Monday, July 4, 2016

आम के शहर से ख़ास मुलाक़ात !



बरसात का मौसम था और बादल सुबह से ही आँख मिचौली खेल रहे थे... कुछ कुछ हमारी तबीयत ही की तरह... हिम्मत नहीं पड़ रही थी जाने की पर सबका प्रोग्राम हमारी वजह से कैंसिल होता ये सोच के चल दिए हिम्मत कर के... नॉर्थ इंडिया की मैंगो कैपिटल घूमने... मलिहाबाद... लखनऊ से तकरीबन 25 किलोमीटर दूर... यूँ तो पहले भी कई बार जाना हुआ पर आम के मौसम में ख़ास उनसे ही मुलाक़ात करने जाने का ये पहला मौका था... शहर की घनी आबादी से निकल कर जैसे जैसे काकोरी मलिहाबाद की ओर बढ़ रहे थे हवा में आम की मादक गंध घुलती जा रही थी... सड़क के दोनों ओर आम के घने बग़ीचे और सामने घने काले बादल... तबियत अब कुछ कुछ सँभलने लगी थी...

पद्मश्री हाजी कलीम उल्लाह ख़ान साहब की अब्दुल्ला नर्सरी पहुँचे तो समझ आया की भला किसी को आम उगाने भर के लिए पद्मश्री से क्यों नवाज़ा गया... हाजी साहब से तो भेंट नहीं हो पायी पर उनके बेटे और पोते से मिले... आम से ही मीठे लोग... इतने प्यार से पूरा बाग़ घुमाया... एक एक आम (ख़ास) से मिलवाया... किस आम की क्या ख़ासियत... किस का नाम कैसे पड़ा... कौन सा आम कब होता है... कौन ज़्यादा मीठा कौन कम मीठा... कौन देखने में सुन्दर कौन खाने में बढ़िया...

आम का वो ऐतिहासिक पेड़ जिस पर हाजी साहब ने ३०० से ज़्यादा किस्म के आम उगाये

 सचिन
उस पेड़ से भी मिलवाया जिसके लिये हाजी साहब को पद्मश्री से नवाज़ा गया... पेड़ क्या था मानो अपने आप में पूरा का पूरा बग़ीचा था... एक समूची विरासत... एक भरा पूरा कुनबा... 300 से भी ज़्यादा तरह के आम एक ही पेड़ पर... सचमुच अजूबा था... यूँ तो गाँव में हमारा भी आम का बाग़ था पर ऐसा कुछ पहले कभी नहीं देखा था... एक ही पेड़ पर सचिन से भी मिले और अखिलेश से भी... मोदी से भी और अनारकली से भी... दशहरी से भी और अल्फान्ज़ो से भी... क्या हुआ सोच में पड़ गए ? अजी ये सब आम की उन अलग अलग नस्लों के नाम हैं जो उस एक  पेड़ पर थे...


कटहल आम



आपसे कोई कहे की आम के पेड़ पर कटहल और शरीफा देखा तो क्या आप यकीन करेंगें ? नहीं ना... पर यकीन मानिये हमने देखा... आइये आपको भी मिलवाते हैं... ये जनाब हैं कटहल आम... इनका ये नाम इनके वज़न की वजह से पड़ा... तक़रीबन डेढ़ से तीन किलो का ये आम एक पतली सी डंठल के सहारे कैसे टिका रहता है इतने ऊँचे पेड़ पर ये तो वो ऊपर वाला ही जाने या जाने हाजी साहब...

शरीफा आम





और इनसे मिलिये ये जनाब है शरीफा आम... देखने में शरीफा और खाने में आम... शरीफा और आम की क्रॉस ब्रीडिंग से बना एक अजूबा... हालांकि स्वाद में बहुत अच्छा नहीं होता पर दिखने में बिलकुल अनोखा...






टॉमी ऐटकिंस




आगे चले तो मिलना हुआ टॉमी ऐटकिंस साहब से... देखने में सुर्ख़ लाल... पहली नज़र में आँखों का धोखा मालूम देता है... पर पास जा के देखा छुआ तो यकीन आया की जनाब सचमुच में आम ही है... स्वाद इनका भी बहुत अच्छा नहीं होता पर देखने में बेहद ख़ूबसूरत... यूँ लगता था मनो आम ने सेब के कपड़े पहन लिए हों... इस आम की ख़ासियत थी इनकी लॉन्ग शेल्फ़ लाइफ़... मतलब तोड़ने के बाद भी काफ़ी दिन तक ख़राब नहीं होते हैं ये...


अल्फान्ज़ो


हाँ महाराष्ट्र के मशहूर आम हापूस यानि अल्फान्ज़ो से भी मिले... देखा जाए तो पूरी दुनिया में आम के नाम से लोग अल्फान्ज़ो को ही जानते हैं... खाने में हल्का मीठा और देखने में ख़ूबसूरत... सब के सब तकरीबन एक ही कद काठी के मानो किसी साँचे में ढाले गए हों... पर हुज़ूर जिसने कभी दशहरी न चखा हो... जौहरी न खाया हो... चौसा से न मिला हो या लखनऊआ सफ़ेदा न चूसा हो उसे आम के बारे में मालूम ही क्या हो... यूँ ही कल बातों बातों में हाजी साहब के बेटे अज़ीम साहब से ज़िक्र छिड़ा की स्वाद में दशहरी अल्फान्ज़ो से कहीं ज़्यादा अच्छी होती है पर मशहूर अल्फान्ज़ो ज़्यादा है इसकी कोई ख़ास वजह तो उन्होंने बताया कि महाराष्ट्र सरकार ने अल्फान्ज़ो की मार्केटिंग काफ़ी अच्छे से करी है... उस पर बहुत पहले से सब्सिडी दी शायद यही वजह है की सारी दुनिया के लोगों तक वो ज़्यादा पहुँचा... पर अब जबकि यहाँ की सरकार भी दिलचस्पी ले रही है तो उम्मीद है जल्द ही दशहरी भी लोगों को आसानी से मुहैय्या होने लगेगी... 


आगे चले तो आम के बगीचे में पाइनएप्पल से भी मिले और नाशपाती, अमरुद और पपीते से भी... बाकी सब फल तो पेड़ों पर लगे हुए पहले भी देखे हैं पर पाइनएप्पल से यूँ मिलना पहली बार हुआ... हाजी साहब के बाग़ीचे में अर्से बाद आम के पेड़ों की डालियों पे चुहल करता बचपन फ़िर से मिला... जाने क्या क्या तो याद हो आया... पर उस बारे में फिर कभी बात करेंगे... क्योंकि बात निकलेगी तो फ़िर दूर तलक जायेगी... :)


आम के बग़ीचे में गए और आम का लुत्फ़ न लिया ये भी भला होता है कभी... कितने आम तो वहाँ से बीन के लाये... कितने वहाँ बैठ के खाये.. बचपन का हमारा फेवरेट आम सुर्खा मटियारा भी चखने को मिला वहाँ एक अर्से बाद... कभी आइये हमारे शहर तो मिलवायें आपको भी इस सब से...

वहाँ से निकले तो पास ही एक गौशाला देखने गए... आम के बाग़ों के बीच एक बेहद सुन्दर हनुमान जी का मंदिर... पास में ही एक तालाब था जिसके किनारे बतख मोर ख़रगोश जाने क्या क्या पला था... गायें तो खैर थीं ही... गौशाला के ही प्रांगण में कल आम की दावत थी... सब अपनी अपनी बाग़ का स्पेशल आम ले कर आये थे साथ ही आम का पना भी था... तो एक बार फिर आम की दावत कर के वहाँ से निकले...





 
मलिहाबाद की बात हो और जोश मलिहाबादी का ज़िक्र न आये ऐसा भला कहाँ मुमकिन है... मलिहाबाद को अलविदा करते हुए उनका वो मशहूर कलाम ज़हन में गूंजता रहा... "ऐ मलिहाबाद के रंगीं गुलिस्तां अलविदा...!



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दिल की गिरह खोल दो... चुप ना बैठो...

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