Monday, July 23, 2012

ये शहर लालाज़ार है यहाँ दिलों में प्यार है, जिधर नज़र उठाइये बहार ही बहार है !


ये लखनऊ की सरज़मी

१६ जुलाई २०१२, दिन सोमवार, समय सुबह के ६.३० बजे.

बहुत ही ख़ुशनुमा सुबह थी... सारी रात हुई बारिश के बाद उजली, धुली हुई सी सुबह... हवा में हल्की नमी और बूंदों की ख़ुश्बू... पेड़, पौधे, पंछी सब ख़ुशी से चहचहाते हुए... एक ऐसी सुबह जिससे बाहें फैला के गले मिलने का दिल करे... ऐसी सुबह जो आपको आपके शहर से फिर प्यार करने पर मजबूर कर दे... और फिर हमारा शहर तो यूँ भी हमारी जान है... किसी शायर ने क्या ख़ूब कहा है हमारे लखनऊ के बारे में...

ये शहर रहा होगा शाइस्ता मिज़ाजों का
इस शहर के मलबों से गुलदान निकलते हैं 



हुसैनाबाद दरवाज़ा

तो सुबह सुबह हम भी चल दिये अपने शहर से मिलने... जैसा की पिछली एक पोस्ट में बताया था बड़े दिनों से मन हो रहा था पुराने लखनऊ घूमने का... तो एक रात पहले ही प्लान फाइनल हुआ और सुबह सवेरे ही हम निकल पड़े... हम, भाई और उसके दो दोस्त... क़रीब सात बजे हम घर से निकले... और सबसे पहले पहुँचे हुसैनाबाद बाज़ार... भाई के एक दोस्त को बहुत ज़ोर से भूख लगी थी बोला रात में भी खाना नहीं खाया... पहले नाश्ता करेंगे फिर कहीं चलेंगे :) तो वो लोग टूट पड़े पूड़ी सब्ज़ी पर और हमने उतनी देर में हुसैनाबाद बाज़ार की तस्वीरें लीं... हुसैनाबाद के बारे में बताते चलें कि नवाबों ने यहाँ बहुत सी इमारते बनवायीं जिसमें छोटा इमामबाड़ा (जहाँ हमें भी जाना था पर जा नहीं पाये), हुसैनाबाद बाज़ार, दो ख़ूबसूरत दरवाज़े, घंटा घर और सतखंडा प्रमुख हैं...

कुड़िया घाट

नाश्ता करने के बाद हम पहुँचे कुड़िया घाट... १९९० में इस घाट का पुनर्निर्माण करवाया गया था... सुबह के शान्त माहौल में वहाँ गोमती नदी में बोटिंग करना एक अनोखा अनुभव था... माना जाता है की गोमती नदी गंगा से भी पुरानी है इसलिए इसे "आदि गंगा" भी कहा जाता है... गोमती नदी पर बना पक्का पुल या लाल पुल जिसे हार्डिंग ब्रिज भी कहते हैं बहुत सी फिल्मों में दिखाया गया है... अगर आप दिमाग़ पर थोड़ा सा ज़ोर डालें तो याद आएगा कि हाल ही में आयी तन्नु वेड्स मन्नू और इशकज़ादे में भी इसे दिखाया गया है... १९१४ में बना तकरीबन सौ साल पुराना वास्तुशिल्प की मिसाल ये पुल आज भी उसी शान से खड़ा है और रोज़ सैकड़ों वाहन आज भी इसके ऊपर से गुज़रते हैं...

पक्का पुल

टीले वाली मस्जिद


इसी पुल के एक सिरे पर स्थित है आलमगिरी मस्जिद जिसे हम टीले वाली मस्जिद के नाम से भी जानते हैं...  इसका निर्माण औरंगज़ेब ने १५९० में करवाया था... इसके पास में ही बड़ा इमामबाड़ा या आसिफ़ी इमामबाड़ा (जिसके बारे में पिछली पोस्ट में भी बताया था) और रूमी दरवाज़ा हैं... बड़ा इमामबाड़ा जाना इस बार भी रह गया... पर उसका कोई गिला नहीं क्यूँकि हमने वो देखा जो शायद किस्मत से ही देखने को मिलता है... रूमी दरवाज़े के ऊपर से पुराने लखनऊ का नज़ारा !!

बड़ा इमामबाड़ा और आसिफ़ी मस्जिद


रूमी दरवाज़ा
बीते दिनों में कुछ एक हादसों के चलते रूमी दरवाज़े के अंदर जाने का रास्ता लोहे की फेंस लगा के पूरी तरह से बन्द कर दिया गया है... पर सुबह का समय था तो सड़क पर और आसपास भीड़ भी कम थी... बस फिर क्या था हम सब कूद-फांद के पहुँच गये दरवाज़े के अन्दर... क्या ख़ूबसूरत इमारत है... अवधी वास्तुकला का बेजोड़ नमूना... नवाबों को मानना पड़ेगा... एक से बढ़कर एक इतनी ख़ूबसूरत इमारतों की सौगात दे कर गये हैं लखनऊ को कि दिल से बस वाह निकलती है उनके लिये !

रूमी दरवाज़े की उपरी मंज़िलें
सन १७८४ में बने इस दरवाज़े के नीचे से जाने कितनी ही बारगुज़रे होंगे... हमेशा ख़ूबसूरत भी लगा पर इतना ख़ूबसूरत होगा असल में ये उस दिन पता चला... क़रीब ६० फिट ऊँचे इस दरवाज़े के ऊपर बनी अष्टकोण छतरी पर जब पहुँचे तो इतने सारे जीने चढ़ के आने की थकान एक पल में गायब हो गई... एक ओर बहती गोमती नदी और दूसरी ओर बड़ा इमामबाड़ा... पीछे बैकड्रॉप में दिखता हुसैनाबाद का घंटा घर, सतखंडा, हुसैनाबाद के दरवाज़े, जुमा मस्जिद और भी जाने क्या क्या... लखनऊ बेहद ख़ूबसूरत नज़र आ रहा था वहाँ से... क़रीब एक घंटे तक वहाँ बैठे रहे... इतनी ठंडी हवा लग रही थी की वापस जाने का मन ही नहीं हो रहा था किसी का..

ख़ैर वहाँ से निकले तो क़रीब १०.१५ हो रहा था... अब तक हमें भी भूख लग आयी थी थोड़ी थोड़ी और बाक़ी सब को दुबारा से :) तो हम जा पहुँचे चौक... श्री की मशहूर लस्सी पीने और छोले भठूरे खाने... क़रीब २० मिनट के ब्रेक के बाद हम सब की एनर्जी फिर से रीचार्ज हो गई थी... अब सोचा गया कि आगे कहाँ जाएँ... धूप हो गई थी तो इमामबाड़ा जाने का किसी का मन नहीं हो रहा था... फिर तय हुआ की काकोरी चलते हैं... बेहता नदी का पुल देखने...

बेहता पुल के पास बना शिव मन्दिर
क़रीब आधे घंटे बाद वहाँ पहुँचे... चारों तरफ़ आम के बाग़ों से घिरी वर्ल्ड मैंगो बेल्ट में :) यहाँ का मशहूर दशहरी आम पूरी दुनिया में निर्यात किया जाता है... बेहता नदी का पुल और उसके पास बने शिव जी के प्राचीन मंदिर का निर्माण १७८६-८८ में नवाब आसिफ़-उद-दौला के कार्यकाल में उनके प्रधानमंत्री टिकैत राय ने करवाया था... अगर आपको याद हो तो फिल्म शतरंज के खिलाड़ी और शशि कपूर द्वारा निर्देशित फिल्म जुनून के कुछ दृश्यों का फिल्मांकन भी यही हुआ है... यहाँ पास में ही वो रेल की पटरी भी है जहाँ 9 अगस्त १९२५ का मशहूर काकोरी कांड हुआ था... जिसमें राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाकउल्ला खान और उनके साथियों ने मिल कर ट्रेन लूटी थी...

मंदिर में दर्शन करने और पेड़ से आम तोड़ कर खाने के बाद हम लौटे अपने घर की ओर और क़रीब १ बजे हमारा उस दिन का लखनऊ भ्रमण पूरा हुआ... अब अगली बार पक्के से आप सब को इमामबाड़ा घुमाना है... जल्द ही चलते हैं फिर... ऐसी ही किसी फ़ुर्सत वाली सुबह :)



तब तक के लिये बस इतना कहना है अपने लखनऊ के भाई बंधुओं से कि बुरा लगता है तेज़ी से बदलती जा रही लखनऊ की फिज़ा को देख कर... सारी दुनिया जिसकी तमीज़ और तहज़ीब की कायल है, अवध की वो संस्कृति हमारी ही धरोहर है और हमें ही उसे बनाए रखना है और सँवार कर आगे आने वाली पुश्तों तक भी पहुँचाना है... आइये मिल कर इस संस्कृति को कायम रखते हैं जिससे आगे आने वाली पुश्तें भी शान से कह सकें... मुस्कुराइए कि आप लखनऊ में हैं !



(ऑडियो साभार : रेडियो मिर्ची एफ एम चैनल)

कुछ और तस्वीरें  --

हुसैनाबाद घंटा घर

कुड़िया घाट

गोमती नदी

रिफ्लेक्शन !

आइसोलेटेड !

माझी बगैर नैया

लाल पुल के नीचे से गुज़रते हुए

लाल पुल

बड़े इमामबाड़े का मुख्य दरवाज़ा

रूमी दरवाज़े से दिखती गोमती नदी

हुसैनाबाद दरवाज़ा, दाहिनी ओर सतखंडा और घंटा घर

बड़े इमामबाड़े में स्थित आसिफ़ी मस्जिद

बड़े इमामबाड़े का भीतरी दरवाज़ा

बड़ा इमामबाड़ा

रूमी दरवाज़े से दिखता बड़ा इमामबाड़ा

रूमी दरवाज़े से दिखता बड़ा इमामबाड़ा
रूमी दरवाज़े से दिखती आसिफ़ी मस्जिद की मीनारें

रूमी दरवाज़े के भीतर बने दरवाज़े
रूमी दरवाज़ा (पीछे से)
बेहता नदी का पुल
(सभी तस्वीरों को बड़ा कर के देखने के लिये उन पर क्लिक करें)

Wednesday, July 11, 2012

सूना पड़ा है तेरी आवाज़ का सिरा...



हमारे बीच मीलों लम्बी दूरी थी... हम एक दूसरे को देख नहीं सकते थे... बस सुन सकते थे... एक पुल था हमारे दरमियाँ... लफ़्जों का... जिसके एक सिरे पर तुम थे और दूसरे सिरे पर मैं... तुम्हारी आवाज़ को ही एक शक्ल दे दी थी मैंने... तुमने भी शायद वही किया हो... जब पहली बार सुना था तुम्हें... तो लगा था जैसे मेरी ही आवाज़ की परछाईं है... जैसे किसी पहाड़ी पर चढ़ कर आवाज़ लगाई हो और ख़ुद अपनी ही आवाज़ का अनुनाद सुनाई दिया हो...

हम रोज़ उस पुल पे जाते... जाने कब, बिना कुछ कहे, हमने एक वक़्त तय कर लिया था मिलने का... सूरज उगने का अब बेसब्री से इंतज़ार रहने लगा... सुबह के पहले पहर ही हम उस पुल पर जा बैठते... मैं अपने सिरे पर रहती और तुम अपने... जाने क्या तो बातें किया करते हम... दुनिया जहान की...पर उन बे-सिर-पैर की बातों में भी कितना नशा था... हमें होश ही नहीं रहता की कब सुबह से शाम हुई... लगता सूरज अभी तो उगा था... अभी डूब भी गया... हम पुल से लौट आते पर अगली सुबह फिर वापस आने के लिये...

मीलों की दूरी को उस पुल ने बेमानी कर दिया था... हमारे बीच आवाजों का सफ़र सालों यूँ ही चलता रहा... फिर एक दिन वो सफ़र थम गया... तुम नहीं आये... मैं रोज़ की तरह अपने सिरे पर बैठी सारा दिन इंतज़ार करती रही... वो दिन कितना लम्बा था... लगा जैसे सूरज भी तुम्हारे इंतज़ार में डूबना भूल गया हो... फिर हर गुज़रते दिन के साथ समय का ये चक्र गड़बड़ाता ही गया... सुबहें अब सूरज के साथ नहीं आती थीं... कभी दिन के तीसरे पहर तो कभी चौथे पहर आतीं... और कभी कभी तो जैसे सुबह आना भूल ही जाती, बस रात ही आती... तन्हा, गुमसुम...

इंतज़ार बोझिल हो चला है... बातों का वो कल-कल बहता झरना अब सूख गया है... लफ़्जों का पुल धीरे धीरे कमज़ोर पड़ने लगा है... आवाजों की शक्लें भी धुंधली हो गई हैं... मुझे कुछ नहीं दिखता... मेरी आवाज़ भी शायद अब नहीं पहुँचती तुम तक... तुम्हें सुनाई देती है? मेरी आवाज़ अब मुझ तक लौट कर नहीं आती... तुम्हारे सिरे पर कोई ब्लैक होल उग आया है क्या ?

मैं अब भी आती हूँ उस कमज़ोर हो चले पुल पर... हर रोज़... तुम्हारी आवाज़ का एक कतरा ढूंढ़ते... पुल से नीचे झाँकती हूँ तो बेहद गहरी खाई है निर्वात की... सामने देखती हूँ... तुम नहीं दिखते... हमारे बीच फिर मीलों लम्बी दूरी है...  इस धुँध के परे कोई भी आवाज़ नहीं है... मैं अब भी इंतज़ार करती हूँ... तुम आओगे क्या कभी... फिर मेरी आवाज़ का हाथ थामने ?


शब्दों का एक चक्रवात सा उठता है
हर रोज़, मेरे भीतर कहीं
बहुत कुछ जो बस कह देना चाहती हूँ
कि शान्त हो सके ये तूफ़ान

जाने पहचाने चेहरों की इस भीड़ में लेकिन
एक भी ऐसा कांधा नहीं
जो मेरी आवाज़ को सहारा दे सके
कि निकल सके बेबसी का ग़ुबार

उमस बढ़ती है अंतस की
तो शोर वाष्पित हो आँखों तक जा पहुँचता है
बहरा करती आवाज़ में गरजती है घुटन
बारिशें भी अब नमकीन हो चली हैं

आवाज़ की चुभन महसूस करी है कभी ?
या ख़ामोशी की चीख ?
भीतर ही भीतर जैसे छिल जाती हैं साँसें
कराहती साँसों की आवाज़ सुनी है ?

कभी रोते हुए किसी से इल्तेजा की है ?
कि बस चंद लम्हें ठहर जाओ मेरे पास
सुन लो मुझे दो पल
कि मैं शान्त करना चाहती हूँ ये बवंडर

कि मैं सोना चाहती हूँ आज रात
जी भर के...!

-- ऋचा

Thursday, July 5, 2012

तुम बिन आवे न चैन... रे साँवरिया...!



- मैं क्यों उसको फ़ोन करूँ ! उसे भी तो इल्म  होगा कल शब मौसम की पहली बारिश थी

- ये क्या बड़बड़ा रही हो ?

- तुम्हें क्या ?

- अरे बताओ तो...

- नहीं बताना... बातचीत बंद है तुमसे...

- ठीक है मत बताओ फिर...

- हाँ तो कहाँ बता रहे हैं... वैसे भी तुम्हें क्या फ़र्क पड़ता है हम बोलें या न बोलें...

- सो तो है :)

- ह्म्म्म... जाओ फिर काम करो अपना... क्यूँ बेकार में टाइम वेस्ट कर रहे हो...

- अच्छा... जाता हूँ... बाय...... बाय....... अब बाय का जवाब तो दे दो...

- क्यूँ... नहीं देंगे जवाब तो क्या नहीं जाओगे ?

- नहीं जाऊँगा तो तब भी... पर जवाब दे दोगी तो खुश हो के जाऊँगा... काम करने में मन लगेगा...

- ह्म्म्म... तुम्हें फिक्र है क्या हमारी ख़ुशी की... हम क्यूँ करें फिर...

- जाऊं फिर ?

- तुम्हारी मर्ज़ी...

- सच में जाऊं ?

- बोला न... तुम्हरी मर्ज़ी... मेरी मर्ज़ी का वैसे भी कब करते हो...

- हम्म... जा रहा हूँ फिर... बाय...

- रुको... वो मैकरोनी और कॉफी जो बनायी है उसका क्या होगा ? खा के जाओ...

- :)

- हँसो मत... रोक नहीं रहे हैं... खा के चले जाना... हमने भी नहीं खायी है अभी तक... बड़े मन से बनायी थी...

- :):):)

- बुरे हो सच में... बहुत बुरे... रोज़ लड़ते हो... रोज़ रुलाते हो... बुरा नहीं लगता तुम्हें...

- नहीं... मज़ा आता है तुम्हें गुस्सा दिलाने में... रुलाने में... :)

- हम्म... अच्छा सुनो... ये झगड़ा बरसात भर के लिये पोस्टपोन कर देते हैं... बारिशें तुम्हारे बिना बिलकुल अच्छी नहीं लगतीं...

- :)

- :)

- अच्छा अब तो बता दो... वो सब क्या था? वो पहली बारिश.. फ़ोन.. इल्म.. ???

- कुछ नहीं... बहुत बहुत बुरे हो तुम :):):)

- अरे बताओ तो...

- क्यूँ बतायें...

- ..........

- ..........



Tuesday, July 3, 2012

मेटामॉर्फसिस !



तुम्हारा भरोसा देता है मुझे पंख
और मैं तब्दील हो जाती हूँ
एक नन्ही सी चिड़िया में
सारा साहस समेट कर
भरती हूँ उड़ान, तो लगता है
आस्मां भी कुछ नीचे आ गया है

तुम्हारा भरोसा भर देता है मुझे
विश्वास से
उग आते हैं मेरे डैने
और मैं बन जाती हूँ नन्ही सी मछली
जो तमाम व्हेल मछलियों से बचते हुए
पार कर सकती है प्रशांत महासागर भी

तुम्हारा प्यार कर देता है लबरेज़ मुझे
ख़ुश्बू से
ख़िल जाती हैं नई कोपलें
नर्म पंखुड़ियों सी महक उठती हूँ मैं
गुलज़ार हो जाता है मेरा अस्तित्व
आशाएं तितलियाँ बन मंडराने लगती हैं

तुम रखते हो हाथ मेरी पलकों पे
तो भर जाता है रंग मेरे सपनों में
तुम्हारा भरोसा मेरे सपनों के साथ मिल
शिराओं में दौड़ते रक्त को
कर देता है कुछ और सुर्ख़
लाली से लबरेज़, खिल उठती हूँ मैं

आँखें कुछ खट्टा खाने को मचल रही हैं इन दिनों
लगता है नींद फिर उम्मीद से है
फिर कोई ख़्वाब जन्म लेने को है !

-- ऋचा



( धुन पियानो पर यिरुमा की - "ड्रीम")
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