Wednesday, December 16, 2009

ये ख़्वाबों से खूबसूरत लम्हें...


ये दिल और इसके आवेश बड़े ही पेचीदा होते हैं... कोई तर्क वितर्क नहीं समझते... कभी ये बेवजह उदास हो जाता है, कुछ भी अच्छा नहीं लगता... कहीं भी मन नहीं लगता... लाख चाहो पर उदासी जाती ही नहीं... और कभी ये दिल बेवजह ही ख़ुश होता है... होंठों पे बिना बात एक मीठी सी मुस्कान तैरती रहती है... हर समय... बस ख़ुश रहने का दिल करता है... सारी दुनिया ख़ूबसूरत लगती है... बिलकुल ख़्वाबों सी हसीन... एकदम परी कथाओं जैसी...
पर हकीकत में ज़िन्दगी परी कथा नहीं होती... वो तो लम्हा लम्हा कर के आपकी मुट्ठी से फिसलती रहती है रेत की तरह... जैसे फिसलती रेत के कुछ कण आपकी हथेली पे चिपक जाते हैं ठीक उसी तरह ज़िन्दगी के कुछ लम्हे भी आपकी यादों में ठहर जाते हैं... "फ्रीज़" हो जाते हैं... हर गुज़रते लम्हे में मिलते हैं कुछ खट्टे-मीठे अनुभव जो साथ मिल कर आपकी ज़िन्दगी की किताब लिखते हैं...
कभी अकेले बैठ के ज़िन्दगी की किताब के वर्क पलटो तो कुछ ख़ूबसूरत लम्हें, जो आपने कभी अपनी यादों में समेटे हों, यादों से निकल कर बाहर आ जाते हैं और आपको बड़े प्यार से गुदगुदा जाते हैं... हँसा जाते हैं... आप अकेले हो के भी अकेले नहीं होते... वो ख़ूबसूरत यादें जो होती हैं आपका साथ देने के लिये...
सच... बहुत सुकून मिलता है यादों के आँगन में बैठ कर उन लम्हों के एहसास को, उनकी गर्मी को एक बार फिर महसूस करने में... बिलकुल वैसे ही जैसे सर्दियों की नर्म गुनगुनी सी धूप में बैठ कर किसी दोस्त से घंटों इधर उधर की बातें करना... मूंगफली खाते हुए :-)
कुछ ऐसे ही लम्हे अपनी यादों से निकाल कर आज आपके साथ बाँट रही हूँ...


जुगनू के जज़ीरों से जलते बुझते
कुछ रौशन कुछ मद्धम ये लम्हें
ज़िन्दगी छलकती है इनसे

कभी कभी लगता है
ज़िन्दगी के ये कतरे
मेरी तृष्णा को बढ़ाते जा रहे हैं

कुछ और, कुछ और
पता नहीं क्या पाने की लालसा में
आगे बढ़ती जा रही हूँ

दिये की लौ सी टिमटिमाती
एक आस है दिल के किसी कोने में
हाथों के घेरे से उसे ढांप देती हूँ ... बुझ ना जाये कहीं

भींच लेती हूँ आँखों को ज़ोर से
कि कुछ पल ये लम्हें और जी लूँ
सच-झूठ, अच्छे-बुरे, सही-गलत से परे

ये ख़्वाबों से खूबसूरत लम्हें...

-- ऋचा

Wednesday, November 25, 2009

इक एहसास


कुछ एहसास कितने दिव्य होते हैं... पाक होते हैं... हवन वेदी से उठती उस पवित्र सी गंध की तरह जो अपने आस पास का सारा वातावरण पवित्र कर देती है... कुछ बेहद ख़ास होते हैं... जैसे जब एक बच्चा पहली बार अपनी तोतली सी बोली में "माँ" बुलाता है... कुछ बेहद ख़ूबसूरत होते हैं... गुलाब की पंखुड़ियों पर पड़ी ओस की बूँदें और उन पर पड़ती सुबह के सूरज की उन पहली किरणों की तरह ... कुछ एहसास एकदम पारदर्शी होते हैं जैसे माँ की ममता और कुछ एहसास रहस्यमयी होते हैं जैसे कोहरे में लहराता कोई साया, कोई अनसुलझी पहेली... कुछ एहसास बेहद साफ़ होते हैं बर्फ़ से सफ्फ़ाक और एकदम नाज़ुक... जिन्हें छूते हुए भी डर लगता है... या तो गल जाएगा या मैला हो जाएगा... और कुछ एहसास बारिश की पहली बूँद की तरह होते हैं जो सूखी ज़मीं पर पड़ते ही उसमे समां जाते हैं... जज़्ब हो जाते हैं...
हर एहसास एकदम अनूठा... जिसे आप सिर्फ़ महसूस कर सकते हो.. बयान नहीं कर सकते... कभी कोशिश भी करते हो उसे बताने समझाने की तो बहुत कुछ अनकहा रह जाता है... कभी आप समझा नहीं पाते और कभी सामने वाला समझ नहीं पाता और इसी कशमकश में उस एहसास के मानी ही बदल जाते हैं... कभी कभी सोचती हूँ ये कवि और लेखक कितने बुद्धिजीवी लोग होते हैं... कितनी आसानी से ख्यालों और एहसासों को शब्द दे देते हैं... सचमुच तारीफ के काबिल :-)
कभी किसी बच्चे की हँसी सुनी है आपने... कितनी मासूम होती है... फिर भी एक चुम्बक सा आकर्षण होता है उसमें... है ना ? आप कितने भी थके हो... मन कितना भी उदास क्यूँ ना हो... उस मासूम सी किलकारी से आपकी सारी थकान गायब हो जाती है... एक प्यारा सा एहसास भर जाता है मन में... ऐसे ही किसी एहसास के ताने बाने में मन उलझा हुआ है आजकल... कुछ ख़ास, कुछ पाक, बेहद मासूम, निर्मल, निष्पाप... बिलकुल अपना सा... ये कैसा एहसास है पता नहीं... क्यूँ है ये भी नहीं जानती... शायद जानना भी नहीं चाहती... बस इस एहसास को जीना चाहती हूँ... साँसों में भर लेना चाहती हूँ... हमेशा हमेशा के लिये... या तो ये एहसास मुझमे समा जाये या मैं इसमें...


अजीब कशमकश में हूँ आजकल
इक नया सा एहसास साथ रहता है
हर लम्हा, हर पल...

कुछ अनूठा, कुछ अदभुत
कुछ पाने की प्यास
कुछ खोने का एहसास

कभी झील सा शान्त
तो कभी पहाड़ी नदी सा चंचल
कुछ संजीदा, कुछ अल्ल्हड़

मंदिरों से आती जरस की सदाओं सा पाक
कभी शीशे सा साफ़-शफ्फाफ़
तो कभी पुरइसरार सा... धुंध की चादर में लिपटा हुआ

क्या है ये अनजाना सा एहसास
भावों का ये कोमल स्पर्श
पता नहीं ... पर अपना सा लगता है

कभी जी चाहता है इसे इक नाम दे दूँ
फिर सोचती हूँ बेनाम ही रहने दूँ
मैला ना करूँ...

-- ऋचा

Friday, November 13, 2009

"तुम" और "मैं"

दो चेहरों से जीना भी कैसी मजबूरी है
जितना जो नज़दीक है उससे उतनी दूरी है
-- निदा फाज़ली

आज निदा जी की लिखी हुई ये ग़ज़ल सुन रहे थे "जीवन क्या है चलता फिरता एक खिलौना है"... वैसे तो पूरी ग़ज़ल ही बेहतरीन हैं पर ये दो पंक्तियाँ दिल को छू सी गयीं... सोचा सच ही तो है... हम सब ऐसे ही हैं... तमाम उम्र दो चेहरों के साथ जीते रहते हैं... एक चेहरा जो बनावटी है, दुनिया को दिखाने के लिये और एक वो जो सच है, जैसे आप वास्तव में हैं... ये बनावटी चेहरा वो है जैसा ये दुनिया हमें देखना चाहती है, जैसा हमारे अपने हमें देखना चाहते हैं... एकदम "परफेक्ट"... जो हम ना हैं और ना कभी हो सकते हैं... "परफेक्ट" हो गए तो फिर इंसान कहाँ रहेंगे भगवान नहीं बन जायेंगे... पर फिर भी जाने अनजाने, ना चाहते हुए भी हम वैसे ही बनते चले जाते हैं... बनावटी... शायद दुनिया को या अपनों को खुश रखने के लिये... या फिर इसलिए की सच कोई देखना या समझना ही नहीं चाहता... पता नहीं क्यूँ... पर ना ये ज़िन्दगी की भागदौड़ हमें कुछ सोचने का मौका देती है और ना लोगों के पास हमें समझने की फ़ुर्सत है...
इस बनावटी चेहरे के साथ ज़िन्दगी यूँ ही अपने ही वेग से दौड़ती चली जाती है और उसके साथ हम और आप भी... इस बनावट के हम ख़ुद भी इतने आदी हो जाते हैं की अपना असली चेहरा हमें भी याद नहीं रहता... हमारी इच्छाएं, हमारी ख्वाहिशें, हमारी पसंद-नापसंद, सब उस चेहरे के साथ हमारे दिल के किसी कोने में दब जाती हैं, खो जाती हैं... पर ज़रा सोचिये इस भागती दौड़ती ज़िन्दगी में अचानक से कभी ब्रेक लग जाये तो ?? कोई गर्मी की चिलचिलाती दोपहर में ठंडी हवा के झोंके सा आये और आपका हाथ थाम के अपने साथ ही उड़ा ले जाये सपनों के एक ऐसे संसार में जहाँ कोई बनावट नहीं... जहाँ आप "आप" हों... वो सारी इच्छाएं, वो सारी ख्वाहिशें और आपका वो कुछ मासूम सा, सच्चा, खूबसूरत सा चेहरा एक बार फिर दिल के उस कोने से निकल कर बाहर आ जाये... आप एक बार फिर अपने आप से मिलें... देखा सोच कर ही आपके चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान आ गयी... है ना ?
अब आप सोच रहे होगे की ऋचा तो हमेशा सपनों में ही जीती है... ये सब सपनों की बातें हैं... पागलपन है... हक़ीकत में किसे फुर्सत है आजकल जो अपना काम धाम छोड़ कर आपको आपसे मिलवाये... सच भी है... किसे फुर्सत है... क्या आपको है ? अच्छा ज़रा सोच के बताइये आखिरी बार कब आपने अपने सबसे अच्छे दोस्त के साथ बैठ कर फुर्सत से बात की है ? या यूँ ही बिना वजह, बिना किसी काम उससे मिलने गए हों ? सिर्फ़ उसके साथ बैठ कर चाय काफ़ी पी हो बिना कुछ बोले पर फिर भी बहुत सुकून मिला हो ? याद नहीं आ रहा ना... अरे तो देर किस बात की आज ही जाइये... थोड़ा सा समय अपने लिये निकालिए और थोड़ा अपने दोस्त के लिये... ये बनावटी चेहरा ख़ुद-ब-ख़ुद उतर जाएगा और आपको वही अपना भोला-भाला मासूम चेहरा वापस मिल जाएगा... चाहे कुछ लम्हों के लिये ही सही... अपने आप से मिलने के लिये कुछ पल तो निकाले जा ही सकते हैं... तो हो जाये एक "अपॉइंटमेंट" ख़ुद के साथ !!!


आओ चलें सपनों के जहाँ में
जहाँ न बनावट का पुलिंदा
न झूठ की गठरी

जहाँ तुम "तुम" हो
और मैं "मैं"
व्योम के पार, क्षितिज से परे

ढूंढें सिरे इन्द्रधनुष के
सुनें फूलों की हँसी
चहकें चिड़िया के साथ

चाँद की नाव में बैठ कर
पार करें बादलों की नदी
धुंध की चादर हटायें
खुशियों की धूप में नहायें

तितलियों से रंग चुरायें
रंगें ये बेरंग ज़िन्दगी
कुछ पल बच्चों से मासूम बनें

ख्वाहिशों के गुब्बारे
उड़ा दें खुले आसमान में
फिर दौड़ें पकड़ने के लिये

अब तुम "तुम" नहीं
मैं भी "मैं" नहीं
क्योंकि भीतर बसे हो "तुम"
और बाहर "मैं" हूँ

अपॉइंटमेंट ख़ुद के साथ
मिटा सकता है
"तुम" और "मैं" का यह
दिखावटी फ़र्क


-- ऋचा

Monday, November 2, 2009

इक टुकड़ा ज़िन्दगी...

ये ज़िन्दगी भी कितनी "अन्प्रेडिकटेबल" होती है... है ना ? अगले ही पल किसके साथ क्या होने वाला है कुछ नहीं पता... सच कहें तो हमें लगता है ज़िन्दगी का ये "अन्प्रेडिकटेबल" होना इसे और भी खूबसूरत बना देता है... ज़िन्दगी के प्रति एक आकर्षण, एक रोमांच बना रहता है... अगर हमें अपने आने वाले कल के बारे में पता हो तो उसकी चिंता में शायद हम अपने आज को भी ठीक से ना जी पायें...
वैसे भी आज ज़िन्दगी के लिये तमाम सुख सुविधाएं जुटाने की जद्दोजहद में हम अपनी ज़िन्दगी को जीना ही भूल गए हैं, जो हर गुज़रते पल के साथ कम होती जा रही है, हमसे दूर होती जा रही है...  पैसों से खरीदे हुए ये बनावटी साज-ओ-सामान हमें सिर्फ़ चंद पलों का आराम दे सकते हैं पर दिल का सुकून नहीं... इसलिए भाग-दौड़ भरी इस ज़िन्दगी से आइये अपने लिये कुछ लम्हें चुरा लें... कुछ सुकून के पल जी लें... उनके साथ जो हमारे अपने हैं... आज हम यहाँ है कल पता नहीं कहाँ हों... आज जो लोग हमारे साथ हैं कल शायद वो साथ हों ना हों और हों भी तो शायद इतनी घनिष्टता हो ना हो... क्या पता... इसीलिए आइये ज़िन्दगी का हर कतरा जी भर के जी लें...
ये ज़िन्दगी हमें बहुत कुछ देती है, रिश्ते-नाते, प्यार-दोस्ती, कुछ हँसी, कुछ आँसू, कुछ सुख और कुछ दुःख... कुल मिलाकर सही मायनों में हर किसी की ज़िन्दगी की यही जमा पूंजी है... ये सुख दुःख का ताना-बाना मिलकर ही हमारी ज़िन्दगी की चादर बुनते हैं, किसी एक के बिना दूसरे की एहमियत का शायद अंदाजा भी ना लग पाए...
अभी हाल ही में हुए जयपुर के हादसे ने हमें सोचने पे मजबूर कर दिया... सोचा कि इस हादसे ने ना जाने कितने लोगों कि ज़िन्दगी अस्त-व्यस्त कर दी, कितने लोगों को इस हादसे ने उनके अपनों से हमेशा हमेशा के लिये जुदा कर दिया और ना जाने कितने लोगों को ये हादसा कभी ना भर सकने वाले ज़ख्म दे गया... पर इस हादसे को बीते अभी चंद दिन ही हुए हैं... आग अभी पूरी तरह बुझी भी नहीं है और ये हादसा अखबारों और न्यूज़ चैनल्स कि सुर्खियों से गुज़रता हुआ अब सिर्फ़ एक छोटी ख़बर बन कर रह गया है... शायद यही ज़िन्दगी है... कभी ना रुकने वाली... वक़्त का हाथ थामे निरंतर आगे बढ़ती रहती है... जो ज़ख्म मिले वो समय के साथ भर जाते हैं और जो खुशियाँ मिलीं वो मीठी यादें बन कर हमेशा ज़हन में ज़िंदा रहती हैं...

लेखिका नहीं हूँ तो शब्दों से खेलना आज भी नहीं आता... कुछ विचार मन में आये थे सो लिख दिये... प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा...


ग़म की चिलकन, सुख का मरहम
उदासी के साहिल पे हँसी की इक लहर
कुछ उम्मीदें
कुछ नाकामियां
कुछ हादसे
कुछ हौसले
कभी ख़ुदा बनता इंसान
कभी खुद से परेशान
कभी बच्चों की हँसी में खिलखिलाती मासूमियत
कभी दादी-नानी के चेहरों की झुर्रियां
इन सब में है थोड़ी थोड़ी
इक टुकड़ा ज़िन्दगी

-- ऋचा

Monday, October 26, 2009

लफ़्ज़ों का पुल

उन्हें ये ज़िद थी के हम बुलाएं
हमें ये उम्मीद वो पुकारें
है नाम होठों पे अब भी लेकिन
आवाज़ में पड़ गयीं दरारें
-- गुलज़ार

भावनाएं, ख्वाहिशें, एहसास, विचार, ख़्वाब, हक़ीकत और उन सब को अभिव्यक्त करते कुछ शब्द... कभी सोचा है ये शब्द हमारी ज़िन्दगी से निकल जाएँ तो क्या हो ? हर सिम्त सिर्फ़ दिल को बेचैन कर देने वाली एक अंतहीन ख़ामोशी... एक गूंगा मौन...
ये शब्द ही तो हैं जिनसे आप किसी का दिल जीत लेते हैं और जाने अनजाने किसी का दिल दुखा भी देते हैं... ये शब्द ही तो हैं जो किसी को आपका दोस्त बना देते हैं तो किसी को आपका दुश्मन... ये शब्द ही तो होते हैं जो आपकी सोच को एक आकार देते हैं और कोई प्यारी सी नज़्म बन कर कागज़ पर बिखर जाते हैं... ये शब्द कभी दवा तो कभी दुआ बन कर हमारे साथ रहते हैं... और ये शब्द ही तो होते हैं जो दो लोगों को आपस में बाँध कर रखते हैं, उनके रिश्ते को एक मज़बूत नींव देते हैं... है ना ?
कहते हैं शब्दों में बड़ी ताक़त होती है... किसी बीमार इंसान से बोले गए प्यार और परवाह के चंद शब्द उसके लिये दवा से भी बढ़ कर काम करते हैं... नाउम्मीदी के दौर से गुज़र रहे किसी शख्स से बोले गए कुछ उत्साहवर्धक शब्द उसे उम्मीद की किरण दिखा जाते हैं... आपस में मिल बैठ कर सूझबूझ से की गयी बातचीत बड़ी से बड़ी समस्याओं का समाधान ढूंढ देती है... सहानुभूति के चंद लफ्ज़ किसी के ज़ख्मों पर मरहम का सा असर करते हैं और सच्चे दिल से माफ़ी के लिये बोले गए कुछ बोल किसी टूटते रिश्ते को बचा लेते हैं...
ये लफ्ज़ों का ही पुल है जो हर रिश्ते को जोड़े रखता है... एक ऐसा पुल जिसके दोनों सिरे एक रिश्ते से जुड़े दो इंसानों को बांधे रखते हैं... पर कभी कभी हम शब्दों की जगह मौन का सहारा ले लेते हैं... अपने रिश्ते के बीच हम अपने अहं को ले आते हैं...  और उस एक इंसान से, जिससे हम दुनिया में शायद सबसे ज़्यादा प्यार करते हैं, बात करना बन्द कर देते हैं... हम चाहते हैं की सामने वाला हमारी ख़ामोशी को समझे... लेकिन वो कहते हैं ना कि "मुंह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन, आवाजों के बाज़ारों में ख़ामोशी पहचाने कौन"...  इसलिए आइये लफ्ज़ों के इस पुल को टूटने ना दें... किसी भी रिश्ते में कोई भी ग़लतफहमी ना पलने दें... अपने अहं को अपने रिश्तों से बड़ा कभी ना होने दें... चुप ना रहें... बात करें और अपने बिखरते रिश्ते को बचा ले... क्यूंकि जैसे जैसे बातें कम होती जाती है, शब्द शिथिल पड़ते जाते हैं, ये पुल भी कमज़ोर होता जाता है और जिस दिन ये लफ्ज़ों का पुल टूटा समझो वो रिश्ता भी मर जाता है...

निदा फाज़ली जी ने इक ऐसे ही बिखरे हुए रिश्ते को इस नज़्म में पिरोया है जहाँ लफ्ज़ों का ये पुल टूट चुका है -




Tuesday, October 20, 2009

मोतबर रिश्ते... मुख्तसर रिश्ते...

एक बच्चा जब इस संसार में अपनी पहली साँस लेता है तो उसके साथ ही बहुत सारे रिश्ते उससे जुड़ जाते हैं... माँ, बाबा, भाई, बहन, दादा, दादी, नाना, नानी और ऐसे ही तमाम रिश्ते जो उस नन्हें से बच्चे को अपने जन्म के साथ ही मिल जाते हैं... ये खून के वो रिश्ते होते हैं जो ता-उम्र उसके साथ रहते हैं... ज़िन्दगी के हर ऊंचे-नीचे, टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर उसका हाथ थामे ख़ामोशी से उसके साथ चलते रहते हैं... उस बच्चे को तो इस बात का एहसास भी नहीं होता कि उसका बोला हुआ पहला शब्द और उसका बढ़ाया हुआ पहला कदम उन तमाम रिश्तों, उन लोगों के बिना शायद मुमकिन भी ना होता... पर कभी कभी इनमें से कुछ रिश्ते समय के साथ अपनी मिठास खो देते हैं... कड़वे हो जाते हैं... फिर भी उन्हें निभाना पड़ता है, भले ही उनसे मन मिले या ना मिले... क्यूंकि ये वो रिश्ते होते हैं जिन पर आपका कोई बस नहीं चलता... जो आप अपने लिये नहीं चुनते हैं बल्कि इन्हें आपके लिये आपका भाग्य चुनता है... आपको सिर्फ़ निभाना होता है...
फिर जैसे जैसे वो बच्चा बड़ा होता जाता है कुछ और रिश्ते उससे जुड़ जाते हैं... वो रिश्ते जिन्हें वो खुद चुनता है - उसके दोस्त... दोस्ती इस संसार का सबसे अनूठा रिश्ता है... एक ऐसा रिश्ता है जो तमाम खून के रिश्तों से भी ज़्यादा घनिष्ठ और प्रिय हो जाता है कभी कभी... आप भले ही एक बार अपने घर वालों की बात ना मानें पर अगर आपका सच्चा दोस्त आपसे कुछ कहता है तो आप उसे ज़रूर मानते हैं... है ना ? दोस्त होते ही ऐसे हैं... आपकी ख़ुशी में खुश... आपके ग़म में उदास... आपकी हर गलती पर आपको डाटते भी हैं तो आपकी हर बुराई को जानते हुए भी आपसे प्यार करते हैं... और आपकी ताक़त बन कर हर कदम पर आपके साथ होते हैं... कभी भी कहीं भी :-)
और फिर एक दिन वो नन्हा सा बच्चा एक परिपक्व इंसान बन जाता है... विवाह होता है और एक बार फिर वो तमाम सांसारिक रिश्तों और बन्धनों में बंध जाता है... ये रिश्ते भी बाकी रिश्तों की तरह ही कभी ख़ुशी तो कभी कड़वाहट ले कर आते हैं...
इन सब रिश्तों के बीच कभी कभी एक ऐसा रिश्ता भी बन जाता है किसी से, जिसे आप खुद समझ नहीं पाते... उस रिश्ते का क्या नाम है... क्यूँ वो एक अनजान इंसान आपके लिये अचानक इतना प्रिय और ख़ास हो जाता है, पता नहीं... और आप पता करना भी नहीं चाहते... बस उससे बात करना, उसके साथ समय बिताना अच्छा लगता है... ये जानते हुए भी की उस रिश्ते का कोई अस्तित्व नहीं है... वो कब तक आपके साथ रहेगा और कब अचानक साथ छूट जाएगा पता नहीं... पर आप कुछ सोचना नहीं चाहते... कुछ समझना नहीं चाहते... क्या ग़लत है क्या सही मालूम नहीं... बस उन साथ बिताये हुए कुछ पलों में तमाम उम्र जी लेना चाहते हैं... कुछ यादें बटोर लेना चाहते हैं... कुछ हँसी, कुछ मुस्कुराहट समेट लेना चाहते हैं... ज़िन्दगी भर के लिये...
गुलज़ार साब ने ऐसे ही किसी रिश्ते को अपनी इस नज़्म के ताने बाने में बुना है...



Monday, October 12, 2009

बड़ी खूबसूरत थी वो ज़िन्दगानी...

वो मासूम चाहत की तस्वीर अपनी
वो ख़्वाबों खिलौनों की जागीर अपनी
ना दुनिया का ग़म था, ना रिश्तों के बंधन
बड़ी खूबसूरत थी वो ज़िन्दगानी...
-- सुदर्शन फ़ाकिर

आज बड़े दिनों के बाद कुछ पुराने एल्बम हाथ लगे... माँ-बाबा की शादी से ले कर हमारे और भाई के बचपन की तस्वीरें, दादी माँ की आखों से झलकता असीम वात्सल्य, बुआ जी का ढेर सारा स्नेह, चाचा से की हुई वो हर इक ज़िद जो उन्होंने हमेशा पूरी करी, छोटे भाइयों के साथ वो बेफिक्री से खेलना, गाँव में बीती गर्मियों और सर्दियों की छुट्टियाँ, बाग़-बगीचे और उनके बीच छोटा सा देवी माँ का मंदिर... देखते देखते कब घंटों बीत गए और कब वो सब यादें हमारा हाथ पकड़ कर हमें वापस उसी बचपन में ले गयीं पता ही नहीं चला...
कहते हैं बचपन के दिन इंसान की ज़िन्दगी के सबसे खूबसूरत दिन होते हैं... सारे दुनियावी दांव पेंचो से अनभिज्ञ, सरल और सौम्य बचपन... ना कोई ऊँच नीच, ना अमीरी गरीबी, ना जात पात... छल कपट से कोसों दूर आप सिर्फ़ अपनी एक मुस्कराहट से हर किसी का दिल जीतना जानते हैं... और तो और आपके एक आँसू पर माँ-बाबा सारी दुनिया लुटाने को तैयार रहते हैं... हर कोई आपसे प्यार और सिर्फ़ प्यार करता है... कितना अच्छा लगता है ना जब सब आपकी इतनी परवाह करते हैं... पर जैसे जैसे हम बड़े होते जाते हैं, ज़िन्दगी की सच्चाई से वाक़िफ़ होते जाते हैं, हमारी परी कथाओं जैसी खूबसूरत दुनिया भी यथार्थ में तब्दील होती जाती है... कभी कभी सोचते हैं कितना अच्छा होता अगर हम कभी बड़े ही नहीं होते... सब कुछ ता-उम्र परी कथाओं जैसा ही खूबसूरत रहता... पर क्या करें जीवन का अनंत चक्र सोच मात्र से नहीं रुकता... वो तो सदा चलता रहता है... पर हमारा मानना है हम चाहें तो ये बचपन हमसे कभी दूर नहीं जा सकता... समय के साथ बड़े ज़रूर होइये पर दिल से नहीं दिमाग से... दिल के किसी कोने में उस बच्चे को हमेशा ज़िंदा रखिये... और फिर देखिये ज़िन्दगी हमेशा खूबसूरत रहेगी...
आज आपके साथ सुभद्राकुमारी चौहान जी की एक बेहद खूबसूरत और हृदयस्पर्शी रचना "मेरा नया बचपन" शेयर करने जा रहे हैं... ये रचना हमें बेहद पसंद है उम्मीद है आपको भी पसंद आएगी...


बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥


चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?


ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥


किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥


रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥


मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥


दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।
धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥


वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥


लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी।
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥


दिल में एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी।
मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥


मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥


सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं।
प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥


माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥


किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥


आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।
व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥


वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?


मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥


'माँ ओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी।
कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥


पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।
मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥


मैंने पूछा 'यह क्या लायी?' बोल उठी वह 'माँ, काओ'।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा - 'तुम्हीं खाओ'॥


पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥


मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥


जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया॥

-- सुभद्राकुमारी चौहान

Monday, October 5, 2009

कुछ सवाल ज़िन्दगी से...

दिवाली अब बस कुछ ही दिन दूर है... आप सबके घरों की तरह हमारे यहाँ भी थोड़ी बहुत तैयारियां शुरू हो गयी हैं गणेश जी और लक्ष्मी जी के स्वागत के लिये... और इस सप्ताहंत का उपयोग हमने कुछ साफ़ सफाई कर के किया :-) ... आज नंबर आया हमारे कमरे का... अलमारी साफ़ करते हुए एक पुरानी डायरी हाथ लगी... शायद कोई दस-बारह साल पुरानी... वैसे तो इस डायरी का ज़िक्र हमने अपनी पहली पोस्ट में भी करा था... शायद ये ब्लॉग बनाने की प्रेरणा भी वही डायरी है... बचपन से आदत रही है जो भी कवितायें, नज्में या विचार पसंद आया उसी डायरी में नोट करती आई हूँ... आज इतने दिनों बाद हाथ लगी तो अनायास ही कुछ पन्ने पलट लिये... तमाम बड़े बड़े नामी गिरामी शायरों की रचनाओं के बीच एक बचकानी सी कविता मिली... नहीं... कविता कहना शायद सही नहीं होगा... हमें खुद ही नहीं पता की वो है क्या... कुछ विचार हैं बस, कुछ सवाल जो ऐसे ही कभी मन में आये थे और लिख दिया था... और लिख कर भूल भी गए थे... आज इतने सालों बाद पढ़ा तो सोचा आप सब के साथ शेयर कर लूँ...
बात उन दिनों की है जब स्कूल से निकल कर यूनीवर्सिटी में दाखिला लिया था... अचानक से लगने लगा था हम भी बड़े हो गए हैं... पर शायद मन में तब भी बचपना था... हर चीज़ "परफेक्ट" नज़र आती थी, पर तमाम रिश्तों के मायने समझ नहीं आते थे... कोई बेवजह ही क्यूँ अच्छा लगता था और कोई कितना भी अच्छा हो फिर भी उससे कभी बनती क्यूँ नहीं थी... किसी से घंटों बात करना क्यूँ अच्छा लगता था... ज़रा सी देर होने पर क्यूँ माँ-बाबा परेशान हो जाते थे... बिना बताये कहीं जाने पर डांट क्यूँ पड़ती थी... हर किसी को हर बात की सफाई क्यूँ देनी पड़ती थी... माँ-बाबा के मन में हर समय ये डर क्यूँ रहता था की कुछ भी लीक से हट कर किया तो समाज क्या कहेगा... कौन है ये समाज ? किसने बनाए इसके नियम कायदे ? कौन चलाता है इसे ? ऐसे ही ढेरों सवाल मन में हर समय चला करते थे, पर जवाब नहीं थे...
आज इतने सालों के बाद शायद रिश्तों को, उनके मायनों को तो थोड़ा बहुत समझने लगे हैं... पर सवाल अब भी वही हैं... जवाब आज भी नहीं मिले...


क्या ज़रूरी है हर रिश्ते को इक नाम देना
उसे सीमाओं के धागों से बाँध देना
क्या हम भी उन परिंदों की तरह
आस्मां में पंख फैला कर नहीं उड़ सकते
आज़ाद, बेफिक्र...
क्या हमारे लिये इतना काफी नहीं है कि हम जान लें
हम सही हैं या ग़लत
क्या ज़रूरी है कि हम सारी दुनियाँ के लिये जवाबसार हों
अगर ऐसा है तो ऐसा क्यूँ है ?
किसने बनाए ये नियम ?
भगवान ने ?
ख़ुदा ने ?
प्रकृति ने ?
नहीं.
इंसान ने !
फिर क्यूँ इंसान ही इंसान के बनाए हुए नियमों पर नहीं चलना चाहता ?
क्यूँ बार बार इन्हें तोड़ कर आज़ाद हो जाना चाहता है ?
क्यूँ ?

-- ऋचा

Monday, September 28, 2009

दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये
-- निदा फाज़ली 

नवरात्र के आगमन के साथ ही त्योहारों का मौसम शुरू हो गया है... अभी कल ही नौ दिनों के व्रत, उपवास और कन्या पूजन के साथ ही नवरात्र संपन्न हुए हैं और आज विजयदशमी है... बुराई पर अच्छाई की, झूठ पर सच की,  अहम पर विवेक की विजय का पर्व... और कुछ ही दिनों में दीपावली आएगी और पूरी धरा रौशनी में नहा जायेगी... हर सिम्त सिर्फ रौशनी और जगमगाहट... नए कपड़े, पटाखे, खुशियाँ और मिठाइयाँ... बचपन से ही हम सब बड़े चाव के साथ ये सब त्यौहार मनाते आ रहे हैं... है ना ? सच है आख़िर किसे ये खुशियों से भरे त्यौहार नहीं पसंद होंगे... इनके नाम मात्र से ही सबके चेहरे पर हँसी खिल जाती है... पर इन सब खुशियों के बीच चंद बच्चे ऐसे भी हैं जिनके पास ना तो नए कपड़े हैं, ना ही ये पटाखे और मिठाई खरीदने के पैसे... उनकी ज़िन्दगी में कोई रौशनी नहीं है...
सच पूछिये तो उनकी बेबसी और तमाम सवालों से भरी आखें देख कर कभी कभी ये सब खुशियाँ बड़ी बेमानी, बड़ी बेमतलब सी लगती हैं... क्या फायदा ऐसे दिये का जो किसी की ज़िन्दगी में उजाला ना कर सके... एक तरफ हम कितने पैसे बर्बाद करते हैं पटाखों में, रौशनी में और दूसरी तरफ वो बच्चे हैं जिनको त्यौहार में मिठाई भी नसीब नहीं है... कैसा इन्साफ है ये...
कहते हैं एक अकेला इंसान कुछ नहीं कर सकता पर अगर हम सब मिल कर कुछ करने की ठान लें तो कम से कम कुछ लोगों को कुछ समय के लिए, थोड़ी सी ख़ुशी तो दे ही सकते हैं... आइये हम मिल कर एक प्रण करते हैं कि इस त्योहारों के मौसम में जो पैसा हम अपने कपड़ों, मिठाइयों और पटाखों पर खर्च करने वालें हैं उसमें से थोड़ा सा ही सही, पर बचा कर चंद बेसहारा, अनाथ बच्चों को देंगे और उन्हें भी ये एहसास करायेंगे की त्यौहार सिर्फ हमारा नहीं उनका भी है...
आइये इस दीवाली कुछ बच्चों की ज़िन्दगी में उजाला करते हैं, कुछ पल के लिये ही सही उनके चेहरों को भी मुस्कान से रौशन करते हैं...  आइये इस दीवाली मिल कर दिये की रौशनी को सचमुच कुछ मानी देते हैं... बोलिए देंगे मेरा साथ ?



दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!


बहुत बार आई-गई यह दिवाली
मगर तम जहां था वहीं पर खड़ा है,
बहुत बार लौ जल-बुझी पर अभी तक
कफ़न रात का हर चमन पर पड़ा है,
न फिर सूर्य रूठे, न फिर स्वप्न टूटे
उषा को जगाओ, निशा को सुलाओ!
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!


सृजन शान्ति के वास्ते है जरूरी
कि हर द्वार पर रोशनी गीत गाये
तभी मुक्ति का यज्ञ यह पूर्ण होगा,
कि जब प्यार तलावार से जीत जाये,
घृणा बढ़ रही है, अमा चढ़ रही है
मनुज को जिलाओ, दनुज को मिटाओ!
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!


बड़े वेगमय पंख हैं रोशनी के
न वह बंद रहती किसी के भवन में,
किया क़ैद जिसने उसे शक्ति छल से
स्वयं उड़ गया वह धुंआ बन पवन में,
न मेरा-तुम्हारा सभी का प्रहर यह
इसे भी बुलाओ, उसे भी बुलाओ!
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!


मगर चाहते तुम कि सारा उजाला
रहे दास बनकर सदा को तुम्हारा,
नहीं जानते फूस के गेह में पर
बुलाता सुबह किस तरह से अंगारा,
न फिर अग्नि कोई रचे रास इससे
सभी रो रहे आँसुओं को हंसाओ!
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!

-- गोपालदास "नीरज"

Thursday, September 24, 2009

या देवी सर्वभूतेषु

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।


नवरात्र के नौ दिन हम देवी दुर्गा के नौ रूपों की आराधना करते हैं... व्रत, उपवास, फल, फूल और ना जाने क्या क्या... सभी अपनी तरह से देवी को खुश करने में लगे रहते हैं...
नवरात्र के इस पावन पर्व में आज छठा दिन है... आज हम देवी कात्यायनी की आराधना करते हैं... देवी कात्यायनी दुर्गा का वो रूप हैं जो सदा बुराई और छल कपट से लड़ती हैं... उनके चार हाथ हैं दो में अस्त्र होते हैं, एक में कमल का फूल और एक से वो हमें आर्शीवाद देती हैं... बिलकुल आज की स्त्री की तरह, जो प्यार और आशीष देना भी जानती है और बुराई के खिलाफ लड़ना भी...
आज २४ सितम्बर है, और आज "अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस" भी है, पर स्त्री सशक्तिकरण के इस दौर में जहाँ एक ओर महिलायें चाँद तक पहुँच रही हैं वहीं दूसरी ओर इस तथाकथित पुरुषप्रधान समाज में कुछ जगहों पर कन्या भ्रूण हत्या आज भी हो रही है... भगवान के बाद सबसे पूजनीय स्थान संसार में किसी को मिला है तो वो "माँ" है... क्यूंकि वो भी भगवान ही की तरह सृष्टा है, जीवनदायनी है...  और हम उसी की हत्या कर रहे हैं उसे जन्म लेने से पहले ही मार दे रहे हैं... और नौ दिन का दिखावा कर के चाहते हैं की देवी माँ प्रसन्न हो कर हमें आर्शीवाद दें... आप कहिये क्या सच में देवी को प्रसन्न हो कर आर्शीवाद देना चाहिये ऐसे में ?
स्त्री का तिरस्कार आज से नहीं सदियों से होता आ रहा है... कभी वो द्रौपदी बन अपनों के ही हाथों भरी सभा में अपमानित हुई है तो कभी सीता बन अग्नि परीक्षा दी है... आख़िर क्यूँ ? क्या दोष था उसका ?? और क्यूँ कुछ पुरुष कभी पिता, कभी भाई, कभी पति बन उसके समस्त अस्तित्व के ठेकेदार हो जाते हैं... उसे कहाँ जाना चाहिये, क्या पहनना चाहिये, किस से बात करनी चाहिये, किस के साथ उठाना बैठना चाहिये, उसे कितना पढ़ना है और कब शादी करनी है... ये सब उसके लिये कोई और क्यूँ तय करता है... क्यूँ नहीं उसे पढ़ा-लिखा के इस काबिल बनाया जाता की वो अपनी ज़िन्दगी के ये छोटे-बड़े फैसले खुद कर पाए...
समाज कब ये समझेगा की देवी को प्रसन्न करना है तो पहले समाज में महिला को वो स्थान वो इज्ज़त दो जिसकी वो हकदार है... उसके सपनों को पहचानो... उन सपनों में रंग भरने का, उन्हें पूरा करना का मौका दो उन्हें... उन सपनों को मारो मत...
वैसे तो आज सरकार बहुत कुछ कर रही है... महिलाओं और कन्याओं के लिये बहुत सी योजनायें हैं, बहुत से अधिनियम बने हैं पर समस्या ये है की बहुत सी महिलायें ही खुद ही ना तो अपने अधिकारों के बारे में जानती हैं और ना ही इन योजनाओं के बारे में... आज समाज को ज़रुरत है जागरूकता लाने की... अपनी सोच को बदलने की... स्त्री का सम्मान करने की... और जिस दिन ऐसा हुआ ये नौ दिन के उपवास की ज़रुरत नहीं पड़ेगी... देवी स्वयं प्रसन्न हो कर हमें इतना प्यार और आर्शीवाद देंगी की हमसे शायद वो संभाले नहीं संभलेगा...

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता
जहाँ नारियों की पूजा होती है वहीं देवता रमते हैं।

समाज से इज्ज़त, सम्मान और अपना एक मकाम पाने के नारी के इस संघर्ष और पीड़ा को गुलज़ार साब ने क्या खूब पिरोया है अपनी एक नज़्म में, आप भी पढ़िये...

कितनी गिरहें खोली हैं मैंने
कितनी गिरहें अब बाकी हैं
पाँव में पायल, बाहों में कंगन
गले में हंसली, कमरबंद छल्ले और बिछुए
नाक कान छिदवाये गए हैं
और सेवर ज़ेवर कहते कहते
रीत रिवाज़ की रस्सियों से मैं जकड़ी गई
उफ़ ... कितनी तरह मैं पकड़ी गई
अब छिलने लगे हैं हाथ पाँव
और कितनी खराशें उभरें हैं
कितनी गिरहें खोली हैं मैंने
कितनी रसियाँ उतरी हैं

अंग अंग मेरा रूप रंग
मेरे नक्श नैन मेरे बोल बैन
मेरी आवाज़ में कोयल की तारीफ हुयी
मेरी ज़ुल्फ़ साँप मेरी ज़ुल्फ़ रात
ज़ुल्फ़ों में घटा मेरे लब गुलाब
आँखें शराब
गजलें और नज्में कहते कहते
मैं हुस्न और इश्क के अफसानो में
जकड़ी गई, जकड़ी गई
उफ़... कितनी तरह मैं पकड़ी गई

मैं पूछूँ ज़रा, मैं पूछूँ ज़रा
आंखों में शराब दिखे सबको
आकाश नहीं देखा कोई
सावन भादों तो दिखें मगर
क्या दर्द नहीं देखा कोई
फन की झीनी सी चादर में
बुत छील गए उरयानी के
तागा तागा करके पोशाक उतारी गई
मेरे जिस्म पे फन की मश्क हुयी
और आर्ट का ना कहते कहते
संग-ऐ-मर्मर में जकड़ी गई
उफ़... कितनी तरह मैं पकड़ी गई, पकड़ी गई
बतलाये कोई, बतलाये कोई
कितनी गिरहें खोली हैं मैंने
कितनी गिरहें अब बाकी हैं

-- गुलज़ार

Monday, September 21, 2009

किताबें

पिछले कुछ दिनों से हमारे शहर लखनऊ में राष्ट्रीय पुस्तक मेला लगा हुआ था... रोज़ अख़बार में पढ़ते थे कि हर बार कि तरह इस बार भी किताबों का बहुत ही अच्छा संग्रह है, पर व्यस्तता के कारण जा नहीं पा रहे थे ... पिछले हफ्ते भी जाने का प्रोग्राम बनाया पर किन्ही कारणों से नहीं जा पाए... पर इस शनिवार अंततः जाना हो ही गया... और सच मानिये किताबों का इतना अच्छा संग्रह कभी कभी ही देखने को मिलता है, कंप्यूटर के इस युग में... कंप्यूटर ने लोगों को किताबों से बहुत दूर कर दिया है... आज इन्टरनेट पर शायद ही कोई ऐसा विषय हो जिसके बारे में जानकारी उपलब्ध न हो... जिस भी विषय के बारे में जानकारी चाहिये किसी भी सर्च इंजन में डालिए और पलक झपकते ही हज़ारों परिणाम आपके कंप्यूटर स्क्रीन पर आ जाते हैं... है ना आसान... पर आज के इस मशीनी युग ने इंसान को भी अपने जैसा ही बना दिया है... 'सेंसिटिव' कम और 'प्रैक्टिकल' ज़्यादा... लोग किताबों से दूर होते जा रहे हैं... उन्हें लगने लगा है कि कौन घंटो किताबों में सर खपाए, जब वो ही जानकारी वो कुछ पलों में ही हासिल कर सकते हैं...पर शायद उन्हें नहीं पता कि कुछ ही पलों में, बहुत कुछ पाने की चाहत में वो क्या खो रहे हैं...
गुलज़ार साब के हाल ही में प्रकाशित संग्रह "यार जुलाहे..." में एक बहुत ही बेहतरीन नज़्म है जो उन्होंने लोगों के किताबों के प्रति बदलते नज़रिए पर लिखी है कुछ अपने ही अंदाज़ में... उम्मीद है आपको भी पसंद आएगी...

किताबे झाँकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं
जो शामें इनकी सोहबत में कटा करती थीं
अब अक्सर...
गुजर जाती है 'कंप्यूटर' के पर्दों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें...
इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
बड़ी हसरत से तकती हैं,
जो कदरें वो सुनाती थीं,
कि जिनके 'सेल' कभी मरते नहीं थे
वो कदरें अब नज़र आती नहीं घर में
जो रिश्ते वो सुनाती थीं
वह सारे उधड़े उधड़े हैं
कोई सफ़ा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ़्जों के मानी गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के सूखे ठूंठ लगते हैं वो सब अल्फ़ाज़
जिन पर अब कोई मानी नहीं उगते
बहुत सी इस्तलाहें हैं
जो मिटटी के सकोरों की तरह बिखरी पड़ी हैं
गिलासों ने उन्हें मतरुक कर डाला
ज़ुबां पर ज़ायका आता था जो सफ़्हे पलटने का
अब उंगली 'क्लिक' करने से बस इक
झपकी गुज़रती है
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, कट गया है
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे,
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बना कर
नीम-सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइन्दा भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक़्क़े
किताबें मँगाने, गिरने, उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा?
वो शायद अब नही होंगे !

-- गुलज़ार

कदरें - Norms; इस्तलाहें - Terms; मतरुक - Abandon, Reject, Obsolete;
रुक़्क़े - Notes

Tuesday, September 15, 2009

जंग


Jung, ye lafz sunnen me hi kitna talkh kitna bitter lagta hai... ek sihran si daud jaati hai jism me jab bhi kisi jung ki tasweeren kisi news channel pe dekhte hain... chaaron taraf bas bum ke dhamake, dhuen ka gubbar, ghayal sainik, pati ya bete ki shahaadat par behis, besudh si aurten, rote bilakhte bachche jinhen chup karaane waala bhi koi nahin... har simt sirf aur sirf tabaahi ka manzar... phir wo jung chaahe kinhi bhi do mulqon ke beech ho... chaahe koi bhi jeete... par haarti insaaniyat hi hai... khud insaan ke haathon hi qatl ho jaati hai bechaari !
Jung kabhi bhi zarkhez nahi hoti... wo sirf niist o naa buud karna jaanti hai... har fateh ki buniyaad zindagi ki shiqast hoti hai... aisi jeet ka bhala koi kya jashn manaaye...
Saahir Ludhiyaanvi ji ki ek bahot hi dil ko chhu lene waali nazm abhi haal hi me padhi jo unhone jung pe likhi thi, aap bhi padhiye...

ख़ून अपना हो या पराया हो
नस्ल-ए-आदम का ख़ून है आख़िर
जंग मग़रिब में हो कि मशरिक में
अमन-ए-आलम का ख़ून है आख़िर

बम घरों पर गिरें कि सरहद पर
रूह-ए-तामीर ज़ख़्म खाती है
खेत अपने जलें या औरों के
ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है

टैंक आगे बढें कि पीछे हटें
कोख धरती की बाँझ होती है
फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग
ज़िन्दगी मय्यतों पे रोती है

इसलिए ऐ शरीफ इंसानों
जंग टलती रहे तो बेहतर है
आप और हम सभी के आँगन में
शमा जलती रहे तो बेहतर है।

-- साहिर लुधियान्वी

मग़रिब : West; मशरिक : East; तामीर : Construction; ज़ीस्त : Life; फ़ाक़ों : Hunger

Monday, September 7, 2009

Love Personified -- Imroz



" ना उम्र की सीमा हो ना जन्म का हो बन्धन
जब प्यार करे कोई तो देखे केवल मन..."

sach hai pyar ko na koi bandhan baandh sakaa hai na hi koi seema seemit kar sakii hai... pyar to aseem hai, shaashwat hai... satya hai... har duniyaavi bandhan se pare sirf pyar hai... ek khoobsoorat ehsaas... aur itna pyaara ki har pyaar karne waale ko apni hi tarah pyaara bana deta hai... par humne aur aapne to bas pyar ke baare me suna aur padha hai par ek shaqs hai jisne sahi maayno me pyar ko jiya hai, har pal har lamha... Imroz... abhi shayad aap unhen pehchaane nahi hain... agar hum is tarah se kahen ki amrita ka imroz to shayad aapko kuchh yaad aaye...
apni last post me humne amrita ji ki ek kavita post kari thi jo unhone imroz ji ke liye likhi thi, ye wahi imroz hain jinki baat hum aaj kar rahe hain...
imroz ji ek bahot hi jaane maane painter aur artist rahe hain... par humesha low profile rehne waala ye shaqs armita ji ke liye apne pyar aur deewaangi ki wajah se charcha me aaya...
amrita ji se unki mulaqaat kaam ke silsile me hi hui thi... jab ek baar amrita ji unse apni ek book ka cover page design karwaane gayi thi... aur bas phir mulaaqaaton ka jo silsila shuru hua to ek itihaas bana gaya...
imroz ji ke baare me jaaniye to vishwaas hi nahi hota ki koi kisi ko itni shiddat se bhi chaah sakta hai aaj ke yug me... wo bhi ye jaante hue ki amrita unhen nahi balki sahir ko pasand karti hain... aisa to aaj tak bas kisson kahaniyon me hi hota aaya tha...
amrita ne imroz me hamesha ek bahot achchhe dost ko dekha aur imroz ne poore dil se ye dosti aur pyaar dono nibhaaye...
imroz aur amrita ke beech shayad koi ruhaani rishta tha... bilkul ek sapne ki tarah... apne 41 saal ke saath me dono me kabhi koi matbhed nahi hua, kisi bhi baat ko lekar... na hi kabhi unhone ek dusre ko I Love You kaha... shayad zaroorat hi nahi thi... dono hi is ehsaas ko sirf jeete the aur mehsoos karte the... ek dusre ki har chhoti badi baaton ka khayaal rakhte the aur ek dusre ke saath khush rehte the...

Here's an excerpt from Umo Trilok ji's book "Amrita-Imroz - A Love Story" :
When Amrita’s body was being consumed by fire one is introduced to a stoic Imroz deeply in love still but detached.
"At the end of the deserted cremation ground, a few people were standing, silently staring at the burning pyre. Away from everybody, alone, standing in a corner, I spotted Imroz. Going close to him and touching his shoulder from behind, I muttered, "Don’t be sad." Somehow I always felt that Imroz would become very sad after Amrita’s death. He turned, and looking at me, said, "Uma, why be sad? What I could not do, Nature did."

Such words of wisdom and love because Amrita's last years were painful for her body and death came to her like a liberator.
ab aise niswaarth pyar ko bhala koi kya naam de...

yun to imroz ji ek chitrakaar the par kuchh nazmen bhi likhi hain unhone amrita ji ke liye... shayad unhi se prerna le kar... unme se hi ek ye bhi hai... Ghosla Ghar... jo unhone tab likhi thi jab amrita ji bahot beemar thi aur apni antim yatra ki taraf badh rahi thi...


Monday, August 31, 2009

Immortal Amrita !!!


kaafi samay se soch rahe hain amrita ji ki koi nazm apne blog me shaamil kare... par soch ab tak sirf soch hi thi us soch ko shabd nahi de paaye ya yun kahiye ye decide nahi kar paaye ki unki kaun si rachna pehle shaamil karen... unka likha sabhi kuchh itna achhha hai ki confuse hona lazmi tha... par aaj unke janmdin ke awsar par unhen yaad kiye bina nahi reh sakte...
amrita pritam... ye naam sahitya premiyon ke liye naya nahi hai... kabhi kahani, kabhi upanyaas, kabhi kavita to kabhi aatmkatha, saahitya jagat ko khaaskar punjabi saahitya jagat ko jaane kitna kuchh diya hai unhone... unki kalam se nikla ek ek shabd itna jeevant hota tha ki seedha dil ko chhuta tha...
ek aisi khush mizaj swatantra rooh jisne zindagi apni sharton par ji aur khulkar ji... phir chaahe wo saahir ke liye unka lagaaw ho ya imroz ji ke saath rehne ka unka faisla, unhone na kabhi kuchh duniya se chhupaya na hi kabhi duniya ki parwaah ki... par is beparwaahi ne unhen bahot akela kar diya tha... aur aise me unka saath diya imroz ji ne... imroz wo shaks hai jinhone amritaji ke ant samay tak unka saath diya ek dost, ek humkadam, ek humraah banke... ek ankaha, anaam rishta jo unhone pure chaalees saal jiya saare duniyaavi rishton ko taak pe rakh ke...
aaj yahan amrita ji ki jo nazm pesh karne ja rahe hain wo unhone imroz ji ke liye likhi thi, unki likhi kuchh aakhiri poems me se ek

मैं तेन्नु फेर मिलांगी
कित्थे ? किस तरह ? पता नहीं

शायद तेरे तख़य्युल दी चिण बन के
तेरे कैन्वस ते उतरान्न्गी
जा खौरे तेरे कैन्वस दे उत्ते
इक रहस्मयी लकीर बनके
ख़ामोश तेन्नु तकदी रवान्न्गी
मैं तेन्नु फेर मिलांगी

जा खौरे सूरज दी लौ बनके
तेरे रंगा विच्च घुलान्न्गी
या रंगा दियां बावां विच्च बैठ के
तेरे कैन्वस नु वलान्न्गी
पता नहीं किस तरह, कित्थे
पर तेन्नु ज़रूर मिलान्न्गी

या खौरे इक चश्मा बनी होवान्न्गी
ते जिव्वें झर्नेया दा पानी उड़दा
मैं पानी दियां बूंदा
तेरे पिंडे ते मलान्न्गी
ते इक ठंडक जई बन के
तेरी छाती दे नाल लगान्न्गी
मैं होर कुछ नहीं जांदी
पर एन्ना जान्दियाँ
की वक्त जो वि करेगा
एह जनम मेरे नाल टुरेगा

ऐ जिस्म मुक्दा है
ते सब कुछ मुक जांदा है
पर चेतियाँ दे धागे
कायनाती कणा दे होंदे
मैं उन्हा कणा नु वलान्न्गी
धागेयाँ नु वलान्न्गी
ते तेन्नु फेर मिलान्न्गी

-- अमृता प्रीतम

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ye translation net pe hi kahin mila tha... poem samajhne me aapki help karega...

I will meet you yet again
How and where? I know not.
Perhaps I will become a
figment of your imagination
and maybe, spreading myself
in a mysterious line
on your canvas,
I will keep gazing at you.

Perhaps I will become a ray
of sunshine, to be
embraced by your colours.
I will paint myself on your canvas
I know not how and where
but I will meet you for sure.

Maybe I will turn into a spring,
and rub the foaming
drops of water on your body,
and rest my coolness on
your burning chest.
I know nothing else
but this much
that whatever time will do
this life will walk along with me.

When the body perishes,
all perishes;
but the threads of memory
are woven with enduring specks.
I will pick these particles,
weave the threads,
and I will meet you yet again.

-- Amrita Pritam

" 'main tennu pher millangi' 2002 me likhi is kavita ke saath amrita ke lekhan ki umr puri ho gai. kal tak 84 barson se khayaalon ke dariya me apni kashti me palang par baithi kavita likhti , kavita jeeti wo zindagi ke paanchon dariyaaon ko pal-pal paar karti rahi... aur aajkal wo apne palang par saanson ke paaniyon me dol rahi - sirf dol rahi..."
--Imroz
aaj amrita ji humaare beech nahi hai par unke shabdon ki khushbu aaj bhi fiza ko mehkaati hai... aur aane waali kaai sadiyon tak amrita yun hi mehkegi...

"The fact that I am alive means that Amrita is not dead. My life is full of the beautiful moments that we shared. Now all those moments are transformed into sweet little poems... Together we enjoyed the flowering of the tree of life and now the tree is becoming a seed again and this seed is my Amrita. I brought a paper and she flowered into so many beautiful words on it."
-- Imroz

amrita ji ke baare me itna kuchh hai kehne ke liye par na shabd aur na hi samay saath de rahe hain... baaki phir kabhi... abhi aapko gulzar sa'ab ke saath chhod jaate hain... suniye unka kya kehna hai amrita ji ke baare me...







Sunday, August 23, 2009

Long Live Gulzar Sa'ab !!!


"उसको भूले से पढ़ लिया था कभी, तब से आदत बिगड़ गई शायद,
तब से हैं मेज़ पे खुली रखी, हज़ार रातें पश्मीने की"

aaj kaafi dino ki masroofiyat ke baad kuchh samay mila hai to socha sabse pehle wo kaam kar le jo shayad aaj se paanch din pehle hi kar lena chahiye tha 18th August ko... khair der aaye durust aaye... yun to dil se duaayen usi din de di thi par aaj ek baar phir se gulzar sa'ab ko janm din ki dher saari shubhkaamnaayen...
gulzar sa'ab ko kab se padhna shuru kara tha ye to yaad nahi... par pasand humesha se hi the... shayad tab se jab bachpan me unka likha wo song suna tha... "mera kuchh saamaan..." ya tab se jab ye pata bhi nahi tha ki gulzar naam ka koi shayar hai jisne ye gaana likha hai... haan kabhi kabhar filmfare awards me zaroor unhen dekha tha... kalaf kara hua safed kurta paijama, pairon me moojri, aankhon pe moote se frame ka chashmaa aur hoothon pe ek chir parichit muskan... bilkul ek aam aadmi ki tarah... unki ye aam aadmi waali image jaise dil me bas gayi thi... aur bahot saalon baad jab shayad thodi akl aayi ki unka likha kuchh samajh saken tab se unhen padhte aur pasand karte aaye hain.
sabse juda, sabse alag gulzar sa'ab ka apna hi ek style hai... roz marra ki zindagi se kuchh shabd uthate hain aur unhen ek ladi me piro ke ek khoobsoorat sa geet bana dete hain "din khaali khaali bartan hai aur raat hai jaise andha kuaan"... ya aajkal ka latest song hi le leejiye "aaja aaja dil nichoden, raat ki matki toden, koi good luck nikalen, aaj gullak to phoden"... ab bhala bataaiye ye gullak, bartan, matki in shabdon me bhi koi khoobsoorti dhundh sakta hai bhala? par gulzar sa'ab to phir gulzar sa'ab hain... the one and only...
gulzar sa'ab ko jitna humne samjha hai wo ek bahot keen observer hain... apne aas paas jo kuchh ho raha ho use bahot hi dhyaan se observe karte hain aur usse prerna lete hain aur wahi sachchayi unki likhi nazmon me nazar aati hai... kabhi rishton ka taana baana, to kabhi zindagi ke phalsafe, kabhi ek masoom bachche ke masoom sawaal to kabhi prakriti ka aseem saundarya... sabhi kuchh sameta hai unhone apni nazmon me... aur kahin agar un nazmon ko wo apni aawaaz me padh de to samajhiye mazaa dugna ho jaata hai... waise aapne kabhi gulzar sa'ab ki likhi kahaniyan padhi hain? kabhi mauka mile to zaroor padhiyega... apni nazmon ki hi tarah kuchh alag par dil ko chhu lene waali hoti hain...
ab tak to aap log jaan hi gaye honge ki aap sabhi ki tarah hum bhi gulzar sa'ab ke ek adna se fan hain :-) ... aur apni har dursi post me unhi ki nazm pesh karte rehte hain... par kya karen unka likha sabhi kuchh itna achha hota hai ki man hi nahi maanta...
waise to gulzar sa'ab ke baare me kitna kuchh hai share karne ke liye par wo sab phir kabhi... aaj to bas unko ek lambi aur sukhad zindagi ki dher saari shubhkamnaayen aur ye ummed ki wo hamesha aise hi likhte rahe...

ना आमद की आहट और ना जाने की टोह मिलती है
कब आते हो
कब जाते हो ...

ईमली का ये पेड़ हवा में हिलता है तो
ईंटों की दीवार पे परछाईं का छींटा पड़ता है
और जज़्ब हो जाता है, जैसे,
सूखी मिट्टी पे कोई पानी के कतरे फेंक गया हो
धीरे धीरे आँगन में फिर धूप सिसकती रहती है
कब आते हो
कब जाते हो
दिन में कितनी बार मुझे तुम याद आते हो ...

बंद कमरे में कभी कभी
जब दिए की लौ हिल जाती है तो
एक बड़ा सा साया मुझको
घूँट घूँट पीने लगता है
आँखें मुझसे दूर बैठ के मुझको देखती रहती हैं
कब आते हो
कब जाते हो
दिन में कितनी बार मुझे तुम याद आते हो ...

ना आमद की आहट और ना जाने की टोह मिलती है
कब आते हो
कब जाते हो
दिन में कितनी बार मुझे तुम याद आते हो ...

-- गुलज़ार

Monday, August 10, 2009

इन बूढ़े पहाड़ों पर, कुछ भी तो नहीं बदला




aaj aapke saath kuchh bahot khaas aur anootha share karne ja rahi hun... yun to ek baar phir gulzar sa'ab ki hi nazm le kar aayi hun par is baar ekdum juda andaaz ki nazm hai... ise jab pehli baar humne padha to laga ki koi kahani padh rahe hain... wo bhi itni jeevant ki har line ke saath aankhon ke saamne koi scene chal raha ho jaise...

"In Boodhe Pahadon Par, Kuchh Bhi To Nahi Badla"... haan shayad sach hi to hai sadiyon se sab kuchh waise hi hai... wahi pahad, wahi barf, wahi jharne, wahi jungle aur wahi aadamkhor bhediya... jise har baar gaaon waale maar dete hain par wo na jaane kaise phir laut aata hai... puri nazm me yun to sirf pahadon aur wahan ki zindagi ki vyaakhaya hai par agar samjha jaaye to gulzar sa'ab ne bahot gehri baat kahi hai uske madhyam se... wo bhediyaa aakhir hai kya? shayad humaare andar chhupi hui buraayi... aur jab tak wo buraayi ka bhediya humaare andar chhupa rahega uska ant mumkin nahi hai... wo har baar isi tarah se wapas aata rahega aur humen marta rahega...

to leejiye ru-ba-ru hoiye is khoobsoorat nazm se aur haan ek baat aur kehna chahungi jab ise pehli baar padha tha to ye socha bhi nahi tha ki ise gaaya bhi ja sakta hai wo bhi itne behtreen andaaz me... par vishal bharadwaaj ji ne ise apni dhun de kar ke aur suresh wadekar ji ne apni aawaaz se saja kar aur bhi jeevant bana diya hai... ab aur kuchh nahi kahungi... aap nazm aur geet dono ka lutf uthaaiye... hum chalte hain... haan agar aapko bhi pasand aaye to bata zaroor deejiyega...



इन बूढ़े पहाड़ों पर, कुछ भी तो नहीं बदला
सदियों से गिरी बर्फ़ें
और उनपे बरसती हैं
हर साल नई बर्फ़ें
इन बूढ़े पहाड़ों पर....

घर लगते हैं क़ब्रों से
ख़ामोश सफ़ेदी में
कुतबे से दरख़्तों के

ना आब था ना दानें
अलग़ोज़ा की वादी में
भेड़ों की गईं जानें

कुछ वक़्त नहीं गुज़रा नानी ने बताया था
सरसब्ज़ ढलानों पर बसती थी गड़रियों की
और भेड़ों की रेवड़ थे

ऊँचे कोहसारों के
गिरते हुए दामन में
जंगल हैं चनारों के
सब लाल से रहते हैं
जब धूप चमकती है
कुछ और दहकते हैं
हर साल चनारों में
इक आग के लगने से
मरते हैं हज़ारों में !
इन बूढ़े पहाड़ों पर...

चुपचाप अँधेरे में अक्सर उस जंगल में
इक भेड़िया आता था
ले जाता था रेवड़ से
इक भेड़ उठा कर वो
और सुबह को जंगल में
बस खाल पड़ी मिलती।

हर साल उमड़ता है
दरिया पे बारिश में
इक दौरा सा पड़ता है
सब तोड़ के गिराता है
संगलाख़ चट्टानों से
जा सर टकराता है

तारीख़ का कहना है
रहना चट्टानों को
दरियाओं को बहना है
अब की तुग़यानी में
कुछ डूब गए गाँव
कुछ गल गए पानी में
चढ़ती रही कुर्बानें
अलग़ोज़ा की वादी में
भेड़ों की गई जानें

फिर सारे गड़रियों ने
उस भेड़िए को ढूँढ़ा
और मार के लौट आए
उस रात इक जश्न हुआ
अब सुबह को जंगल में
दो और मिली खालें

नानी की अगर माने
तो भेड़िया ज़िन्दा है
जाएँगी अभी जानें
इन बूढ़े पहाड़ों पर कुछ भी तो नहीं बदला...

-- गुलज़ार


Monday, July 20, 2009

सादा कैन्वस पे उभरते हैं बहुत से मंज़र...


kuchh dino pehle gulzar sa'ab ki ek bahot hi khoobsoorat nazm padhi jo unhone abhi haal hi me likhi hai... bahot hi khoobsoorti se unhone jeevan ke tamaam rangon ko apne nazm roopi canvas pe utaara hai... isme jeevan ka har rang hai prakriti ka adbhut saundarya hai, baalman ki nishchhalta hai, ek boodhi bhikhaarin ki bebasi hai aur ek nayi naveli dulhan ki alhadta bhi hai... padhte padhte nazm ke ye tamaam rang aapke chehre par bhi ubhar aate hain... kabhi aapke honthon pe ek meethi si muskan chhod jaate hain to kabhi dil me ek tees si uthti hai... aap bhi padhiye aur jeevan ke in tamaam rango me saraabor ho jaaiye...




एक सनसेट है, पके फल की तरह
पिलपिला रिसता, रसीला सूरज
चुसकियाँ लेता हूँ हर शाम लबों पे रखकर
तुबके गिरते हैं मेरे कपड़ों पे आ कर उसके

एक इमली के घने पेड़ के नीचे
स्कूल से भागा हुआ बोर-सा बच्चा
जिस को टीचर नहीं अच्छे लगते
इक गिलहरी को पकड़ के
अपनी तस्वीरें किताबों की दिखा कर खुश है

मेरे कैन्वस ही के ऊपर से गुज़रती है सड़क इक
एक पहिया भी नज़र आता है टाँगे का मुझे
कटकटाता हुआ एक सिरा चाबुक का
घोड़े की नालों से उड़ती हुई चिनगारियों से
सादा कैन्वस पे कई नुक्ते बिखरते हैं धुएँ के।

कोढ़ की मारी हुई बुढ़िया है इक गिरजे के बाहर
भीख का प्याला सजाए हुए, गल्ले की तरह,
माँगती रहती है ख़ैरात 'खुदा नाम' पे सब से।
जब दुआ होती है गिरजे में तो बाहर आकर
बैठ जाता है खुदा गल्ले पे, ये कहते हुए
आज कल मंदा है, इस नाम की बिक्री कम है।

'क़ादियाँ' कस्बे की पत्थर से बनी गलियों में
दुल्हनें 'अलते' लगे पाँव से जब
काले पत्थर पे क़दम रखती हुई चलती हैं
हर क़दम आग के गुल बूटे से बन जाते हैं!
देर तक चौखटों पे बैठे, कुँवारे लड़के
सेंकते रहते हैं आँखों के पपोटे उनसे।

नीम का पेड़ है इक-
नीम के नीचे कुआँ है।
डोल टकराता हुआ उठता है जब गहरे कुएँ से
तो बुजुर्गों की तरह गहरा कुआँ बोलता है
ऊँ छपक छपक अनलहक़
ऊँ छपक छपक अनलहक।

-- गुलज़ार
( ४ मई २००९ )

( Painting by : Belgian Linen )

Sunday, July 5, 2009

एक सौ सोलह चाँद की रातें...



bachpan me jab daadi chaand me rehne waali budhiya ki kahaniyan sunati thi to wo budhiya sach me chaand me dikhaayi diya karti thi aur man hota tha chaand pe jakar usse milen... kya aapne kabhi haath badha kar us chamakte hue chaand ho pakadne ki koshish nahi ki hai... humne to bachpan me bahot baar kari hai :-) aaj humare andar ka bachcha bada to ho gaya hai par bachpan se le kar aaj tak chaand ke liye aakarshan khatm nahi hua... aaj bhi purnima ke chaand ko dekh kar man khil uthta hai... aapne dekha hai kabhi? kitna adbhut lagta hai na...
chaand shayaron ka bhi bahot hi pasandida mauzuu raha hai... gulzar sa'ab ne to chaand par jaane kitne hi geet, gazal, nazm aur triveniyan likhi hain... par har ek ka andaaz ek dusre se ekdum juda... padh kar aashcharya hota hai ki ek hi chaand ko dekhne ke itne mukhtalif nazariye bhi ho sakhte hain... aaiye aapko ru-ba-ru karwate hain chaand par likhi gulzar sa'ab ki kuchh aisi nazmon aur triveniyon se jo humen behad pasand hain...

आज फिर चाँद की पेशानी से उठता है धुआँ
आज फिर महकी हुई रात में जलना होगा

आज फिर सीने में उलझी हुई वज़नी साँसें
फट के बस टूट ही जाएँगी, बिखर जाएँगी
आज फिर जागते गुज़रेगी तेरे ख्वाब में रात

आज फिर चाँद की पेशानी से उठता धुआँ

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आप की ख़ातिर अगर हम लूट भी ले आसमां
क्या मिलेगा चंद चमकीले से शीशे तोड़ के

चाँद चुभ जायेगा ऊँगली में तो खून आ जायेगा !


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रात के पेड़ पे कल ही देखा था
चाँद, बस, पक के गिरने वाला था

सूरज आया था, ज़रा उसकी तलाशी लेना !




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चाँद के माथे पर बचपन की चोट के दाग़ नज़र आते हैं
रोड़े, पत्थर और गुल्लों से दिन भर खेला करता था

बहुत कहा आवारा उल्काओं की संगत ठीक नहीं !


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सितारे चाँद की कश्ती में रात लाती है
सहर के आने से पहले ही सब बिक भी जाते हैं

बहुत ही अच्छा है व्यापार इन दिनों शब का !




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मां ने जिस चांद सी दुल्हन की दुआ दी थी मुझे
आज की रात वह फ़ुटपाथ से देखा मैंने

रात भर रोटी नज़र आया है वो चांद मुझे !

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कुछ ऐसी एहतियात से निकला चाँद फिर
जैसे अँधेरी रात में खिड़की पे आओ तुम

क्या चाँद और ज़मीन में भी कुछ खिंचाव है !






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जब-जब पतझड़ में पेड़ों से
पीले पीले पत्ते,
मेरे लॉन में आ कर गिरते हैं,
रात को छत पर जा कर मैं
आकाश को ताकता रहता हूँ
लगता है कमज़ोर सा पीला चाँद भी शायद
पीपल के सूखे पत्ते सा,
लहराता लहराता मेरे लॉन में आ कर उतरेगा !

-- गुलज़ार




Monday, June 29, 2009

पहली बारिश... बांवरा मन...


aakhirkaar itne intezaar aur minnaton ke baad indr dev prasaan hue aur monsoon ki pehli baarish kuchh yun barsi ki ped paudhe, tan man, mausam, fizaayen...saari kaynaat sab dhul ke naye navele ho gaye...yun nikhar gaye maano abhi abhi beauty parlour se saj dhaj ke nikle ho :-) ... aaj subah office aate samay jab cantt se gaadi drive karte hue aa rahe the to dhule dhule pedon ki ajeeb si madhosh kar dene waali mehek aur mitti ki saundhi saundhi khushbu se dil itna khil utha ki man ho raha tha door tak bas yun hi drive karte rahen... office jaayen hi nahin... man to man hai... mausam ke saath banwra ho gaya tha itne me haath ki ghadi pe nazar padi aur man maar ke office ki taraf mudna pada...
ab physically to office me aa gaye hain but kaam karne me man nahi lag raha hai... office ki khidki se bahar padti bauchharon ko dekh dekh kar baarish me bheegne ka man ho raha hai... waise ek baar bahar ka chakkar laga kar aa bhi chuke hain :-)... aur ek hi khyaal man me aa raha hai baarish ki boondon ki aawaaz se madhur bhi kya koi sangeet hota hai ??
itne suhane mausam me parvin shakir ji ki ek nazm yaad aa rahi hai... leejiye aap bhi padhiye aur lutf uthaaiye...

वही मौसम है
बारिश की हँसी
पेडों में छन छन गूंजती है
हरी शाखें
सुनहरे फूल के ज़ेवर पहन कर
तसव्वुर में किसी के मुस्कुराती हैं
हवा की ओढ़नी का रंग फिर हल्का गुलाबी है
शनासा बाग़ को जाता हुआ खुश्बू भरा रास्ता
हमारी राह ताकता है
तुलु-ए-माह की साअत
हमारी मुन्तज़िर है

-- परवीन शाकिर

शनासा : परिचित; तुलु-ए-माह : सूर्योदय; साअत : समय

Saturday, June 27, 2009

पंचम


ye zindagi bhi kitni ajeeb hoti hai... abhi kal ki apni blog post me humne world music ke ek badshah ko alwida kaha aur aaj indian music industry ke ek aur badshash ko shraddhanjali dene ja rahe hain, fark sirf itna hai kal ki shraddhanjali kisi ki rukhsat par thi aur aaj ki shraddhanjali kisi ki birth anniversary celebrate karne ke liye...

R. D. Burman jinhen hum pyar se Pancham da kehte hain, 1939 me, aaj hi ke din Calcutta me janme the. Unhen Pancham naam isliye diya gaya tha kyunki bachpan me jab bhi wo rote the to wo sargam ke pancham sur "Pa" ki tarah lagta tha :-)... unhone apna pehla gana 9 saal ki chhoti si umr me compose kara tha "Aye meri topi palat ke aa" jise unke sangeetkaar pita Shri S.D. Burman ji ne film "Funtoosh" me use kara tha... Yaad hai wo gana "Sar jo tera chakraaye ya dil dooba jaaye aaja pyare paas humare kahe ghabraaye, kahe ghabraaye"... is gaane pe "champi, tel malish" karte hue Jhony Walker to aapko zaroor yaad honge par kya aapko pata hai is gane ki tune bhi pancham da ne as a child artist compose kari thi jo ek baar phir S.D. Burman ji ne film "Pyaasa" ke liye use kari, aur wo kafi pasand bhi kari gayi...

Yaad hai film "Solwa Saal" ka gana "Hai apna dil to aawara na jane kispe aayega"... is song me jo bahot hi badhiya sa mouth organ ka piece bajaya gaya hai kya aapko pata hai wo bhi Pancham da ne hi bajaya tha....

Pancham da ne 1961 me film "Chhote Nawab" ke saath apna sangeetmay safar shuru kara jo 1994 me film "1942: A Love Story" ke saath khatm hua ... is dauraan unhone na jaane kitni hi filmon me kitne hi behtareen ek se badhkar ek songs diye jo aaj tak har kisi ke dil-o-dimag par chhaye hue hain. Aandhi, Kinara, Yaadon ki Barat, Sholey, Hum Kisi Se Kam Nahin, Ijaazat, Masoom, Namak Halal, Parichay, Shaan, Satte Pe Satta, Sagar... the list is endless!!!

Apne is filmi safar me unhone bahot se logon ke saath kaam kara par chand logon ke saath unka association kuchh aisa tha jaise mano wo ek dusre ke saath kaam karne ke liye hi bane hon...

Gulzar un chand logon me se ek hain... Pancham da ke kuchh kareebi doston me se ek ...
Pancham da ke chale jaane ke baad unhen yaad karte hue Gulzar Sa'ab ne yun to bahot kuchh kaha hai par unki ek nazm hai jo humen bahot pasand hai wo aaj aap sab ke saath share karna chahungi... ummeed hai pasand aayegi...





याद है बारिशों का दिन पंचम
जब पहाड़ी के नीचे वादी में,
धुन्ध से झाँक कर निकलती हुई,
रेल की पटरियाँ गुज़रती थीं !

धुन्ध में ऐसे लग रहे थे हम,
जैसे दो पौधे पास बैठे हों।
हम बहुत देर तक वहाँ बैठे,
उस मुसाफ़िर का ज़िक्र करते रहे,
जिसको आना था पिछली शब, लेकिन
उसकी आमद का वक़्त टलता रहा !

देर तक पटरियों पे बैठे हुए
ट्रेन का इन्तज़ार करते रहे।
ट्रेन आयी, न उसका वक़्त हुआ,
और तुम यूँ ही दो क़दम चल कर,
धुन्ध पर पाँव रख के चल भी दिये

मैं अकेला हूँ धुन्ध में पंचम!!

-- गुलज़ार

Friday, June 26, 2009

Bidding the Final Adieu ... Michael Jackson !!!



Sometimes it is so difficult to say "adieu" to some people...

Michael Jackson was one such person... a "True Entertainer" by all means... was a legendary icon for world music, be it his singing style, his dancing style or his stage performances... can anyone ever forget his signature style, The Moon Walk...

Could not believe my ears when I heard this news in the morning that he passed away... I admired him since childhood, though not a very huge fan of his, but always liked his songs... tab se jab shayad English Songs samajh bhi nahi aate the...

Though I like many of his songs but one song that I am still very fond of is "Heal the World"... I'm sharing this song with you today and paying my homage to the legend through my blog... May his soul rest in peace !!!

Michael Joseph Jackson (August 29, 1958 – June 25, 2009) was an American recording artist and entertainer.

Michael was born in Gary, Indiana (an industrial suburb of Chicago, Illinois) to a working-class family on August 29, 1958. The son of Joseph Walter "Joe" and Katherine Esther, he was the seventh of nine children. Jackson showed musical talent early in his life, performing in front of classmates and others during a Christmas recital at the age of five.

He was characterized as "an unstoppable juggernaut, possessed of all the tools to dominate the charts seemingly at will: an instantly identifiable voice, eye-popping dance moves, stunning musical versatility and loads of sheer star power". With stage performances and music videos, Jackson popularized a number of physically complicated dance techniques, such as the robot and the moonwalk. His distinctive musical sound and vocal style influenced many hip hop, pop and contemporary R&B artists.

Throughout his career he received numerous honors and awards, including the World Music Awards' Best-Selling Pop Male Artist of the Millennium, the American Music Award's Artist of the Century Award and the Bambi Pop Artist of the Millennium Award.

I've been in the entertainment industry since I was six-years-old... As Charles Dickens says, "It's been the best of times, the worst of times." But I would not change my career... While some have made deliberate attempts to hurt me, I take it in stride because I have a loving family, a strong faith and wonderful friends and fans who have, and continue, to support me.

Michael Jackson

"Heal the World" is a song featured on Michael Jackson's hit album, Dangerous, released in 1991. The music video features children living in countries suffering from unrest. Jackson performed the song in the Super Bowl XXVII halftime show with a 35000 person flash card performance.

In a 2001 Internet chat with fans, Jackson said "Heal the World" is the song he is most proud to have created. He also created the Heal the World Foundation, a charitable organization which was designed to improve the lives of children. The organization was also meant to teach said children about how to help others. This concept of 'betterment for all' would become a centrepiece for the Dangerous World Tour.

Credits

  • Written and composed by Michael Jackson
  • Produced by Michael Jackson & David Foster
  • Solo and background vocals: Michael Jackson
  • Ending solo vocal: Christa Larson
  • Playground girl: Ashley Farell
  • Rhythm arrangement by Michael Jackson
(Information Source : Wikipedia)



Lyrics - Heal The World

little girl talking

(i think about the generations and they say they want to make it a better place for our children & our children's children so that they know it's a better world for them and i think they can make it a better place)


There's A Place In Your Heart
And I Know That It Is Love
And This Place Could Be Much Brighter Than Tomorrow
And If You Really Try
You'll Find There's No Need To Cry
In This Place You'll Feel There's No Hurt Or Sorrow

There Are Ways To Get There
If You Care Enough
For The Living
Make A Little Space
Make A Better Place...

Heal The World
Make It A Better Place
For You And For Me
And The Entire Human Race
There Are People Dying
If You Care Enough
For The Living
Make A Better Place
For You And For Me

If You Want To Know Why
There's A Love That Cannot Lie
Love Is Strong
It Only Cares For Joyful Giving
If We Try We Shall See
In This Bliss We Cannot Feel Fear Or Dread
We Stop Existing And Start Living

Then It Feels That Always
Love's Enough For Us Growing
So Make A Better World
Make A Better World...

Heal The World
Make It A Better Place
For You And For Me
And The Entire Human Race
There Are People Dying
If You Care Enough
For The Living
Make A Better Place
For You And For Me

And The Dream We Were Conceived In
Will Reveal A Joyful Face
And The World We Once Believed In
Will Shine Again In Grace
Then Why Do We Keep Strangling Life
Wound This Earth Crucify Its Soul
Though It's Plain To See
This World Is Heavenly
Be God's Glow

We Could Fly So High
Let Our Spirits Never Die
In My Heart I Feel You Are All My Brothers
Create A World With No Fear
Together We'll Cry Happy Tears
See The Nations Turn Their Swords
Into Plowshares

We Could Really Get There
If You Cared Enough For The Living
Make A Little Space
To Make A Better Place...

Heal The World
Make It A Better Place
For You And For Me
And The Entire Human Race
There Are People Dying
If You Care Enough
For The Living
Make A Better Place
For You And For Me

Heal The World
Make It A Better Place
For You And For Me
And The Entire Human Race
There Are People Dying
If You Care Enough
For The Living
Make A Better Place
For You And For Me

Heal The World
Make It A Better Place
For You And For Me
And The Entire Human Race
There Are People Dying
If You Care Enough
For The Living
Make A Better Place
For You And For Me

There Are People Dying
If You Care Enough
For The Living
Make A Better Place
For You And For Me

There Are People Dying
If You Care Enough
For The Living
Make A Better Place
For You And For Me

You And For Me

You And For Me
Make A Better Place
You And For Me
Make A Better Place
You And For Me
Make A Better Place
You And For Me
heal the world we live in
You And For Me
save it for our children
You And For Me
heal the world we live in
You And For Me
save it for our children
You And For Me
heal the world we live in
You And For Me
save it for our children
You And For Me
heal the world we live in
You And For Me
save it for our children

Monday, June 22, 2009

साहिल


bachpan ki yaadein ta-umr humare saath rehti hain... wo sara sara din befikri se khelna, na koi chinta na koi fikr, bas khana, peena, sona aur mast rehna... tamam duniyavi rishton se pare wo nishchhal, nishkapat vaatsalya sab par lutana aur apni ek muskan ke badle har kisi se wo dher sara pyar pana... sach insan ki zindagi ke wo sabse khoobsoorat lamhe hote hain par unki ehmiyat humen bade hokar hi pata chalti hai... bachpan me baarish ki ek boond girte hi kaise man machal uthta tha aur bas ghar me dhundhne lagte the raddi kagaz ka ek tukda... ya kabhi purani kisi copy se panna phaad kar jut jaate the bas kagaz ki ek nanhi si kashti banane aur ghar ke bahar bhare hue baarish ke paani me use taira kar der tak taakte rehte the ki kidhar ja rahi hai humari naav... kabhi aadhe raste ulat kar pani me doob jaati to man achanak udaas ho jata aur raah chalta koi use seedha kar ke phir se taira deta us maile kuchaile se pani me to man ek baar phir khil uthta... aah! wo masoom bachpan aur wo seedha-saral baalman, aaj socho to hansi aati hai... kya kabhi aapne bachpan me kaagaz ki naav banaate samay ye socha tha ki ek bemani se raddi kagaz ko aap koi maane de rahe hain... humne bhi nahi socha tha... par gulzar sa'ab ki is nazm ne humen aaj us kagaz ki naav ko ek naye nazariye se dekhne aur samajhne ka mauka diya...



Thursday, June 18, 2009

आज बाज़ार में पा-बजौंला चलो


Faiz Ahmed Faiz - A Poet, A Revolutionary... the only poet till date, who blends romance and revolution in such a bold and beautiful manner... a firm believer in freedom of speech, you can sense the rebellion in him through his works, be it "Bol Ke Lab Aazaad Hain Tere", "Intesaab", "Sheeshon Ka Maseeha" or "Aaj Baazaar Me".
Unke shabdon me wo taaqat hai jo aapko andar tak jhakjhor deti hai aur aap sochne pe majboor ho jaate hain aur kuchh kar guzarne ke liye bhi...






चश्म-ए-नम जान-ए-शोरीदा काफ़ी नहीं
तोहमत-ए-इश्क पोशीदा काफ़ी नहीं
आज बाज़ार में पा-बजौंला चलो

दस्त अफशां चलो मस्त-ओ-रक्सां चलो
ख़ाक बर सर चलो खूं-ब-दामां चलो
राह तकता है सब शहर-ए-जाना चलो

हाकिम-ए-शहर भी मजमा-ए-आम भी
सुबह-ए-नाशाद भी रोज़-ए-नाकाम भी
तीर-ए-इल्जाम भी संग-ए-दुशनाम भी

उनका दम साज़ अपने सिवा कौन है
शहर-ए-जाना में अब बा-सफ़ा कौन है
दस्त-ए-कातिल के शायाँ रहा कौन है

रक्त-ए-दिल बाँध लो दिल फिगारों चलो
फिर हमीं क़त्ल हो आयें यारों चलो...

- फैज़ अहमद फैज़

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nazm ka ye english translation net par hi kahin padha tha jise apni taraf se kuchh edit kar ke aapki suvidha ke liye yaha post kar rahi hun...

The tearful eye and the distressed soul are not enough
The accusation of hidden love is not enough
Today let's walk through the market with shacked feet

Let's go with hands waving and mood drunk with joy
Let's go with dust on our heads and blood on our sleeves
The city of our beloved awaits us

They wait for us: The ruler and the ruled
The unhappy morning, the purposeless day
The arrow of accusation and the stones of infamy

Who is their friend apart from us?
Who is the one still trustworthy in my beloved's city?
Who is still safe from murderer's hand?

Summon your heartbeats and let's go O heartbroken ones
Let's get killed once more, mates. Let's go!

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is nazm ko Pakistan ki singer Nayyara Noorji ne bahot hi khoobsoorti se gaya hai... aap bhi suniye... aur apni pratikriya deejiye...

Monday, June 15, 2009

रिश्ते बस रिश्ते होते हैं


ek baar phir gulzar sa'ab ki hi ek nazm pesh kar rahi hun... jis khoobsoorti se gulzar sa'ab duniya ke tamaam rishton ko shabdon me jeete hain shayad hi koi aur shayar ji paaya hai... phir chaahe wo pyaar ka rishta ho ya dard ka rishta, apni humsafar ke saath unka rishta ho ya phir apni beti "Boski" ke saath... zindagi aur sachchaai ke itne kareeb ki padh kar lagta hai "haan aisa hi to hota hai humare saath bhi..."




रिश्ते बस रिश्ते होते हैं
कुछ एक पल के
कुछ दो पल के

कुछ परों से हलके होते हैं
बरसों के तले चलते चलते
भारी भरकम हो जाते हैं

कुछ भरी भरकम बर्फ़ के से
बरसों के तले गलते गलते
हलके फुल्के हो जाते हैं

नाम होते हैं रिश्तों के
कुछ रिश्ते नाम के होते हैं
रिश्ता अगर वह मर भी जाये
बस नाम से जीना होता है

बस नाम से जीना होता है
रिश्ते बस रिश्ते होते हैं

-- गुलज़ार

Sunday, June 7, 2009

अमलतास


amaltas ke phool, bachpan se hi humen apni oor aakarshit karte hain... ghar ke saamne hi amaltas ka ek ped hai, garmiyon ki subah uth kar jab bahar baraamde me jaa kar dekhte hain to peele peele phoolon ki ek badi si chaadar ped ke neeche bichhi rehti hai aur uski bheeni bheeni khushbu subah ko aur bhi taro taaza kar deti hai, shaam ki lalima me amaltas ke peele phool aur bhi adbhut dikhte hain... maano ped ko kise ne dher saare soone ke zewar pehna diye hain...

abhi haal hi me amaltas par likhi hui gulzar sa'ab ki ek nazm padhi aur bas man hua use aap sab ke saath share karne ka... par itni khoobsurat nazm aur itne khoobsurat mauzuu ko sadharan tareeke se kaise pesh karte... bas andar ka artist jaag gaya ... umeed hai peshkash pasand aayegi... aur pasand aaye to tareef me do shabd zaroor kahiyega :-)

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