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Saturday, January 28, 2012

तुम आये तो..........!



तुम आये तो पीले फूलों का मौसम फिर लौटा है देखो
तुम आये तो गौरैया फिर मेरे पेड़ों पे चहकने लगी
तुम आये तो सरगम हवाओं में फिर तैरने लगी
तुम आये तो ख़ुश्बू फिर बिखर गई फिज़ाओं में
तुम आये तो नीली झील का पानी फिर से लरज़ उठा
तुम आये तो चाँदनी फिर मुस्कुरा उठी
तुम आये तो लाल रंग कुछ और सुर्ख़ हो चला
तुम आये तो बारिशें फिर हसीन लगने लगीं
तुम आये तो इन्द्रधनुष फिर सज गया फ़लक पे
तुम आये तो आँखें फिर छलक उठी ख़्वाबों से
तुम आये तो ख़ुद पर फिर यकीं हो चला है
तुम आये तो होठों को भूली हँसी फिर याद आयी
तुम आये तो एहसासों ने फिर करवट ली
तुम आये तो जी करता है नाच उठूँ फिर से
तुम आये तो फिर जीने का दिल करता है
तुम आये तो..........!

Sunday, October 9, 2011

हमने माना कि तगाफ़ुल ना करोगे लेकिन...



कैसी होती होगी वो हवा जो तुम्हारे देस में बहती है... कैसे होते होंगे वो लोग जो तुम्हें देख सकते होंगे.. छू सकते होंगे... तुमसे रु-ब-रु बात कर सकते होंगे... उस हवा में साँस लेते होंगे जहाँ तुम रहते हो... जानते हो न्यूज़ चैनल बदलते हुए कभी जब तुम्हारे शहर का ज़िक्र आता है तो उँगलियाँ ख़ुद-ब-ख़ुद रुक जाती हैं... जैसे उन्हें भी सुनाई देता है तुम्हारे शहर का नाम... उस भीड़ में जाने किस अनदेखे चेहरे को तलाशने लगती हैं आँखें... कोई बात भी करता है ना तुम्हारे शहर की तो दिल करता है उससे कहूँ बस ऐसे ही बोलता रहे और मैं ऐसे ही सुनती रहूँ उसे... जी भर के...

झूठ कहते हैं लोग कि दुनिया छोटी हो रही है, दूरियाँ सिमट रही हैं... दूरियाँ तो और बढ़ गई हैं... कल हमारे बीच महज़ ७०० किलोमीटर की दूरी थी जिसे हम बस चंद लम्हों में तय कर लिया करते थे... आज वो दूरी सुदूर बसे किसी ग्रह जैसी लगती है... सैकड़ों प्रकाशवर्ष दूर... चाह कर भी दूरियाँ अब सिमट नहीं पातीं... तुम तक मेरी पुकार अब नहीं पहुँच पाती... बीच में ही कहीं राह भटक कर हमेशा के लिये खो जाती है ब्रह्माण्ड में...

हमारा मिलना ऐसा था जैसे आरती कि थाली में जलता हुआ कपूर... पवित्र... सुगन्धित... किन्तु क्षणिक... तुम मेरे अंधेरों में रौशनी की तरह आये... तुम्हारी उँगली थाम उम्र की  एक पथरीली पगडंडी पार करी... ठीक वैसे ही जैसे एक नन्हा सा बच्चा किसी की उँगली थाम चलना सीखता है और अपनी ज़िन्दगी का पहला क़दम बढ़ाता है... तुमने जीने की नई वजह दी... एक लम्बे अरसे बाद मुझे ख़ुद से मिलवाया...

जानती हूँ तुम्हारी ज़िम्मेदारियाँ अब तुम्हें आवाज़ दे रही हैं... मैं भी क्या करूँ... तुम्हारी आदत हो गयी है... तुम्हारी उँगली थामे बिना चलना शायद वैसा ही हो जैसा उस नन्हें बच्चे का होता है... थोड़ा डरूँगी... कुछ पल डगमगाऊँगी... शायद गिरूँ भी... पर तुम मत डरना... थोड़ा समय लगेगा पर संभल जाऊँगी... तुम जाओ... अपनी ज़िम्मेदारियाँ पूरी करो... उम्र के किसी पड़ाव पर गर फ़ुर्सत मिले कभी और याद आये मेरी या मिलने का मन करे... तो चले आना... मैं यहीं मिलूँगी... यहीं, जहाँ हम पहली बार मिले थे...

हो सके तो बस इतना करना कि भरोसा नहीं टूटने देना... विश्वास रखना... मैं यहीं मिलूँगी... तुम्हारा इंतज़ार करते... सुनो... पहचान तो लोगे ना ?

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एक कहानी याद आ रही है... बहुत जल्दी ना हो तो सुनते जाओ.. गुलज़ार साब कि आवाज़ में -




[ ये खेल आख़िर किसलिये ? मन नहीं ऊबता ? कई-कई बार तो खेल चुके हैं ये खेल हम अपनी ज़िन्दगी में... खेल खेला है... खेलते रहे हैं... नतीजा फिर वही... एक जैसा... क्या बाक़ी रहता है ? हासिल क्या होता है ? ज़िन्दगी भर एक दूसरे के अँधेरे में गोते खाना ही इश्क़ है ना ? आख़िर किसलिये ?

एक कहानी है... सुनाऊँ ? कहानी दो प्रेमियों की... दोनों जवान, ख़ूबसूरत, अक्लमंद... एक का दूसरे से बेपनाह प्यार... कसमों में बंधे हुए कि जन्म-जन्मान्तर में एक दूसरे का साथ निभायेंगे... मगर फिर अलग हो गये... नौजवान फ़ौज में चला गया... गया तो लौट कर नहीं आया... लापता हो गया.. लोगों ने कहा मर गया... मगर महबूबा अटल थी... बोली... वो लौटेगा ज़रूर... लौटेगा... पूरे चालीस सालों तक साधना में रही... वफ़ादारी से इंतज़ार किया... आख़िर एक रोज़ महबूब का संदेसा मिला... मैं आ गया हूँ, शिवान वाले मंदिर में मिलो... कहने लगी, देखा.. मैंने कहाँ था ना... दौड़ कर गई... मंदिर पहुंची... पर प्रेमी ना दिखाई दिया... एक आदमी बैठा था... एकदम बूढ़ा... पोपला मुँह.. टांट गंजी... आँखों में मैल... बोली.. यहाँ तो कोई नहीं... ज़रूर किसी ने शरारत की है... मायूस हो कर घर लौटी... वहाँ मंदिर में इंतज़ार करते करते वो भी थक गया... कोई नहीं आया... चिड़िया का बच्चा तक नहीं.. हाँ, एक बुढ़िया आयी थी... कमर से झुकी हुई.. बाल उलझे हुए.. आँख में मोतिया-बिंध... मंदिर में झाँक कर देखा... कुछ बुड़बुड़ाई... और अपने ही साथ बात करते हुए दूर चली गई... निराश हो गया बेचारा... बोला... उसने इंतज़ार नहीं किया... गृहस्ती रचाकर मुझे भूल गई... संदेसा भेजा था, फिर भी मिलने तक नहीं आयी... किसलिये ? ... आख़िर किसलिये ये खेल ? ... मन नहीं ऊबता ? -- गुलज़ार ]
 

Wednesday, September 14, 2011

बड़ी मुश्किल से मगर दुनिया में दोस्त मिलते हैं...



ये कहाँ की दोस्ती है के बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारासाज़ होता कोई ग़मगुसार होता
-- मिर्ज़ा ग़ालिब

कभी कभी सोचती हूँ ग़ालिब साहब का एक अरसे पहले लिखा ये शेर आज के समय में भी कितना प्रासंगिक है... जब आप ज़िन्दगी के एक ऐसे बुरे दौर से गुज़र रहे हो कि कुछ ना सूझे, कुछ समझ ना आये... जब ग़म और ना-उम्मीदी के बादलों ने आपको घेर रखा हो... आप चाह कर भी इन हालातों से बाहर ना निकल पा रहे हों... घर वाले... बाहर वाले... सारी दुनिया के लोग सिर्फ़ और सिर्फ़ आपको उपदेश देने में लगे हों... और तो और आपके दोस्त भी आपको नसीहतें ही देने लगें तो मन झुंझला जाता है... ऐसे में दिल करता है कि कोई ऐसा दोस्त हो जो बस आपको सुन भर ले... कोई नसीहत ना दे... एक ऐसा दोस्त जिसके काँधे पर सिर टिका कर आप चुपचाप बैठे रहें... कुछ ना कहें फिर भी ख़ुद को बेहद हल्का महसूस करें... वो दोस्त जो आपकी परेशानियाँ नहीं बस थोड़ी सी ख़ामोशी बाँट ले... यकीन जानिये जिस किसी के पास ऐसे दोस्त होते हैं दुनियाँ में उनसे ज़्यादा ख़ुशनसीब और कोई नहीं होता...

दोस्ती... हमारी नज़र से देखिये तो दुनिया का सबसे ख़ूबसूरत रिश्ता... हर दुनियावी रिश्ते से बड़ा... शायद "प्यार" से भी बड़ा... जहाँ ना कोई स्वार्थ होता है, ना कोई नसीहत... दोस्त कभी जजमेंटल नहीं होते... आलोचनात्मक नहीं होते... हाँ आपका भला ज़रूर चाहते हैं, चाहते हैं कि आप हमेशा ख़ुश रहें और अगर आपमें कोई कमी है, कोई बुराई है तो वो सुधर जाये... पर इस सब के बावजूद आप जैसे भी हों आपके दोस्त आपको वैसे ही अपनाते हैं आपकी कमियों के साथ... आपकी नाकामियों के साथ... किसी भी हाल में वो आपको अकेला नहीं छोड़ते...

आज के मतलबपरस्त दौर में जब दुनिया के तमाम रिश्ते अपने मायने खोते जा रहे हैं... रिश्तों पर से आपका विश्वास डगमगाने लगा है... ऐसे दौर में भी दोस्ती एक ऐसा रिश्ता है जिसने उम्मीद की लौ को जलाए रखा है... हर लड़खड़ाते कदम पर आपका हाथ थामा है... आपको वो सुकून दिया है वो हिम्मत दी है कि आप अकेले नहीं हैं... कोई है जो हर पल हर हाल में आपके साथ खड़ा है... आपका दोस्त !

*********

कल रात दो बेहद करीबी दोस्तों ने दो बिलकुल अलहदा सी बातें कहीं... एक ने दोस्ती का शुक्रिया अदा किया तो दूसरे ने हमसे दूर जाने कि बात कही... दोनों ही बातें दिल को छू गयीं... तो पहले दोस्त से बस इतना कहना है कि दोस्ती में शुक्रिया नहीं किया करते दोस्त और दूसरे से ये कि तुम्हारा मुझसे दूर जाना हम किसी भी हाल में बर्दाश्त नहीं कर सकते... ऐसा दोबारा फिर कभी ना सोचना ना कहना... "I really need u my friend... can't fight this situation alone... don't u ever dare think of going anywhere..."


तुमसे जब बात नही होती किसी दिन
ऐसे चुपचाप गुज़रता है सुनसान सा दिन
एक सीधी सी बड़ी लंबी सड़क पे जैसे
साथ-साथ चलता हुआ, रूठा हुआ दोस्त कोई
मुँह फुलाए हुए, नाराज़ सा, ख़ामोश, उदास

और जब मिलता हूँ हँस पड़ता है ये रूठा हुआ दिन
गुदगुदाकर मुझे कहता है, "कहो, कैसे हो यार"

-- गुलज़ार





Thursday, June 17, 2010

हाँ... तुम ख़ास हो !!!


कितने ही लोग, कितने ही रिश्ते होते हैं हमारे आसपास जिनसे हमारा अस्तित्व जुड़ा होता है... जो हमें वो बनाते हैं जो हम हैं... वो जिनसे हम प्यार करते हैं और वो जो हमें प्यार करते हैं... वो कोई भी हो सकते हैं... हमारे घर-परिवार वाले, हमारे दोस्त, हमारे अपने... कभी सोचा की ये लोग हमारी ज़िन्दगी में ना हों तो क्या हो... ज़िन्दगी के मायने ही बदल जाएँ शायद... या पूरी ज़िन्दगी ही... पर कितनी बार होता है की हम इन अपनों को "Special" फील कराते हैं... उन्हें ये महसूस कराते हैं की हाँ, वो हमारे लिये ख़ास हैं... हाँ, हमें उनकी ज़रुरत है... हाँ, उनका ना होना हमारी ज़िन्दगी को प्रभावित करेगा... शायद ही कभी ऐसा करते हैं हम... है ना ? हमेशा इन अपनों को "for granted" लेते हैं... या शायद उन लोगों की इतनी आदत पड़ चुकी होती है हमारी ज़िन्दगी में, कि कभी इस बारे में सोचते ही नहीं कि वो कितने ख़ास है हमारे लिये... कि उनके बिना हम "हम" नहीं होंगे...

हमें हमेशा यही लगता है की ये तो हमारे अपने हैं... ये कहाँ जायेंगे... ये तो हमेशा हमारे पास ही रहेंगे... हम सही भी होते हैं... वो कहीं नहीं जायेंगे क्यूँकि वो हमारे अपने हैं... पर क्या ये हमारा फ़र्ज़ नहीं बनता की हम भी उन्हें ये महसूस करायें की हम भी हैं उनके लिये... कि हम भी हमेशा उनके लिये मौजूद रहेंगे उनकी ज़िन्दगी की हर छोटी-बड़ी ज़रूरतों में, हर अच्छे-बुरे पल में... माना आपको उनकी परवाह है और कद्र भी पर हमेशा खामोशियाँ पढ़ना किसी को भी अच्छा नहीं लगता... कभी-कभी खुल के जता भी देना चाहिये... कभी किसी अपने को ये महसूस कराइये कि वो कितना ख़ास है आपके लिये... उसे भी एक मुस्कान दे कर देखिये... यकीन जानिये उसे ये छोटी सी ख़ुशी दे कर आपको जो सुकून मिलेगा उसका कोई मोल नहीं...

और एक राज़ की बात बतायें? ये काम बिलकुल भी मुश्किल नहीं है... छोटी छोटी सी बातें हैं पर अगर आप कर पायें तो सच में आपके अपने, आपके और भी करीब आ जायेंगे... बहुत कुछ नहीं करना होता है किसी को ख़ास महसूस कराने के लिये... ना ही बहुत मेहनत, समय या पैसा लगता है इसमें... किसी ख़ास मौके पर तो हर कोई आपको याद करके ये एहसास करता है की वो मौका, वो दिन आपके लिये ख़ास है... पर कभी बेवजह ही, बिना किसी बात के बस यूँ ही याद कर के देखिये... एक प्यारा सा SMS कर के देखिये... बेवजह फ़ोन कर के बस हाल चाल ले लीजिये... या यूँ ही बोल दीजिये तुम्हारी याद आ रही थी, ऐसे ही बात करने का मन हुआ... कितना टाइम लगता है इस सब में ? चंद मिनट बस... ऑफिस से घर लौटते समय सबके लिये कुछ लेते जाइए... फूल, चॉकलेट या कुछ भी जो घर पे सबको पसंद हो... कभी ऐवें ही कॉफी पीने चले जाइए अपने दोस्त के साथ ये कह के की बस साथ बैठने का मन है... या एक जादू की झप्पी दे दीजिये बेवजह और देखिये आपके अपने कैसे खिल उठेंगे :)

आपके अपनों को ज़्यादा कुछ नहीं चाहिये होता है आपसे... बस आपका थोड़ा सा समय और थोड़ा सी परवाह... और आपकी आँखों में अपने लिये थोड़ा सा प्यारा और ये भरोसा की हाँ वो भी ख़ास हैं आपके लिये... आपको भी उनकी ज़रुरत है... किसी अपने को ये एहसास करा के देखिये कभी, आप ख़ुद भी उतना ही अच्छा महसूस करेंगे... इस भौतिकवादी दुनिया में कोई भी एहसास इस एहसास से ज़्यादा ख़ास नहीं होता की किसी को आपकी ज़रुरत है... आप भी ख़ास हैं किसी के लिये... 

क्या कभी मैंने ये कहा
कि तुम्हारे बिना
ज़िन्दगी का एक पल भी
नहीं सोच सकती

क्या कभी ये कहा
कि कभी सोचा ही नहीं
तुम ना होते तो
मैं क्या करती
शायद मैं "मैं" ना होती

क्या कभी ये कहा
कि बहुत अच्छा लगता है
जब बिन मेरे कुछ बोले
मेरे मन की हर बात पढ़ लेते हो

कभी ये भी नहीं कहा ना
कि वो एहसास
दिल को गहरे तक
छू जाता है कहीं
जब उदास होती हूँ मैं
और मेरे आँसू मीलों दूर बैठे
तुम्हारी आँखें भी नम कर जाते हैं

या कभी मेरी हँसी कि खनक
जब सुनाई देती है तुम्हारी आवाज़ में
तो मन और भी ख़ुश हो जाता है
जी चाहता है नाच उठूँ

कभी कहा क्या मैंने ?
नहीं ?

लो आज कहती हूँ
हाँ... मुझे ज़रुरत है तुम्हारी
अपनी ज़िन्दगी के हर पल में
हाँ... तुम ख़ास हो मेरे लिये !!!

-- ऋचा

Tuesday, June 1, 2010

तारों से बंधे कुछ रिश्ते...


अभी अभी ये पिक्चर किसी फॉर्वर्डेड ई-मेल में देखी... और देख कर एक हँसी चेहरे पर खिल उठी... वो तमाम अनजान और जाने-पहचाने चेहरे आँखों के सामने उभर आये जिनसे यूँ तो आप कोसों दूर हैं पर रोज़ ही बातचीत होती है... शायद दिन में कई बार... ये वो लोग हैं जो दूर होकर भी आपके बहुत करीब हैं... ये वो लोग हैं जिनसे आप दिनभर की सारी गतिविधियाँ शेयर करते हैं... और ये वो लोग हैं जिनसे आप अपना हर सुख-दुःख आसानी से साँझा कर लेते हैं... बेझिझक अपने दिल की हर बात बोल लेते हैं... ये हैं आपके ई-दोस्त...

आज के कंप्यूटर युग ने यूँ तो इन्सान को बड़ा टेक्निकल बना दिया है... अपनी ही तरह फास्ट और प्रेक्टिकल बना दिया है... पर इस सब के बीच एक अच्छाई भी है... इस कंप्यूटर युग ने तारों से बंधे कुछ बेशकीमती रिश्ते भी दिये हैं... जिसके लिये इसका तहे दिल से शुक्रिया... आज की इस भागती दौड़ती ज़िन्दगी में अपनों के पास अपनों के लिये भी टाइम नहीं है... ना साथ बैठने का ना बात करने का... सारा दिन बस वही जद्दोजहद... ज़िन्दगी की, ख़ुद को साबित करने की, ज़रूरतों को इकठ्ठा करने की... एक ही शहर में रह के भी कितनी बार आप अपने दोस्तों से नहीं मिल पाते... समय ही नहीं है... हर किसी की ज़िन्दगी एक टाइम टेबल से ज़्यादा कुछ नहीं रह गयी है... वही रोज़ का रूटीन...

सोचिये इस रूटीनड लाइफ में, ऑफिस के "हेक्टिक" स्केड्यूल के बीच आपके कंप्यूटर के मॉनिटर पर किसी ई-दोस्त का प्यारा सा हँसता हुआ स्माइली अचानक से चमकता है तो बिलकुल "स्ट्रेस बस्टर" की तरह काम करता है और एक मुस्कुराहट तो आपके चेहरे पर भी आ ही जाती है... चंद लम्हों के लिये ही सही आप उस बिज़ी लाइफ को भूल जाते हैं... कुछ देर उस दोस्त से बात करते हैं और मन हल्का हो जाता है... सच कभी कभी लगता है की जिससे आप कभी मिले नहीं, देखा नहीं उससे कैसे इतनी सारी बातें कर लेते हैं, कैसे इतनी अच्छी दोस्ती हो जाती है... शायद ये दोस्ती के वाइब्स हैं जो तारों से होते हुए आप तक पहुँच ही जाते हैं... तारों के इस अंतरजाल में आप उस शक़्स को ढूंढ ही लेते हैं कहीं से :-)

कभी सोशल नेटवर्किंग साइट्स, कभी ब्लॉग वर्ल्ड, कभी बज्ज़ तो कभी चैट... जाने कहाँ कहाँ ये दोस्त मिल जाते हैं... यूँ ही... और बस शुरू हो जाता है बातचीत का सिलसिला... एक दूसरे को जानने का सिलसिला... हालांकि ये अनुभव हमेशा मीठा नहीं होता... हर जगह की तरह अच्छे बुरे लोग यहाँ भी होते हैं... अब किसे चुनना है और किसे नहीं ये आपकी समझदारी पे निर्भर करता है... खैर इसके बारे में बात फिर कभी...

अभी तो बस अच्छे अनुभवों की बात करते हैं... जैसे की वो ढेर सारे अच्छे अच्छे दोस्त जो इस "वर्चुअल" दुनिया ने दिये... ये ब्लॉग वर्ल्ड जिसने हम जैसे इन्सान को भी कुछ कुछ लिखना सिखा दिया... और जैसे वो हर समय अपना लैपटॉप ले कर घर भर में घूमते रहने पर मिलती घर वालों की वो मीठी सी प्यार भरी झिड़की... "सारा दिन बस इस कंप्यूटर से चिपकी रहा करो... बोर नहीं हो जातीं तुम ? " और हम हँस देते हैं बस... इस कंप्यूटर से भी कोई बोर हो सकता है भला... इतने ढेर सारे दोस्त जो रहते हैं उसमें :-)


तारों से बंधी इस दुनिया में
कुछ लोग जुड़े अनजाने से
ना देखा ना ही मिले कभी
पर लगे वो जाने पहचाने से

हम ख़याल से लोग कुछ
कुछ लोग अलहदा से
कुछ बातें हुईं कुछ रिश्ते बने
कुछ पल बीते खुशनुमाँ से

हँसते मुस्कुराते वक़्त गुज़रा
बातें भी कुछ और बढीं
बिन शक्लों के वो दोस्त
अब लगने लगे आशना से

दूरियाँ कुछ सिमट गयीं
दुनिया छोटी लगने लगी
मीलों की दूरी पलों में बदली
"mouse" की एक "click" से

जब कभी ये मन उदास हुआ
एक प्यारे "smiley" ने हँसा दिया
कुछ "share" करने को जी चाहा
तो दोस्त को झट से "ping" किया

इस "virtual" दुनिया में विचरते हुए
ज़िन्दगी के कुछ "real" पहलू दिखे
"wires" की इस "insensitive" दुनिया में
दोस्ती की इक नयी परिभाषा मिली...

-- ऋचा
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