वो मासूम चाहत की तस्वीर अपनी
वो ख़्वाबों खिलौनों की जागीर अपनी
ना दुनिया का ग़म था, ना रिश्तों के बंधन
बड़ी खूबसूरत थी वो ज़िन्दगानी...
-- सुदर्शन फ़ाकिर
आज बड़े दिनों के बाद कुछ पुराने एल्बम हाथ लगे... माँ-बाबा की शादी से ले कर हमारे और भाई के बचपन की तस्वीरें, दादी माँ की आखों से झलकता असीम वात्सल्य, बुआ जी का ढेर सारा स्नेह, चाचा से की हुई वो हर इक ज़िद जो उन्होंने हमेशा पूरी करी, छोटे भाइयों के साथ वो बेफिक्री से खेलना, गाँव में बीती गर्मियों और सर्दियों की छुट्टियाँ, बाग़-बगीचे और उनके बीच छोटा सा देवी माँ का मंदिर... देखते देखते कब घंटों बीत गए और कब वो सब यादें हमारा हाथ पकड़ कर हमें वापस उसी बचपन में ले गयीं पता ही नहीं चला...
कहते हैं बचपन के दिन इंसान की ज़िन्दगी के सबसे खूबसूरत दिन होते हैं... सारे दुनियावी दांव पेंचो से अनभिज्ञ, सरल और सौम्य बचपन... ना कोई ऊँच नीच, ना अमीरी गरीबी, ना जात पात... छल कपट से कोसों दूर आप सिर्फ़ अपनी एक मुस्कराहट से हर किसी का दिल जीतना जानते हैं... और तो और आपके एक आँसू पर माँ-बाबा सारी दुनिया लुटाने को तैयार रहते हैं... हर कोई आपसे प्यार और सिर्फ़ प्यार करता है... कितना अच्छा लगता है ना जब सब आपकी इतनी परवाह करते हैं... पर जैसे जैसे हम बड़े होते जाते हैं, ज़िन्दगी की सच्चाई से वाक़िफ़ होते जाते हैं, हमारी परी कथाओं जैसी खूबसूरत दुनिया भी यथार्थ में तब्दील होती जाती है... कभी कभी सोचते हैं कितना अच्छा होता अगर हम कभी बड़े ही नहीं होते... सब कुछ ता-उम्र परी कथाओं जैसा ही खूबसूरत रहता... पर क्या करें जीवन का अनंत चक्र सोच मात्र से नहीं रुकता... वो तो सदा चलता रहता है... पर हमारा मानना है हम चाहें तो ये बचपन हमसे कभी दूर नहीं जा सकता... समय के साथ बड़े ज़रूर होइये पर दिल से नहीं दिमाग से... दिल के किसी कोने में उस बच्चे को हमेशा ज़िंदा रखिये... और फिर देखिये ज़िन्दगी हमेशा खूबसूरत रहेगी...
आज आपके साथ सुभद्राकुमारी चौहान जी की एक बेहद खूबसूरत और हृदयस्पर्शी रचना "मेरा नया बचपन" शेयर करने जा रहे हैं... ये रचना हमें बेहद पसंद है उम्मीद है आपको भी पसंद आएगी...
बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥
चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?
ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥
किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥
रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥
मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥
दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।
धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥
वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥
लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी।
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥
दिल में एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी।
मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥
मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥
सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं।
प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥
माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥
किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥
आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।
व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥
वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?
मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥
'माँ ओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी।
कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥
पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।
मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥
मैंने पूछा 'यह क्या लायी?' बोल उठी वह 'माँ, काओ'।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा - 'तुम्हीं खाओ'॥
पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥
मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥
जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया॥
-- सुभद्राकुमारी चौहान