Monday, October 26, 2009

लफ़्ज़ों का पुल

उन्हें ये ज़िद थी के हम बुलाएं
हमें ये उम्मीद वो पुकारें
है नाम होठों पे अब भी लेकिन
आवाज़ में पड़ गयीं दरारें
-- गुलज़ार

भावनाएं, ख्वाहिशें, एहसास, विचार, ख़्वाब, हक़ीकत और उन सब को अभिव्यक्त करते कुछ शब्द... कभी सोचा है ये शब्द हमारी ज़िन्दगी से निकल जाएँ तो क्या हो ? हर सिम्त सिर्फ़ दिल को बेचैन कर देने वाली एक अंतहीन ख़ामोशी... एक गूंगा मौन...
ये शब्द ही तो हैं जिनसे आप किसी का दिल जीत लेते हैं और जाने अनजाने किसी का दिल दुखा भी देते हैं... ये शब्द ही तो हैं जो किसी को आपका दोस्त बना देते हैं तो किसी को आपका दुश्मन... ये शब्द ही तो होते हैं जो आपकी सोच को एक आकार देते हैं और कोई प्यारी सी नज़्म बन कर कागज़ पर बिखर जाते हैं... ये शब्द कभी दवा तो कभी दुआ बन कर हमारे साथ रहते हैं... और ये शब्द ही तो होते हैं जो दो लोगों को आपस में बाँध कर रखते हैं, उनके रिश्ते को एक मज़बूत नींव देते हैं... है ना ?
कहते हैं शब्दों में बड़ी ताक़त होती है... किसी बीमार इंसान से बोले गए प्यार और परवाह के चंद शब्द उसके लिये दवा से भी बढ़ कर काम करते हैं... नाउम्मीदी के दौर से गुज़र रहे किसी शख्स से बोले गए कुछ उत्साहवर्धक शब्द उसे उम्मीद की किरण दिखा जाते हैं... आपस में मिल बैठ कर सूझबूझ से की गयी बातचीत बड़ी से बड़ी समस्याओं का समाधान ढूंढ देती है... सहानुभूति के चंद लफ्ज़ किसी के ज़ख्मों पर मरहम का सा असर करते हैं और सच्चे दिल से माफ़ी के लिये बोले गए कुछ बोल किसी टूटते रिश्ते को बचा लेते हैं...
ये लफ्ज़ों का ही पुल है जो हर रिश्ते को जोड़े रखता है... एक ऐसा पुल जिसके दोनों सिरे एक रिश्ते से जुड़े दो इंसानों को बांधे रखते हैं... पर कभी कभी हम शब्दों की जगह मौन का सहारा ले लेते हैं... अपने रिश्ते के बीच हम अपने अहं को ले आते हैं...  और उस एक इंसान से, जिससे हम दुनिया में शायद सबसे ज़्यादा प्यार करते हैं, बात करना बन्द कर देते हैं... हम चाहते हैं की सामने वाला हमारी ख़ामोशी को समझे... लेकिन वो कहते हैं ना कि "मुंह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन, आवाजों के बाज़ारों में ख़ामोशी पहचाने कौन"...  इसलिए आइये लफ्ज़ों के इस पुल को टूटने ना दें... किसी भी रिश्ते में कोई भी ग़लतफहमी ना पलने दें... अपने अहं को अपने रिश्तों से बड़ा कभी ना होने दें... चुप ना रहें... बात करें और अपने बिखरते रिश्ते को बचा ले... क्यूंकि जैसे जैसे बातें कम होती जाती है, शब्द शिथिल पड़ते जाते हैं, ये पुल भी कमज़ोर होता जाता है और जिस दिन ये लफ्ज़ों का पुल टूटा समझो वो रिश्ता भी मर जाता है...

निदा फाज़ली जी ने इक ऐसे ही बिखरे हुए रिश्ते को इस नज़्म में पिरोया है जहाँ लफ्ज़ों का ये पुल टूट चुका है -




Tuesday, October 20, 2009

मोतबर रिश्ते... मुख्तसर रिश्ते...

एक बच्चा जब इस संसार में अपनी पहली साँस लेता है तो उसके साथ ही बहुत सारे रिश्ते उससे जुड़ जाते हैं... माँ, बाबा, भाई, बहन, दादा, दादी, नाना, नानी और ऐसे ही तमाम रिश्ते जो उस नन्हें से बच्चे को अपने जन्म के साथ ही मिल जाते हैं... ये खून के वो रिश्ते होते हैं जो ता-उम्र उसके साथ रहते हैं... ज़िन्दगी के हर ऊंचे-नीचे, टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर उसका हाथ थामे ख़ामोशी से उसके साथ चलते रहते हैं... उस बच्चे को तो इस बात का एहसास भी नहीं होता कि उसका बोला हुआ पहला शब्द और उसका बढ़ाया हुआ पहला कदम उन तमाम रिश्तों, उन लोगों के बिना शायद मुमकिन भी ना होता... पर कभी कभी इनमें से कुछ रिश्ते समय के साथ अपनी मिठास खो देते हैं... कड़वे हो जाते हैं... फिर भी उन्हें निभाना पड़ता है, भले ही उनसे मन मिले या ना मिले... क्यूंकि ये वो रिश्ते होते हैं जिन पर आपका कोई बस नहीं चलता... जो आप अपने लिये नहीं चुनते हैं बल्कि इन्हें आपके लिये आपका भाग्य चुनता है... आपको सिर्फ़ निभाना होता है...
फिर जैसे जैसे वो बच्चा बड़ा होता जाता है कुछ और रिश्ते उससे जुड़ जाते हैं... वो रिश्ते जिन्हें वो खुद चुनता है - उसके दोस्त... दोस्ती इस संसार का सबसे अनूठा रिश्ता है... एक ऐसा रिश्ता है जो तमाम खून के रिश्तों से भी ज़्यादा घनिष्ठ और प्रिय हो जाता है कभी कभी... आप भले ही एक बार अपने घर वालों की बात ना मानें पर अगर आपका सच्चा दोस्त आपसे कुछ कहता है तो आप उसे ज़रूर मानते हैं... है ना ? दोस्त होते ही ऐसे हैं... आपकी ख़ुशी में खुश... आपके ग़म में उदास... आपकी हर गलती पर आपको डाटते भी हैं तो आपकी हर बुराई को जानते हुए भी आपसे प्यार करते हैं... और आपकी ताक़त बन कर हर कदम पर आपके साथ होते हैं... कभी भी कहीं भी :-)
और फिर एक दिन वो नन्हा सा बच्चा एक परिपक्व इंसान बन जाता है... विवाह होता है और एक बार फिर वो तमाम सांसारिक रिश्तों और बन्धनों में बंध जाता है... ये रिश्ते भी बाकी रिश्तों की तरह ही कभी ख़ुशी तो कभी कड़वाहट ले कर आते हैं...
इन सब रिश्तों के बीच कभी कभी एक ऐसा रिश्ता भी बन जाता है किसी से, जिसे आप खुद समझ नहीं पाते... उस रिश्ते का क्या नाम है... क्यूँ वो एक अनजान इंसान आपके लिये अचानक इतना प्रिय और ख़ास हो जाता है, पता नहीं... और आप पता करना भी नहीं चाहते... बस उससे बात करना, उसके साथ समय बिताना अच्छा लगता है... ये जानते हुए भी की उस रिश्ते का कोई अस्तित्व नहीं है... वो कब तक आपके साथ रहेगा और कब अचानक साथ छूट जाएगा पता नहीं... पर आप कुछ सोचना नहीं चाहते... कुछ समझना नहीं चाहते... क्या ग़लत है क्या सही मालूम नहीं... बस उन साथ बिताये हुए कुछ पलों में तमाम उम्र जी लेना चाहते हैं... कुछ यादें बटोर लेना चाहते हैं... कुछ हँसी, कुछ मुस्कुराहट समेट लेना चाहते हैं... ज़िन्दगी भर के लिये...
गुलज़ार साब ने ऐसे ही किसी रिश्ते को अपनी इस नज़्म के ताने बाने में बुना है...



Monday, October 12, 2009

बड़ी खूबसूरत थी वो ज़िन्दगानी...

वो मासूम चाहत की तस्वीर अपनी
वो ख़्वाबों खिलौनों की जागीर अपनी
ना दुनिया का ग़म था, ना रिश्तों के बंधन
बड़ी खूबसूरत थी वो ज़िन्दगानी...
-- सुदर्शन फ़ाकिर

आज बड़े दिनों के बाद कुछ पुराने एल्बम हाथ लगे... माँ-बाबा की शादी से ले कर हमारे और भाई के बचपन की तस्वीरें, दादी माँ की आखों से झलकता असीम वात्सल्य, बुआ जी का ढेर सारा स्नेह, चाचा से की हुई वो हर इक ज़िद जो उन्होंने हमेशा पूरी करी, छोटे भाइयों के साथ वो बेफिक्री से खेलना, गाँव में बीती गर्मियों और सर्दियों की छुट्टियाँ, बाग़-बगीचे और उनके बीच छोटा सा देवी माँ का मंदिर... देखते देखते कब घंटों बीत गए और कब वो सब यादें हमारा हाथ पकड़ कर हमें वापस उसी बचपन में ले गयीं पता ही नहीं चला...
कहते हैं बचपन के दिन इंसान की ज़िन्दगी के सबसे खूबसूरत दिन होते हैं... सारे दुनियावी दांव पेंचो से अनभिज्ञ, सरल और सौम्य बचपन... ना कोई ऊँच नीच, ना अमीरी गरीबी, ना जात पात... छल कपट से कोसों दूर आप सिर्फ़ अपनी एक मुस्कराहट से हर किसी का दिल जीतना जानते हैं... और तो और आपके एक आँसू पर माँ-बाबा सारी दुनिया लुटाने को तैयार रहते हैं... हर कोई आपसे प्यार और सिर्फ़ प्यार करता है... कितना अच्छा लगता है ना जब सब आपकी इतनी परवाह करते हैं... पर जैसे जैसे हम बड़े होते जाते हैं, ज़िन्दगी की सच्चाई से वाक़िफ़ होते जाते हैं, हमारी परी कथाओं जैसी खूबसूरत दुनिया भी यथार्थ में तब्दील होती जाती है... कभी कभी सोचते हैं कितना अच्छा होता अगर हम कभी बड़े ही नहीं होते... सब कुछ ता-उम्र परी कथाओं जैसा ही खूबसूरत रहता... पर क्या करें जीवन का अनंत चक्र सोच मात्र से नहीं रुकता... वो तो सदा चलता रहता है... पर हमारा मानना है हम चाहें तो ये बचपन हमसे कभी दूर नहीं जा सकता... समय के साथ बड़े ज़रूर होइये पर दिल से नहीं दिमाग से... दिल के किसी कोने में उस बच्चे को हमेशा ज़िंदा रखिये... और फिर देखिये ज़िन्दगी हमेशा खूबसूरत रहेगी...
आज आपके साथ सुभद्राकुमारी चौहान जी की एक बेहद खूबसूरत और हृदयस्पर्शी रचना "मेरा नया बचपन" शेयर करने जा रहे हैं... ये रचना हमें बेहद पसंद है उम्मीद है आपको भी पसंद आएगी...


बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥


चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?


ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥


किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥


रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥


मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥


दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।
धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥


वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥


लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी।
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥


दिल में एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी।
मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥


मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥


सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं।
प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥


माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥


किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥


आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।
व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥


वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?


मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥


'माँ ओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी।
कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥


पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।
मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥


मैंने पूछा 'यह क्या लायी?' बोल उठी वह 'माँ, काओ'।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा - 'तुम्हीं खाओ'॥


पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥


मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥


जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया॥

-- सुभद्राकुमारी चौहान

Monday, October 5, 2009

कुछ सवाल ज़िन्दगी से...

दिवाली अब बस कुछ ही दिन दूर है... आप सबके घरों की तरह हमारे यहाँ भी थोड़ी बहुत तैयारियां शुरू हो गयी हैं गणेश जी और लक्ष्मी जी के स्वागत के लिये... और इस सप्ताहंत का उपयोग हमने कुछ साफ़ सफाई कर के किया :-) ... आज नंबर आया हमारे कमरे का... अलमारी साफ़ करते हुए एक पुरानी डायरी हाथ लगी... शायद कोई दस-बारह साल पुरानी... वैसे तो इस डायरी का ज़िक्र हमने अपनी पहली पोस्ट में भी करा था... शायद ये ब्लॉग बनाने की प्रेरणा भी वही डायरी है... बचपन से आदत रही है जो भी कवितायें, नज्में या विचार पसंद आया उसी डायरी में नोट करती आई हूँ... आज इतने दिनों बाद हाथ लगी तो अनायास ही कुछ पन्ने पलट लिये... तमाम बड़े बड़े नामी गिरामी शायरों की रचनाओं के बीच एक बचकानी सी कविता मिली... नहीं... कविता कहना शायद सही नहीं होगा... हमें खुद ही नहीं पता की वो है क्या... कुछ विचार हैं बस, कुछ सवाल जो ऐसे ही कभी मन में आये थे और लिख दिया था... और लिख कर भूल भी गए थे... आज इतने सालों बाद पढ़ा तो सोचा आप सब के साथ शेयर कर लूँ...
बात उन दिनों की है जब स्कूल से निकल कर यूनीवर्सिटी में दाखिला लिया था... अचानक से लगने लगा था हम भी बड़े हो गए हैं... पर शायद मन में तब भी बचपना था... हर चीज़ "परफेक्ट" नज़र आती थी, पर तमाम रिश्तों के मायने समझ नहीं आते थे... कोई बेवजह ही क्यूँ अच्छा लगता था और कोई कितना भी अच्छा हो फिर भी उससे कभी बनती क्यूँ नहीं थी... किसी से घंटों बात करना क्यूँ अच्छा लगता था... ज़रा सी देर होने पर क्यूँ माँ-बाबा परेशान हो जाते थे... बिना बताये कहीं जाने पर डांट क्यूँ पड़ती थी... हर किसी को हर बात की सफाई क्यूँ देनी पड़ती थी... माँ-बाबा के मन में हर समय ये डर क्यूँ रहता था की कुछ भी लीक से हट कर किया तो समाज क्या कहेगा... कौन है ये समाज ? किसने बनाए इसके नियम कायदे ? कौन चलाता है इसे ? ऐसे ही ढेरों सवाल मन में हर समय चला करते थे, पर जवाब नहीं थे...
आज इतने सालों के बाद शायद रिश्तों को, उनके मायनों को तो थोड़ा बहुत समझने लगे हैं... पर सवाल अब भी वही हैं... जवाब आज भी नहीं मिले...


क्या ज़रूरी है हर रिश्ते को इक नाम देना
उसे सीमाओं के धागों से बाँध देना
क्या हम भी उन परिंदों की तरह
आस्मां में पंख फैला कर नहीं उड़ सकते
आज़ाद, बेफिक्र...
क्या हमारे लिये इतना काफी नहीं है कि हम जान लें
हम सही हैं या ग़लत
क्या ज़रूरी है कि हम सारी दुनियाँ के लिये जवाबसार हों
अगर ऐसा है तो ऐसा क्यूँ है ?
किसने बनाए ये नियम ?
भगवान ने ?
ख़ुदा ने ?
प्रकृति ने ?
नहीं.
इंसान ने !
फिर क्यूँ इंसान ही इंसान के बनाए हुए नियमों पर नहीं चलना चाहता ?
क्यूँ बार बार इन्हें तोड़ कर आज़ाद हो जाना चाहता है ?
क्यूँ ?

-- ऋचा
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