Friday, April 30, 2010

यादों का संदूक...


यादें इंसान की सबसे बड़ी जमा-पूंजी होती हैं... तमाम रूपये, पैसे... हीरे, जवाहरात...ज़मीन, जायदाद से भी ज़्यादा अनमोल... उन्हें सदा सहेज के हिफाज़त से रखना चाहिये... मन के "लॉकर" में... कई पर्तों के नीचे... कुछ अपनों के साथ बीते वो अनमोल पल जो कहने को तो बीत चुके हैं पर आपकी यादों में ठहर जातें हैं और यादों के झरोखे में झाँक कर आप कभी भी उन्हें दोबारा जी सकते हैं... महसूस कर सकते हैं... ख़ुश हो सकते हैं..

बड़ा अच्छा लगता है यादों में ठहरे उन बेशकीमती पलों को दोबारा जीना... आइये आपको एक "इंस्टंट फ़ॉर्मूला" बताते हैं उदासी दूर करने का :-)... जब भी कभी ये मन उदास हो किसी अपने के साथ बिताया कोई ख़ूबसूरत सा लम्हा निकालिये यादों की टोकरी से और बस... यादों की पगडण्डी पे चलते चलते ये उदासी कब गायब हो जायेगी और एक मीठी सी मुस्कान छोड़ जायेगी आपके होंठों पे आपको पता भी नहीं चलेगा... बड़ी कमाल की होती हैं ये यादें... बड़ा अच्छा जादू आता है इन्हें... सच... गर मेरी बात का यकीन ना हो तो कभी आज़मा के देखिएगा ये फ़ॉर्मूला...

आपका पता नहीं पर हमारे लिये तो ये यादें अनमोल हैं... हमारे परिवार, भाई, बहन, दोस्तों के साथ बीते पलों की यादें... कभी अकेले में बैठ के उनमें खो जाओ तो अकेलापन लगता ही नहीं.. लगता है अभी सब साथ ही हैं... आँखों के आगे वो सारे पल यूँ तैर जाते हैं जैसे वो सब अभी अभी हुआ हो... कानों में हँसी की खनक कुछ यूँ गूंजती है जैसे कोई बगल में ही बैठ के खिलखिला रहा हो... और कुछ पल के लिये ज़िन्दगी एक बार फिर महक उठती है उन यादों से...

अब ज़रा सोचिये आपकी यादों के इस अनमोल ख़ज़ाने में कोई सेंध लगाने की कोशिश करे तो ?? आपको गुस्सा नहीं आएगा... हमें भी आया कल रात... क्यूँ ? आप ही पढ़िये...



कल शब चाँद को रंगे हाथों पकड़ा मैंने

खिड़की के रस्ते मेरे पलंग तक आया था

और मेरे पास पड़े उस यादों के संदूक में

सेंध लगा के चुराने जा रहा था

तुम्हारी यादें

तुम्हारे साथ बीते उन सुनहरे पलों की यादें

वो तो भला हो उसकी रौशन चाँदनी का

जो कमरे में उजाला कर जगा गयी मुझे हौले से

वरना कंगाल हो गयी होती कल मैं तो...

सोचती हूँ FIR करवा दूँ...


-- ऋचा

Monday, April 26, 2010

बातें कुछ अनकही सी...


अभी हाल ही में एक मोबाइल कंपनी का विज्ञापन आया था "बात करने से ही बात बनती है"... आज बैठे बैठे यूँ ही कुछ सोच रही थी तो अचानक वो विज्ञापन याद आ गया... पर सोचा क्या हमेशा ऐसा ही होता है? ये सच है की बातचीत दो लोगों को आपस में जोड़े रखती हैं... उन्हें एक दूसरे जो जानने का, समझने का मौका देती हैं... एक दूसरे के करीब आने का ज़रिया बनती हैं... पर हमेशा ऐसा नहीं होता... कभी कभी आप आपस में खामोशियाँ भी बांटते हैं... ख़ामोशी को ख़ामोशी से बात करते सुना है कभी ? उसमे भी एक अजीब सा सुकून होता है... कभी आज़माइयेगा इसे भी...

ये बातें भी अजीब होती हैं... कभी कभी तो ये बातें बिलकुल अंतहीन हो जाती हैं... आप किसी दोस्त से बात करो और कब एक बात से दूसरी बात और दूसरी से तीसरी निकलती चली जाती है और आप घंटों बातें करते रहते हैं... वक़्त का पता ही नहीं चलता... बिना कुछ सोचे समझे किसी भी एक विषय पर बातचीत शुरू हो जाती है और बस शुरू हो जाता है कभी ना ख़त्म होने वाली बातों का सिलसिला... हँसी, ठिठोली... रूठने, मनाने... सुनने, सुनाने का सिलसिला...

फिर कितनी ही बार ऐसा भी होता है की वही दो लोग... उतनी ही अच्छी दोस्ती... उतना ही करीबी रिश्ता... वही एहसास... वही जज़्बात... पर जब मिलते हैं "हाय... हलो... कैसे हो... और बताओ" के आगे बात बढ़ती ही नहीं... बस फ़ैल जाती है इक गूंगी मौन ख़ामोशी... एक चुप... पता नहीं क्यूँ... जबकि आपके पास कितना कुछ होता है बोलने के लिये, बताने के लिये, बात करने के लिये... बस शायद मन नहीं होता कुछ भी कहने सुनने का...


ऐसा क्यूँ होता है
वही मैं, वही तुम, वही जज़्बात
मगर
ना जाने क्यूँ
कभी कभी
बातें अथाह सागर सी होती हैं
विशाल, विस्तृत
कभी ना ख़त्म होने वाली
और कभी
इतनी सीमित
मुट्ठी भर रेत जैसे
मुट्ठी खोलो और
एक ही पल में बस
फिसल के गिर जाती हैं
बेजान साहिल पर...

-- ऋचा

Friday, April 9, 2010

पहली सालगिरह !!!


पहले पन्ने के साथ शुरू हुआ ये सफ़र आज पूरे एक साल का हो गया है... कुछ खट्टे-मीठे लम्हों का, कुछ ख़ूबसूरत यादों का ये सफ़र यूँ तो अकेले ही शुरू किया था...पर रास्ते में आप सब मिले... मेरे अनजान, अजनबी दोस्त...

लम्हों का ये झरोखा जब खोला था तो दूर फ़लक पर ख़ूबसूरत लफ़्ज़ो के रूप में कई रंग तैरते दिखते थे... कभी गुलज़ार साहब का सुरमई इंद्रधनुष तो कभी निदा फ़ाज़ली साहब का तरतीब से सजाया गुलदस्ता... कई बार इन रंगों को मुट्ठी में बांधकर परोसने की कोशिश की... रंगों के इसी कारोबार ने अपनी 'मैन्युफैक्चरिंग यूनिट' डालने की हिम्मत दी और आपके स्नेह की दौलत ने इसे खूब बढ़ाया.. और अब आप सबकी हौसला अफज़ाई से यह सपना यक़ीन में तब्दील होता जा रहा है कि रंगों की यह नन्ही 'शेडबुक' स्वप्निल इंद्रधनुष की राह पा ही लेगी...

इस एक साल के सफ़र के दौरान बहुत से लोगों से परिचय हुआ ब्लॉग के माध्यम से, जिन्होंने निरंतर मुझे पढ़ा और सराहा और ये हिम्मत दी की अपने ख्यालों को.. अपने तसव्वुर को.. शब्दों का आकार दे पाऊं... इस साथ के लिये आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया... उम्मीद है ये साथ ऐसे ही बना रहेगा... आप ऐसे ही आते रहेंगे और लम्हों के इस झरोखे से झाँकते रहेंगे...



चर्रर्रर्र.. की आवाज़ के साथ जब हटी धूल
कुछ खट्टे-मीठे लम्हों का यह झरोखा खुला
एक साल पहले... आज ही के दिन...

यादों में बसे कुछ ख़ूबसूरत पलों का झरोखा
यादों की ठंडी पुरवाई बहती है उस झरोखे से

कभी हौले से मन को छू के गुदगुदा जाती है
तो कभी हाथ थाम अपने ही संग उड़ा ले जाती है

कुछ संजीदा ख़याल, कुछ अल्हड़ ख़्वाहिशें
कुछ बेबाक बातें, कुछ अनूठे ख़्वाब

ऐसा ही कुछ परोसा है अब तक
यादों की इस थाली में...

लम्हों का ये झरोखा आज एक साल का हुआ
गिरते, संभलते, घुटनों के बल, कुछ कुछ चलना सीखा है

खड़ा होने के लिये आपके सहारे की ज़रुरत है अभी
हाथ थामे रहियेगा...

-- ऋचा

Thursday, April 8, 2010

ऐ दोस्त !!


मेरे दोस्तों की पहचान इतनी मुशिकल नहीं " फ़राज़"
वो हँसना भूल जाते हैं मुझे रोता देखकर...
-- अहमद फ़राज़


इस दौड़ती भागती तेज़ रफ़्तार ज़िन्दगी को ब्रेक लगा के जब कभी कुछ फ़ुर्सत भरे, कुछ सुकून भरे पल बिताने का मन होता है तो सबसे पहले ख़याल आता है किसी दोस्त का... कोई ख़ास दोस्त... यूँ तो सभी दोस्त ख़ास होते हैं पर वो भीड़ से कुछ अलग कुछ अपना सा होता है... बेहद ख़ास... वो जिसके साथ आपको कुछ भी दिखावा करने की ज़रुरत नहीं होती... वो जो आपको आपकी तरह समझता है... आपकी खुशियों को, आपके ग़म को महसूस कर सकता है... बिलकुल आपकी तरह... आपकी हँसी की खनक सुन सकता है और आपकी मुस्कान में छुपे दर्द को भी पहचान सकता है... वो जो आपकी कामयाबियों में आपसे भी ज़्यादा ख़ुश होता है और नाकामियों में भी आपके साथ मजबूती से खड़ा रहता है... एक अडिग स्तम्भ की तरह... जिसे एहसास होता है आपकी ज़रूरतों का... वो जो सुन सकता है आपके दिल की आवाज़ को और आपकी ख़ामोशियों को भी...

यूँ तो वो दोस्त हर पल आपके पास होता है... आपके मन में... पर इस ज़िन्दगी के अपने ही कुछ नियम हैं... कुछ ज़रूरतें हैं... हर किसी की बहुत सी ज़िम्मेदारियां हैं... और हम सबको ही उनका निर्वाह करना ही पड़ता है... हम ना चाहते हुए भी कभी कभी उस एक इंसान को वो समय नहीं दे पाते जो हम देना चाहते हैं... अब ऐसे में सामने वाले को बुरा लगना लाज़मी है... पर यही वो समय है जो आपकी परीक्षा लेता है... अपनी कसौटी पे आपके धैर्य और विश्वास को परखता है... ऐसे में ज़रुरत होती है आपसी समझ से काम लेने की... अपने विश्वास को बनाए रखने की... ख़ुद को उसकी जगह रख के देखने की... और यकीन मानिये अगर वो आपका उतना ही ख़ास दोस्त है जैसा की हमने अभी बताया, तो आप उसे कभी ग़लत नहीं पायेंगे... अपनी ज़िम्मेदारियों से फ़ुर्सत पाते ही वो वापस आपके पास होगा... हँसता, मुस्कुराता... आपका ख़याल रखता...

दोस्ती और प्यार कभी एक तरफ से नहीं निभाये जा सकते... परस्पर होना पड़ता हैं... दोनों ओर से एक सा विश्वास... एक सा समर्पण... एक सी निष्ठा... जो आप सामने वाले से चाहते हैं पहले ख़ुद दे के देखिये... बदले में हमेशा ज़्यादा ही मिलेगा...

हाँ... एक चीज़ और... अच्छा बुरा जैसा भी हो... कम ज़्यादा जितना भी मिले... समय साथ बिताइए... एक दूसरे को और करीब से जानने का, समझने का मौका मिलेगा...

चलिए जी, अब हम चलते हैं... एक दोस्त की ज़रुरत सी महसूस हो रही है... आवाज़ लगाते हैं उसे... दोस्त... ओ दोस्त... कहाँ हो ? देखो तुमसे मिलने आयीं हूँ... ज़िन्दगी से कुछ पल चुरा के...


कुछ घुटन सी है आजकल

मन सीला सीला सा रहता है

साँसे कुछ छोटी सी होती जा रही हैं

एक लम्बी सी साँस लेना चाहती हूँ तुम्हारे साथ

तुम्हारा हाथ थामे उस लकड़ी की बेंच पे बैठ के

पार्क के एक कोने में खिलते सूरज से ले कर

दूसरे कोने में उगते चाँद तक...

-- ऋचा
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