Monday, September 21, 2009

किताबें

पिछले कुछ दिनों से हमारे शहर लखनऊ में राष्ट्रीय पुस्तक मेला लगा हुआ था... रोज़ अख़बार में पढ़ते थे कि हर बार कि तरह इस बार भी किताबों का बहुत ही अच्छा संग्रह है, पर व्यस्तता के कारण जा नहीं पा रहे थे ... पिछले हफ्ते भी जाने का प्रोग्राम बनाया पर किन्ही कारणों से नहीं जा पाए... पर इस शनिवार अंततः जाना हो ही गया... और सच मानिये किताबों का इतना अच्छा संग्रह कभी कभी ही देखने को मिलता है, कंप्यूटर के इस युग में... कंप्यूटर ने लोगों को किताबों से बहुत दूर कर दिया है... आज इन्टरनेट पर शायद ही कोई ऐसा विषय हो जिसके बारे में जानकारी उपलब्ध न हो... जिस भी विषय के बारे में जानकारी चाहिये किसी भी सर्च इंजन में डालिए और पलक झपकते ही हज़ारों परिणाम आपके कंप्यूटर स्क्रीन पर आ जाते हैं... है ना आसान... पर आज के इस मशीनी युग ने इंसान को भी अपने जैसा ही बना दिया है... 'सेंसिटिव' कम और 'प्रैक्टिकल' ज़्यादा... लोग किताबों से दूर होते जा रहे हैं... उन्हें लगने लगा है कि कौन घंटो किताबों में सर खपाए, जब वो ही जानकारी वो कुछ पलों में ही हासिल कर सकते हैं...पर शायद उन्हें नहीं पता कि कुछ ही पलों में, बहुत कुछ पाने की चाहत में वो क्या खो रहे हैं...
गुलज़ार साब के हाल ही में प्रकाशित संग्रह "यार जुलाहे..." में एक बहुत ही बेहतरीन नज़्म है जो उन्होंने लोगों के किताबों के प्रति बदलते नज़रिए पर लिखी है कुछ अपने ही अंदाज़ में... उम्मीद है आपको भी पसंद आएगी...

किताबे झाँकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं
जो शामें इनकी सोहबत में कटा करती थीं
अब अक्सर...
गुजर जाती है 'कंप्यूटर' के पर्दों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें...
इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
बड़ी हसरत से तकती हैं,
जो कदरें वो सुनाती थीं,
कि जिनके 'सेल' कभी मरते नहीं थे
वो कदरें अब नज़र आती नहीं घर में
जो रिश्ते वो सुनाती थीं
वह सारे उधड़े उधड़े हैं
कोई सफ़ा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ़्जों के मानी गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के सूखे ठूंठ लगते हैं वो सब अल्फ़ाज़
जिन पर अब कोई मानी नहीं उगते
बहुत सी इस्तलाहें हैं
जो मिटटी के सकोरों की तरह बिखरी पड़ी हैं
गिलासों ने उन्हें मतरुक कर डाला
ज़ुबां पर ज़ायका आता था जो सफ़्हे पलटने का
अब उंगली 'क्लिक' करने से बस इक
झपकी गुज़रती है
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, कट गया है
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे,
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बना कर
नीम-सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइन्दा भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक़्क़े
किताबें मँगाने, गिरने, उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा?
वो शायद अब नही होंगे !

-- गुलज़ार

कदरें - Norms; इस्तलाहें - Terms; मतरुक - Abandon, Reject, Obsolete;
रुक़्क़े - Notes

3 comments:

  1. मशीनी युग का इंसान 'सेंसिटिव' कम और 'प्रेक्टिकल' ज्यादा.. बहुत सही कहा आपने.. किताबें पढ़ने का वक्त अब है ही कहां.. गुलज़ार साहब की नज़्म ने आपकी खूबसूरत पोस्ट को चार चांद लगा दिए हैं.. हैपी ब्लॉगिंग

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  2. वक़्त के साथ सब कुछ बदलता है .... गुजरते वक़्त के साथ और नई तकनीक के इजाद होने के साथ किताबों से हमारा रिश्ता भी बदला ....फासले बढ़ गए ....कंप्यूटर ने जिंदगी को आसान बनाया .. पर हाँ वो जज्बाती रिश्ता किताबों से बन जाया करता था ....लगता है इन्टरनेट से बन गया है.... साहित्य के करीब तो हमको ये इन्टरनेट ही लाया है इसलिए दोनों से प्यार है ....किताबों से भी और इन्टरनेट से भी ....... गुलज़ार साब का शुक्रिया जो इन्होने गुज़रे वक़्त के बारें में बताया.......और तुम्हारा भी इसे हम तक पहुचाने के लिए

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दिल की गिरह खोल दो... चुप ना बैठो...

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