Monday, May 15, 2017

केरल डायरीज़ - ४ : साहिर सुबह पहाड़ों की...



३१ जनवरी २०१७

आपने पहाड़ों की सुबह देखी है कभी ? पहाड़ों से ज़्यादा आलौकिक सुबह शायद ही कहीं होती हो धरती पर... जब रात की सियाही को भेदती भोर की सुनहरी किरणें पहाड़ की चोटी पर पड़ती हैं तो यूँ लगता है गोया धीरे धीरे किसी रंगमंच का पर्दा उठा रहा हो... पर्त दर पर्त कोहरा छनता जाता है... ओस की बूंदे खिड़की के शीशों पर पानी में तब्दील होते हुए अपने निशां छोड़ती जाती हैं... हौले हौले आपके सामने वो बड़ा सा रंगमंच जीवंत हो उठता है... सामने घट रहा दृश्य यूँ साफ़ होता जाता है गोया फेड इन ट्रांज़िशन पे सेट हो... पंछी चहकने लगते हैं... पेड़ हरे हो जाते हैं... दूर कहीं बहते पानी की कल कल बैकग्राउंड में संतूर सी बज उठती है... कहीं किसी पहाड़ी घर की रसोई जाग जाती है... चूल्हे से धुआं उठता है.. चाय की महक घुलती है... भोर की सुनहरी ठंडक क़तरा क़तरा आपकी रूह के भीतर कहीं जज़्ब हो जाती है... 

मुन्नार में ऐसी ही एक दिव्य सुबह से मुलाकात हुई... सुबह कोई ५.३० बजे आँख खुली और बस खिड़की के पास बैठे बैठे सहर के साहिर का जादू देखते देखते, उस सुनहरी ठंडक को भीतर जज़्ब करते करते कब एक घंटा बीत गया पता ही नहीं चला... दिल फ़िर भी नहीं भरा... मन हुआ बस सारा दिन यहीं इस खिड़की के पास बैठे रहें.. प्रक्रति की ख़ूबसूरती में खोये हुए... पर ये न थी हमारी क़िस्मत... सो उठाना पड़ा... नहा धो के तैयार हो कर नाश्ते के लिए बैंक्वेट में पहुँचे तो बड़ा भला सा लगा... चारों ओर काँच की खिड़कियों से छन के आती धूप ने फ़िर मोह लिया... खैर आज बहुत कुछ और नया देख कर वापस कोच्ची भी जाना था तो ज़्यादा फ़ुर्सत से नहीं बैठे.. जल्द ही नाश्ता कर के होटल से चेक-आउट किया और चल पड़े आज के सफ़र पर...

चाय के ख़ूबसूरत बागानों के बीच से होते हुए हम जा रहे थे १३ किलोमीटर दूर आज के पहले पड़ाव मत्तुपेट्टी डैम और झील देखने... मौसम बेहद ख़ुशगवार था... हवा में हल्की ठंडक.. इतनी हल्की की सुबह की धूप भली सी लग रही थी... चारों ओर इतनी हरियाली दिल को बेहद सुकून दे रही थी... हमारे शहरों में कहाँ अब इतनी हरियाली एक साथ देखने को मिलती है... दिल हो रहा था यहीं कहीं एक छोटी सी झोपड़ी बना के बस जायें... जैसे जैसे आगे बढ़ते गए चाय के बागान घने जंगल में तब्दील होते गये... सर्पीले मोड़ों पर गाड़ी दौड़ती जा रही थी... एक पहाड़ से दूसरे पहाड़... जंगल की गंध अपना सुरूर दिल-ओ-दिमाग पर काबिज़ करती जा रही थी... इस बीच पहाड़ों से घिरी हुई हरे रंग की एक झील नज़र आयी... मतलब हम मत्तुपेट्टी डैम पहुँच चुके थे और ये झील दरअसल उस डैम के पानी का रिज़रवॉयर थी... डैम तो कुछ ख़ास नहीं था पर झील ने मन मोह लिया... चारों ओर बेइन्तेहाँ ख़ूबसूरत पहाड़ियों से घिरी बेहद शान्त झील... सुबह के शान्त वातावरण में झील की शान्त ख़ूबसूरती घुल के एक अनोखा ऐम्बीअंस क्रिएट कर रही थी... ऐसे लग रहा था मानों पूरी प्रकृति मेडीटेट कर रही है... दिल हो रहा था बिना उस तारतम्य को बिगाड़े बस चुपचाप वहीँ बैठे रहें देर तलक... 






थोड़ी देर रुक कर आगे बढ़े इको पॉइंट की तरफ़ जो वहाँ से थोड़ी ही दूर है... इको पॉइंट की ज्योग्राफिकल लोकेशन ऐसी ही की उस जगह आवाज़ नेचुरली इको करती है... वहाँ जाते हुए एक ख़ूबसूरत इत्तेफ़ाक हुआ... रास्ते में एक जगह रुक के झील की कुछ फ़ोटो खींच रहे थे... सड़क से हल्की सी ढलान उतर के झील तक पहुँचा जा सकता था... उत्सुकता में भरे नीचे उतरे तो देखा झील किनारे किसी का बेहद सुन्दर कत्थई रंग का घोड़ा बंधा था... जो वहाँ के माहौल को और ज़्यादा पिक्चरिस्क बना रहा था... शांत ख़ूबसूरत झील.. किनारे बंधा घोड़ा... और सामने पहाड़ी पर ऊँचे ऊँचे हरे भरे पेड़... यहाँ आकर पल भर को किसी स्विस इलाके में होने का सा गुमां होता है... सच पूछिये तो ये एक ऐसी जगह थी जहाँ बिना किसी काम या किसी से बात किये पूरा दिन बिताया जा सकता था सिर्फ़ प्रकृति की ख़ूबसूरती में खोये हुए और ईश्वर की इस रचना को निहारते हुए... इको पॉइंट पहुँचे तो वहाँ आसपास थोड़ी बहुत दुकाने थी... जो अब धीरे धीरे खुल रही थीं और लोग अपनी दिनचर्या शुरू करने जा रहे थे... नीचे झील में बोटिंग भी हो रही थी.. पर ज़्यादातर लोग वहाँ की ख़ूबसूरती को आँखों और कैमरे में क़ैद करने में लगे थे... हमने भी कुछ देर रुक कर वही किया और फ़िर वापस चल दिये... 





हमारा अगला पड़ाव था रोज़ गार्डन... इस गार्डन को केरला फ़ॉरेस्ट डेवलपमेंट कारपोरेशन के सहयोग से मेन्टेन किया जाता है... मुन्नार इको-टूरिज़्म की कड़ी में एक बेहद ख़ूबसूरत सौगात जो यहाँ आने वाले टूरिस्टों को एक ही जगह पर रंग बिरंगे फूलों की असंख्य प्रजातियों को देखने का और लुत्फ़ उठाने का मौका देती है... कहने को रोज़ गार्डन पर शायद ही कोई ऐसा फूल हो जो यहाँ देखने को न मिला हो... और्किड्स से लेकर एन्थूरियम तक और इम्पेशंस से लेकर वाटर लिली तक... गुलाब की भरमार तो खैर थी ही... किस फूल को देखें और किसे नहीं... आपकी इसी दुविधा को दूर करने के लिए बड़ी ही कुशलता से फूलों के इस पार्क में वे रोड ही बनायी गयी है... पहाड़ की ढलान पर इस गार्डन को कुछ इस तरह से बनाया गया है की आप एक ओर से फूलों को देखते हुए नीचे उतरते जाते हैं और दूसरी ओर से फूलों को देखते हुए ही वापस चढ़ते जाते हैं... वापस आते तक फूल का शायद ही कोई ऐसा रंग हो जो आपने न देखा हो... आँखें रंगों से भर जाती हैं.. और दिल सुकून से...













अब इतनी ख़ूबसूरती देखने के बाद और कहीं जाने का मन तो नहीं था पर मुन्नार आयें और टी म्यूजियम न देखें ऐसा कैसे हो सकता है... हालाँकि पहले भी कई टी म्यूजियम देखे हैं उत्तराखंड में पर सोचा देखते हैं यहाँ क्या अलग है... कुछ ख़ास तो खैर नहीं था... चाय के इतिहास पर एक डॉक्युमेंट्री दिखायी जा रही थी.. पर उसका दूसरा बैच स्टार्ट होने में काफ़ी टाइम था... सो उसके लिए रुके नहीं... अन्दर दो कमरों में चाय बनाने की पुरानी मशीने रखी हुई थीं और कानन देवन की पहाड़ियों पर कब और कैसे चाय का प्लांटेशन लगाया गया और कैसे चाय का प्रोडक्शन शुरू हुआ ये पूरा इतिहास फ़ोटो समेत संजोया हुआ था वहाँ की दीवारों पे... फ़िर अन्दर एक बड़े से हॉल में चाय बनाने का पूरा प्रोसेस समझाया जा रहा था किस तरह पत्तियों का चुनाव होता है... फ़िर कैसे उन्हें सुखाया जाता है.. रोल किया जाता है... और कैसे ग्रेडिंग कर के हम तक पहुँचाया जाता है... ग्रीन टी और उसके फायदों के बारे में भी बताया गया... ग्रीन टी को बनाने और पीने का सही तरीका भी बताया गया... सबसे अनोखी बात जो पता चली वो ये की चाय का पेड़ कभी मरता नहीं... हर १०-१५ दिनों में नयी कोपलें आ जाती हैं और उन्हें तोड़ लिया जाता है... और पेड़ सालों साल चलता रहता है... 


टी म्यूज़ियम देख कर निकले तो दोपहर होने को आयी थी... हमें अब कोच्ची वापस लौटना था... मन को वहीं मुन्नार की पहाड़ियों पर छोड़ के... हम वापस चल तो दिये वहाँ से पर दिल में अजीब सी बेचैनी थी... जैसे कुछ अधूरा सा रह गया हो... एक दिन के इस छोटे से प्रवास ने जाने क्या जादू किया था कि दिल को ये यकीं हो चला था यहाँ ज़रूर वापस आना है एक दिन.. जल्द ही... फ़ुर्सत वाली एक लम्बी छुट्टी पर.. मुन्नार को और क़रीब से जानना बाक़ी है अभी...


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