मुझे


अगस्त -
(रेडियो)
नाम गुम हो जायेगा,
चेहरा ये बदल जायेगा
मेरी आवाज़ ही पहचान है,
गर याद रहे


सितम्बर -
(ताला)
सदियों से पहनी रस्मों को
तोड़ तो सकते हो
इन तालों को चाभी से
तुम खोल नहीं सकते !


अक्टूबर -
(पानदान)
मुँह में जो बच गया था,
वो सामान भी गया
ख़ानदान की निशानी,
पानदान भी गया


नवम्बर -
(टेलीफ़ोन)
हम को हटा के जब से
नई नस्लें आई हैं
आवाज़ भी बदल गई,
चेहरे के साथ साथ


दिसम्बर -
(माइक)
मेरे मुँह न लगना
मैं लोगों से कह दूँगा
तुम बोलोगे तो मैं
तुम से ऊँचा बोलूँगा




इस कैलेंडर का डाउनलोड लिंक है - http://vivekranade.com/free-downloads.htm

* सभी फोटो साभार vivekranade.com

Monday, October 18, 2010

लोग ग़ुस्से में बम नहीं बनते !!!


बस, हवा ही भरी है गोलों में
सुई चुभ जाए तो पिचक जाएँ

लोग ग़ुस्से में बम नहीं बनते !

-- गुलज़ार

ग़ुस्सा... प्यार ही की तरह हमारे व्यक्तित्व का एक हिस्सा होता है... बुरा ही सही, पर होता है... हर किसी में... कितनी बार ऐसा होता है कि हम जाने-अनजाने, अपने अपनों को कुछ ऐसा बोल देते हैं ग़ुस्से में, जो उन्हें तो तकलीफ़ देता ही है साथ ही ख़ुद हमें भी उतनी ही चोट पहुंचाता है... पर वो कहते हैं ना कमान से निकला हुआ तीर और मुँह से निकले हुए शब्द कभी वापस नहीं आ पाते... वो तो एक बार निकलने के बाद बस चोट ही पहुँचाते हैं... कोई "undo" कमांड नहीं चलता उनपे... और आप फिर चाह कर भी कुछ नहीं कर पाते सिवाय अफ़सोस के, कि आपने ऐसा क्यूँ कहा...

ऐसा क्यूँ होता है कि आप जिसे सबसे ज़्यादा प्यार करते हैं उसे ही सबसे ज़्यादा चोट पहुँचाते हैं जाने-अनजाने, ना चाहते हुए भी... फिर चाहे वो हमारे माँ-बाबा हों, भाई-बहन हों, यार-दोस्त हों या कोई भी अपना, जिसे आप दिल से सिर्फ़ और सिर्फ़ प्यार करते हैं... जिसका बुरा करना तो दूर की बात है, आप उसके बारे में बुरा सोच भी नहीं सकते... पर इन्सान हैं तो ग़लतियाँ करना भी लाज़मी है... परफेक्ट तो हो नहीं सकते... हम ग़लतियाँ भी करते हैं और उनका एहसास होने पर पछतावा भी...

पर ये सब तब होता है जब ग़ुस्सा कर के अपना और सामने वाले का, दोनों का ही मूड ख़राब कर चुके होते हैं... उस वक़्त तो ग़ुस्से में कुछ समझ ही नहीं आता सही-ग़लत... पता है ये ग़ुस्सा बहुत बुरा होता है... आपसे सारे अच्छे शब्द छीन लेता है और सारे बुरे और कड़वे शब्द आपको दे जाता है... जिन्हें बोलने का आपको बाद में अफ़सोस होता है... इसलिए ग़ुस्से में हमेशा शान्त रहना चाहिये... हम भी ऐसा ही करते हैं अक्सर... पर कभी कभी जाने कहाँ से ये कड़वे शब्द आ ही जाते हैं... देखो ज़रा अभी दिमाग़ शान्त है तो हम भी कैसी समझदारी की बातें कर रहे हैं :) ग़ुस्सा सच में बड़ा बुरा होता है...

अब ग़लती तो होती है हमसे, तो उसके लिये माफ़ी माँगना भी बनता है, पर माफ़ी जब भी माँगे दिल से माँगे... सिर्फ़ औपचारिकतावश "सॉरी" बोल देना माफ़ी माँगना नहीं होता... वो तो सिर्फ़ अपने लिये होता है... ख़ुद का अपराधबोध दूर करने के लिये... कोशिश करें कि जिस वजह से सामने वाले का दिल दुखा वो काम ही ना करें दोबारा... और एक बात तो है हमें पता है भले ही हम कितना भी नाराज़ हो जाएँ या ग़ुस्सा कर लें... हमारे अपने हमेशा हमारे साथ रहते हैं... भले सामने से ऐसा दिखाएँ ना पर दिल से तो साथ ही होते हैं...

पर जैसे ही आपको अपनी ग़लती का एहसास हो... माफ़ी मांगने में कभी देर मत करिये... झिझकिये मत... क्यूँकि कई बार ज़िन्दगी हमें ये मौका भी नहीं देती...


बस इक लम्हे का झगड़ा था
दर-ओ-दीवार पे ऐसे छनाके से गिरी आवाज़
जैसे कांच गिरता है
हर इक शै में गयीं उड़ती हुई, जलती हुई किर्चें !
नज़र में, बात में, लहजे में,
सोच और सांस के अन्दर...
लहू होना था इक रिश्ते का,
सो वो हो गया उस दिन !
उसी आवाज़ के टुकड़े उठा के फ़र्श से उस शब,
किसी ने काट लीं नब्ज़ें
न की आवाज़ तक कुछ भी,
कि कोई जाग न जाये !!

-- गुलज़ार


Saturday, October 9, 2010

दिल का परिंदा...



मैं हूँ ग़ुबार या तूफ़ान हूँ, कोई बताये मैं कहाँ हूँ... जाने क्यूँ आज जी कर रहा है "गाइड" की रोज़ी जैसे झूम उठूँ इस गीत की धुन पे...


Thursday, October 7, 2010

अडवांसड टेक्नॉलजी... परेशाँ सा ख़ुदा !!


हैरां परेशाँ सा ख़ुदा एक दिन, बैठा-बैठा सोच रहा था
इन्सान की खाल चढ़ाए ये मशीन आख़िर किसने बनायी ?

मैंने जो बनाया था "इन्सां", उसमें तो एक दिल भी था !


बेचारा ख़ुदा!! कहाँ सोचा होगा उसने कि उसकी बनायी सबसे अनुपम कृति एक दिन इस क़दर बदल जायेगी कि उसे पहचानना तक मुश्किल हो जाएगा... मनु से उत्पन्न हुआ मनुष्य, मनुष्य ने बनायी मशीन और मशीन ने इस मशीनी युग का मशीनी इन्सान... जिसमें इंसानियत के सिवा बाक़ी सब कुछ है... समय के साथ इन्सान एकदम हाई-टेक हो गया है... रहन-सहन... खान-पान... आचार-विचार... यहाँ तक की बोल-चाल की भाषा भी... हर चीज़ बदल गयी है... और तो और इमोशंस तक प्लास्टिक हो चले हैं...

कम्प्यूटर के इस युग ने ख़ासा प्रभाव डाला है आज की पीढ़ी पर... कुछ चीज़ें तो जैसे आत्मसात सी हो गयी हैं आज हमारी ज़िन्दगी में... आज ये हाल हो गया है की कंप्यूटर ही क्या आम ज़िन्दगी में भी कुछ ढूँढना हो तो मुँह से बरबस ये ही निकलता है की "गूगल" कर लो :) ... पढ़ते हुए अगर किताब में कुछ नहीं मिलता है तो लगता है काश इस किताब में भी Ctrl+F (Find Key) काम करता या फिर कहीं से कुछ देख कर लिखना पड़े तो लगता है "क्या यार Ctrl+C (Copy Key), Ctrl+V (Paste Key) होता तो कैसे चुटकियों में काम हो जाता..." कभी कुछ गलती होती तो झट से Ctrl+Z कर के Undo कर देते... ये कुछ ऐसी आदतें और ऐसे जुमले हैं जो बड़ी तेज़ी से प्रचलित हो रहे हैं आज की युवा पीढ़ी के बीच...

इस बदलती दुनिया की बदलती भाषा से प्रेरित हो कुछ बे-ख़याल से ख़याल आये थे कभी और यूँ ही कुछ अब्स्ट्रैक्ट सा लिख गया था... "इमोशंस" और "टेक्नॉलजी" की एक कॉकटेल सी बन गयी है... जाने कैसा स्वाद आया हो... ज़रा चख के बताइये तो :)


"Advanced Technology"

सुनते हैं टेक्नॉलजी बहुत अडवांसड हो गयी है
इन्टरनेट ने इन्सान की दुनिया बदल दी है
दुनिया भर की जानकारी पलों में ढूढ़ देते हैं
ये सर्च इंजन...
मैं बहुत टेक्नॉलजी सैवी नहीं हूँ
मेरी हेल्प करोगे क्या प्लीज़ ?
थोड़ा सा सुकून ढूंढ़ दो इस पर
और थोड़ा सा प्यार और विश्वास
हाँ थोड़े से फ़ुर्सत भरे पल भी...





"Oxygen"

तुम्हारे साथ के पल
अब बहुत छोटे हो चले हैं
इतने, की अब ठीक से
साँस भी नहीं आती
बीती यादों का ऑक्सीजन
कब तक ज़िन्दा रखेगा इन्हें
देखना, एक दिन इन पलों का भी
दम घुट जाएगा...







"Shift+Del"

कोई ई-मेल हो तो डिलीट कर दूँ
चैट हो तो चैट हिस्टरी से इरेज़ कर दूँ
कोई पुराना डॉक्युमेंट हो तो
शिफ्ट+डिलीट कर के
रिसाइकल बिन से भी हटा दूँ
पर क्या करूँ इन यादों का,
कि दिल की हार्ड डिस्क पर
कोई कमांड नहीं चलता...





"Dialysis"

तुम कहते हो
गुज़रे लम्हों को याद ना करूँ
"वो लम्हें" जो हर इक रग में
बह रहे हैं ज़िन्दगी बन कर...
तो फिर आओ
कुछ नये ताज़ा लम्हें
डोनेट कर दें इस रिश्ते को
डायलिसिस कर के
इसे फिर नयी ज़िन्दगी दे दें...

-- ऋचा

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