Wednesday, July 11, 2012

सूना पड़ा है तेरी आवाज़ का सिरा...



हमारे बीच मीलों लम्बी दूरी थी... हम एक दूसरे को देख नहीं सकते थे... बस सुन सकते थे... एक पुल था हमारे दरमियाँ... लफ़्जों का... जिसके एक सिरे पर तुम थे और दूसरे सिरे पर मैं... तुम्हारी आवाज़ को ही एक शक्ल दे दी थी मैंने... तुमने भी शायद वही किया हो... जब पहली बार सुना था तुम्हें... तो लगा था जैसे मेरी ही आवाज़ की परछाईं है... जैसे किसी पहाड़ी पर चढ़ कर आवाज़ लगाई हो और ख़ुद अपनी ही आवाज़ का अनुनाद सुनाई दिया हो...

हम रोज़ उस पुल पे जाते... जाने कब, बिना कुछ कहे, हमने एक वक़्त तय कर लिया था मिलने का... सूरज उगने का अब बेसब्री से इंतज़ार रहने लगा... सुबह के पहले पहर ही हम उस पुल पर जा बैठते... मैं अपने सिरे पर रहती और तुम अपने... जाने क्या तो बातें किया करते हम... दुनिया जहान की...पर उन बे-सिर-पैर की बातों में भी कितना नशा था... हमें होश ही नहीं रहता की कब सुबह से शाम हुई... लगता सूरज अभी तो उगा था... अभी डूब भी गया... हम पुल से लौट आते पर अगली सुबह फिर वापस आने के लिये...

मीलों की दूरी को उस पुल ने बेमानी कर दिया था... हमारे बीच आवाजों का सफ़र सालों यूँ ही चलता रहा... फिर एक दिन वो सफ़र थम गया... तुम नहीं आये... मैं रोज़ की तरह अपने सिरे पर बैठी सारा दिन इंतज़ार करती रही... वो दिन कितना लम्बा था... लगा जैसे सूरज भी तुम्हारे इंतज़ार में डूबना भूल गया हो... फिर हर गुज़रते दिन के साथ समय का ये चक्र गड़बड़ाता ही गया... सुबहें अब सूरज के साथ नहीं आती थीं... कभी दिन के तीसरे पहर तो कभी चौथे पहर आतीं... और कभी कभी तो जैसे सुबह आना भूल ही जाती, बस रात ही आती... तन्हा, गुमसुम...

इंतज़ार बोझिल हो चला है... बातों का वो कल-कल बहता झरना अब सूख गया है... लफ़्जों का पुल धीरे धीरे कमज़ोर पड़ने लगा है... आवाजों की शक्लें भी धुंधली हो गई हैं... मुझे कुछ नहीं दिखता... मेरी आवाज़ भी शायद अब नहीं पहुँचती तुम तक... तुम्हें सुनाई देती है? मेरी आवाज़ अब मुझ तक लौट कर नहीं आती... तुम्हारे सिरे पर कोई ब्लैक होल उग आया है क्या ?

मैं अब भी आती हूँ उस कमज़ोर हो चले पुल पर... हर रोज़... तुम्हारी आवाज़ का एक कतरा ढूंढ़ते... पुल से नीचे झाँकती हूँ तो बेहद गहरी खाई है निर्वात की... सामने देखती हूँ... तुम नहीं दिखते... हमारे बीच फिर मीलों लम्बी दूरी है...  इस धुँध के परे कोई भी आवाज़ नहीं है... मैं अब भी इंतज़ार करती हूँ... तुम आओगे क्या कभी... फिर मेरी आवाज़ का हाथ थामने ?


शब्दों का एक चक्रवात सा उठता है
हर रोज़, मेरे भीतर कहीं
बहुत कुछ जो बस कह देना चाहती हूँ
कि शान्त हो सके ये तूफ़ान

जाने पहचाने चेहरों की इस भीड़ में लेकिन
एक भी ऐसा कांधा नहीं
जो मेरी आवाज़ को सहारा दे सके
कि निकल सके बेबसी का ग़ुबार

उमस बढ़ती है अंतस की
तो शोर वाष्पित हो आँखों तक जा पहुँचता है
बहरा करती आवाज़ में गरजती है घुटन
बारिशें भी अब नमकीन हो चली हैं

आवाज़ की चुभन महसूस करी है कभी ?
या ख़ामोशी की चीख ?
भीतर ही भीतर जैसे छिल जाती हैं साँसें
कराहती साँसों की आवाज़ सुनी है ?

कभी रोते हुए किसी से इल्तेजा की है ?
कि बस चंद लम्हें ठहर जाओ मेरे पास
सुन लो मुझे दो पल
कि मैं शान्त करना चाहती हूँ ये बवंडर

कि मैं सोना चाहती हूँ आज रात
जी भर के...!

-- ऋचा

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