दिवाली अब बस कुछ ही दिन दूर है... आप सबके घरों की तरह हमारे यहाँ भी थोड़ी बहुत तैयारियां शुरू हो गयी हैं गणेश जी और लक्ष्मी जी के स्वागत के लिये... और इस सप्ताहंत का उपयोग हमने कुछ साफ़ सफाई कर के किया :-) ... आज नंबर आया हमारे कमरे का... अलमारी साफ़ करते हुए एक पुरानी डायरी हाथ लगी... शायद कोई दस-बारह साल पुरानी... वैसे तो इस डायरी का ज़िक्र हमने अपनी पहली पोस्ट में भी करा था... शायद ये ब्लॉग बनाने की प्रेरणा भी वही डायरी है... बचपन से आदत रही है जो भी कवितायें, नज्में या विचार पसंद आया उसी डायरी में नोट करती आई हूँ... आज इतने दिनों बाद हाथ लगी तो अनायास ही कुछ पन्ने पलट लिये... तमाम बड़े बड़े नामी गिरामी शायरों की रचनाओं के बीच एक बचकानी सी कविता मिली... नहीं... कविता कहना शायद सही नहीं होगा... हमें खुद ही नहीं पता की वो है क्या... कुछ विचार हैं बस, कुछ सवाल जो ऐसे ही कभी मन में आये थे और लिख दिया था... और लिख कर भूल भी गए थे... आज इतने सालों बाद पढ़ा तो सोचा आप सब के साथ शेयर कर लूँ...
बात उन दिनों की है जब स्कूल से निकल कर यूनीवर्सिटी में दाखिला लिया था... अचानक से लगने लगा था हम भी बड़े हो गए हैं... पर शायद मन में तब भी बचपना था... हर चीज़ "परफेक्ट" नज़र आती थी, पर तमाम रिश्तों के मायने समझ नहीं आते थे... कोई बेवजह ही क्यूँ अच्छा लगता था और कोई कितना भी अच्छा हो फिर भी उससे कभी बनती क्यूँ नहीं थी... किसी से घंटों बात करना क्यूँ अच्छा लगता था... ज़रा सी देर होने पर क्यूँ माँ-बाबा परेशान हो जाते थे... बिना बताये कहीं जाने पर डांट क्यूँ पड़ती थी... हर किसी को हर बात की सफाई क्यूँ देनी पड़ती थी... माँ-बाबा के मन में हर समय ये डर क्यूँ रहता था की कुछ भी लीक से हट कर किया तो समाज क्या कहेगा... कौन है ये समाज ? किसने बनाए इसके नियम कायदे ? कौन चलाता है इसे ? ऐसे ही ढेरों सवाल मन में हर समय चला करते थे, पर जवाब नहीं थे...
आज इतने सालों के बाद शायद रिश्तों को, उनके मायनों को तो थोड़ा बहुत समझने लगे हैं... पर सवाल अब भी वही हैं... जवाब आज भी नहीं मिले...
उसे सीमाओं के धागों से बाँध देना
क्या हम भी उन परिंदों की तरह
आस्मां में पंख फैला कर नहीं उड़ सकते
आज़ाद, बेफिक्र...
क्या हमारे लिये इतना काफी नहीं है कि हम जान लें
हम सही हैं या ग़लत
क्या ज़रूरी है कि हम सारी दुनियाँ के लिये जवाबसार हों
अगर ऐसा है तो ऐसा क्यूँ है ?
किसने बनाए ये नियम ?
भगवान ने ?
ख़ुदा ने ?
प्रकृति ने ?
नहीं.
इंसान ने !
फिर क्यूँ इंसान ही इंसान के बनाए हुए नियमों पर नहीं चलना चाहता ?
क्यूँ बार बार इन्हें तोड़ कर आज़ाद हो जाना चाहता है ?
क्यूँ ?
-- ऋचा
बहुत खूब.. यकीन से कह सकता हूं कि इस डायरी का एक-एक पन्ना अभिव्यक्ति की गहराई को समेटे होगा..
ReplyDeleteहैपी ब्लॉगिंग
कविता वाकई बहुत बेहतरीन है...
ReplyDeleteऔर आपकी डायरी का एक एक पन्ना तो बेहतरीन होगा ही होगा
क्योकि मुझे ऐसा लगता है मानव मन आज भी पक्षी के भांति है............
ReplyDeletekhyaal to bas khyaal hote hain jo khyaalon ki pagdandiyon se chalte hue apne nishaan chhod jate hain,jo dilon tak pahuch hi jate hain
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव...शब्दों और विचारों से भरा बढ़िया कविता..
ReplyDeleteआज इंसानियत की सच्ची समझ बहुत क़म लोगों को है इसलिए ऐसा हो रहा है..धन्यवाद..बहुत बढ़िया विचार
tumhari post padh kar ek gana yaad aa gaya :-)
ReplyDelete"Kai baar yun dekha hai.,
ye jo man ki seema rekha hai,
man daudne lagta hai,
kisi anjaani raah ke peeche,
anjaani chaah ke peeche,
man daudne lagta hai
bas sawal hi sawal hai......jawab ki talash hamein bhi hai.....jo mile to bata denge
ये सवाल ज़िन्दगी से नहीं हैं ऋचा जी ....ये सवाल समाज से हैं उस व्यवस्था से हैं जिसने ये दोहरी मापदंड की प्रणाली बनाई है ......कभी इसी तरह के सवाल मुझे बोहोत परेशान करते रहे .....लगता सब कुछ तहस नहस कर दूँ .....पर सदियों से चली आ रही इस मापदंडता को तोड़ पाना इतना आसां नहीं .....बस हमें इसी तरह प्रतिवाद जरी रखना है .........!!
ReplyDeletericha ji
ReplyDeletenamaskar
bahut der se aapki is nazm par ruka hua hoon aur soch raha hoon ki kuch rishto ka naam kyon nahi hota hai ..
amazing writing richa...
meri badhai sweekar kare .
regards,
vijay
www.poemsofvijay.blogspot.com
आप सब की टिप्पणियों, स्नेह और हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया !!
ReplyDeleteसबको इन्ही ’क्यू’ की तलाश है.. सबको उसी ज़िन्दगी से प्यार.. तुम हर रिश्ते को गुलज़ार कह लिया करो :)
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