Thursday, May 26, 2011

.... कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले !


इस वीकेंड एक फिल्म देखी "दसवेदानिया - दा बेस्ट गुड बाय एवर"... यूँ तो ये फिल्म तकरीबन तीन साल पुरानी है... २००८ में रिलीज़ हुई थी... काफ़ी पसंद भी करी गई थी... और तब से ही ये फिल्म हमारी "थिंग्स टू डू" लिस्ट में पड़ी हुई थी... तो आख़िरकार देख ही डाली... अब हमारे जैसे आलसी ने तीन साल बाद भी इसे याद रखा और देख लिया ये भी क्या कोई कम अचीवमेंट है :) ख़ैर.. अपने अचीवमेंट्स का बखान फिर कभी...

हाँ तो वापस आते हैं फिल्म पर... इस फिल्म का जो नायक है बहुत ही सीधा साधा इन्सान है, आजकल के परिपेक्ष में सही-सही बोलें तो एकदम बोरिंग, भोंदू टाइप... ना कोई यार-दोस्त ना सोशल लाइफ... सिर्फ़ अपनी बूढ़ी माँ की सेवा करता है और नौकरी करता है... अकाऊंट्स मेनेजर है और अच्छा ख़ासा कमाता है पर ज़िन्दगी जीना नहीं जानता... वही रोज़ मर्रा की ज़रूरतों में सुबह से शाम करता है बस... हाँ एक काम और करता है, रोज़ाना सुबह उठ के सबसे पहले एक थिंग्स टू डू लिस्ट बनाता है - माँ कि दवाई लानी है, गीज़र सही करवाना है, ऑफिस से लौटते हुए सब्ज़ी लानी है, सब्ज़ी में तरोई नहीं लानी है... वगैरह, वगैरह, वगैरह...

एक दिन उसे पता चलता है कि उसे स्टमक कैंसर है... और उसके पास सिर्फ़ तीन महीने की ज़िन्दगी बाक़ी है... उसे समझ ही नहीं आता कि वो क्या करे... कैसे इस सिचुएशन को फेस करे... ऐसे में उसकी मदद के लिये आती है उसकी अंतरात्मा... वो रोज़ की तरह ही एक और लिस्ट बना रहा होता है... वही दवाई, गीज़र, इलेक्ट्रीशियन, तरोई टाइप... तो उसकी अंतरात्मा उससे पूछती है क्या उसकी ज़िन्दगी में और कोई ख़्वाहिशें नहीं हैं ? उसने सारी ज़िन्दगी यही तो किया है... ज़िन्दगी बीत गई पर उसे कभी जिया ही नहीं... तो क्यूँ ना ये बाक़ी बचे तीन महीने वो वो सब करे जो वो वाकई करना चाहता है... उन सारी अधूरी ख्वाहिशों को पूरा कर के इस दुनिया से, इस ज़िन्दगी से विदा ले... और सही मायने में उसके बाद शुरू होती है उसकी ज़िन्दगी... तीन महीने की ज़िन्दगी... जो वो सच में जीता है... दिल से...

ख़ैर ये तो थी फिल्म की बात... कभी मौका मिले और आपने भी हमारी तरह ना देखी हो अब तक तो ये फिल्म ज़रूर देखिएगा... अब आते हैं मुद्दे की बात पे... ये फिल्म देख कर बहुत से विचार उमड़े मन में... सोचा सही ही तो है... भविष्य तो कोई भी देख कर नहीं आया... कल हमारे साथ क्या होने वाला है किसी को कुछ नहीं पता... तो क्या अब तक जो ज़िन्दगी हमने गुज़ारी उसे क्या वाकई जिया या सिर्फ़ बिता दी... यूँ ही... आज अगर हमारी ज़िन्दगी का आख़िर दिन हो तो क्या हम संतुष्ट हो के जायेंगे इस दुनिया से... शायद नहीं... तो क्यूँ ना जो आज हमारे पास है उसे ही दिल से जियें... क्यूँ चीज़ों को उस कल पे टालें जिसका कुछ पता ही नहीं...

एक और सवाल आया मन में.. कि अगर इस फिल्म के नायक कि तरह हमारे पास भी चंद दिन ही बचे हो ज़िन्दगी के तो वो क्या सब है जो हम करना चाहेंगे यहाँ से जाने से पहले... मतलब हमारी "थिंग्स टू डू बिफोर आई डाय" लिस्ट :) ... अब यूँ तो हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले... और ये ख़्वाहिशें गाहे-बगाहे आप सब से शेयर भी करते आये हैं हम... तो इस बार आपका टर्न... सारी ना सही, एक-आध ख़्वाहिश आप भी शेयर कर लीजिये हमारे साथ... जो आप सच में करना चाहते हैं.. दिल से...


बहुत ज़्यादा तो नहीं हैं मेरी ख़्वाहिशें...

बस इक ठंडी सी सुबह
तुम्हारे काँधे पे सर रख के
पहाड़ों के बीच उगता सूरज देखना चाहती हूँ !

तुम्हारा हाथ थाम
साहिल की चमकती रेत पर कुछ दूर तलक
पैरों के दो जोड़ी निशान छोड़ना चाहती हूँ !

हरी की पौड़ी पर
एक बार तुम्हारे साथ
संध्या आरती देखना चाहती हूँ !

झील के पानी में घुले
शफ़क के पिघले रंगों को चुन
तुम्हारी एक तस्वीर बनाना चाहती हूँ !

तितली का पीछा करते कभी
किसी गहरे घने जंगल में कुछ पल
भटक जाना चाहती हूँ... तुम्हारे साथ !

इक चाँदनी रात में
छत पर तुम्हारी आग़ोश में बैठे हुए
एक टूटते तारे को देखना चाहती हूँ !

उस टूटते तारे से तुमको माँगना चाहती हूँ
हमेशा... हर जन्म के लिये...

क्या करूँ कि मेरी ख्वाहिशों का दायरा
बहुत छोटा है
तुम्ही से शुरू होता है
तुम पर ही सिमट जाता है !

-- ऋचा



A Thousand Desires such as these... A thousand moments to set this night on fire... Reach out and you can touch them... You can touch them with your silences... You can reach them with your lust... Rivers, mountains, rain... Rain against a torrid hill-scape... A thousand desires such as these....

Saturday, May 14, 2011

चलना अकेले है जो सबको यहाँ, चलें साथ-साथ परछाइयाँ भी क्यूँ...


[ ये लड़की यही कोई ८-१० साल पहले स्केच करी थी हमने...
एक पुरानी स्केच बुक में मिला ये स्केच तो यहाँ सहेज दिया... ]


ये जो मन है ना उलझनों का वेयर-हॉउस है... ऊपर से किसी नीली झील के जैसे शान्त दिखने वाले मन कि हर तह में ढेरों उलझनें छुपी रहती हैं... हमेशा... हर वक़्त... पढ़ाई-लिखाई, कैरियर, नौकरी, प्यार, मोहब्बत, दोस्ती से ले कर आपके घर-परिवार, शादी, समाज, सामाजिक मान्यताओं तक की... यही नहीं आपके स्वभाव, बर्ताव, लोगों के आपके प्रति नज़रिए और समय के साथ बदलते उनके और आपके रवैये तक की... समझ नहीं आता क्या सही है और क्या ग़लत... कब क्या करना चाहिये क्या नहीं... सच क्या है वो जो दिखता है या वो जो जिसपर हम यकीन करते हैं... सवाल ढेरों हैं और उलझनें अनंत...

आख़िर कितनी उलझनों को सुलझाएँ... और कब तक... एक की गिरहें किसी तरह खोलो तो दूसरी गाँठ लगा के बैठ जाती है... उफ़... तंग आ गये हैं अब तो... कभी कभी तो दिल करता है इन सारी उलझनों की पोटली बनायें और दूर कहीं छोड़ आयें किसी जंगल में... जहाँ से ये सब फिर कभी वापस ना आ सकें.. काश कि ऐसा कर पाते... मन कितना हल्का हो जाता ना... ये जानवर कितने अच्छे होते हैं... किसी तरह कि कोई उलझन नहीं... जब जी चाहा खाया... जहाँ जी चाहा सोये... जिसके साथ दिल किया जंगल में दौड़ लगा ली...

ये ज़िन्दगी कभी कभी कितनी ठहरी हुई लगती है ना... फिर भी साँसें चलती रहती हैं... वक़्त भी कहाँ रुकता है... वो तो बहता रहता है अपनी ही रौ में और हम कहीं पीछे, बहुत पीछे छूट जाते हैं... अपनी उलझनों के साथ... अकेले...

कभी किसी छोटे बच्चे के हाथ से अपनी उंगली छुड़ाई है आपने ? कैसे अपनी नन्हीं नन्हीं आँखों में उम्मीद के बड़े बड़े आँसू भरे आपको दूर तलक जाते हुए देखता है... आपको पता होता है ये आप सही नहीं कर रहे... आप ख़ुश भी नहीं होते... फिर भी आप चलते रहते हैं... एक टीस सी उठती है दिल में और आप खुद को किसी गुनहगार से कम नहीं समझते.. कैसे इतने कठोर हो पाते हैं आप उस पल कि उस छोटे से बच्चे के आँसू भी आपको रोक नहीं पाते... इतने कठोर ? बिल्कुल पत्थर के जैसे... एकदम खुदगर्ज़... ऐसे तो नहीं हैं ना आप... फिर कैसे और क्यूँ आप ऐसे बन जाते हैं... वो भी एक रोते हुए बच्चे के सामने...

इन उलझनों में कितना वेग होता है... बिलकुल किसी भंवर कि तरह... एक बार इसमें फंस गये तो निकलने का कोई रास्ता नहीं... कुछ ऐसी ही तो होती हैं यादें भी... ना समय देखती हैं, ना जगह, ना माहौल... बस वक़्त बे-वक़्त आपको आ के घेर लेती हैं... कितना मुश्किल हो जाता है उनसे उंगली छुड़ा के आगे बढ़ना... ना चाहते हुए भी सब भूल जाना... या कम से कम भूलने का नाटक करना... कितना दर्द होता है... वैसी ही टीस उठती है... और आप एक बार फिर गुनहगार जैसा महसूस करते हैं... ख़ुद को और ज़माने को धोखा देते हुए...


बादलों कि ओट में चाँद छुपा क्यूँ
हौले से वो लेता अंगड़ाइयां है क्यूँ
मुखड़े पे लिखी-लिखी है उलझन
जानता है आसमां वो तन्हां है क्यूँ

खिले-खिले चेहरे हैं सूने से नयन
द्वार पे रंगोली है ख़ाली-ख़ाली मन
चलना अकेले है जो सबको यहाँ
चलें साथ-साथ परछाइयाँ भी क्यूँ

चूरा-चूरा है अँधेरा हवा सन-नन
हाथ-हाथ ढूंढें हाथ, हाथ कि छुअन
दूर-दूर दिल और पास है भरम
हँसते-हँसते लगता है क्यूँ हँसे थे हम
जी में आता है रो-रो सुजा लें आँखें हम
रेत के वो पाँव जाने कहाँ खो गये
रूठी-रूठी हुई पुरवाइयाँ हैं क्यूँ

बादलों कि ओट में चाँद छुपा क्यूँ...

-- आसरिफ़ दहलवी




Monday, May 2, 2011

Love just happens... No conditions applied !



अन्कन्डिशनल लव - बेशर्त प्यार... आज तक प्यार के बारे में जितना कुछ सुना, समझा, पढ़ा उससे हमेशा यही जाना कि प्यार में शर्तें नहीं होती और बिना किसी शर्त का प्यार ही सच्चा प्यार है, "ट्रू लव" ... क़िस्से, कहानियों और परीकथाओं जैसा... वो प्यार जो आजकल की दुनिया में मिलना नामुमकिन सी बात लगती है... पर असल में देखिये तो क्या प्यार वाकई ऐसा होता है ?

अच्छा एक बात बताइये... क्या हम इस बात का अनुमान पहले से लगा सकते हैं कि हमें प्यार होने वाला है ? क्या प्यार करने से पहले हम ये शर्त रख पाते हैं कि हमें कब, किससे, कहाँ और कैसे प्यार होगा ? क्या हम प्यार के होने ना होने को काबू में कर पायें हैं कभी ? नहीं ना ?

प्यार तो बस हो जाता है... बिना हमारे कुछ करे.. बिना हमारे कुछ सोचे...

तो फिर प्यार में ये शर्तें आती कब हैं ? और क्या वाकई ये शर्तें होती हैं... शायद नहीं... ये तो बस छोटी छोटी अपेक्षाएं होती हैं... उस इन्सान से जिसे हम दिल कि गहराइयों से प्यार करते हैं... आख़िर हम उनसे क्या चाहते हैं... कोई बड़ा ख़ज़ाना तो नहीं मांगते कभी... बस छोटी छोटी चंद अपेक्षाएं, इच्छाएं होती हैं उनसे और वो ही पूरी हो जाएँ तो हमें किसी बड़े ख़ज़ाने मिलने जैसी ख़ुशी दे जाती हैं... हम बस इतना ही तो चाहते हैं ना कि अगर हम उन्हें फ़ोन करें तो बदले में वो भी हमें कभी कॉल कर लें... हम उन्हें दस चिट्ठियाँ लिखें तो कम से कम वो भी एक चिट्ठी लिख दे हमें... हम उनका ख़्याल रखते हैं तो वो भी हमारा ख़्याल रखें... हम उनकी परवाह करते हैं और बदले में यही उम्मीद ख़ुद के लिये भी रखते हैं... हम प्यार देते हैं और चाहते हैं कि हमें भी वो प्यार मिले... तो इसमें ग़लत क्या है ?

झूठ बोलते हैं वो लोग जो कहते हैं उन्हें किसी से कोई अपेक्षा नहीं... या उन्होंने उम्मीदें रखना छोड़ दिया है... ये तो इन्सानी फ़ितरत है... हमारे स्वभाव का हिस्सा है... ये भला कैसे बदल सकता है... हम जैसा महसूस करते हैं उसे झुठला तो नहीं सकते... ना ही अपनी संवेदनाओं को दबा सकते हैं... हम किसी से प्यार पाना तो चाह सकते हैं पर प्यार ना पाना भला कैसे चाह सकते हैं...

अन्कन्डिशनल लव का मतलब ये नहीं होता कि हम जिसे प्यार करें उससे बदले में प्यार ना चाहें या जिसका ख़्याल रखें, परवाह करें, जिसकी कद्र करें उससे बदले में उस सब की उम्मीद ना रखें... क्यूँकि ऐसा करना हमारे बस में नहीं है... अन्कन्डिशनल लव बिना शर्तों का प्यार नहीं होता, क्यूँकि हम कोई भगवान नहीं हैं, हम सब आम इन्सान हैं और हम अपनी भावनाओं और उम्मीदों को नियंत्रित नहीं सकते... उम्मीद कि लौ तो हम तब भी जलाए रखते हैं, हम तब भी ये चाहते हैं कि सब ठीक हो जाये जब हमें ये पता होता है कि वास्तव में कुछ भी ठीक होने वाला नहीं है...

अन्कन्डिशनल लव का मतलब दरअसल ये तमाम उम्मीद और अपेक्षाएं रखने के बावजूद उनके साथ समझौता करना होता है, उनके साथ सामंजस्य बनाना होता है... उस इन्सान के लिये... जिसे हम प्यार करते हैं...

अन्कन्डिशनल लव अपेक्षाएं रखने के साथ साथ ये स्वीकार करना भी होता है कि ज़रूरी नहीं वो सारी अपेक्षाएं पूरी हों... पूरी होती हैं तो उससे अच्छा कुछ भी नहीं पर अगर पूरी नहीं होतीं तो भी बुरा मत मानिये... क्यूँकि अंत में हमारे लिये इन अपेक्षाओं के पूरा होने से ज़्यादा उस इन्सान से प्यार करना मायने रखता है... और अगर आप किस्मतवाले हैं तो आपको भी बदले में वो प्यार ज़रूर मिलता है...

शायद उस तरह से नहीं जिस तरह से आप चाहते थे पर हाँ जिस भी तरह से वो इन्सान आपको प्यार दे सकता है, पूरे दिल से...

और फिर आप प्यार करते हैं - सिर्फ़ प्यार - बिना शर्तों का - अन्कन्डिशनल लव !

[ ऐसा ही एक आर्टिकल हाल ही में एक इंग्लिश मैग्ज़ीन में पढ़ा था... उसे ही अपने शब्दों में पेश करने कि एक छोटी सी कोशिश है बस... ]

मैं
दिये की लौ सी जलती रहूँगी
निरंतर
तुम्हारे लिये

बिना किसी चाह
अपने प्यार से सदा
रौशन करती रहूँगी
ज़िन्दगी तुम्हारी

तुम बस इतना करना
जब मद्धम पड़ने लगे कभी
रौशनी मेरी
या बुझने लगूँ मैं

तो थाम लेना मेरी लौ हाथों के घेरे से
और अपने प्यार का घी डाल देना
थोड़ा सा
और मैं फिर जल उठूँगी

एक बार फिर रौशन करने
ज़िन्दगी तुम्हारी
और जलती रहूँगी
निरंतर
यूँ ही
तुम्हारे लिये...

-- ऋचा




जाने क्यूँ आज ये गाना बड़ी शिद्दत के साथ याद आ रहा है... सोचा आप लोगों को भी सुनवा दूँ... कैनेडियन सिंगर शनाया ट्वेन का गाया हुआ - "यू आर स्टिल द वन"...


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