कैसी होती होगी वो हवा जो तुम्हारे देस में बहती है... कैसे होते होंगे वो लोग जो तुम्हें देख सकते होंगे.. छू सकते होंगे... तुमसे रु-ब-रु बात कर सकते होंगे... उस हवा में साँस लेते होंगे जहाँ तुम रहते हो... जानते हो न्यूज़ चैनल बदलते हुए कभी जब तुम्हारे शहर का ज़िक्र आता है तो उँगलियाँ ख़ुद-ब-ख़ुद रुक जाती हैं... जैसे उन्हें भी सुनाई देता है तुम्हारे शहर का नाम... उस भीड़ में जाने किस अनदेखे चेहरे को तलाशने लगती हैं आँखें... कोई बात भी करता है ना तुम्हारे शहर की तो दिल करता है उससे कहूँ बस ऐसे ही बोलता रहे और मैं ऐसे ही सुनती रहूँ उसे... जी भर के...
झूठ कहते हैं लोग कि दुनिया छोटी हो रही है, दूरियाँ सिमट रही हैं... दूरियाँ तो और
बढ़ गई हैं... कल हमारे बीच महज़ ७०० किलोमीटर की दूरी थी जिसे हम बस चंद
लम्हों में तय कर लिया करते थे... आज वो दूरी सुदूर बसे किसी ग्रह जैसी
लगती है... सैकड़ों प्रकाशवर्ष दूर... चाह कर भी दूरियाँ अब सिमट नहीं
पातीं... तुम तक मेरी पुकार अब नहीं पहुँच पाती... बीच में ही कहीं राह भटक
कर हमेशा के लिये खो जाती है ब्रह्माण्ड में...
हमारा मिलना ऐसा था जैसे आरती कि थाली में जलता हुआ कपूर... पवित्र...
सुगन्धित... किन्तु क्षणिक... तुम मेरे अंधेरों में रौशनी की तरह आये...
तुम्हारी उँगली थाम उम्र की एक पथरीली पगडंडी पार करी... ठीक वैसे ही जैसे
एक नन्हा सा बच्चा किसी की उँगली थाम चलना सीखता है और अपनी ज़िन्दगी का
पहला क़दम बढ़ाता है... तुमने जीने की नई वजह दी... एक लम्बे अरसे बाद
मुझे ख़ुद से मिलवाया...
जानती हूँ तुम्हारी ज़िम्मेदारियाँ अब तुम्हें आवाज़ दे रही हैं... मैं भी क्या करूँ... तुम्हारी आदत हो गयी है... तुम्हारी
उँगली थामे बिना चलना शायद वैसा ही हो जैसा उस नन्हें बच्चे का होता है...
थोड़ा डरूँगी... कुछ पल डगमगाऊँगी... शायद गिरूँ भी... पर तुम मत डरना...
थोड़ा समय लगेगा पर संभल जाऊँगी... तुम जाओ... अपनी ज़िम्मेदारियाँ पूरी
करो... उम्र के किसी पड़ाव पर गर फ़ुर्सत मिले कभी और याद आये मेरी या
मिलने का मन करे... तो चले आना... मैं यहीं मिलूँगी... यहीं, जहाँ हम पहली
बार मिले थे...
हो सके तो बस इतना करना कि भरोसा नहीं टूटने देना... विश्वास
रखना... मैं यहीं मिलूँगी... तुम्हारा इंतज़ार करते... सुनो... पहचान तो लोगे ना ?
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एक कहानी याद आ रही है... बहुत जल्दी ना हो तो सुनते जाओ.. गुलज़ार साब कि
आवाज़ में -
[ ये खेल आख़िर किसलिये ? मन नहीं ऊबता ? कई-कई बार तो खेल चुके हैं ये खेल हम
अपनी ज़िन्दगी में... खेल खेला है... खेलते रहे हैं... नतीजा फिर वही...
एक जैसा... क्या बाक़ी रहता है ? हासिल क्या होता है ? ज़िन्दगी भर एक दूसरे
के अँधेरे में गोते खाना ही इश्क़ है ना ? आख़िर किसलिये ?
एक कहानी है... सुनाऊँ ? कहानी दो प्रेमियों की... दोनों जवान, ख़ूबसूरत, अक्लमंद... एक का दूसरे से बेपनाह प्यार... कसमों में बंधे हुए कि
जन्म-जन्मान्तर में एक दूसरे का साथ निभायेंगे... मगर फिर अलग हो गये...
नौजवान फ़ौज में चला गया... गया तो लौट कर नहीं आया... लापता हो गया.. लोगों
ने कहा मर गया... मगर महबूबा अटल थी... बोली... वो लौटेगा ज़रूर...
लौटेगा... पूरे चालीस सालों तक साधना में रही... वफ़ादारी से इंतज़ार
किया... आख़िर एक रोज़ महबूब का संदेसा मिला... मैं आ गया हूँ, शिवान
वाले मंदिर में मिलो... कहने लगी, देखा.. मैंने कहाँ था ना...
दौड़ कर गई... मंदिर पहुंची... पर प्रेमी ना दिखाई दिया... एक आदमी बैठा
था... एकदम बूढ़ा... पोपला मुँह.. टांट गंजी... आँखों में मैल... बोली.. यहाँ
तो कोई नहीं... ज़रूर किसी ने शरारत की है... मायूस हो कर घर लौटी...
वहाँ मंदिर में इंतज़ार करते करते वो भी थक गया... कोई नहीं आया... चिड़िया
का बच्चा तक नहीं.. हाँ, एक बुढ़िया आयी थी... कमर से झुकी हुई.. बाल उलझे
हुए.. आँख में मोतिया-बिंध... मंदिर में झाँक कर देखा... कुछ बुड़बुड़ाई...
और अपने ही साथ बात करते हुए दूर चली गई... निराश हो गया बेचारा...
बोला... उसने इंतज़ार नहीं किया... गृहस्ती रचाकर मुझे भूल गई... संदेसा
भेजा था, फिर भी मिलने तक नहीं आयी... किसलिये ? ... आख़िर किसलिये ये खेल ? ... मन
नहीं ऊबता ? -- गुलज़ार ]