Monday, November 2, 2009

इक टुकड़ा ज़िन्दगी...

ये ज़िन्दगी भी कितनी "अन्प्रेडिकटेबल" होती है... है ना ? अगले ही पल किसके साथ क्या होने वाला है कुछ नहीं पता... सच कहें तो हमें लगता है ज़िन्दगी का ये "अन्प्रेडिकटेबल" होना इसे और भी खूबसूरत बना देता है... ज़िन्दगी के प्रति एक आकर्षण, एक रोमांच बना रहता है... अगर हमें अपने आने वाले कल के बारे में पता हो तो उसकी चिंता में शायद हम अपने आज को भी ठीक से ना जी पायें...
वैसे भी आज ज़िन्दगी के लिये तमाम सुख सुविधाएं जुटाने की जद्दोजहद में हम अपनी ज़िन्दगी को जीना ही भूल गए हैं, जो हर गुज़रते पल के साथ कम होती जा रही है, हमसे दूर होती जा रही है...  पैसों से खरीदे हुए ये बनावटी साज-ओ-सामान हमें सिर्फ़ चंद पलों का आराम दे सकते हैं पर दिल का सुकून नहीं... इसलिए भाग-दौड़ भरी इस ज़िन्दगी से आइये अपने लिये कुछ लम्हें चुरा लें... कुछ सुकून के पल जी लें... उनके साथ जो हमारे अपने हैं... आज हम यहाँ है कल पता नहीं कहाँ हों... आज जो लोग हमारे साथ हैं कल शायद वो साथ हों ना हों और हों भी तो शायद इतनी घनिष्टता हो ना हो... क्या पता... इसीलिए आइये ज़िन्दगी का हर कतरा जी भर के जी लें...
ये ज़िन्दगी हमें बहुत कुछ देती है, रिश्ते-नाते, प्यार-दोस्ती, कुछ हँसी, कुछ आँसू, कुछ सुख और कुछ दुःख... कुल मिलाकर सही मायनों में हर किसी की ज़िन्दगी की यही जमा पूंजी है... ये सुख दुःख का ताना-बाना मिलकर ही हमारी ज़िन्दगी की चादर बुनते हैं, किसी एक के बिना दूसरे की एहमियत का शायद अंदाजा भी ना लग पाए...
अभी हाल ही में हुए जयपुर के हादसे ने हमें सोचने पे मजबूर कर दिया... सोचा कि इस हादसे ने ना जाने कितने लोगों कि ज़िन्दगी अस्त-व्यस्त कर दी, कितने लोगों को इस हादसे ने उनके अपनों से हमेशा हमेशा के लिये जुदा कर दिया और ना जाने कितने लोगों को ये हादसा कभी ना भर सकने वाले ज़ख्म दे गया... पर इस हादसे को बीते अभी चंद दिन ही हुए हैं... आग अभी पूरी तरह बुझी भी नहीं है और ये हादसा अखबारों और न्यूज़ चैनल्स कि सुर्खियों से गुज़रता हुआ अब सिर्फ़ एक छोटी ख़बर बन कर रह गया है... शायद यही ज़िन्दगी है... कभी ना रुकने वाली... वक़्त का हाथ थामे निरंतर आगे बढ़ती रहती है... जो ज़ख्म मिले वो समय के साथ भर जाते हैं और जो खुशियाँ मिलीं वो मीठी यादें बन कर हमेशा ज़हन में ज़िंदा रहती हैं...

लेखिका नहीं हूँ तो शब्दों से खेलना आज भी नहीं आता... कुछ विचार मन में आये थे सो लिख दिये... प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा...


ग़म की चिलकन, सुख का मरहम
उदासी के साहिल पे हँसी की इक लहर
कुछ उम्मीदें
कुछ नाकामियां
कुछ हादसे
कुछ हौसले
कभी ख़ुदा बनता इंसान
कभी खुद से परेशान
कभी बच्चों की हँसी में खिलखिलाती मासूमियत
कभी दादी-नानी के चेहरों की झुर्रियां
इन सब में है थोड़ी थोड़ी
इक टुकड़ा ज़िन्दगी

-- ऋचा

7 comments:

  1. बहुत आशावादी पोस्ट.. ज़िंदगी को सही अल्फ़ाज़ में बयां किया आपने.. शब्दों से बहुत अच्छी तरह खेलीं आप..

    और हां, जयपुर हादसे के ज़ख्म भी मद्धम पड़ेंगे.. आप जैसे साथियों की शुभकामना जो है हमारे साथ

    हैपी ब्लॉगिंग

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  2. एक सकारात्मक पोस्ट !

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  3. सही लिखा आपने ऋचा जी जिंदगी के बारे में
    कविता गहरे भाव लिए हुए और बहुत खूबसूरत है

    आशावादी रचना

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  4. han bas ek tukda zindgi hi chaihiye jeene ke liye :-)

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  5. हम शब्दों से कहाँ खेलते......शब्द हमसे खेलते हैं और बहुत कुछ दे जाते हैं

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  6. ऋचा जी मै अभी लफ्जों का पुल पढ़ा हूँ, ऐसा लगा कि ये आवाज मेरी है| छू गयी मन को ...और प्रेरक है ...

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  7. हम शब्दों से कहाँ खेलते......शब्द हमसे खेलते हैं और बहुत कुछ दे जाते हैं

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दिल की गिरह खोल दो... चुप ना बैठो...

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