Wednesday, November 25, 2009

इक एहसास


कुछ एहसास कितने दिव्य होते हैं... पाक होते हैं... हवन वेदी से उठती उस पवित्र सी गंध की तरह जो अपने आस पास का सारा वातावरण पवित्र कर देती है... कुछ बेहद ख़ास होते हैं... जैसे जब एक बच्चा पहली बार अपनी तोतली सी बोली में "माँ" बुलाता है... कुछ बेहद ख़ूबसूरत होते हैं... गुलाब की पंखुड़ियों पर पड़ी ओस की बूँदें और उन पर पड़ती सुबह के सूरज की उन पहली किरणों की तरह ... कुछ एहसास एकदम पारदर्शी होते हैं जैसे माँ की ममता और कुछ एहसास रहस्यमयी होते हैं जैसे कोहरे में लहराता कोई साया, कोई अनसुलझी पहेली... कुछ एहसास बेहद साफ़ होते हैं बर्फ़ से सफ्फ़ाक और एकदम नाज़ुक... जिन्हें छूते हुए भी डर लगता है... या तो गल जाएगा या मैला हो जाएगा... और कुछ एहसास बारिश की पहली बूँद की तरह होते हैं जो सूखी ज़मीं पर पड़ते ही उसमे समां जाते हैं... जज़्ब हो जाते हैं...
हर एहसास एकदम अनूठा... जिसे आप सिर्फ़ महसूस कर सकते हो.. बयान नहीं कर सकते... कभी कोशिश भी करते हो उसे बताने समझाने की तो बहुत कुछ अनकहा रह जाता है... कभी आप समझा नहीं पाते और कभी सामने वाला समझ नहीं पाता और इसी कशमकश में उस एहसास के मानी ही बदल जाते हैं... कभी कभी सोचती हूँ ये कवि और लेखक कितने बुद्धिजीवी लोग होते हैं... कितनी आसानी से ख्यालों और एहसासों को शब्द दे देते हैं... सचमुच तारीफ के काबिल :-)
कभी किसी बच्चे की हँसी सुनी है आपने... कितनी मासूम होती है... फिर भी एक चुम्बक सा आकर्षण होता है उसमें... है ना ? आप कितने भी थके हो... मन कितना भी उदास क्यूँ ना हो... उस मासूम सी किलकारी से आपकी सारी थकान गायब हो जाती है... एक प्यारा सा एहसास भर जाता है मन में... ऐसे ही किसी एहसास के ताने बाने में मन उलझा हुआ है आजकल... कुछ ख़ास, कुछ पाक, बेहद मासूम, निर्मल, निष्पाप... बिलकुल अपना सा... ये कैसा एहसास है पता नहीं... क्यूँ है ये भी नहीं जानती... शायद जानना भी नहीं चाहती... बस इस एहसास को जीना चाहती हूँ... साँसों में भर लेना चाहती हूँ... हमेशा हमेशा के लिये... या तो ये एहसास मुझमे समा जाये या मैं इसमें...


अजीब कशमकश में हूँ आजकल
इक नया सा एहसास साथ रहता है
हर लम्हा, हर पल...

कुछ अनूठा, कुछ अदभुत
कुछ पाने की प्यास
कुछ खोने का एहसास

कभी झील सा शान्त
तो कभी पहाड़ी नदी सा चंचल
कुछ संजीदा, कुछ अल्ल्हड़

मंदिरों से आती जरस की सदाओं सा पाक
कभी शीशे सा साफ़-शफ्फाफ़
तो कभी पुरइसरार सा... धुंध की चादर में लिपटा हुआ

क्या है ये अनजाना सा एहसास
भावों का ये कोमल स्पर्श
पता नहीं ... पर अपना सा लगता है

कभी जी चाहता है इसे इक नाम दे दूँ
फिर सोचती हूँ बेनाम ही रहने दूँ
मैला ना करूँ...

-- ऋचा

Friday, November 13, 2009

"तुम" और "मैं"

दो चेहरों से जीना भी कैसी मजबूरी है
जितना जो नज़दीक है उससे उतनी दूरी है
-- निदा फाज़ली

आज निदा जी की लिखी हुई ये ग़ज़ल सुन रहे थे "जीवन क्या है चलता फिरता एक खिलौना है"... वैसे तो पूरी ग़ज़ल ही बेहतरीन हैं पर ये दो पंक्तियाँ दिल को छू सी गयीं... सोचा सच ही तो है... हम सब ऐसे ही हैं... तमाम उम्र दो चेहरों के साथ जीते रहते हैं... एक चेहरा जो बनावटी है, दुनिया को दिखाने के लिये और एक वो जो सच है, जैसे आप वास्तव में हैं... ये बनावटी चेहरा वो है जैसा ये दुनिया हमें देखना चाहती है, जैसा हमारे अपने हमें देखना चाहते हैं... एकदम "परफेक्ट"... जो हम ना हैं और ना कभी हो सकते हैं... "परफेक्ट" हो गए तो फिर इंसान कहाँ रहेंगे भगवान नहीं बन जायेंगे... पर फिर भी जाने अनजाने, ना चाहते हुए भी हम वैसे ही बनते चले जाते हैं... बनावटी... शायद दुनिया को या अपनों को खुश रखने के लिये... या फिर इसलिए की सच कोई देखना या समझना ही नहीं चाहता... पता नहीं क्यूँ... पर ना ये ज़िन्दगी की भागदौड़ हमें कुछ सोचने का मौका देती है और ना लोगों के पास हमें समझने की फ़ुर्सत है...
इस बनावटी चेहरे के साथ ज़िन्दगी यूँ ही अपने ही वेग से दौड़ती चली जाती है और उसके साथ हम और आप भी... इस बनावट के हम ख़ुद भी इतने आदी हो जाते हैं की अपना असली चेहरा हमें भी याद नहीं रहता... हमारी इच्छाएं, हमारी ख्वाहिशें, हमारी पसंद-नापसंद, सब उस चेहरे के साथ हमारे दिल के किसी कोने में दब जाती हैं, खो जाती हैं... पर ज़रा सोचिये इस भागती दौड़ती ज़िन्दगी में अचानक से कभी ब्रेक लग जाये तो ?? कोई गर्मी की चिलचिलाती दोपहर में ठंडी हवा के झोंके सा आये और आपका हाथ थाम के अपने साथ ही उड़ा ले जाये सपनों के एक ऐसे संसार में जहाँ कोई बनावट नहीं... जहाँ आप "आप" हों... वो सारी इच्छाएं, वो सारी ख्वाहिशें और आपका वो कुछ मासूम सा, सच्चा, खूबसूरत सा चेहरा एक बार फिर दिल के उस कोने से निकल कर बाहर आ जाये... आप एक बार फिर अपने आप से मिलें... देखा सोच कर ही आपके चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान आ गयी... है ना ?
अब आप सोच रहे होगे की ऋचा तो हमेशा सपनों में ही जीती है... ये सब सपनों की बातें हैं... पागलपन है... हक़ीकत में किसे फुर्सत है आजकल जो अपना काम धाम छोड़ कर आपको आपसे मिलवाये... सच भी है... किसे फुर्सत है... क्या आपको है ? अच्छा ज़रा सोच के बताइये आखिरी बार कब आपने अपने सबसे अच्छे दोस्त के साथ बैठ कर फुर्सत से बात की है ? या यूँ ही बिना वजह, बिना किसी काम उससे मिलने गए हों ? सिर्फ़ उसके साथ बैठ कर चाय काफ़ी पी हो बिना कुछ बोले पर फिर भी बहुत सुकून मिला हो ? याद नहीं आ रहा ना... अरे तो देर किस बात की आज ही जाइये... थोड़ा सा समय अपने लिये निकालिए और थोड़ा अपने दोस्त के लिये... ये बनावटी चेहरा ख़ुद-ब-ख़ुद उतर जाएगा और आपको वही अपना भोला-भाला मासूम चेहरा वापस मिल जाएगा... चाहे कुछ लम्हों के लिये ही सही... अपने आप से मिलने के लिये कुछ पल तो निकाले जा ही सकते हैं... तो हो जाये एक "अपॉइंटमेंट" ख़ुद के साथ !!!


आओ चलें सपनों के जहाँ में
जहाँ न बनावट का पुलिंदा
न झूठ की गठरी

जहाँ तुम "तुम" हो
और मैं "मैं"
व्योम के पार, क्षितिज से परे

ढूंढें सिरे इन्द्रधनुष के
सुनें फूलों की हँसी
चहकें चिड़िया के साथ

चाँद की नाव में बैठ कर
पार करें बादलों की नदी
धुंध की चादर हटायें
खुशियों की धूप में नहायें

तितलियों से रंग चुरायें
रंगें ये बेरंग ज़िन्दगी
कुछ पल बच्चों से मासूम बनें

ख्वाहिशों के गुब्बारे
उड़ा दें खुले आसमान में
फिर दौड़ें पकड़ने के लिये

अब तुम "तुम" नहीं
मैं भी "मैं" नहीं
क्योंकि भीतर बसे हो "तुम"
और बाहर "मैं" हूँ

अपॉइंटमेंट ख़ुद के साथ
मिटा सकता है
"तुम" और "मैं" का यह
दिखावटी फ़र्क


-- ऋचा

Monday, November 2, 2009

इक टुकड़ा ज़िन्दगी...

ये ज़िन्दगी भी कितनी "अन्प्रेडिकटेबल" होती है... है ना ? अगले ही पल किसके साथ क्या होने वाला है कुछ नहीं पता... सच कहें तो हमें लगता है ज़िन्दगी का ये "अन्प्रेडिकटेबल" होना इसे और भी खूबसूरत बना देता है... ज़िन्दगी के प्रति एक आकर्षण, एक रोमांच बना रहता है... अगर हमें अपने आने वाले कल के बारे में पता हो तो उसकी चिंता में शायद हम अपने आज को भी ठीक से ना जी पायें...
वैसे भी आज ज़िन्दगी के लिये तमाम सुख सुविधाएं जुटाने की जद्दोजहद में हम अपनी ज़िन्दगी को जीना ही भूल गए हैं, जो हर गुज़रते पल के साथ कम होती जा रही है, हमसे दूर होती जा रही है...  पैसों से खरीदे हुए ये बनावटी साज-ओ-सामान हमें सिर्फ़ चंद पलों का आराम दे सकते हैं पर दिल का सुकून नहीं... इसलिए भाग-दौड़ भरी इस ज़िन्दगी से आइये अपने लिये कुछ लम्हें चुरा लें... कुछ सुकून के पल जी लें... उनके साथ जो हमारे अपने हैं... आज हम यहाँ है कल पता नहीं कहाँ हों... आज जो लोग हमारे साथ हैं कल शायद वो साथ हों ना हों और हों भी तो शायद इतनी घनिष्टता हो ना हो... क्या पता... इसीलिए आइये ज़िन्दगी का हर कतरा जी भर के जी लें...
ये ज़िन्दगी हमें बहुत कुछ देती है, रिश्ते-नाते, प्यार-दोस्ती, कुछ हँसी, कुछ आँसू, कुछ सुख और कुछ दुःख... कुल मिलाकर सही मायनों में हर किसी की ज़िन्दगी की यही जमा पूंजी है... ये सुख दुःख का ताना-बाना मिलकर ही हमारी ज़िन्दगी की चादर बुनते हैं, किसी एक के बिना दूसरे की एहमियत का शायद अंदाजा भी ना लग पाए...
अभी हाल ही में हुए जयपुर के हादसे ने हमें सोचने पे मजबूर कर दिया... सोचा कि इस हादसे ने ना जाने कितने लोगों कि ज़िन्दगी अस्त-व्यस्त कर दी, कितने लोगों को इस हादसे ने उनके अपनों से हमेशा हमेशा के लिये जुदा कर दिया और ना जाने कितने लोगों को ये हादसा कभी ना भर सकने वाले ज़ख्म दे गया... पर इस हादसे को बीते अभी चंद दिन ही हुए हैं... आग अभी पूरी तरह बुझी भी नहीं है और ये हादसा अखबारों और न्यूज़ चैनल्स कि सुर्खियों से गुज़रता हुआ अब सिर्फ़ एक छोटी ख़बर बन कर रह गया है... शायद यही ज़िन्दगी है... कभी ना रुकने वाली... वक़्त का हाथ थामे निरंतर आगे बढ़ती रहती है... जो ज़ख्म मिले वो समय के साथ भर जाते हैं और जो खुशियाँ मिलीं वो मीठी यादें बन कर हमेशा ज़हन में ज़िंदा रहती हैं...

लेखिका नहीं हूँ तो शब्दों से खेलना आज भी नहीं आता... कुछ विचार मन में आये थे सो लिख दिये... प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा...


ग़म की चिलकन, सुख का मरहम
उदासी के साहिल पे हँसी की इक लहर
कुछ उम्मीदें
कुछ नाकामियां
कुछ हादसे
कुछ हौसले
कभी ख़ुदा बनता इंसान
कभी खुद से परेशान
कभी बच्चों की हँसी में खिलखिलाती मासूमियत
कभी दादी-नानी के चेहरों की झुर्रियां
इन सब में है थोड़ी थोड़ी
इक टुकड़ा ज़िन्दगी

-- ऋचा
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