अभी हाल ही में रूपये को अपनी अंतर्राष्ट्रीय पहचान... एक नया चेहरा मिला है... इसके साथ ही भारत भी चार अन्य देशों के उस विशिष्ट वर्ग में शामिल हो गया जिन देशों की मुद्रा की अपनी अलग पहचान है... रूपये से पहले अमेरिकी डॉलर, ब्रिटिश पाउंड-स्टर्लिंग, यूरो और जापानी येन ही मात्र ऐसी मुद्राएँ थीं जिनके पास अपने चिन्ह थे... अच्छा लगा भारतीय रुपये का ये नया चेहरा और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मिली ये विशिष्ठ पहचान...
काफ़ी देर तक सोचती रही... कितना कुछ बदल गया है... लोग पहले से ज़्यादा कमाते हैं आज... पहले से ज़्यादा ख़र्च भी करने लगे हैं... हाँ महंगाई भी बढ़ी है और ग़रीब और ज़्यादा ग़रीब हो गये हैं... अब समाज में सिर्फ़ उच्च, मध्यम और निम्न वर्ग नहीं रह गये हैं... मध्यम वर्ग भी अब उच्च-मध्यम वर्ग और निम्न-मध्यम वर्ग में बँट गया है... कार, एयर कंडिशनर अब लग्ज़री आइटम्स नहीं रह गये, हवाई यात्रा अब सिर्फ़ "बड़े" लोग ही नहीं अफोर्ड कर सकते... हाँ "बिज़नस क्लास" अभी भी महंगा है... तो क्या "इकानमी क्लास" तो है... फिर भले ही पानी भी ख़ुद ख़रीद के पीना पड़े पर भईया कहेंगे तो यही "मैं तो बाई एयर ही ट्रैवेल करना प्रिफर करता हूँ... टाइम ही कहाँ है इतना की ट्रेन या बस से जर्नी करी जाये"... सोचती हूँ इन्सान की ये दिखावा करने की फितरत कब बदलेगी... बदलेगी भी की नहीं कौन जाने... शायद इंसानी डी.एन.ए. में ही है :)
यही सब सोचते सोचते यादों की गली में मुड़ी तो लगा, सच ! कितना कुछ बदल गया है... पाँच, दस पैसे के सिक्कों से भरी उस मिट्टी की गुल्लक की खनक कितनी मीठी लगती थी बचपन में... कितना अमीर फील करते थे ख़ुद को... लगता था पूरी दुनिया ख़रीद सकते हैं... एक गुल्लक तो आज तक रखी है हमारे पास... मन ही नहीं करता उसे तोड़ने का... हाँ कभी कभी अलमारी साफ़ करते हुए उस खनक को ज़रूर सुन लेते हैं... "स्टिल फील्स गुड" :)
इन तमाम बदलावों के बीच कुछ नहीं बदला तो ये की पैसा आज भी ख़ुशियाँ नहीं ख़रीद सकता... प्यार नहीं ख़रीद सकता... चैन और सुकून भरे पल नहीं ख़रीद सकता... सपने नहीं ख़रीद सकता... हँसी नहीं ख़रीद सकता... क्या कभी कोई ऐसी करेंसी आएगी जिसकी "बाइंग कैपेसिटी" इतनी हो की ये सब ख़रीद सके ?
कहते है परिवर्तन प्रकृति का नियम है
कुछ भी अनवरत नहीं होता
समय के साथ
सिक्कों के चेहरे भी बदलते रहते हैं
और उनकी औकात भी...
कभी चला करते थे
सोने, चाँदी के सिक्के
आज चलते तो अख़बार में
"चेन स्नैचिंग" की जगह
"क्वाइन स्नैचिंग" की ख़बरें छपतीं
फिर आये ताम्बे के सिक्के
ताम्बा दूर करता है अशुद्धियाँ
लोग पुल से गुज़रते वक़्त
नदी में डाला करते थे
की शुद्ध रहे उनका पानी
पर हम ठहरे लकीर के फ़कीर
वजह नहीं मालूम
लेकिन आज भी डाल देते हैं
गिलेट और स्टील के सिक्के
पहले से मैली नदियों को
और भी मैला कर देते हैं
याद आते हैं आज भी बचपन के वो दिन
जब अम्मा दिया करती थीं
वो पाँच और दस पैसे के सिक्के
जिनसे ढेर सारी संतरे वाली टॉफी
आ जाया करती थीं
और साथ में असीम तृप्ति भी
और कहीं किसी दिन अगर
एक या दो रूपये मिल जाते
तो हम किसी मुल्क़ की मलिका से
कम नहीं होते उस दिन
पूरे हफ़्ते की "डीटेल प्लानिंग"
हो जाया करती थी फिर तो...
और ये आज के सिक्के
ख़रीद सकते हैं इनसे
सारे ऐशों-आराम, साज़-ओ-सामान
बस ख़ुशियाँ नहीं ख़रीद सकते
ना ही चैन और सुकून
वो नहीं बिकता किसी बाज़ार में
पढ़ा था एक दिन
"RBI" जल्द ही यूरोपीय देशों की तरह
यहाँ भी लाने वाली है "प्लास्टिक करेन्सी"
अच्छा है...
फिर शायद खरीदे जा सकेंगे उनसे
"प्लास्टिक इमोशंस" भी...
-- ऋचा
Nice way of experssions
ReplyDeletegreat abstract thinking
Happy Blogging
Great Thinking
ReplyDeleteपैसा पैसा पैसा अब तो बस यही है शेष , विशेष जो हुआ करता था-नम है उसकी आँखें !प्लास्टिक भावनाएं - हाँ अब यही होना है
ReplyDeleteधन से प्रारम्भ कर मन तक पहुँचा गयीं। प्लास्टिक इमोशन्स तो उपलभ्ध हैं बहुतायत में।
ReplyDeletesamajh nahi paar rahe kya comment kare...chalo apni hi ek triveni nazar karte hain
ReplyDeleteइमोशन भी फिल्टर हो जाया करते हैं अब तो ,
आँखे गुनगुनाती हैं जुबा मुस्कुराती है ..
साला! मार्केट में प्लास्टिक बहुत है
Lekin gullak ki baat se aaj bhi aankhe chamak jaati hain
zindgi jeene ke liye paisa bahut jaruri hai ...lekin man ki tripti aur sachchi khushiyon ke liye nahi
ReplyDeletenice poem
पैसा आज भी खुशियाँ , सुकून , हंसी नहीं खरीद सकता ....
ReplyDeleteबस प्लास्टिक इमोशन खरीद सकता है ...
बहुत अच्छी लगी पोस्ट ...!
achha collective lekha aapka...
ReplyDeletepriya ji ke blog ke madhyam se aapke yahan aana hua!!
you are a very good thinker..!
प्लास्टिक कार्ड के खूनी रिश्ते रोज अपना पन ढोते है ...लालच के पेड़ उगे......अहसास रात मे रोते है.....सड़को पर बिखरा है छल.......बूढ़े बाहर सोते है
ReplyDeletewelcome to the 2010....
richa..badi tarashi hui soch hai..hmm
ReplyDeletegud one! :)