हमें ये उम्मीद वो पुकारें
है नाम होठों पे अब भी लेकिन
आवाज़ में पड़ गयीं दरारें
-- गुलज़ार
भावनाएं, ख्वाहिशें, एहसास, विचार, ख़्वाब, हक़ीकत और उन सब को अभिव्यक्त करते कुछ शब्द... कभी सोचा है ये शब्द हमारी ज़िन्दगी से निकल जाएँ तो क्या हो ? हर सिम्त सिर्फ़ दिल को बेचैन कर देने वाली एक अंतहीन ख़ामोशी... एक गूंगा मौन...
ये शब्द ही तो हैं जिनसे आप किसी का दिल जीत लेते हैं और जाने अनजाने किसी का दिल दुखा भी देते हैं... ये शब्द ही तो हैं जो किसी को आपका दोस्त बना देते हैं तो किसी को आपका दुश्मन... ये शब्द ही तो होते हैं जो आपकी सोच को एक आकार देते हैं और कोई प्यारी सी नज़्म बन कर कागज़ पर बिखर जाते हैं... ये शब्द कभी दवा तो कभी दुआ बन कर हमारे साथ रहते हैं... और ये शब्द ही तो होते हैं जो दो लोगों को आपस में बाँध कर रखते हैं, उनके रिश्ते को एक मज़बूत नींव देते हैं... है ना ?
कहते हैं शब्दों में बड़ी ताक़त होती है... किसी बीमार इंसान से बोले गए प्यार और परवाह के चंद शब्द उसके लिये दवा से भी बढ़ कर काम करते हैं... नाउम्मीदी के दौर से गुज़र रहे किसी शख्स से बोले गए कुछ उत्साहवर्धक शब्द उसे उम्मीद की किरण दिखा जाते हैं... आपस में मिल बैठ कर सूझबूझ से की गयी बातचीत बड़ी से बड़ी समस्याओं का समाधान ढूंढ देती है... सहानुभूति के चंद लफ्ज़ किसी के ज़ख्मों पर मरहम का सा असर करते हैं और सच्चे दिल से माफ़ी के लिये बोले गए कुछ बोल किसी टूटते रिश्ते को बचा लेते हैं...
ये लफ्ज़ों का ही पुल है जो हर रिश्ते को जोड़े रखता है... एक ऐसा पुल जिसके दोनों सिरे एक रिश्ते से जुड़े दो इंसानों को बांधे रखते हैं... पर कभी कभी हम शब्दों की जगह मौन का सहारा ले लेते हैं... अपने रिश्ते के बीच हम अपने अहं को ले आते हैं... और उस एक इंसान से, जिससे हम दुनिया में शायद सबसे ज़्यादा प्यार करते हैं, बात करना बन्द कर देते हैं... हम चाहते हैं की सामने वाला हमारी ख़ामोशी को समझे... लेकिन वो कहते हैं ना कि "मुंह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन, आवाजों के बाज़ारों में ख़ामोशी पहचाने कौन"... इसलिए आइये लफ्ज़ों के इस पुल को टूटने ना दें... किसी भी रिश्ते में कोई भी ग़लतफहमी ना पलने दें... अपने अहं को अपने रिश्तों से बड़ा कभी ना होने दें... चुप ना रहें... बात करें और अपने बिखरते रिश्ते को बचा ले... क्यूंकि जैसे जैसे बातें कम होती जाती है, शब्द शिथिल पड़ते जाते हैं, ये पुल भी कमज़ोर होता जाता है और जिस दिन ये लफ्ज़ों का पुल टूटा समझो वो रिश्ता भी मर जाता है...
निदा फाज़ली जी ने इक ऐसे ही बिखरे हुए रिश्ते को इस नज़्म में पिरोया है जहाँ लफ्ज़ों का ये पुल टूट चुका है -
ये शब्द ही तो हैं जिनसे आप किसी का दिल जीत लेते हैं और जाने अनजाने किसी का दिल दुखा भी देते हैं... ये शब्द ही तो हैं जो किसी को आपका दोस्त बना देते हैं तो किसी को आपका दुश्मन... ये शब्द ही तो होते हैं जो आपकी सोच को एक आकार देते हैं और कोई प्यारी सी नज़्म बन कर कागज़ पर बिखर जाते हैं... ये शब्द कभी दवा तो कभी दुआ बन कर हमारे साथ रहते हैं... और ये शब्द ही तो होते हैं जो दो लोगों को आपस में बाँध कर रखते हैं, उनके रिश्ते को एक मज़बूत नींव देते हैं... है ना ?
कहते हैं शब्दों में बड़ी ताक़त होती है... किसी बीमार इंसान से बोले गए प्यार और परवाह के चंद शब्द उसके लिये दवा से भी बढ़ कर काम करते हैं... नाउम्मीदी के दौर से गुज़र रहे किसी शख्स से बोले गए कुछ उत्साहवर्धक शब्द उसे उम्मीद की किरण दिखा जाते हैं... आपस में मिल बैठ कर सूझबूझ से की गयी बातचीत बड़ी से बड़ी समस्याओं का समाधान ढूंढ देती है... सहानुभूति के चंद लफ्ज़ किसी के ज़ख्मों पर मरहम का सा असर करते हैं और सच्चे दिल से माफ़ी के लिये बोले गए कुछ बोल किसी टूटते रिश्ते को बचा लेते हैं...
ये लफ्ज़ों का ही पुल है जो हर रिश्ते को जोड़े रखता है... एक ऐसा पुल जिसके दोनों सिरे एक रिश्ते से जुड़े दो इंसानों को बांधे रखते हैं... पर कभी कभी हम शब्दों की जगह मौन का सहारा ले लेते हैं... अपने रिश्ते के बीच हम अपने अहं को ले आते हैं... और उस एक इंसान से, जिससे हम दुनिया में शायद सबसे ज़्यादा प्यार करते हैं, बात करना बन्द कर देते हैं... हम चाहते हैं की सामने वाला हमारी ख़ामोशी को समझे... लेकिन वो कहते हैं ना कि "मुंह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन, आवाजों के बाज़ारों में ख़ामोशी पहचाने कौन"... इसलिए आइये लफ्ज़ों के इस पुल को टूटने ना दें... किसी भी रिश्ते में कोई भी ग़लतफहमी ना पलने दें... अपने अहं को अपने रिश्तों से बड़ा कभी ना होने दें... चुप ना रहें... बात करें और अपने बिखरते रिश्ते को बचा ले... क्यूंकि जैसे जैसे बातें कम होती जाती है, शब्द शिथिल पड़ते जाते हैं, ये पुल भी कमज़ोर होता जाता है और जिस दिन ये लफ्ज़ों का पुल टूटा समझो वो रिश्ता भी मर जाता है...
निदा फाज़ली जी ने इक ऐसे ही बिखरे हुए रिश्ते को इस नज़्म में पिरोया है जहाँ लफ्ज़ों का ये पुल टूट चुका है -
"मुंह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन, आवाजों के बाज़ारों में ख़ामोशी पहचाने कौन"
ReplyDeleteवाह.. क्या खू़ब कहा है..
लफ़्जों का पुल कभी नहीं टूटना चाहिए.. और न ही आपकी ये लफ़्जों की जादूगरी..
हैपी ब्लॉगिंग
बहुत ही सुन्दर अन्दाज है प्रस्तुति का.........बधाई!
ReplyDeleteकितना सही कहा आपने शब्दों के बारे में
ReplyDeleteनिदा फाज़ली जी और गुलज़ार जी की कलम को पढ़कर दिल खुश हो गया
lafjo ka pul.... Moral of the story hai ki communication gap nahi hona chaiye....jiske karan confusion ho, misunderstanding ......chalo koshish karenge ki ye pul majboot rahe hamesh !
ReplyDeleteलफ्जों के पुल से गुजरना निदा फाजली और गुलज़ार के नज्मों की रास थामे..........सुखद हुआ
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति. बधाई
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteवाह वाह ऋचा जी, आपके लफ्जों के पुल के सामने कवितायेँ भी फीकी पड़ जाएँगी. आभार और शुभकामनाएं .
ReplyDeleteबड़े मौके पर बात कही है आपने... हमारे बीच जो अबोला है, वो कितना शोर कर रहा है, हम नहीं बोल रहे लेकिन यही सबसे ज्यादा बोल रहा है.... ऐसे में दिल करता है... किसी से हहराकर मिलें... किसी ढलान से बाढ़ के पानी कि तरह उतरें...... उससे यूँ टकरायें के फिर दो ना हों.
ReplyDeleteलफ़्जों के पुल किस प्रकाशन से प्रकाशित हुई है...कृपया बताये ..
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