लम्हा लम्हा ज़िन्दगी बीतती जाती है, चंद यादों को सिरजते दिन गुज़रते जाते हैं... अच्छे बुरे, सारे पल, फ़ना होते जाते हैं... अपने पीछे मुट्ठी भर ख़ुशियाँ, ओक भर क़सक और चंद कतरे प्यास छोड़ के... साल दर साल हम यूँ ही जिये जाते हैं... कभी फ़ुर्सत में बैठ के नज़र दौड़ाओ उस गुज़रे हुए कल की तरफ़ तो लगता है... काश, ज़िन्दगी को एक रेत घड़ी की तरह उलट सकते और एक बार फिर से वो सारे बीते हुए पल जी पाते अपने हिसाब से... तो उन्हें कुछ यूँ जीते... अपनी तरह से... वो सब जो तब नहीं कर पाये थे शायद अब कर लेते... थोड़ी ख़ुशियाँ और बटोर लेते... थोड़ी ग़लतियाँ और सुधार लेते... थोड़ी सी मिठास और भर लेते रिश्तों में... ज़िन्दगी में... ये ख़्वाहिशें भी ना... कितनी अजीब होती हैं...
सच... कभी कभी मन होता है काश की एक टाइम मशीन होती जिसमें बैठ के हम समय के इस चक्र को घुमा सकते... जहाँ मर्ज़ी आ जा सकते... अपने हिसाब से... ये वक़्त हमारा ग़ुलाम होता... हमारे हिसाब से चलता... सोचिये अगर ऐसा हो जाये तो... ज़िन्दगी को एक रिवाइंड और फॉरवर्ड बटन लग जाये तो... हां, एक पॉज़ बटन भी... सोच कर ही दिल ख़ुश हो जाता है... कितने सारे पल हैं ना जो फिर से जी सकेंगे... कितने लम्हों को फ्रीज़ कर सकेंगे... अच्छा बताइए वो कौन से पल हैं जिन्हें आप दोबारा जीना चाहेंगे... जिन्हें आप बदलना चाहेंगे :) हम्म... ढेर सारे !! है ना ?
अब फिलहाल तो ऐसी कोई टाइम मशीन आयी नहीं... तो सोच के ही ख़ुश हो लेते हैं :) कभी आयी तो आजमाएंगे ज़रूर....
कभी कभी सोचती हूँ
जो दे दे मौका
इक बार ज़िन्दगी
उसे फिर से जीने का
तो ज़िन्दगी का हाथ थाम
ले जाऊँ उसे पीछे
बहुत पीछे...
उस मोड़ तक
जहाँ से तुम्हारे साथ
तय कर सकूँ ये सफ़र
और बस चलती रहूँ
तुम्हारा हाथ थामे
ज़िन्दगी की आढ़ी-तिरछी
पगडंडियों पर...
-- ऋचा