जाने क्यूँ अनप्लांड जर्नीज़ हमेशा से बहुत अट्रैक्ट करती आयी हैं हमें... कुछ कुछ मिस्टीरियस सी... बिना किसी तय परिसीमा या दायरों के... न पता हो जाना कहाँ है... न पता कि पहुंचना कब है... न ये कि कब वापस आना है... पहले से कुछ भी नहीं पता... बस मन हुआ कहीं जाने का और चल दिए... बंजारों के जैसे... कभी कभी सोचती हूँ ऐसी लॉन्ग ड्राइव्स और जर्नीज़ क्यूँ पसंद है हमें... ख़ासकर हाइवे पे बेवजह बेमकसद की यात्रा... मंज़िल से ज़्यादा रास्ते पसंद आते हैं... खुले खुले... अंतहीन...
इन आवारा सड़कों पर बेपरवाह भटकते हुए ख़ुद के बेहद करीब महसूस होता है... जैसे अपने ही वजूद का कोई खोया हुआ हिस्सा पा लिया हो... कितने ख़ूबसूरत होते हैं ये अनजान रास्ते... कहीं भी नहीं जाती फ़िर भी आपको ख़ुद तक पहुँचाती ये आवारा सड़कें... कि इनके साथ यूँ आवारा हो जाने के लिए बड़ा जिग़र चाहिए और साथ में थोड़ा पागलपन और जुनून...
बड़ा अच्छा लगता हैं इन रास्तों का हाथ थामे बस चलते चले जाना... इनसे बातें करते... इनके साथ हँसते खिलखिलते... सड़कों के किनारे खिले बंजारे फूलों की बस्तियों से ठिठोली करते... पेड़ों की आदिम गंध में ख़ुद को डुबोते.. या कभी कभी बस यूँ ही ट्रेन या बस की खिड़की से अनंत में देखते रहना जाने किन ख्यालों में डूबे हुए...
हाइवे वाली किसी चाय की टपरी पर रुकना... कुछ पल सुस्ताते हुए कुल्हड़ वाली चाय पीना.. मिट्टी की सौंधी सी ख़ुश्बू को आत्मा तक महसूसना.. आह... Bliss... ! कोई CCD, Barista, Star Bucks अपनी प्रीमियम कॉफ़ी से आत्मा को यूँ छू के बताये तो जानू...
ख़ुद के बारे में बहुत कुछ सोचने का... ख़ुद को और बेहतर जानने समझने का मौका देती हैं ये जर्नीज़... मानो किसी खुली जगह पर जाने से दिमाग़ की कितनी गिरहें खुल जाती हैं.. हमारा मानना है हर कुछ समय के बाद ऐसी कोई यात्रा बहुत ज़रूरी हो जाती है.. just to loosen yourself..
हमारा रिश्ता भी कुछ कुछ ऐसा ही है ना जान... कभी न ख़त्म होने वाली किसी अविरल यात्रा जैसा... जो हमें अन्वाइन्ड होने का... रिलैक्स होने का मौका देता है... या फिर डिस-आर्गनाइज़्ड सी किसी अनप्लांड जर्नी जैसा... बेदायरा... बेमंज़िल... खुला खुला... अनंत... !
इन आवारा सड़कों पर बेपरवाह भटकते हुए ख़ुद के बेहद करीब महसूस होता है... जैसे अपने ही वजूद का कोई खोया हुआ हिस्सा पा लिया हो... कितने ख़ूबसूरत होते हैं ये अनजान रास्ते... कहीं भी नहीं जाती फ़िर भी आपको ख़ुद तक पहुँचाती ये आवारा सड़कें... कि इनके साथ यूँ आवारा हो जाने के लिए बड़ा जिग़र चाहिए और साथ में थोड़ा पागलपन और जुनून...
बड़ा अच्छा लगता हैं इन रास्तों का हाथ थामे बस चलते चले जाना... इनसे बातें करते... इनके साथ हँसते खिलखिलते... सड़कों के किनारे खिले बंजारे फूलों की बस्तियों से ठिठोली करते... पेड़ों की आदिम गंध में ख़ुद को डुबोते.. या कभी कभी बस यूँ ही ट्रेन या बस की खिड़की से अनंत में देखते रहना जाने किन ख्यालों में डूबे हुए...
हाइवे वाली किसी चाय की टपरी पर रुकना... कुछ पल सुस्ताते हुए कुल्हड़ वाली चाय पीना.. मिट्टी की सौंधी सी ख़ुश्बू को आत्मा तक महसूसना.. आह... Bliss... ! कोई CCD, Barista, Star Bucks अपनी प्रीमियम कॉफ़ी से आत्मा को यूँ छू के बताये तो जानू...
ख़ुद के बारे में बहुत कुछ सोचने का... ख़ुद को और बेहतर जानने समझने का मौका देती हैं ये जर्नीज़... मानो किसी खुली जगह पर जाने से दिमाग़ की कितनी गिरहें खुल जाती हैं.. हमारा मानना है हर कुछ समय के बाद ऐसी कोई यात्रा बहुत ज़रूरी हो जाती है.. just to loosen yourself..
हमारा रिश्ता भी कुछ कुछ ऐसा ही है ना जान... कभी न ख़त्म होने वाली किसी अविरल यात्रा जैसा... जो हमें अन्वाइन्ड होने का... रिलैक्स होने का मौका देता है... या फिर डिस-आर्गनाइज़्ड सी किसी अनप्लांड जर्नी जैसा... बेदायरा... बेमंज़िल... खुला खुला... अनंत... !
bahut khoob likha aapne
ReplyDeleteबेहतरीन लिखा आपने
ReplyDeleteVery nice post ...
ReplyDeleteWelcome to my blog on my new post.
Dil ko choo gaya...!!!
ReplyDeleteदिल से बधाई ।Seetamni. blogspot. in
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