इस वीकेंड एक फिल्म देखी "दसवेदानिया - दा बेस्ट गुड बाय एवर"... यूँ तो ये फिल्म तकरीबन तीन साल पुरानी है... २००८ में रिलीज़ हुई थी... काफ़ी पसंद भी करी गई थी... और तब से ही ये फिल्म हमारी "थिंग्स टू डू" लिस्ट में पड़ी हुई थी... तो आख़िरकार देख ही डाली... अब हमारे जैसे आलसी ने तीन साल बाद भी इसे याद रखा और देख लिया ये भी क्या कोई कम अचीवमेंट है :) ख़ैर.. अपने अचीवमेंट्स का बखान फिर कभी...
हाँ तो वापस आते हैं फिल्म पर... इस फिल्म का जो नायक है बहुत ही सीधा साधा इन्सान है, आजकल के परिपेक्ष में सही-सही बोलें तो एकदम बोरिंग, भोंदू टाइप... ना कोई यार-दोस्त ना सोशल लाइफ... सिर्फ़ अपनी बूढ़ी माँ की सेवा करता है और नौकरी करता है... अकाऊंट्स मेनेजर है और अच्छा ख़ासा कमाता है पर ज़िन्दगी जीना नहीं जानता... वही रोज़ मर्रा की ज़रूरतों में सुबह से शाम करता है बस... हाँ एक काम और करता है, रोज़ाना सुबह उठ के सबसे पहले एक थिंग्स टू डू लिस्ट बनाता है - माँ कि दवाई लानी है, गीज़र सही करवाना है, ऑफिस से लौटते हुए सब्ज़ी लानी है, सब्ज़ी में तरोई नहीं लानी है... वगैरह, वगैरह, वगैरह...
एक दिन उसे पता चलता है कि उसे स्टमक कैंसर है... और उसके पास सिर्फ़ तीन महीने की ज़िन्दगी बाक़ी है... उसे समझ ही नहीं आता कि वो क्या करे... कैसे इस सिचुएशन को फेस करे... ऐसे में उसकी मदद के लिये आती है उसकी अंतरात्मा... वो रोज़ की तरह ही एक और लिस्ट बना रहा होता है... वही दवाई, गीज़र, इलेक्ट्रीशियन, तरोई टाइप... तो उसकी अंतरात्मा उससे पूछती है क्या उसकी ज़िन्दगी में और कोई ख़्वाहिशें नहीं हैं ? उसने सारी ज़िन्दगी यही तो किया है... ज़िन्दगी बीत गई पर उसे कभी जिया ही नहीं... तो क्यूँ ना ये बाक़ी बचे तीन महीने वो वो सब करे जो वो वाकई करना चाहता है... उन सारी अधूरी ख्वाहिशों को पूरा कर के इस दुनिया से, इस ज़िन्दगी से विदा ले... और सही मायने में उसके बाद शुरू होती है उसकी ज़िन्दगी... तीन महीने की ज़िन्दगी... जो वो सच में जीता है... दिल से...
ख़ैर ये तो थी फिल्म की बात... कभी मौका मिले और आपने भी हमारी तरह ना देखी हो अब तक तो ये फिल्म ज़रूर देखिएगा... अब आते हैं मुद्दे की बात पे... ये फिल्म देख कर बहुत से विचार उमड़े मन में... सोचा सही ही तो है... भविष्य तो कोई भी देख कर नहीं आया... कल हमारे साथ क्या होने वाला है किसी को कुछ नहीं पता... तो क्या अब तक जो ज़िन्दगी हमने गुज़ारी उसे क्या वाकई जिया या सिर्फ़ बिता दी... यूँ ही... आज अगर हमारी ज़िन्दगी का आख़िर दिन हो तो क्या हम संतुष्ट हो के जायेंगे इस दुनिया से... शायद नहीं... तो क्यूँ ना जो आज हमारे पास है उसे ही दिल से जियें... क्यूँ चीज़ों को उस कल पे टालें जिसका कुछ पता ही नहीं...
एक और सवाल आया मन में.. कि अगर इस फिल्म के नायक कि तरह हमारे पास भी चंद दिन ही बचे हो ज़िन्दगी के तो वो क्या सब है जो हम करना चाहेंगे यहाँ से जाने से पहले... मतलब हमारी "थिंग्स टू डू बिफोर आई डाय" लिस्ट :) ... अब यूँ तो हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले... और ये ख़्वाहिशें गाहे-बगाहे आप सब से शेयर भी करते आये हैं हम... तो इस बार आपका टर्न... सारी ना सही, एक-आध ख़्वाहिश आप भी शेयर कर लीजिये हमारे साथ... जो आप सच में करना चाहते हैं.. दिल से...
बहुत ज़्यादा तो नहीं हैं मेरी ख़्वाहिशें...
बस इक ठंडी सी सुबह
तुम्हारे काँधे पे सर रख के
पहाड़ों के बीच उगता सूरज देखना चाहती हूँ !
तुम्हारा हाथ थाम
साहिल की चमकती रेत पर कुछ दूर तलक
पैरों के दो जोड़ी निशान छोड़ना चाहती हूँ !
हरी की पौड़ी पर
एक बार तुम्हारे साथ
संध्या आरती देखना चाहती हूँ !
झील के पानी में घुले
शफ़क के पिघले रंगों को चुन
तुम्हारी एक तस्वीर बनाना चाहती हूँ !
तितली का पीछा करते कभी
किसी गहरे घने जंगल में कुछ पल
भटक जाना चाहती हूँ... तुम्हारे साथ !
इक चाँदनी रात में
छत पर तुम्हारी आग़ोश में बैठे हुए
एक टूटते तारे को देखना चाहती हूँ !
उस टूटते तारे से तुमको माँगना चाहती हूँ
हमेशा... हर जन्म के लिये...
क्या करूँ कि मेरी ख्वाहिशों का दायरा
बहुत छोटा है
तुम्ही से शुरू होता है
तुम पर ही सिमट जाता है !
-- ऋचा
A Thousand Desires such as these... A thousand moments to set this night on fire... Reach out and you can touch them... You can touch them with your silences... You can reach them with your lust... Rivers, mountains, rain... Rain against a torrid hill-scape... A thousand desires such as these....
बहुत अच्छी पोस्ट लिखी आपने... हम भी बड़े अरसे से यह फिल्म देखना चाह रहे हैं, लेकिन संभव नहीं हो पा रहा... हमारी ख्वाहिश तो ये है कि हम अगर किसी की खुश न कर सकें तो कभी किसी को दुखी न करें। हमारी वजह से कोई भी दुखी न हो...
ReplyDeleteहैपी ब्लॉगिंग
in khwahishon se pare kuch nazar nahin aata
ReplyDeletebahut pyari post hai richa ji.....sahilon par do jodi pairon ke nishaan...aha...aha..aha...:)
ReplyDeleteऋचा जी , बेहद संवेदनशील पंक्तियाँ व्यक्त की है, एक मन को हिलोरे देने वाली भावाव्यक्ति बधाई
ReplyDeleteवाह ……………दायरे मे सिमटी ख्वाहिशें …………बहुत सुन्दर मनोभावों का चित्रण किया है।
ReplyDeleteजब यह फिल्म देखी थी तो बहुत अच्छा लगा था। हमें अपना जीवन इतने ही खुलेपन से जीना चाहिये।
ReplyDeleteKitnee pyaaree aur bhavuk karnewaalee khwahishen hain!
ReplyDeleteएक अंग्रेजी फिल्म का सुझाव दूंगा "द बकेट लिस्ट"। समान कथानक पर एक बेहतरीन फिल्म है।
ReplyDeleteमुझे कविता बहुत भायी-रोमांटिक कर गयी !
ReplyDeleteफिल्म का कथानक जाना पहचाना लगता है !
आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (28.05.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.blogspot.com/
ReplyDeleteचर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)
यार क्या क्या बिछा दिया... ये फ़िल्म एक नॉवेल पर बेस्ड है - द लास्ट लेक्चर.. और यूट्यूब पर सर्च करोगी तो रैंडी जिन्होने ये किताब लिखी थी उनका एक वीडियो भी मिल जायेगा कि कैसे उन्होने अपनी ख्वाहिशों की लिस्ट बनायी थी और उसे पूरा किया था...
ReplyDeleteएक ऎसी अवस्था भी होती है कि उसमें आप अगर ये सोंचे कि ज़िंदगी के आखिरी दिन क्या करना चाहेंगे तो कोई जवाब न मिले.. और एक ऎसी भी जब ’द मंक हू सोल्ड हिज फ़रारी’ जैसी किताब बनाने के बाद आप एक ख्वाहिशों की किताब भी बनाते हैं और धीरे धीरे उनमें से काफ़ी पूरी होती जाती है फ़िर सैचुरेशन आता जाता है... कभी कभी लगता है मंझढार में रहना ज्यादा अच्छा होता होगा.. उस वक्त आप अपना १०० प्रतिशत देते हो.. किनारों पर लग जाने के बाद कुछ किया नहीं जाता... कविता के बारे में कुछ कह नहीं पाउंगा.. आजकल बाउंसर जाती हैं :-) ये गाना मेरा फ़ेव है खासकर उस बंदे की जंगल के बियाबान से आती वो आवाज और पीछे उसकी दिशा ढूढता शुभा मुदगल का आलाप... और ये फ़िल्म न जाने क्यों हमेशा बहुत अच्छी लगती है.. जैसे मुझे बांटकर वो तीनो चरित्र बनाये गये थे... काफ़ी दिनों के बाद कमेंट करने की ये भी एक दिक्कत है.. कमेंट कम और पोस्ट ज्यादा बन जाती है.. :-)
सार्थक आलेख के साथ सुन्दर रचना!
ReplyDeleteबहुत संवेदनशील और भावपूर्ण प्रस्तुति..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कविता लिखी है ऋचा..और हाँ दसविदानिया देख ही डाली है तो एक काम करो..मोर्गन फ्रीमैन की द बकेट लिस्ट भी देख डालो..जिससे प्रभावित होकर दसविदानिया बनायी गयी..और खूबसूरत एहसास संजोये हुए है..
ReplyDeletefan...fan...fan big fan of your poem writing!!
ReplyDeleteक्या करूँ कि मेरी ख्वाहिशों का दायरा
बहुत छोटा है
तुम्ही से शुरू होता है
तुम पर ही सिमट जाता है ! baht pasand aayi...
Jai Ho mangalmay Ho
भावमय करते शब्द ।
ReplyDeleteदसविदानिया फिल्म जितनी अच्छी है आपकी पोस्ट भी उतनी ही अच्छी है और आपकी ख्वाहिशें दिल को छू देने वाली हैं अगर कोई दिल से पढ़े
ReplyDeleteHindi Shayari