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हुसैनाबाद दरवाज़ा |
तो
सुबह सुबह हम भी चल दिये अपने शहर से मिलने... जैसा की
पिछली एक पोस्ट में बताया था बड़े दिनों से मन हो रहा था पुराने लखनऊ घूमने का... तो एक रात
पहले ही प्लान फाइनल हुआ और सुबह सवेरे ही हम निकल पड़े... हम, भाई और
उसके दो दोस्त... क़रीब सात बजे हम घर से निकले... और सबसे पहले पहुँचे
हुसैनाबाद बाज़ार... भाई के एक दोस्त को बहुत ज़ोर से भूख लगी थी बोला रात
में भी खाना नहीं खाया... पहले नाश्ता करेंगे फिर कहीं चलेंगे :) तो वो लोग
टूट पड़े पूड़ी सब्ज़ी पर और हमने उतनी देर में हुसैनाबाद बाज़ार की
तस्वीरें लीं... हुसैनाबाद के बारे में बताते चलें कि नवाबों ने यहाँ बहुत
सी इमारते बनवायीं जिसमें छोटा इमामबाड़ा (जहाँ हमें भी जाना था पर जा नहीं
पाये), हुसैनाबाद बाज़ार, दो ख़ूबसूरत दरवाज़े, घंटा घर और सतखंडा प्रमुख
हैं...
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कुड़िया घाट |
नाश्ता करने के बाद हम पहुँचे कुड़िया घाट... १९९० में इस घाट का
पुनर्निर्माण करवाया गया था... सुबह के शान्त माहौल में वहाँ गोमती नदी में
बोटिंग करना एक अनोखा अनुभव था... माना जाता है की गोमती नदी गंगा से भी
पुरानी है इसलिए इसे "आदि गंगा" भी कहा जाता है... गोमती नदी पर बना पक्का
पुल या लाल पुल जिसे हार्डिंग ब्रिज भी कहते हैं बहुत सी फिल्मों
में दिखाया गया है... अगर आप दिमाग़ पर थोड़ा सा ज़ोर डालें तो याद आएगा कि
हाल ही में आयी तन्नु वेड्स मन्नू और इशकज़ादे में भी इसे दिखाया गया है...
१९१४ में बना तकरीबन सौ साल पुराना वास्तुशिल्प की मिसाल ये पुल आज भी उसी
शान से खड़ा है और रोज़ सैकड़ों वाहन आज भी इसके ऊपर से गुज़रते हैं...
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पक्का
पुल |
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टीले वाली मस्जिद |
इसी पुल के एक सिरे पर स्थित है आलमगिरी मस्जिद जिसे हम टीले वाली
मस्जिद के नाम से भी जानते हैं... इसका निर्माण औरंगज़ेब ने १५९० में करवाया
था... इसके पास में ही बड़ा इमामबाड़ा या आसिफ़ी इमामबाड़ा (
जिसके बारे में पिछली पोस्ट में भी बताया था) और रूमी दरवाज़ा हैं... बड़ा इमामबाड़ा जाना
इस बार भी रह गया... पर उसका कोई गिला नहीं क्यूँकि हमने वो देखा जो शायद
किस्मत से ही देखने को मिलता है... रूमी दरवाज़े के ऊपर से पुराने लखनऊ का
नज़ारा !!
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बड़ा इमामबाड़ा और आसिफ़ी मस्जिद |
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रूमी दरवाज़ा |
बीते दिनों में कुछ एक हादसों के चलते रूमी दरवाज़े के अंदर जाने का रास्ता लोहे
की फेंस लगा के पूरी तरह से बन्द कर दिया गया है... पर सुबह का समय था तो
सड़क पर और आसपास भीड़ भी कम थी... बस फिर क्या था हम सब कूद-फांद के पहुँच
गये दरवाज़े के अन्दर... क्या ख़ूबसूरत इमारत है... अवधी वास्तुकला का बेजोड़ नमूना... नवाबों को मानना पड़ेगा... एक से बढ़कर एक इतनी ख़ूबसूरत इमारतों की सौगात
दे कर गये हैं लखनऊ को कि दिल से बस वाह निकलती है उनके लिये !
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रूमी दरवाज़े की उपरी मंज़िलें |
सन १७८४ में बने इस दरवाज़े के नीचे से जाने कितनी ही बारगुज़रे
होंगे... हमेशा ख़ूबसूरत भी लगा पर इतना ख़ूबसूरत होगा असल में ये उस दिन
पता चला... क़रीब ६० फिट ऊँचे इस दरवाज़े के ऊपर बनी
अष्टकोण छतरी पर
जब पहुँचे तो इतने सारे जीने चढ़ के आने की थकान एक पल में गायब हो गई...
एक ओर बहती गोमती नदी और दूसरी ओर बड़ा इमामबाड़ा... पीछे बैकड्रॉप में
दिखता हुसैनाबाद का घंटा घर, सतखंडा, हुसैनाबाद के दरवाज़े, जुमा मस्जिद और
भी जाने क्या क्या... लखनऊ बेहद ख़ूबसूरत नज़र आ रहा था वहाँ से... क़रीब एक
घंटे तक वहाँ बैठे रहे... इतनी ठंडी हवा लग रही थी की वापस जाने का मन ही
नहीं हो रहा था किसी का..
ख़ैर वहाँ से निकले तो क़रीब १०.१५ हो रहा था... अब तक हमें भी भूख लग
आयी थी थोड़ी थोड़ी और बाक़ी सब को दुबारा से :) तो हम जा पहुँचे चौक... श्री
की मशहूर लस्सी पीने और छोले भठूरे खाने... क़रीब २० मिनट के ब्रेक के बाद
हम सब की एनर्जी फिर से रीचार्ज हो गई थी... अब सोचा गया कि आगे कहाँ
जाएँ... धूप हो गई थी तो इमामबाड़ा जाने का किसी का मन नहीं हो रहा था...
फिर तय हुआ की काकोरी चलते हैं... बेहता नदी का पुल देखने...
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बेहता पुल के पास बना शिव मन्दिर |
क़रीब आधे घंटे बाद वहाँ पहुँचे... चारों तरफ़ आम के बाग़ों से घिरी
वर्ल्ड मैंगो बेल्ट में :) यहाँ का मशहूर दशहरी आम पूरी दुनिया में निर्यात किया जाता है...
बेहता नदी का पुल और उसके पास बने शिव जी के प्राचीन मंदिर का निर्माण
१७८६-८८ में नवाब आसिफ़-उद-दौला के कार्यकाल में उनके प्रधानमंत्री टिकैत
राय ने करवाया था... अगर आपको याद हो तो फिल्म शतरंज के खिलाड़ी और शशि कपूर
द्वारा निर्देशित फिल्म जुनून के कुछ दृश्यों का फिल्मांकन भी यही हुआ है... यहाँ पास में ही वो रेल की पटरी भी है जहाँ 9 अगस्त १९२५ का मशहूर काकोरी कांड हुआ था... जिसमें राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाकउल्ला खान और उनके साथियों ने मिल कर ट्रेन लूटी थी...
मंदिर में दर्शन करने और पेड़ से आम तोड़ कर खाने के बाद हम लौटे अपने घर
की ओर और क़रीब १ बजे हमारा उस दिन का लखनऊ भ्रमण पूरा हुआ... अब अगली बार
पक्के से आप सब को इमामबाड़ा घुमाना है... जल्द ही चलते हैं फिर... ऐसी ही
किसी फ़ुर्सत वाली सुबह :)
तब तक के लिये बस इतना कहना है अपने लखनऊ के भाई बंधुओं से कि बुरा लगता है
तेज़ी से बदलती जा रही लखनऊ की फिज़ा को देख कर... सारी दुनिया जिसकी तमीज़
और तहज़ीब की कायल है, अवध की वो संस्कृति हमारी ही धरोहर है और हमें ही उसे
बनाए रखना है और सँवार कर आगे आने वाली पुश्तों तक भी पहुँचाना है... आइये
मिल कर इस संस्कृति को कायम रखते हैं जिससे आगे आने वाली पुश्तें भी शान
से कह सकें... मुस्कुराइए कि आप लखनऊ में हैं !
चित्रों से कितना कुछ व्यक्त हो गया।
ReplyDeleteकसम से बदल गया बहुत कुछ या हमने तब इस नज़र से देखा नहीं था . किंग जोर्ज मेडिकल कॉलेज हॉस्टल में कुल जमा एक महीना रहे थे .वो भी सर झुकाए रेंगिग के डर से !
ReplyDeleteवैसे तुम्हारा कैमरा कमाल का है !
लखनऊ देखे अरसा हो गया है ..... बड़ा इमामबाड़ा ही बस यादों में रह गया है पर इतना खूबसूरत है यह याद नहीं था ... बहुत सुंदर चित्र और उतनी ही रोचक प्रस्तुति ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिभूत करता
ReplyDeleteaapke camera se lucknow ki sair bahut achchi lagee..
ReplyDeleteHappy Blogging..
आँखों के आगे पूरा शहर घूम गया.....
ReplyDeleteआपकी कलम और कैमरा दोनों कमाल....
बहुत सुन्दर
अनु
aap ka shahar immarton ka nahin muhabbaton ka shahar hai
ReplyDeleteबहुत सुंदर
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