[ ये लड़की यही कोई ८-१० साल पहले स्केच करी थी हमने...
एक पुरानी स्केच बुक में मिला ये स्केच तो यहाँ सहेज दिया... ]
ये जो मन है ना उलझनों का वेयर-हॉउस है... ऊपर से किसी नीली झील के जैसे शान्त दिखने वाले मन कि हर तह में ढेरों उलझनें छुपी रहती हैं... हमेशा... हर वक़्त... पढ़ाई-लिखाई, कैरियर, नौकरी, प्यार, मोहब्बत, दोस्ती से ले कर आपके घर-परिवार, शादी, समाज, सामाजिक मान्यताओं तक की... यही नहीं आपके स्वभाव, बर्ताव, लोगों के आपके प्रति नज़रिए और समय के साथ बदलते उनके और आपके रवैये तक की... समझ नहीं आता क्या सही है और क्या ग़लत... कब क्या करना चाहिये क्या नहीं... सच क्या है वो जो दिखता है या वो जो जिसपर हम यकीन करते हैं... सवाल ढेरों हैं और उलझनें अनंत...
आख़िर कितनी उलझनों को सुलझाएँ... और कब तक... एक की गिरहें किसी तरह खोलो तो दूसरी गाँठ लगा के बैठ जाती है... उफ़... तंग आ गये हैं अब तो... कभी कभी तो दिल करता है इन सारी उलझनों की पोटली बनायें और दूर कहीं छोड़ आयें किसी जंगल में... जहाँ से ये सब फिर कभी वापस ना आ सकें.. काश कि ऐसा कर पाते... मन कितना हल्का हो जाता ना... ये जानवर कितने अच्छे होते हैं... किसी तरह कि कोई उलझन नहीं... जब जी चाहा खाया... जहाँ जी चाहा सोये... जिसके साथ दिल किया जंगल में दौड़ लगा ली...
ये ज़िन्दगी कभी कभी कितनी ठहरी हुई लगती है ना... फिर भी साँसें चलती रहती हैं... वक़्त भी कहाँ रुकता है... वो तो बहता रहता है अपनी ही रौ में और हम कहीं पीछे, बहुत पीछे छूट जाते हैं... अपनी उलझनों के साथ... अकेले...
कभी किसी छोटे बच्चे के हाथ से अपनी उंगली छुड़ाई है आपने ? कैसे अपनी नन्हीं नन्हीं आँखों में उम्मीद के बड़े बड़े आँसू भरे आपको दूर तलक जाते हुए देखता है... आपको पता होता है ये आप सही नहीं कर रहे... आप ख़ुश भी नहीं होते... फिर भी आप चलते रहते हैं... एक टीस सी उठती है दिल में और आप खुद को किसी गुनहगार से कम नहीं समझते.. कैसे इतने कठोर हो पाते हैं आप उस पल कि उस छोटे से बच्चे के आँसू भी आपको रोक नहीं पाते... इतने कठोर ? बिल्कुल पत्थर के जैसे... एकदम खुदगर्ज़... ऐसे तो नहीं हैं ना आप... फिर कैसे और क्यूँ आप ऐसे बन जाते हैं... वो भी एक रोते हुए बच्चे के सामने...
इन उलझनों में कितना वेग होता है... बिलकुल किसी भंवर कि तरह... एक बार इसमें फंस गये तो निकलने का कोई रास्ता नहीं... कुछ ऐसी ही तो होती हैं यादें भी... ना समय देखती हैं, ना जगह, ना माहौल... बस वक़्त बे-वक़्त आपको आ के घेर लेती हैं... कितना मुश्किल हो जाता है उनसे उंगली छुड़ा के आगे बढ़ना... ना चाहते हुए भी सब भूल जाना... या कम से कम भूलने का नाटक करना... कितना दर्द होता है... वैसी ही टीस उठती है... और आप एक बार फिर गुनहगार जैसा महसूस करते हैं... ख़ुद को और ज़माने को धोखा देते हुए...
आख़िर कितनी उलझनों को सुलझाएँ... और कब तक... एक की गिरहें किसी तरह खोलो तो दूसरी गाँठ लगा के बैठ जाती है... उफ़... तंग आ गये हैं अब तो... कभी कभी तो दिल करता है इन सारी उलझनों की पोटली बनायें और दूर कहीं छोड़ आयें किसी जंगल में... जहाँ से ये सब फिर कभी वापस ना आ सकें.. काश कि ऐसा कर पाते... मन कितना हल्का हो जाता ना... ये जानवर कितने अच्छे होते हैं... किसी तरह कि कोई उलझन नहीं... जब जी चाहा खाया... जहाँ जी चाहा सोये... जिसके साथ दिल किया जंगल में दौड़ लगा ली...
ये ज़िन्दगी कभी कभी कितनी ठहरी हुई लगती है ना... फिर भी साँसें चलती रहती हैं... वक़्त भी कहाँ रुकता है... वो तो बहता रहता है अपनी ही रौ में और हम कहीं पीछे, बहुत पीछे छूट जाते हैं... अपनी उलझनों के साथ... अकेले...
कभी किसी छोटे बच्चे के हाथ से अपनी उंगली छुड़ाई है आपने ? कैसे अपनी नन्हीं नन्हीं आँखों में उम्मीद के बड़े बड़े आँसू भरे आपको दूर तलक जाते हुए देखता है... आपको पता होता है ये आप सही नहीं कर रहे... आप ख़ुश भी नहीं होते... फिर भी आप चलते रहते हैं... एक टीस सी उठती है दिल में और आप खुद को किसी गुनहगार से कम नहीं समझते.. कैसे इतने कठोर हो पाते हैं आप उस पल कि उस छोटे से बच्चे के आँसू भी आपको रोक नहीं पाते... इतने कठोर ? बिल्कुल पत्थर के जैसे... एकदम खुदगर्ज़... ऐसे तो नहीं हैं ना आप... फिर कैसे और क्यूँ आप ऐसे बन जाते हैं... वो भी एक रोते हुए बच्चे के सामने...
इन उलझनों में कितना वेग होता है... बिलकुल किसी भंवर कि तरह... एक बार इसमें फंस गये तो निकलने का कोई रास्ता नहीं... कुछ ऐसी ही तो होती हैं यादें भी... ना समय देखती हैं, ना जगह, ना माहौल... बस वक़्त बे-वक़्त आपको आ के घेर लेती हैं... कितना मुश्किल हो जाता है उनसे उंगली छुड़ा के आगे बढ़ना... ना चाहते हुए भी सब भूल जाना... या कम से कम भूलने का नाटक करना... कितना दर्द होता है... वैसी ही टीस उठती है... और आप एक बार फिर गुनहगार जैसा महसूस करते हैं... ख़ुद को और ज़माने को धोखा देते हुए...
बादलों कि ओट में चाँद छुपा क्यूँ
हौले से वो लेता अंगड़ाइयां है क्यूँ
मुखड़े पे लिखी-लिखी है उलझन
जानता है आसमां वो तन्हां है क्यूँ
खिले-खिले चेहरे हैं सूने से नयन
द्वार पे रंगोली है ख़ाली-ख़ाली मन
चलना अकेले है जो सबको यहाँ
चलें साथ-साथ परछाइयाँ भी क्यूँ
चूरा-चूरा है अँधेरा हवा सन-नन
हाथ-हाथ ढूंढें हाथ, हाथ कि छुअन
दूर-दूर दिल और पास है भरम
हँसते-हँसते लगता है क्यूँ हँसे थे हम
जी में आता है रो-रो सुजा लें आँखें हम
रेत के वो पाँव जाने कहाँ खो गये
रूठी-रूठी हुई पुरवाइयाँ हैं क्यूँ
बादलों कि ओट में चाँद छुपा क्यूँ...
-- आसरिफ़ दहलवी
Thanks priya for introducing me to this beautiful song !!
ReplyDeleteहर मनोभाव को बखूबी पेश करती है आपकी लेखनी... साथ आपकी पेंसिल की कला (स्केच) भी कुछ कम नहीं, यह भी इस पोस्ट के जरिए पता चला...
ReplyDeleteहैपी ब्लॉगिंग
गज़ब का गीत, स्वर तो जबरन आनन्द में डुबो गये।
ReplyDeleteस्केच अपने आप में बहुत कुछ कह गया।
ReplyDeleteजिंदगी में हर तरह के रंग आते हैं, और आपने भी बहुत सारे रंगों का संयोजन अच्छॆ से किया है।
:)
ReplyDeletewhat more can one say to this.....is man ko suljhaane baithe to saal ke teen sau painsath din ulajh ke reh gaye....hamne suljhaana hi chhod diya
बेहतरीन ।
ReplyDeleteमेरी शान में बहुत कम कहा.....अच्छी तरह हमारी पब्लिसिटी करनी चाहिए ना...कल माइक लेकर पूरे लखनऊ शहर को बता देना :-)
ReplyDeleteहद करती हो यार ....ये भी कोई बताने जैसी बात है वो भी ब्लॉग पर ....खैर....ये मनः स्थिति तो मेरी ही है ....कंफ्यूजन में भी जिंदगी बीतेगी क्या ;-(