ये मन भी कितना चंचल होता है न... कभी एक जगह टिकता ही नहीं... बिलकुल उस तितली की तरह जो फूलों से भरे बाग़ीचे में पहुँच कर एकदम पागल सी हो जाती है.... एक पल इस फूल पे बैठती है तो अगले ही पल उड़ के दूसरे फूल पर और फिर तीसरे और चौथे पर... जैसे उसे समझ ही नहीं आ रहा होता कि किस फूल का रस उसे सबसे ज़्यादा पसंद आया...
मन भी बिलकुल ऐसा ही होता है... इस एक छोटे से जीवन में ही उसे सब कर लेना है... कभी लगता है एक पेंटर बनना है तमाम पेंटिंग्स बनानी हैं... फिर कभी लगता है फ़ोटोग्राफ़ी करनी है... कभी लगता है की कम्प्यूटर्स की पढ़ाई ग़लत कर ली दिल तो घर बनाने और सजाने में लगता है... आर्किटेक्चर की पढ़ाई करनी चाहिये थी... फिर अगले ही पल लगता है ये सब मोह माया है... हमें तो कहीं पहाड़ पे छोटा सा एक कॉटेज बना के वहीं रहना है... मटीरिअलिस्टिक चीज़ों की ज़्यादा लालसा नहीं तो गाँव के किसी पहाड़ी स्कूल में बच्चों को पढ़ा के अपना ख़र्चा तो चल जाएगा... कितना तो ख़ाली समय मिलेगा उसमें बाग़वानी करेंगे... किताबें पढ़ेंगे...
फिर कभी ये भी दिल करता है कि एक बी & बी चलाना है किसी पहाड़ पर.. घर का घर हो जायेगा और कमायी की कमायी और होम स्टे में जो तमाम लोग आयेंगे दुनियाभर से उनसे दुनिया जहान की बातें भी... और पहाड़ पे रहने का सपना पूरा होगा सो अलग... फिर कभी दिल में दुनिया घूमने की ललक ज़ोर पकड़ती है... लगता है काश किसी ट्रेवल चैनल में नौकरी मिल जाये तो सारी दुनिया घूम लें...
दरअसल हमारा मन बिलकुल किसी ख़ानाबदोश के जैसा है... हर कुछ दिन में अपना ठिकाना बदलता हुआ... कितनी तो क्षण भृंगुर लालसायें उपजती रहती है इस मन की ज़मीन पे हर रोज़... चचा ग़ालिब क्या ख़ूब कह गये हैं हम जैसों के ही लिये "हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले..."
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कोई भटकन है मेरे भीतर
कोई यायावर
कि बुझती नहीं जिसकी प्यास
किसी दरिया किनारे भी
न तृप्त होती है आत्मा
न भटकन ख़त्म होती है
कुछ करना है उसे
कुछ अलग
क्या
नहीं मालूम
पर कुछ तो
वो नन्हां सा टुकड़ा
ख़्वाब का
जो धुंधला धुंधला अटका है
याद के चिटके काँच में
उसे रंगों से देनी है शक़्ल
किसी शफ्फाक़ कैनवस पर
कोई इक कविता कहनी है
बिना बाँधे शब्दों को
किसी भी पैमाने में
बस बिखेर देना है
कागज़ पर
जो महके सौन्धे सौन्धे
कुछ पौधे उगाने हैं
रंगीन फूलों के
के जिन पे तितलियाँ आयें
उनसे ढेरों बातें करनी हैं
दोपहरें रातें करनी हैं
हाँ इक जुगनू पकड़ना है
कोई जंगल है जो भीतर
अनगढ़ से विचारों का
उसे बाहर लाना है
किसी ऊँची पहाड़ी पे
एक घर भी बनाना है
हो इक छोटा सा कमरा
जिसमें इक खिड़की बड़ी हो
छत हो लाल पत्थर की
पेड़ पे झूला पड़ा हो
मखमली घास का हो इक गलीचा
किसी अलसायी दोपहरी में
कोई किताब पढ़नी है
बुलेट भी तो चलानी है
दुनिया की सैर करनी है
तमाम लोगों से मिलना है
नई नई कितनी
भाषायें सीखनी है
समय की सीमायें लांघनी है
प्रवासी परिंदों संग
सुनहरी सुबहें देखनी हैं
स्पिति की सफ़ेद रातों में
तमाम रतजगे करने हैं
आकाशगंगा में झिलमिल
अनगिन तारे गिनने हैं
समय की चाँदी जब
चमकेगी बालों में
शाम का पिघला सोना चुनना है
सुनहले साहिल की रेत से
पैरों में भटकन बाँध
यूँ ही बस चलते जाना है
ये भटकन ही तो हासिल है
यही कामिल है
रगों में यूँ ही तो
भटकता है लहू भी
और साँसे धड़कनों में
मुझे भी बस भटकना है
यूँ ही उम्र भर... ख़ानाबदोश !
-- ऋचा
-- ऋचा