उसकी मुस्कुराहटें एक बार फिर लौट आयीं थीं... वो फिर से महकी महकी फिरने लगी थी कोहरे ढकी वादियों में... उदासियों का मौसम जा चुका था... वो धूप सी बिखरना चाहती थी... फिर से जीना चाहती थी... खुल के.. खिल के... अपनी ज़िन्दगी के साथ ज़िन्दगी भर...
उसने एक गाँव बसाया था नदी के किनारे... एक ही से दिखने वाले
ढेर सारे घरों की कतारें... सारे घर चमकीले रंगों में रंगे हुए... दूर से
देखो तो यूँ लगता था गोया इन्द्रधनुष धरती पर सजा दिया हो किसी ने... नदी
किनारे... अपने मूड के हिसाब से वो कभी लाल रंग के घर में रहती तो कभी नीले
में... कुछ सीमे सीमे से दिनों के लिए उजला पीला घर जो उसकी सारी उदासियाँ
दूर कर दे... बारिशों वाले दिन धुली धुली पत्तियों के जैसे हरे रंग वाले
घर में गुज़रते... जिस रोज़ उसका दोस्त गाँव से बाहर जाता वो जामुनी रंग के
घर में जा कर ख़ुद को उसकी यादों में डुबा देती... वो वापस आने को होता तो
गुलाबी घर में खिली खिली घूमती उसका इंतज़ार करते...
वो ढेर सारे जुगनू पकड़ना चाहती थी.. किसी घने जंगल में जा
के... उन सबको अपने घर लाना चाहती थी... उसे बड़ा अच्छा लगता था जलते बुझते
जुगनुओं को देखना... किसी सियाह रात जब चाँद तारे सब छुट्टी पे हों वो
उन्हें अपने आसमां पे टांकना चाहती थी... फिर सारी रात छत पे लेटे हुए अपने
दोस्त से बातें करना चाहती थी... उसके पास अनगिनत बातों का खज़ाना था...
कभी न ख़त्म होने वाला... वो सारा खज़ाना अपने दोस्त को सौंप देना चाहती
थी... दोस्त से बातें करते रात की तारीकी को तोड़ती भोर की पहली किरण को गले
लगाना चाहती थी... फिर सारे जुगनुओं को विदा कर के सोना चाहती थी दोस्त का
हाथ थामे... नीले आस्मां की ओढ़नी ओढ़े...
वो जंगल से गाँव तक आती पगडण्डी के किनारे खिले जंगली फूलों से उनका नाम पूछना चाहती थी... हवा के झोंको से डोलता उन फूलों का मोहल्ला उसे बहुत आकर्षित करता था... कैसे बिना माली के भी वो हमेशा मुस्कुराते हुए ही मिलते थे... क्या जाने कौन रात में आ कर उन्हें प्यार से सहला जाता था... उनकी जड़ों को सींच जाता था.. उसे तो कभी कोई नज़र नहीं आया उस गाँव में... ज़रूर कोई दूर देस का फ़रिश्ता होगा.. आधी रात आस्मां से उतरता होगा...
वो अलसुबह घास पर बिखरी ओस की बूँदे इकट्ठी करना चाहती थी... उसे एक छोटा सा तालाब भरना था उन बूंदों से... सुनहली मछलियों के रहने के लिए... उसे ओस की बूँद पीती मछलियाँ देखनी थीं... मुँह से मुँह जोड़ कर बातें करती हुयीं... उसे भी सुननी थी उनकी बात-चीत... उसका दिल होता मछलियों की भाषा सीख ले... फिर जब उसका दोस्त काम पर गया हो तो वो उन मछलियों के संग सारी दोपहर गप्पे लड़ाया करे...
वो ढेर सारे खत लिखना चाहती थी... रँग बिरंगी स्याहियों
से... इतने कि उसके जाने के बाद भी डाकिया, ता-उम्र, रोज़ाना एक खत पहुँचाता
रहे उसके दोस्त को... वो उसके लिये अपने जैसा कुछ छोड़ जाना चाहती थी...
उसे दोस्त की उदासी बिलकुल नहीं पसंद थी... वो कुछ ऐसा करना चाहती थी कि
दोस्त उसके जाने के बाद भी उसकी कमी ना महसूस करे... उसे गीली मिट्टी बहुत
पसंद थी... उसकी सौंधी सी खुश्बू ज़िंदगी का एहसास देती थी... उससे कुछ भी
गढ़ा जा सकता था... उसने अपनी कल्पना के पंखों को फैलाया और कुछ सिरजना शुरू करा...
एक मुट्ठी तुम्हारी सौम्यता
एक चुटकी तुम सा गुस्सा भी
थोड़ी सी मेरी खीझ
थोड़ी अपरिपक्वता
कुछ कतरे तुम्हारे धैर्य के
थोड़ी मुझ सी बेसब्री
चंद छींटे तुम्हारा इश्क़
कुछ बूँदे मेरा जुनून
मुस्कराहट तुम्हारी
आँखें भी तुम सी ही
चमकीली - गहरी कत्थई !
रँग दोनों का मिला जुला
गर्भ की गीली मिट्टी से
एक नयी सृष्टि गढ़ रही हूँ इन दिनों !
तुझे ही जन्म दे कर इक रोज़
मैं नया जन्म लेना चाहती हूँ
-- ऋचा
एक चुटकी तुम सा गुस्सा भी
थोड़ी सी मेरी खीझ
थोड़ी अपरिपक्वता
कुछ कतरे तुम्हारे धैर्य के
थोड़ी मुझ सी बेसब्री
चंद छींटे तुम्हारा इश्क़
कुछ बूँदे मेरा जुनून
मुस्कराहट तुम्हारी
आँखें भी तुम सी ही
चमकीली - गहरी कत्थई !
रँग दोनों का मिला जुला
गर्भ की गीली मिट्टी से
एक नयी सृष्टि गढ़ रही हूँ इन दिनों !
तुझे ही जन्म दे कर इक रोज़
मैं नया जन्म लेना चाहती हूँ
-- ऋचा
सपनीली दुनिया की खूबसूरत सैर करा दी आपने...
ReplyDeleteबड़ी सुन्नर जगह है इ तो. हमहू रहब इ जगह. हमका भी बसाय ल्यो
ReplyDeletehttps://www.youtube.com/watch?v=Kh45vZtRFN4
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