Friday, December 31, 2010

मुश्किल है जीना उम्मीद के बिना...


मुश्किल है जीना उम्मीद के बिना
थोड़े से सपने सजायें
थोड़ा सा रूमानी हो जाएँ...

2010 की आख़िरी शाम बैठ के बीते साल पे नज़र दौडाती हूँ... सोचती हूँ... कितना कुछ बीता, कितना कुछ बदला इस बीते साल में... हमारे आस पास... हमारे साथ... हमारे अपनों के साथ... कुछ नये दोस्त मिले, कुछ बिछड़े... कुछ नाम के रिश्ते टूटे... कुछ बेनाम रिश्ते जिये... बहुत कुछ बदला... वक़्त बदला... हालात बदले... ख़ुशी और प्यार का पैमाना भी... हाँ, कुछ हादसों और कुछ हौसलों के बीच कुछ नहीं बदला तो वो है "उम्मीद"... उम्मीद, की वो इंतज़ार है जिसका वो सहर कभी तो आएगी... वो सहर जब धुएँ और धूल से दूषित इस वातावरण में भी सूरज की किरणें हम तक अपनी रश्मियों की मुलायमियत पहुँचायेंगी... जब लोग यू.वी. और अल्ट्रा रेड किरणों के डर के बिना धूप सेक सकेंगे, एक बार फिर... वो सहर जब सपने नींद से निकल कर साकार होंगे... वो सहर जब हम रिश्तों और भावनाओं की तिजारत बन्द कर देंगे... प्यार करने से पहले उसके साइड इफेक्ट्स के बारे में सोचना बन्द कर देंगे... वो सहर जब दिमाग़, दिल का रास्ता काटना छोड़ देगा... हर फैसले से पहले...

इस साल की शुरुआत कुछ रेल हादसों के साथ हुई... कुछ भारतीय छात्रों पर हमले हुए ऑस्ट्रेलिया में... आतंकवादियों ने इस बार पुणे की धरती को रंगा, चंद मासूमों के खून से... प्रतापगढ़ के मंदिर में भगदड़ मची... बहुत सी जाने गयीं... सोचती हूँ बच्चों के मन में जाने कौन सा पाप होगा जो वो इस हादसे का शिकार हुए... अजमल कसाब क्यूँ अभी तक ज़िन्दा है... ज़रूर उसने कोई पुण्य किया होगा किसी जन्म में... "धनुष" और "पृथ्वी" का परीक्षण सफ़ल हुआ... रूस के साथ न्यूक्लियर रिएक्टर डील साइन हुई... ढाबे पे काम करते बच्चों को देखती हूँ तो सोचती हूँ इसी साल तो सरकार ने नि:शुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा अधिनियम लागू करते हुए शिक्षा को बच्चों का मौलिक अधिकार बनाया था...

सोचती हूँ ये नक्सलवादी... ये माओवादी क्या इन्सान नहीं होते... उनके ख़ून का रंग कैसा होता है... दिल तो उनके सीने में भी धड़कता होगा ना... पर किसके लिये... एयर इंडिया का विमान हवाई पट्टी पे फ़िसल गया... गोया विमान ना हुआ मयक़दे से निकलता हुआ शराबी हो गया जो गली में फ़िसल गया... इन्द्रदेव इस साल कुछ ज़्यादा ही प्रसन्न रहे मुम्बई वासियों पर... दिल्ली सुना था बह जायेगी इस बार बाढ़ में, पर बच गई... अब सुना है वहाँ बर्फ़ पड़ने के आसार हैं... ये मौसम वैज्ञानिक ये क्यूँ नहीं पता लगाते इन आतंकवादियों के दिल कब पिघलेंगे... उसमें कब जज़्बातों का सैलाब आएगा...

कॉमन वेल्थ खेलों के चलते दिल्ली दुल्हन सी सजाई गई... प्री ब्राइडल पैकेज में कुछ गड़बड़ियाँ हुईं थीं पर समय रहते सब संभाल लिया गया... उदघाटन समारोह की भव्यता देखते ही बनती थी... नाज़ हुआ एक बार फिर ख़ुद के भारतीय होने पर... फिर एक तरफ़ बरखा दत्त और दूसरी तरफ़ विनायक सेन भी याद हो आते हैं... शशि थरूर जी की माने तो हम कैटल क्लास लोगों को तो जीने का ही हक़ नहीं... जो पाँच सितारा होटल के सामने से गुज़रते हुए सोचते हैं... यहाँ आयेंगे ज़रूर एक दिन... बस सोचते हैं... हम्म...

सोचना कितना बड़ा काम है अपने आप में... है ना ? आज मौसम बहुत सर्द है... महावट अपने साथ कुछ ठिठुरती हुई भीगी सी यादें भी ले आया... हाँ, मौसम से याद आया इस साल मौसम में होने वाले बदलावों पर काफ़ी बैठके हुईं, बातें हुईं, सेमिनार्स हुए... सुनने में आया की 2012 में धरती का अस्तित्व ख़त्म होने वाला है... तो सोचा अभी 2 साल हैं... जी लो जी भर के... जो कुछ नहीं कर पाये सब कर लो... क्या जाने फिर कभी किसी ग्रह पर जीवन संभव हो कि ना हो... पर ये एक साल तो ऐसे ही बीत गया.. यूँ ही... बिना कुछ किये... ख़ैर... उम्मीद अभी भी नहीं टूटी... एक साल अभी भी बाक़ी है... पूरे 365 दिन...

Wednesday, December 22, 2010

कैफ़ियत



वो साहिल की रेत में दबी
किताब सा मिला
कुछ नम, कुछ रुखा,
नम पन्नों पर
कुछ धूल सी जम आयी थी

सीलन से
कुछ वर्क ग़ल गये थे
कुछ हर्फ़ भी पिघल गये थे
कुछ सीमे हुए से किरदार मिले
उन आधे अधूरे पन्नो में
बड़े ही दिलचस्प थे
पूरा पढ़ना चाहा, पर
ठीक से पढ़ ना सकी...


अजीब कैफ़ियत है
अजीब क़िस्सा है
ना इब्तिदा है कोई
ना अंजाम तक ही पहुँचा
फिर भी पढ़ती हूँ
अक्सर उसे
उन अनसुलझे किरदारों से
अजीब शनासाई है...

-- ऋचा

Monday, December 13, 2010

मंज़िल जैसी राह...


ता-उम्र ढूँढता रहा मंज़िल मैं इश्क़ की
अंजाम ये कि गर्द-ए-सफ़र ले के आ गया

एक अंधे धावक कि तरह तमाम उम्र हम आँख बन्द किये बस दौड़ते रहते हैं... बेतहाशा... बदहवास से... उस मंज़िल तक पहुँचने के लिये जो हमें पता ही नहीं, है भी या नहीं और है तो कहाँ है... जब तक हम वहाँ पहुंचेंगे क्या वो वहीं रहेगी ? और ग़र मिल भी गई तो क्या हम सफ़ल कहलायेंगे... क्या तृप्त हो पायेंगे... शायद नहीं... क्यूँकि हम इंसान फ़ितरत से ही अतृप्त और अधीर होते हैं... कितना भी मिल जाये कम ही होता है हमारे लिये... हमारी लालसा और प्यास निरंतर बढ़ती ही रहती है...

मंज़िल तक पहुँचने की इतनी जल्दी होती है हमें... इतनी हड़बड़ी... की उस मंज़िल तक पहुँचाने वाले रास्ते की ख़ूबसूरती का लुत्फ़ ही नहीं उठाते और ना ही अपने हमसफ़र के साथ का आनंद उठाते हैं... ठीक उसी तरह अपने हर रिश्ते को अंजाम तक पहुँचाने की इतनी जल्दी होती है हमें की उसे दिल से कभी जीते ही नहीं... हम ये भूल जाते हैं कि किसी भी रिश्ते का असल सार तो उस रास्ते में घुला होता है जो हम साथ मिल के तय करते हैं... उस भावनात्मक पुल में जो एक रिश्ते के दोनों सिरों को जोड़ता है... उसे मज़बूत बनता है... उस रिश्ते को महज़ मंज़िल तक पहुँचा के मुकम्मल करने में नहीं...

ऐसा ही एक रिश्ता निभाया अमृता-इमरोज़ ने... किसी अलग ही दुनिया के बाशिंदे थे दोनों... भीड़ से अलग... अपनी धुन में मस्त... किसी मंज़िल की कोई तलाश नहीं... बस एक दूसरे के साथ को जीते और उसका आनंद लेते... कभी कोई बंदिश नहीं लगाई एक दूसरे की किसी भी बात पर... ना कभी अमृता ने इमरोज़ को रोका उन्हें चाहने से ना कभी इमरोज़ ने अमृता को रोका साहिर को चाहने से... दोनों इस बात को अच्छे से समझते थे कि आप ना तो किसी को ज़बरदस्ती प्यार करने के लिये मजबूर कर सकते हो और ना ही किसी को प्यार करने से रोक सकते हो... दोनों ने अपनी उम्र का एक लम्बा अरसा एक दूसरे के साथ बिताया... सामाजिक रस्मों रवायतों से परे... एक अनाम अपरिभाषित रिश्ता... जिसे आप प्यार, मोहब्बत, दोस्ती कुछ भी कह लीजिये... या सिर्फ़ साथ... एक दूसरे का साथ... निस्वार्थ साथ... 

सामने कई राह दिख रही थीं
मगर कोई राह ऐसी ना थी,
जिसके साथ मेरा अपना आप चल सके
सोचता कोई हो मंज़िल जैसी राह...

वह मिली तो जैसे
एक उम्मीद मिली ज़िन्दगी को
यह मिलन चल पड़ा
हम अक्सर मिलने लगे और मिलकर चलने लगे
चुपचाप कुछ कहते, कुछ सुनते
चलते-चलते कभी-कभी
एक दूसरे को देख भी लेते

एक दिन चलते हुए
उसने अपने हाथों की उँगलियाँ
मेरे हाथ की उँगलियों में मिलाकर
मेरे तरफ़ इस तरह देखा
जैसे ज़िन्दगी एक बुझारत पूछ रही हो
कि बता तेरी उँगलियाँ कौन सी हैं
मैंने उसकी तरफ़ देखा
और नज़र से ही उससे कहा...
सारी उँगलियाँ तेरी भी, सारी उँगलियाँ मेरी भी

एक तारीख़ी इमारत के
बग़ीचे में चलते हुए
मेरा हाथ पकड़कर कुछ ऐसे देखा
जैसे पूछ रही हो इस तरह मेरे साथ
तू कहाँ तक चल सकता है ?
मैंने कितनी ही देर
उसका हाथ अपने हाथ में दबाये रखा
जैसे हथेलियों के रास्ते ज़िन्दगी से कह रहा होऊं
जहाँ तक तुम सोच सको -

कितने ही बरस बीत गए इस तरह चलते हुए
एक-दूसरे का साथ देते हुए, साथ लेते हुए
इस राह पर
इस मंज़िल जैसी राह पर...

-- इमरोज़


Monday, December 6, 2010

साँझ...


सुबह की धूप सी, शाम के रूप सी, मेरी साँसों में थीं जिसकी परछाइयाँ... देख कर तुमको लगता है तुम हो वही, सोचती थीं जिसे मेरी तन्हाईयाँ... था तुम्हारा ही मुझे इंतज़ार... हाँ इंतज़ार...

Friday, December 3, 2010

क्या कहिये मियां क्या है इश्क़...


लोग बहुत पूछा करते हैं, क्या कहिये मियां क्या है इश्क़
कुछ कहते हैं सर-ए-इलाही, कुछ कहते हैं ख़ुदा है इश्क़
उल्फ़त से परहेज़ किया कर, कुल्फ़त इसमें निहायत है
यानी दर्द-ओ-रंज-ओ-ताब है, आफ़त-ए-जां है, बला है इश्क़
-- मीर तक़ी मीर


"यहाँ" फिल्म की नायिका जब आतंकवाद से ऊब कर अपनी जन्नत जैसी कश्मीर की धरती को उजड़ता हुआ देखती है और एक मासूम सा सवाल करती है अपनी दादी से "हम प्यार करना भूल गये क्या दादी ?" ... तो दिल सोचने को मजबूर हो जाता है... क्या वाकई ? हम प्यार करना भूल गये हैं ? या प्यार की परिभाषा बदल गई है ? प्यार की कोई परिभाषा होती भी है क्या ? प्यार को परिभाषित करना सम्भव है क्या ?

प्यार... अनंत काल से चला आ रहा एक गूढ़ रहस्य है शायद... मनु श्रद्धा के समय से... या उससे भी पहले से... जब इस सृष्टि का निर्माण हुआ था... या फिर दिमाग़ में हुआ कोई "केमिकल लोचा"... जैसा कि आजकल के वैज्ञानिक कहते हैं... या मीरा का समर्पण... या राधा का पागलपन... या फिर कान्हां की बाँसुरी... जिसके सुरों के जादू से मंत्रमुग्ध हो इन्सान तो क्या पशु, पक्षी तक खिंचे चले आते थे... या फिर आजकल के सन्दर्भ में लें तो "इन्फ़ैचुएशन" या सिर्फ़ "फ़िज़िकल अट्रैक्शन"...

आख़िर है क्या ये प्यार... कभी लगता है ईश्वर है... भक्ति है... शक्ति है... निष्पाप... निश्छल... निस्वार्थ... कभी लगता है ये ज़िन्दगी का सबसे ख़ूबसूरत एहसास है जिसके बिना ज़िन्दगी कितनी खोखली हो जायेगी... कभी लगता है बन्धन है और कभी लगता है इसमें डूब के ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है... ये मिलन भी है... जुदाई भी... ये ख़ुदा भी है... ख़ुदाई भी... अपरिमित और असीम... कभी राम... कभी रहीम... कभी आशा कभी विश्वास... कभी अनुराग कभी विराग... कभी ज्वर कभी भंवर तो कभी एक शान्त सरोवर...

प्यार इक दुआ है... और उस दुआ का कुबूल होना भी... प्यार एक प्यारा सा एहसास है जो आपके समस्त अस्तित्व को ख़ुशी से भर देता है... क्यूँ होता है ये तो नहीं पता, बस होता है तो होता है और जब होता है तो आपको पूर्ण होने का एहसास देता है... एक ऐसी निस्वार्थ भावना जो आपको अपने प्रिय के लिये बिना किसी स्वार्थ कुछ भी करने के लिये प्रेरित करती है... प्यार ख़ुशबू है... प्यार जादू है... प्यार ये सब है और बस प्यार है....

जाते जाते प्यार के दो रंग छोड़े जा रही हूँ आपके लिये, देखिये, सुनिये और मोहब्बत में डूब जाइये बस...





इक लफ्ज़-ए-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है


Related Posts with Thumbnails