Sunday, August 18, 2013

तुम जियो हज़ारों साल... मेरे यार जुलाहे !!!


मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे !

दाँतों में ऐनक की डंडी दबाये... काली स्याही से उर्दू जुबां में जब... रेशमी हुरूफ़ों से कागज़ का आँचल रंगते हो... जानते हो किसी बूढ़े फ़रिश्ते की मानिंद लगते हो... झक सफ़ेद कुरते पायजामे और पकी हुई दाढ़ी में गोया चंद ख़राशें लिए चाँद अपनी पूरी आभा के साथ चमक रहा हो आसमान के आग़ोश में...

तुम्हारी नज़्मों की तरह तुम्हारी शख्सियत भी बड़ी रहस्यमयी सी है... तुम्हारी नज़्मों में कई परते होती हैं... बहुत से मानी... पढ़ने वाला कितना समझ पाता है ये उसकी समझ और संवेदनशीलता पर निर्भर करता है... जितनी बार पढ़ो उतनी बार नये आयाम खुल कर सामने आते हैं और लगता है हाँ एक नज़रिया ये भी तो हो सकता है... तुम्हारी शख्सियत भी कुछ वैसी ही है... आज तक तुम्हारे जितने भी इंटरव्यूज़ पढ़े या देखे हमेशा यही महसूस हुआ कि जो तुम बताते हो उससे कहीं ज़्यादा सामने वाले को खुद समझना होता है...

तुम्हें कब से जानती हूँ मालूम नहीं पर हमेशा यही लगा की बरसों से तुम्हारे लफ़्ज़ों को जीती आयी हूँ... मोगली से ले कर मेरा कुछ सामान तक... हर मूड.. उम्र के हर दौर में तुम साथ थे... उदास होती हूँ तो लगता वो सारी उदासी तुमने लफ़्ज़ों में पिरो के गीत की शक्ल दे दी है... खुश होती हूँ तो उसकी लहक भी तुम्हारे बोलों में नज़र आती है... प्यार में होती हूँ तो तुम्हारे सारे गीत बेहद अपने से लगते हैं... जैसे मैंने ही अपनी डायरी में लिखा हो इन्हें...

बचपन में कभी संडे को मोगली और पोटली बाबा की ले कर आ जाते तुम तो कभी प्यार में पड़ने पर माया मुझ में जीने लगती... हाल ही में तकरीबन तुम्हारी सारी ही फ़िल्में फिर से देखीं... उन सब में शायद इजाज़त हमारे दिल के सबसे करीब है... पूरी फ़िल्म एक बड़ी नज़्म सी लगती है... या फिर किसी खूबसूरत पेन्टिंग सरीखी... इन्सानी जज़्बातों और रिश्तों की पेचीदगी को कितनी खूबसूरती से दिखाया है तुमने...

पंचम के साथ जो सफ़र शुरू किया था तुमने वो विशाल तक जारी है... तकनीक भले बादल गयी पर रूह अभी तक ताज़तन है... आज अपने इंटरव्यूज़ तुम "Skype" पर भी देते हो... और इससे तुम्हें मिलवाने वाला और कोई नहीं ऐ. आर. रहमान हैं... जिन्होंने खुद "Skype" को तुम्हारे लैपटॉप में इंस्टाल किया और इसे चलाना सिखाया तुम्हें... वही रहमान जिन्हें तुम बाल भगवान कहते हो... उम्र के इस दौर में भी तुम्हारा दिल बच्चा है अभी तो इसका कुछ श्रेय तो विशाल, रहमान जैसे लोगों को भी जाता है... और कुछ टेनिस खेलने के तुम्हारे शौक़ को... बाकि बची कसर "समय" ने पूरी कर दी... जिसके पीछे तुम सारा दिन दौड़ते फिरते हो... पहले बोस्की के लिये किताबें लिखा करते थे और अब समय के लिये...

तुम्हारी नज्में हों या फ़िल्में... नोस्टैल्जिया से तुम्हारा लगाव साफ़ नज़र आता है... लोग शहरों में बस्ते हैं और तुमने अपने अन्दर जाने कितने शहर बसा रखे हैं... दीना हो या दिल्ली जहाँ भी रहे वहाँ का एक हिस्सा हमेशा के लिये तुम्हारे अन्दर ही बस गया... उसके गली, मोहल्ले, पेड़, सड़कें, लैम्पपोस्ट तक तुम्हारी नज़्मों में आज भी साँस लेते हैं... कैसे कर पाते हो इतना प्यार सबसे... कैसे जुड़ जाते हो ऐसी बेजान चीज़ों से और उनमें भी जान फूँक देते हो... चाँद को तो तुमने जैसे कॉपीराइट करा लिया है... आधा चाँद, पूरा चाँद, फीका चाँद, गीला चाँद, रोटी सा चाँद, इतनी उपमाएं तो खुद ब्रह्मा ने भी नहीं सोची होंगी चाँद को रचते समय...

जब तुमने समपूरण सिंह कालरा की जगह खुद को "गुलज़ार" नाम दिया तो तुम्हारे बहुत से साथी शायरों ने तुमसे कहा कि ये नाम कुछ अधूरा सा लगता है बिना किसी उपनाम के... आज इतने बरसों बात ये नाम अपने आप में सम्पूर्ण है... गुलज़ार... सिर्फ़ गुलज़ार... जैसा तुम चाहते थे... जैसे अब लोग तुम्हें चाहते हैं...

तुम्हें चाहने वाले हर उम्र, हर दौर और दुनिया के हर कोने में मौजूद हैं... गुल्ज़ारियत को पूरी शिद्दत से मानने वाले... तुम्हारी ऐसी ही एक फैन और सिडनी के एक रेडियो चैनल में काम करने वाली शैलजा चंद्रा से तुम्हारी बातचीत की रिकॉर्डिंग कल रात ही हाथ लगी... सुनते सुनते कब रात के तीन बज गये पता ही नहीं चला...

तुम्हारे जन्मदिन पर ख़ास तुम्हारे चाहने वालों के लिये यहाँ छोड़े जाती हूँ... जन्मदिन बहुत मुबाराक़ हो... लफ़्ज़ों का ताना-बाना बुनने वाले मेरे यार जुलाहे!


Thursday, August 15, 2013

प्यार जब हद से बढ़ा सारे तकल्लुफ़ मिट गये...!


प्यार जब हद से बढ़ा सारे तकल्लुफ़ मिट गये
आप से फिर तुम हुए फिर तू का उन्वां हो गये


मेहदी हसन साहब ने अपनी रेशमी आवाज़ में ये गाते हुए बेहद गहरी सोच में डाल दिया... क्या यूँ सारे तकल्लुफ़ मिट जाना सही है... क्या थोड़ा तकल्लुफ़, थोड़ी मासूमियत रिश्तों को ज़्यादा खूबसूरत नहीं बनाए रखती ?

किसी भी रिश्ते में दो लोगों कि सोच एक हो ये ज़रूरी नहीं... वो दोनों ही दो अलग व्यक्तित्व होते हैं... अलग सोच अलग शख्सियत के लोग... यही उनकी विशेषता भी होती है और उनका यूँ अलग हो कर भी साथ होना उस रिश्ते की खूबसूरती भी...

एक रिश्ते की शुरुआत में आप अपने साथी कि सारी अच्छी बुरी आदतों को अपनाते हैं... बिना किसी शिकायत... या किसी बात से शिकायत हुई भी तो या तो नज़रंदाज़ कर दिया या प्यार से समझा के चीज़ों को सुलझा लिया... इस बात को ध्यान में रखते हुए कि सामने वाले को बुरा न लगे... फिर जैसे जैसे समय बीतता है आपका रिश्ता परिपक्व होता है... आपसी समझ और नज़दीकी बढ़ती है... और उसके साथ ही वो सारे तकल्लुफ़ भी खत्म होते जाते हैं जो कभी अपने साथी की ख़ुशी के लिये तो कभी उसे "स्पेशल" फील कराने के लिये किये जाते थे...

अब जो भी कहना होता है स्पष्ट, सपाट और साफ़ शब्दों में कहा जाता है... बिना किसी लाग लपेट के... बिना इस बात की फ़िक्र किये कि सामने वाले को शायद इतनी साफ़गोई बुरी भी लग सकती है...

सच बोलने में कोई बुराई नहीं है... किसी भी रिश्ते की नीव ही सच्चाई पे ही टिकी होती है... एक रिश्ते की खूबसूरती ही इसी में है कि आप अपने साथी से कुछ भी और सब कुछ बोल सकते है... हाँ, अगर इस तरह से कहा जाये कि सामने वाले को बुरा न लगे तो क्या ही अच्छा हो...

यूँ  तो समय के साथ रिश्तों में परिपक्वता आना सही भी है और ज़रूरी भी... पर प्रश्न ये है कि किस हद तक... क्या रिश्ते परिपक्व होते हैं तो सामने वाले के लिये आपकी चाह आपकी परवाह कम हो जाती है ? नहीं न... तो फिर उसकी ख़ुशी के लिये अगर कभी उसके मन की ही कर ली जाये तो उसमें क्या हर्ज़ है... ऐसा नहीं करेंगे तो भी वो आपको छोड़ कर नहीं चला जायेगा... वो भी उतना ही समझदार है जितने कि आप... उसे आपकी नियत पर कोई शुबा नहीं है... पर उसे ज़रा सी ख़ुशी दे कर आपका भी तो कुछ नहीं घटेगा...

बात दरअसल यहाँ परिपक्वता की है ही नहीं... शायद इतनी आदत हो जाती है हमें एक दूसरे की... हमारे हक़ का दायरा इतना बढ़ जाता है कि हम सख्त होते चले जाते है... हमारा वो कोमल, सौम्य, नर्म रूप कहीं खो सा जाता है... भावनायें वही हैं अब भी... बस उनकी अभिव्यक्ति या तो कम हो जाती है या उसका तरीका बिलकुल बादल जाता है... तकल्लुफ़ और मासूमियत से एकदम परे...

रिश्तों की खूबसूरती न बचा पाये ऐसी परिपक्वता फिर किस काम की...!

P.S. : ये अभी अभी दिल और दिमाग की उथल पुथल से निकला एक निष्कर्ष मात्र है... आप हमसे असहमत होने का पूरा हक़ रखते हैं...

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