Thursday, January 20, 2011

गाँव मेरा मुझे याद आता रहा...


... उन दिनों सुबहें कितनी जल्दी हुआ करतीं थीं... शामें भी कुछ जल्दी घिर आया करती थीं तब... फूलों की महक भीनी हुआ करती थी और तितलियाँ रंगीन... और इन्द्रधनुष के रंग थोड़े चमकीले, थोड़े गीले हुआ करते थे... आँखों में तैरते ख़्वाबों जैसे... सुबह होते ही चीं-चीं करती गौरैया छत पर आ जाया करतीं थीं, दाना चुगने... उस प्यारी सी आवाज़ से जब नींदें टूटा करती थीं तो बरबस ही एक मुस्कुराहट तैर जाया करती थी होंठों पर... यूँ लगता था जैसे किसी ने बड़े प्यार से गालों को चूम के, बालों पर हौले से हाथ फेरते हुए बोला हो "उठो... देखो कितनी प्यारी सुबह है... इसका स्वागत करो..." ... सच! कितने प्यारे दिन थे वो... बचपन से मासूम... रूहानी एहसास भरे...

कोहरे और धुँध को बींधती हुई धूप जब नीम के पेड़ से छन के आया करती थी छज्जे में तो कितनी मीठी हुआ करती थी... गन्ने के ताज़े ताज़े रस जैसी... ख़ुशबूदार और एकदम मुलायम... दादी की नर्म गोद सी... खुले आँगन में जब दादी अलाव जलाया करती थीं तो सर्दी कैसे फ़ौरन ग़ायब हो जाया करती थी... अब बन्द कमरों में घंटो हीटर के सामने बैठ कर भी नहीं जाती... उस अलाव में कैसे हम सब भाई बहन अपने अपने आलू और शकरकंद छुपा दिया करते थे और बाद में लड़ते थे "तुमने मेरा वाला ले लिये वापस करो..." कितनी मीठी लड़ाई हुआ करती थी... वो मिठास कहाँ मिलती है अब माइक्रोवेव में रोस्टेड आलू और शकरकंद में...

कभी सरसों के पीले पीले खेत में दोनों बाहें फैला के नंगे पैर दौड़े हैं आप ? हम्म... यूँ लगता है मानो पूरी क़ायनात सिमट आयी हो आपके आग़ोश में... कभी महसूस करी है सरसों के फूलों की वो तीखी गंध ? क्या है कोई इम्पोर्टेड परफ्यूम जो उसकी बराबरी कर सकता है कभी ? शायद नहीं... आज भी याद आती हैं गाँव में बीती वो गर्मियों की छुट्टियाँ... सुबह आँख खुलते ही सबसे पहले वो आम के बाग़ में जा के खट्टी-खट्टी कैरियों का नाश्ता करना और फिर घंटों ट्यूब वेल के पानी में खेलना... बचपन और गाँव... दोनों अपने आप में ही ख़ूबसूरत और साथ मिल जाएँ तो यूँ समझिये दुनिया में उससे ज़्यादा ख़ूबसूरत और कुछ भी नहीं...

जाने क्यूँ आज दिल यादों की उन ख़ूबसूरत सी गलियों में फिर भटक रहा है... आज जब कुछ भी पहले सा नहीं है... कुछ भी पहले सा नहीं हो सकता... जी कर रहा है एक बार फिर उस बचपन में, उस गाँव में लौट जाएँ... मिट्टी के चूल्हे में पकी वो सौंधी सी रोटी जो धुएँ की महक को आत्मसात कर के कुछ और सौंधी और मीठी हो जाया करती थी... वो हँसी ठिठोली... वो देवी माँ का मंदिर, वो कमल के फूलों से भरा तालाब... वो गुलमोहर, वो नीम, वो नीम की डाली पे पड़ा लकड़ी के तख्ते वाला झूला... उस पर बैठे हम सब भाई बहन... पींग बढ़ाते हुए... शोर मचाते हुए.. "और तेज़... और तेज़... और तेज़..."

गाँव के इस तेज़ी से बदलते परिवेश पर हाल ही में अजेय जी की एक कविता पढ़ी कविताकोश पर... दिल को छू गई... आप भी पढ़िये...

मेरे गाँव की गलियाँ पक्की हो गई हैं।
गुज़र गई है एक धूल उड़ाती सड़क
गाँव के ऊपर से
खेतों के बीचों बीच
बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ
लाद ले जाती हैं शहर की मंडी तक
नकदी फसल के साथ
मेरे गाँव के सपने
छोटी छोटी खुशियाँ --

मिट्टी की छतों से
उड़ा ले गया है हेलीकॉप्टर
एक टुकड़ा नरम धूप
सर्दियों की चहल पहल
ऊन कातती औरतें
चिलम लगाते बूढ़े
"छोलो" की मंडलियाँ
और विष-अमृत खेलते बच्चे।

टीन की तिरछी छतों से फिसल कर
ज़िन्दगी
सिमेंटेड मकानों के भीतर कोज़ी हिस्सों में सिमट गई है
रंगीन टी० वी० के
नकली किरदारों में जीती
बनावटी दु:खों में कुढ़ती --
"कहाँ फँस गए हम!
कैसे निकल भागे पहाड़ों के उस पार?"

आए दिन फटती हैं खोपड़ियाँ जवान लड़को की
बहुत दिन हुए मैंने पूरे गाँव को
एक जगह/एक मुद्दे पर इकट्ठा नहीं देखा।
गाँव आकर भूल गया हूँ अपना मकसद
अपने सपनों पर शर्म आती है
मेरे सपनों से बहुत आगे निकल गया है गाँव
बहुत ज्यादा तरक्की हो गई है
मेरे गाँव की गलियाँ पक्की हो गई हैं।

-- अजेय


तरक्क़ी.. सुख-सुविधायें... ऐश-ओ-आराम... आगे बढ़ना... किसे पसंद नहीं होता... पर इस सब के बदले जो क़ीमत चुकानी पढ़ती है... अपने गाँव से, अपने घर से, अपने अपनों से बिछड़ने की... उस टीस को जसवंत सिंह जी की गायी हुई इस ग़ज़ल में बख़ूबी महसूस करा जा सकता है... "वक़्त का ये परिंदा रुका है कहाँ..."


Saturday, January 8, 2011

कुछ लम्हें और जमा कर लो...


नये साल की ये पहली पोस्ट है... तो सबसे पहले तो इस्तक़बाल... ख़ैर मक़दम... ख़ुश आमदीद... २०११ में आप सब का स्वागत है... नये साल की ढेर सारी शुभकामनाएँ आप सभी को... हाँ बाबा, माना ये शुभकामनाएँ थोड़ी सी पुरानी हो गयीं हैं... पर ८ दिन पुराना ही सही फिर भी साल तो नया है ना :) असल में हुआ ये की एक तोहफ़ा तैयार करने लगे थे आप सभी के लिये... अब कितना पसंद आएगा आपको ये तो पता नहीं पर हमने अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश करी... और ये कोशिश अकेले नहीं करी... हमारा साथ दिया दो दोस्तों ने...

अभी कुछ दिन पहले, मतलब पिछले साल, हमने एक कैलेंडर शेयर करा था आप सब के साथ गुलज़ार साब का... तो उसे देख कर भास्कर जी ने हमें मेल करा की ऐसा ही कोई कैलेंडर २०११ के लिये आये तो ज़रूर बताइयेगा... फिर उन्होंने ही आईडिया दिया की आपकी रचनायें ले कर ये कैलेंडर ख़ुद ही क्यूँ ना बना लिया जाये... अब कैलेंडर के लिये क्षणिकाएं हमें लिखनी थीं और बनाने वाले भास्कर जी थे पर कुछ व्यस्तता के चलते वो उतना समय नहीं दे पाए... पर उनके आईडिया से हम इंस्पायर हो गये और क्रिएटिविटी के कीड़े जो बहुत दिनों से निष्क्रिय पड़े थे अचानक से जाग पड़े... तो सबसे पहले तो भास्कर जी का शुक्रिया इस आईडिया के लिये... और फिर शुक्रिया हमारे उस दोस्त का जिसके बिना ये बनाना शायद हमारे जैसे आलसी के लिये सम्भव ही ना हो पाता :)... अब उस दोस्त ने मदद तो करी ये डेस्कटॉप कैलेंडर बनाने में पर इस शर्त पर की उसका नाम यहाँ नहीं लिया जाये... अब वैसे तो दोस्ती और प्यार में शर्तें नहीं होती पर दोस्त का कहा टाला भी नहीं जाता... तो लीजिये नहीं लिया नाम... बस दोस्त कहना ही काफ़ी है... है ना :)

चलिए जी बहुत हो गई बातें... अब हमसे और सब्र नहीं होता... जल्दी से देख के बताइये तोहफ़ा कैसा लगा... और हाँ अनलिमिटेड स्टॉक है, जी भर के डाउनलोड करिये... जितना मर्ज़ी :) 


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पूरा कैलेंडर एक साथ यहाँ से डाउनलोड करा जा सकता है : http://www.divshare.com/download/13712769-ba4

सभी चित्र साभार : गूगल इमेजिज़
डिस्क्लेमर : ये कैलेंडर पुर्णतः व्यक्तिगत इस्तेमाल के लिये है, व्यावसायिक रूप से इसका कोई भी इस्तेमाल निषेध है.

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