बहुत कुछ है जो तुमसे कहने का दिल हो रहा है... क्या ये नहीं मालूम... पर
कुछ तो है... कितने ही शब्द लिखे मिटाये सुबह से... कोई भी वो एहसास बयां
नहीं कर पा रहा जो मैं कहना चाहती हूँ... गोया सारे अल्फ़ाज़ गूंगे हो गए हैं
आज... बेमानी... तुम सुन पा रहे हो क्या वो सब जो मैं कहना चाहती हूँ ?
ऐसी ही किसी तारीख़ को ऐसे ही किसी प्यारे दिन की याद में ये लिखा था कभी... तुम्हारे लिए... आज भेज ही देती हूँ प्यार की ये चिट्ठी तुम्हारे नाम...
एक दूजे को देख कर जब
मुस्कुरायीं थी आँखें पहली बार
लम्हें का इक क़तरा थम गया था !
वो ख़ुशनुमा क़तरा आज भी बसा है ज़हन में
वो पहली बार जब थामा था तुम्हारा हाथ
मेरी उँगलियों ने बींध लिया था
तुम्हारी उँगलियों का लम्स भी
वो लम्स अब भी महकता है मेरे हाथों में
उस आधे चाँद की मद्धम चाँदनी
उम्मीद के कच्चे दिए की लौ सी
टिमटिमाती हुई आज भी आबाद है
दिल के अँधेरे कोने में कहीं
सागर की उन बांवरी लहरों ने
बाँध के मेरे पैरों को रोका हुआ है वहीं
हमारे पैरों के निशां संजो रखे हैं
साहिल की गीली रेत ने अब तलक
जी करता है ठहरे हुए लम्हों के वो मोती
गूँथ के इक डोर में करधनी सा बांध लूँ
या पायल बना के पहन लूँ
और छनकाती फिरूँ मन का आँगन !