Wednesday, July 28, 2010

सबसे बड़ा रुपइया... क्या वाकई ??


अभी हाल ही में रूपये को अपनी अंतर्राष्ट्रीय पहचान... एक नया चेहरा मिला है... इसके साथ ही भारत भी चार अन्य देशों के उस विशिष्ट वर्ग में शामिल हो गया जिन देशों की मुद्रा की अपनी अलग पहचान है... रूपये से पहले अमेरिकी डॉलर, ब्रिटिश पाउंड-स्टर्लिंग, यूरो और जापानी येन ही मात्र ऐसी मुद्राएँ थीं जिनके पास अपने चिन्ह थे... अच्छा लगा भारतीय रुपये का ये नया चेहरा और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मिली ये विशिष्ठ पहचान...

काफ़ी देर तक सोचती रही... कितना कुछ बदल गया है... लोग पहले से ज़्यादा कमाते हैं आज... पहले से ज़्यादा ख़र्च भी करने लगे हैं... हाँ महंगाई भी बढ़ी है और ग़रीब और ज़्यादा ग़रीब हो गये हैं... अब समाज में सिर्फ़ उच्च, मध्यम और निम्न वर्ग नहीं रह गये हैं... मध्यम वर्ग भी अब उच्च-मध्यम वर्ग और निम्न-मध्यम वर्ग में बँट गया है... कार, एयर कंडिशनर अब लग्ज़री आइटम्स नहीं रह गये, हवाई यात्रा अब सिर्फ़ "बड़े" लोग ही नहीं अफोर्ड कर सकते... हाँ "बिज़नस क्लास" अभी भी महंगा है... तो क्या "इकानमी क्लास" तो है... फिर भले ही पानी भी ख़ुद ख़रीद के पीना पड़े पर भईया कहेंगे तो यही "मैं तो बाई एयर ही ट्रैवेल करना प्रिफर करता हूँ... टाइम ही कहाँ है इतना की ट्रेन या बस से जर्नी करी जाये"... सोचती हूँ इन्सान की ये दिखावा करने की फितरत कब बदलेगी... बदलेगी भी की नहीं कौन जाने... शायद इंसानी डी.एन.ए. में ही है :)

यही सब सोचते सोचते यादों की गली में मुड़ी तो लगा, सच ! कितना कुछ बदल गया है... पाँच, दस पैसे के सिक्कों से भरी उस मिट्टी की गुल्लक की खनक कितनी मीठी लगती थी बचपन में... कितना अमीर फील करते थे ख़ुद को... लगता था पूरी दुनिया ख़रीद सकते हैं... एक गुल्लक तो आज तक रखी है हमारे पास... मन ही नहीं करता उसे तोड़ने का... हाँ कभी कभी अलमारी साफ़ करते हुए उस खनक को ज़रूर सुन लेते हैं... "स्टिल फील्स गुड" :)

इन तमाम बदलावों के बीच कुछ नहीं बदला तो ये की पैसा आज भी ख़ुशियाँ नहीं ख़रीद सकता... प्यार नहीं ख़रीद सकता... चैन और सुकून भरे पल नहीं ख़रीद सकता... सपने नहीं ख़रीद सकता... हँसी नहीं ख़रीद सकता... क्या कभी कोई ऐसी करेंसी आएगी जिसकी "बाइंग कैपेसिटी" इतनी हो की ये सब ख़रीद सके ?


कहते है परिवर्तन प्रकृति का नियम है
कुछ भी अनवरत नहीं होता
समय के साथ
सिक्कों के चेहरे भी बदलते रहते हैं
और उनकी औकात भी...

कभी चला करते थे
सोने, चाँदी के सिक्के
आज चलते तो अख़बार में
"चेन स्नैचिंग" की जगह
"क्वाइन स्नैचिंग" की ख़बरें छपतीं

फिर आये ताम्बे के सिक्के
ताम्बा दूर करता है अशुद्धियाँ
लोग पुल से गुज़रते वक़्त
नदी में डाला करते थे
की शुद्ध रहे उनका पानी

पर हम ठहरे लकीर के फ़कीर
वजह नहीं मालूम
लेकिन आज भी डाल देते हैं
गिलेट और स्टील के सिक्के
पहले से मैली नदियों को
और भी मैला कर देते हैं

याद आते हैं आज भी बचपन के वो दिन
जब अम्मा दिया करती थीं
वो पाँच और दस पैसे के सिक्के
जिनसे ढेर सारी संतरे वाली टॉफी
आ जाया करती थीं
और साथ में असीम तृप्ति भी

और कहीं किसी दिन अगर
एक या दो रूपये मिल जाते
तो हम किसी मुल्क़ की मलिका से
कम नहीं होते उस दिन
पूरे हफ़्ते की "डीटेल प्लानिंग"
हो जाया करती थी फिर तो...

और ये आज के सिक्के
ख़रीद सकते हैं इनसे
सारे ऐशों-आराम, साज़-ओ-सामान
बस ख़ुशियाँ नहीं ख़रीद सकते
ना ही चैन और सुकून
वो नहीं बिकता किसी बाज़ार में

पढ़ा था एक दिन
"RBI" जल्द ही यूरोपीय देशों की तरह
यहाँ भी लाने वाली है "प्लास्टिक करेन्सी"
अच्छा है...
फिर शायद खरीदे जा सकेंगे उनसे
"प्लास्टिक इमोशंस" भी...

-- ऋचा

Thursday, July 8, 2010

नर्म मिट्टी से ये रिश्ते...



रिश्ते... रेशम के धागों से नाज़ुक और रेशम जैसे से ही ख़ूबसूरत, चमकीले और नर्म... बहुत संभाल के रखना पड़ता है इन्हें... ज़िन्दगी की ऊँची-नीची, आढ़ी-तिरछी पगडंडियों पर किसी छोटे से बच्चे की तरह इनका हाथ थाम के चलना पड़ता है... सहारा देना पड़ता है... कभी गिरे तो प्यार से उठाना पड़ता है... मुश्किल हालातों की गर्द झाड़ के... दुलार के, पुचकार के फिर से संवारना पड़ता है... आख़िर हमारे अपने ही तो हैं ये भी... ऐसे कैसे मुश्किल समय में इनका साथ छोड़ दें...

बड़े अनोखे रूप होते हैं इन रिश्तों के... हर किसी से एक अनोखा रिश्ता होता है... प्यार का... विश्वास का... दोस्ती का... सहानुभूति का... तो कभी कभी बस इक मुस्कान का... कितने ख़ूबसूरत होते हैं कभी मोतबर तो कभी मुख़्तसर से ये रिश्ते... कितना कुछ देते हैं ये हमें... प्यार, अपनापन, शान्ति, सुकून, भावात्मक मज़बूती... पर इनका रूप हमेशा ऐसा ख़ूबसूरत रहे ये ज़रूरी नहीं...  कभी कभी वक़्त और हालात इन्हें कुरूप बना देते हैं... समय आपके धैर्य की परीक्षा लेता है... आपको और आपके रिश्ते को हाशिये पे रख के अपनी कसौटी पे परखता है... ऐसे में हमें ही इन रिश्तों को बचाना होता है... वापस इन्हें वो ख़ूबसूरत रूप देना होता है...

रिश्ते के एक छोटे से बीज को एक मज़बूत पेड़ का आकार भी हम ही दे सकते हैं... बस ऐसे नाज़ुक समय में जब हमारे रिश्ते को हमारी ज़रुरत हो उसका साथ कभी मत छोड़िये... अपने अहम को रिश्ते के बीच कभी मत लाइये... चुप मत रहिये... लफ़्जों का पुल टूटने मत दीजिये... पहल करिये... बात करके आपस की ग़लतफहमी को मिटाइये... मत मुरझाने दीजिये अपने रिश्ते को... इस मुख़्तसर सी ज़िन्दगी में चंद रिश्ते भी नहीं कमाये तो क्या कमाया...


रिश्ते कुम्हार की चाक पर पड़ी

नर्म मिट्टी से होते हैं
जैसा चाहो आकार दे दो
जैसे चाहो ढाल लो

कभी ख़ूबसूरत दिये का आकार ले
ज़िन्दगी में उजाला करते हैं
तो कभी शीतल सुराही बन
मन को ठंडक पहुंचाते हैं

कभी कभी हाथों के ज़्यादा दबाव से
ये मिट्टी विकृत रूप ले लेती है
अपेक्षा और उपेक्षा के दबाव से
रिश्ते भी कभी विरूप हो जाते हैं

एक कुशल कुम्हार ही
इस विरूप होती मिट्टी को
फिर से सही आकार दे कर
ख़ूबसूरत बना सकता है

सही आंच में सही समय तक पका कर
उसे मज़बूत बना सकता है
रिश्ते भी हालात और समय की ताप से
मज़बूत बनते हैं

ज़रुरत है बस धैर्य रखने की...

-- ऋचा
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