27th June 2014; Kausani to Ranikhet
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सनराइज़ @ कौसानी ! |
जैसा की पिछली पोस्ट में
बताया... कौसानी का सनराइज़ बहुत ख़ूबसूरत होता है और टूरिस्ट ख़ासकर उसे ही
देखने इतनी दूर आते हैं... तो उसके लिए एक सुबह की थोड़ी सी नींद तो क़ुर्बान
करी ही जा सकती थी... पहाड़ों पर सनराइज़ थोड़ा जल्दी हो जाता है सो सुबह
साढ़े चार बजे का अलार्म लगा के सोये थे... सनराइज़ देखने का एक्साईटमेंट
इतना की अलार्म बजने से पहले ही चार बजे नींद ख़ुद-ब-ख़ुद खुल गयी... खिड़की
से झाँक के देखा तो बाहर अच्छा ख़ासा अँधेरा था... किसी तरह थोड़ा और समय
काटा लेटे लेटे... डर भी था की दोबारा आँख न लग जाये... आख़िरकार साढ़े चार
बजे बिस्तर छोड़ ही दिया.. हाथ मुंह धो कर और जैकेट पहन कर पहुँच गए होटल की
छत पर...
आमतौर पर लोग अनासक्ति आश्रम से सनराइज़ देखते हैं पर क्यूंकि हमारे
होटल की छत से ही पूरी रेंज दिखती थी सो हमारे लिए सुबह सुबह की दौड़ बज
गयी.. तो बस पौने पाँच बजे कैमरा वैमरा ले के जम गए होटल की छत पे... रात
भर बारिश हुई थी तो सुबह थोड़ी ठंडी थी... और बारिश का नुकसान ये हुआ की अभी
तक भी बादल छाये हुए थे... हिमालय की बर्फ़ीली चोटियाँ धुंध की चादर में
ढकी हुई थी... तो उन्हें देखने की उम्मीद तो खैर छोड़ ही चुके थे... फिर भी
सूरज निकलने की राह देखते हुए देर तक छत पर टहलते रहे...
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चूल्हे से
उठता धुंआ देख के बादलों का गुमां होता रहा |
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पेड़ों में छुपी सर्पीली सड़कें |
इसका फ़ायदा ये हुआ की घाटी में अलसाई आँखों को मसलती और अंगड़ाई लेती
उनींदी सी ज़िन्दगी दिखाई दे गयी... दूर कहीं किसी घर में जलते चूल्हे से
उठता धुंआ देर तलक बादलों का भ्रम दिलाता रहा... वादी में फैले सन्नाटे और
कुहासे को बींधती दूर से आते किसी ट्रक की हेडलाइट... परिंदों ने भी अपने
घोसले छोड़ दिए थे अब तलक और खुले आसमान में कसरत और कलाबाज़ियाँ लगा कर अपनी
नींद भगा रहे थे... कोहरे में ढकी वादी देख कर वो गाना सहसा याद आ गया..
आज मैं ऊपर आसमां नीचे...
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आज मैं ऊपर आसमां नीचे...! |
गाना गुनगुनाते हुए सूरज चाचू को घूरा तो उन्हें भी आखिर दया आ ही गयी
हमारे ऊपर और बहुत देर से छायी लालिमा को परे हटा कर लजाते हुए निकले एक
बादल के पीछे से... सुन्दर दृश्य था.. पर मन में तो वो पिछली बार वाली
सनराइज़ की छवि अंकित थी... दरअसल यहाँ की ख़ासियत है अपनी आखों के आगे सूरज
की किरणों को एक एक कर के हिमालय की छोटी बड़ी सभी चोटियों को रंगते हुए
देखना, ऐसा लगता है मानो कोई ब्रश ले कर आपके सामने पेंटिंग बना रहा हो और
सोने चाँदी सी जगमगाती सुनहरी सफ़ेद चोटियाँ एक एक कर उकेरता जा रहा हो
कैनवस पे... वो देखना अपने आप में एक मैजिकल एक्सपीरिएंस है... खैर इस बार
किस्मत ने साथ नहीं दिया तो न सही... अगली बार मुन्सियारी से ये देखने की
तमन्ना है... कुछ और क़रीब से...
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बादलों से झाँकता सूरज |
ख़ैर सनराइज़ देखने की रस्म पूरी हुई और एक बार फिर हम तैयार हो के करीब
साढ़े नौ बजे तक होटल से चेक आउट कर के निकल गए कौसानी की सर्पीली सड़कों
पर... सबसे पहले अनासक्ति आश्रम से शुरुआत करी... सन 1929 में गाँधी जी
अपने भारत व्यापी दौरे पर २ दिन के लिए कौसानी आये थे पर इस जगह ने ऐसा मन
मोहा की उन्होंने यहाँ क़रीब १४ दिन का समय बिताया... प्राकृतिक समानताओं की
वजह से गाँधी जी ने कौसानी को "भारत का स्विट्ज़रलैंड" कहा था... अपने १४
दिन के प्रवास के दौरान गाँधी जी ने यहाँ अपनी किताब अनासक्ति योग की
प्रस्तावना लिखी थी... जिस पर बाद में इस जगह का नाम अनासक्ति आश्रम रखा
गया... अब इसे एक छोटे से गाँधी स्मारक का रूप दिया गया है... जिसमें गाँधी
जी की बचपन से ले कर अंत समय तक की सारी फोटोग्राफ्स लगी हुई हैं... अन्दर
फ़ोटो लेना मना था सो बस सब देख कर और मन में बसा कर चल दिए अगले पड़ाव की
ओर... हाँ बाहर इस जगह के बारे में गाँधी जी के विचार लिखे हुए हैं... आप
भी पढ़ते चलिए...
दिन का दूसरा पड़ाव था कौसानी टी गार्डन... टी गार्डन के साथ साथ
वहाँ पर एक टी फैक्ट्री भी है जहाँ आप बगान से पत्ती तोड़े जाने से ले कर
चाय बनने तक का पूरा प्रोसेस देख समझ सकते हैं... और साथ ही एकदम ताज़ी
चाय भी टेस्ट कर सकते हैं और खरीद भी सकते हैं... हालांकि मुक्तेश्वर के
रस्ते में पड़ने वाला टी प्लांटेशन पहले घूम चुके थे तो ये ज़्यादा अच्छा
नहीं लगा... पर वहाँ मिलने वाली चाय अच्छी थी... सो उसे पी कर तर-ओ-ताज़ा हो
कर अगले गंतव्य के लिए निकल पड़े...
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एक चुस्की चाय |
कौसानी से करीब बीस किलोमीटर नीचे बागेश्वर रोड पर बैजनाथ मंदिर है..
जो दरअसल गोमती नदी के तट पर बसा भगवान शिव, माँ पार्वती, श्री गणेश और
सूर्य भगवान आदि को समर्पित मंदिरों का एक समूह है.. इसे कत्यूरी शासकों ने
बारहवीं शताब्दी में बनवाया था... इस मंदिर की महत्ता इसलिए भी है कि
हिन्दू पुराणों के अनुसार भगवान शिव और माँ पार्वती की शादी गोमती और गरुड़
गंगा के संगम पर हुई थी... पत्थरों को जोड़ के बना ये मंदिर देखने में बेहद
ख़ूबसूरत लगता है... पास बहती गोमती नदी में बहुत सी मछलियाँ देखी जा सकती
हैं... हालांकि रात भर हुई बारिश के कारण उस दिन नदी का पानी काफी मटमैला
था और धूप तेज़ होने की वजह से मछलियाँ कम ही दिखाई दे रही थी...
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बैजनाथ मंदिर |
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भीमशिला |
इस जगह की एक और दिलचस्प विशेषता है भीमशिला... जो असल में एक गोल चिकना सा पत्थर है कोई पचास साठ किलो का... किम्विन्दंती है की भीम ने उस
पत्थर पर अपना पाँव रख दिया था जिससे उसमें कुछ चमत्कारिक शक्तियाँ आ गयी
थीं और इस कारण कोई भी इंसान उसे अकेले नहीं उठा सकता... पर अगर नौ लोग मिल
कर अपनी तर्जनी (index finger) से उस पत्थर को उठायें नौ-नौ बोलते हुए तो
वो आसानी से उठ जाता है... हमने वो पत्थर तो देखा पर उस वक़्त वहाँ नौ लोग
मौजूद नहीं थे सो उसे आज़मां नहीं पाये... असल में ये फंडा सीधा सीधा सेन्टर
ऑफ़ ग्रेविटी की थ्योरी से जुड़ा हुआ है.. खैर लोगों को उनकी मान्यताओं के
साथ छोड़ कर हम आगे बढ़े...
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खूबसूरत सीढ़ी नुमा खेत में काम करती पहाड़ी औरतें |
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सीढ़ी नुमा खेत |
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माँ के खेतों से लौटने का इन्तेज़ार करता घर में बंद पहाड़ी बच्चा |
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रास्ते में बस एक जगह खाने के लिए ब्रेक ले कर हम सीधा रानीखेत पहुँचे
करीब शाम के चार बजे... होटल में चेक इन कर के थोड़ा सुस्ताये... रास्ते की थकन उतारी
और करीब छः बजे फ़िर निकले रानीखेत से रू-ब-रू होने ... जो दिन का सबसे
अच्छा और सुकून भरा हिस्सा होने वाला था... रानीखेत से करीब पाँच किलोमीटर
आगे हैड़ाखान बाबा का आश्रम है... चारों ओर प्राकृतिक ख़ूबसूरती में घिरा शिव
जी का मंदिर है यहाँ... इतना सुकून है इस जगह की बस मन करता है घंटों यही
बैठे रहें और बादलों को पहाड़ों के साथ अटखेलियाँ करता देखते रहें...
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हैड़ाखान बाबा आश्रम के एक विश्रामगृह की छत पर सुस्ताता कबूतर |
अगले पड़ाव पर पहुँचने की जल्दी थी सो वहाँ ज़्यादा नहीं रुके... ये अगला
पड़ाव अभी तक की ट्रिप का सबसे ख़ूबसूरत पड़ाव होने वाला था... दरअसल आश्रम के
लिए आते वक़्त रास्ते में एक जगह पाइन के पेड़ों का जंगल मिला... बिलकुल ऐसा
जैसा सिर्फ़ फिल्मों में देखते आये थे अब तक... बेइन्तेहां ख़ूबसूरत... जहाँ
तक नज़र जा रही थी सिर्फ़ पाइन के ही पेड़ छोटे बड़े... बीच में गुज़रती
सर्पीली सी सड़क...
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पाइन का खूबसूरत जंगल |
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जंगल से गुज़रती सड़क |
करीब आधा पौन घंटा कब बीत गया वहाँ पता ही नहीं चला...
वहाँ से वापस आने का मन तो बिलकुल नहीं था पर अँधेरा हो चला था सो वापस आना
पड़ा... खाना खा के वापस होटल आये तो सोनी मैक्स पर पंचम की ७५ वीं जयंती
पर स्पेशल प्रोग्राम चल रहा था... बहुत कोशिश करी उसे देखने की लेकिन नींद
की जादुई झप्पी मन पे भरी पड़ गयी... एक और ख़ूबसूरत दिन मुकम्मल हुआ...!
इतना सुकून है इस जगह की बस मन करता है घंटों यही बैठे रहें और बादलों को पहाड़ों के साथ अटखेलियाँ करता देखते रहें... wakai.. bahut achchca likha apne..
ReplyDeleteHappy Blogging
बहुत सुन्दर जगह है .... सभी चित्र सुन्दर हैं ....
ReplyDeleteएकदम गजब्बे जगह है फिर। लगाये गये फोटू भी सारे शानदार। खासकर बच्चे वाली और पाईन के जंगल वाली।
ReplyDeleteइतनी भीषण गर्मी में एक सुखद हवा का झौंका सा महसूस हुआ.... वह जाकर तो अनुभव अनूठा ही हुआ होगा!
ReplyDeleteकुँवर जी,