बारिशें सिर्फ़ बारिशें कहाँ होती हैं... वो अक्सर हमारी कैफ़ियत का आइना होती हैं... हम ख़ुश होते हैं तो वो भी ख़ुशी से नाचती झूमती लगती हैं... हम उदास होते हैं तो वो भी कुछ उदास सी बरसती हैं.. गोया बादल का भी दिल भर आता है कभी और फफ़क के रो पड़ता है वो छोटे बच्चों कि मानिंद... कहीं किसी ज़रूरी काम से जाना हो और बारिश रुकने का नाम ना ले तो कैसी खीज सी उठती है... दिल करता है डांट दें उसे ज़ोर से कि कोई और काम नहीं है क्या.. जाओ जा के कहीं और बरसो... और दिल ख़ुश होता है तो बरबस ही गुनगुनाने लगते हैं "फिर से आइयो बदरा बिदेसी तेरे पंखों पे मोती जड़ूँगी..."
जब हम किसी के प्रेम में होते हैं तो उसके साथ बीते हुए लम्हों की वो बे-हिसाब यादें भी बरसती हैं बारिश में... हम दोनों बाहें फैला के ख़ुशी से लिपट जाते हैं उन रिमझिम बरसती बूंदों से और वो भी प्यार से चूम के हमें गले लगा लेती हैं जैसे सिर्फ़ हमारे लिये बरस रही हों... हमें ख़ुश करने के लिये...
बरसात के इस मौसम से जाने कैसा रिश्ता है... बचपन से ही... जब काग़ज़ की कश्तियाँ तैराया करते थे घर के बाहर भर गये मटमैले बरसाती पानी में.. और दूर तलक उसे तैरते हुए जाते देखते थे... कोई डूब जाती ज़रा दूर जा के तो दिल कैसे भर आता था जैसे काग़ज़ की नहीं सच की नाव हो... "प्लीज़ भगवान जी! ये बारिश मत रोकना आज... इसे और तेज़ कर दो..." सुबह सुबह स्कूल के टाइम पर करी हुई ये मासूम इल्तिजा आज भी याद आती है... और वो "रेनी डे" की तमाम छुट्टियाँ भी, जब भगवान जी को हम बच्चों पे तरस आ जाया करता था और सारा दिन बस धमा-चौकड़ी करते और काग़ज़ की नाव तैराते बीतता था...
कॉलेज के दिनों को याद करें तो यूनीवर्सिटी की कैंटीन, चाय-पकौड़ी, दोस्त और अनगिनत गप्पें... सारा-सारा दिन... रेन कोट होते हुए भी बारिश में भीगते हुए घर आना... मम्मी का डांटना... और हमारा मुस्कुरा के बस इतना ही कहना कि अब तो भीग ही लिये...
और एक आज का समय है... ऑफिस के कमरे में बैठे हुए कब सुबह से शाम हो जाती है पता ही नहीं चलता... बारिशों का पता अब अक्सर घर लौटते वक़्त गीली सड़कों से लगता है... जाने कब बादल आते हैं और बरस के चले भी जाते हैं... शायद आवाज़ लगाते होंगे आज भी... पर ऑफिस की दीवारों को भेद के अन्दर तक नहीं पहुँचती अब उनकी आवाज़... ना ही अब खिड़कियों पे बूंदों से वो संदेसे लिख के जाती हैं कि बाहर आ जाओ मिल के भीगते हैं... उफ़... "छोटी सी कहानी से, बारिशों के पानी से, सारी वादी भर गई... ना जाने क्यूँ दिल भर गया... ना जाने क्यूँ आँख भर गई..."
बारिश के इन मुख्तलिफ़ रंगों को गुलज़ार साब के साथ-साथ और बहुत से शायरों ने बड़ी ही ख़ूबसूरती के साथ अपनी नज़्मों में क़ैद करा है... तो बरसात के इस मौसम में उछाल रही हूँ बारिश की कुछ बूँदें आपकी ओर भी... अपनी कैफियत के हिसाब से कैच कर लीजिये और हो जाइये सराबोर बारिश के इन तमाम रंगों में...
बारिश आती है तो मेरे शहर को कुछ हो जाता है
टीन की छत, तर्पाल का छज्जा, पीपल, पत्ते, पर्नाला
सब बजने लगते हैं
तंग गली में जाते-जाते,
साइकिल का पहिया पानी की कुल्लियाँ करता है
बारिश में कुछ लम्बे हो जाते हैं क़द भी लोगों के
जितने ऊपर हैं, उतने ही पैरों के नीचे पानी में
ऊपर वाला तैरता है तो नीचे वाला डूब के चलता है
खुश्क था तो रस्ते में टिक टिक छतरी टेक के चलते थे
बारिश में आकाश पे छतरी टेक के टप टप चलते हैं !
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टीन की छत, तर्पाल का छज्जा, पीपल, पत्ते, पर्नाला
सब बजने लगते हैं
तंग गली में जाते-जाते,
साइकिल का पहिया पानी की कुल्लियाँ करता है
बारिश में कुछ लम्बे हो जाते हैं क़द भी लोगों के
जितने ऊपर हैं, उतने ही पैरों के नीचे पानी में
ऊपर वाला तैरता है तो नीचे वाला डूब के चलता है
खुश्क था तो रस्ते में टिक टिक छतरी टेक के चलते थे
बारिश में आकाश पे छतरी टेक के टप टप चलते हैं !
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पानी का पेड़ है बारिश
जो पहाड़ों पे उगा करता है
शाखें बहती हैं
उमड़ती हुई बलखाती हुई
बर्फ़ के बीज गिरा करते हैं
झरने पकते हैं तो झुमकों की तरह
बोलने लगते हैं गुलिस्तानों पर
बेलें गिरती हैं छतों से...
मौसमी पेड़ है
मौसम में उगा करता है !
और शीशे चढ़ा के बारिश में
घने-घने पेड़ों से ढंकी "सेंट पॉल रोड" पर
आँखें मींच के बैठे रहो और कार की छत पर
ताल सुनो तब बारिश की !
गीले बदन कुछ हवा के झोंके
पेड़ों कि शाखों पर चलते दिखते हैं
शीशे पे फिसलते पानी की तहरीर में उँगलियाँ चलती हैं
कुछ ख़त, कुछ सतरें याद आती हैं
मॉनसून की सिम्फ़नी में !
-- गुलज़ार
गुलज़ार साब की आवाज़ में बारिश के कुछ और रंग -
इंदिरा वर्मा जी की आवाज़ में "पिछली बरसात का मौसम तो अजब था जानां.."
[ प्रिया की "स्पेशल रिक्वेस्ट" पर नज़्म के बोल जोड़ रही हूँ पोस्ट में :-) ]
पिछली बरसात का मौसम तो अजब था जानां
शाख़ दर शाख़ चमकती थी सुनहरी किरणें
भीगे सूरज से सराबोर थी तजदीद-ए-वफ़ा
और बादल से बरसती थी मोहब्बत कि घटा
रूह में रूह का एहसास हुआ करता था
पैराहन फूल कि मानिंद खिला जाता था
दिल का अरमान फिज़ाओं कि मधुर दुनिया में
ऊँचे पेड़ों कि बुलंदी से गुज़र जाता था
जाने वो किसका था एहसान सर-ए-इश्क़-ए-नियाज़
छनछनाती हुई बूंदों में छुपा था सरगम
शोर करती हुई चलती थीं हवाएँ हरदम
बर्क चमके तो बदलता था फिज़ा का नक्शा
दोनों हांथों से छुपाती थी मैं अपना चेहरा
मुझको तन्हाई में बरसात डरा देती थी
बेसबब ख़्वाब के पहलू में सुला देती थी
अबके जब आये रुपहला सा सुहाना मौसम
ख़्वाब के साथ हक़ीक़त में उतर जाना तुम
ऐसा चेहरे पे मोहब्बत का सजाना गाज़ा
बूँद बारिश कि जो ठहरे तो बने इक तारा
तन्हां तन्हां ना रहे दिल मेरा
जानां जानां...
-- इंदिरा वर्मा
[ प्रिया की "स्पेशल रिक्वेस्ट" पर नज़्म के बोल जोड़ रही हूँ पोस्ट में :-) ]
पिछली बरसात का मौसम तो अजब था जानां
शाख़ दर शाख़ चमकती थी सुनहरी किरणें
भीगे सूरज से सराबोर थी तजदीद-ए-वफ़ा
और बादल से बरसती थी मोहब्बत कि घटा
रूह में रूह का एहसास हुआ करता था
पैराहन फूल कि मानिंद खिला जाता था
दिल का अरमान फिज़ाओं कि मधुर दुनिया में
ऊँचे पेड़ों कि बुलंदी से गुज़र जाता था
जाने वो किसका था एहसान सर-ए-इश्क़-ए-नियाज़
छनछनाती हुई बूंदों में छुपा था सरगम
शोर करती हुई चलती थीं हवाएँ हरदम
बर्क चमके तो बदलता था फिज़ा का नक्शा
दोनों हांथों से छुपाती थी मैं अपना चेहरा
मुझको तन्हाई में बरसात डरा देती थी
बेसबब ख़्वाब के पहलू में सुला देती थी
अबके जब आये रुपहला सा सुहाना मौसम
ख़्वाब के साथ हक़ीक़त में उतर जाना तुम
ऐसा चेहरे पे मोहब्बत का सजाना गाज़ा
बूँद बारिश कि जो ठहरे तो बने इक तारा
तन्हां तन्हां ना रहे दिल मेरा
जानां जानां...
-- इंदिरा वर्मा
जाते जाते बारिश का एक रंग ये भी... ये बारिशें बहुत मुबारक़ हों आप सब को !