वक़्त का पहिया तेज़ी से घूमता है... ना ख़ुद कभी रुकता है ना ही किसी को रुकने देता है... समय के साथ हर चीज़ बदलती है... कुछ भी सदा स्थिर नहीं रहता... कुछ भी हमेशा एक सा नहीं रहता... ना वक़्त, ना हालात, ना सोच, ना ख़यालात, ना परिस्थितियाँ और ना हम... शायद यूँ निरंतर बदलते रहना... समय के साथ यूँ आगे बढ़ते रहना ही ज़िन्दगी है... जो थम गया, रुक गया उसमें ज़िन्दगी कहाँ रह जायेगी...
अपनी गलतियों से और अपने अनुभवों से सीखता हुआ... कभी गिरता और फिर ख़ुद ही संभलता हुआ एक बच्चा ऐसे ही तो आगे बढ़ता है... विकसित होता है, परिपक्व होता है... यूँ निरंतर सीखते रहना, विकसित होते रहना, "इवॉल्व" होते रहना... यही इंसानी प्रकृति है...
पर इन सब बदलावों के बीच भी कुछ है जो कभी नहीं बदलता... क्या हुआ ? सोच में पड़ गये ? इस तेज़ी से बदलती दुनिया में ऐसा क्या है जो बदलता नहीं... अरे और क्या... हमारी आदतें... सारी नहीं... फिर भी बहुत सी आदतें हैं जो कभी नहीं बदलतीं... चाहे आप कितने ही बड़े हो जाओ...
... जैसे हवाईजहाज़ की आवाज़ सुन कर उसे देखने के लिये आज भी बरबस ही आँखें आसमान की ओर उठ जाती हैं... जैसे गली में क्रिकेट खेलते बच्चों को देख कर आज भी मन होता है की एक-दो शॉट लगा ही लें... जैसे छोटे भाई को हक़ से डांटना और अपना बड़ा होना जताना आज भी बड़ी अच्छी सी फीलिंग दे जाता है... जैसे तौलिया होते हुए भी माँ की साड़ी में हाथ पोछना और फिर उनका डांटना - "हे भगवान! कब बड़े होगे तुम लोग..."
... जैसे इन्द्रधनुष देख कर ख़ुद-बा-ख़ुद चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाना... जैसे पहली बारिश में भीगने के लिये आज भी मचल जाना... जैसे कोयल की आवाज़ सुन कर पेड़ में ये ढूंढने की कोशिश करना की कहाँ छुप कर बोल रही है... जैसे रेत के घरौंदे बना कर ख़ुश होना... जैसे सरसों का पीला-पीला खेत देख कर मन होना की बाहें फैला के उसके बीच दौड़ लगा लें कुछ दूर... जैसे किसी स्कूल के सामने से गुज़रते समय आज भी वो इमली, चूरन और भेलपुरी वाले को ढूँढना और दिख जाने पर ख़ुश हो जाना... जैसे जामुन खाने के बाद ये मिलाना की किसकी जीभ ज़्यादा काली हुई है... जैसे पेड़ पर पड़े झूले को देख कर मन का मचल जाना एक बार झूलने के लिये...
... जैसे तालाब या नदी के पानी में पत्थर फेंक कर आपस में ये कॉम्पटिशन करना की किसका पत्थर ज़्यादा दूर जाएगा... जैसे लूडो या कैरम खेलते हुए जब हारने लगना तो चुपके से गोटियाँ हिला देना या बदल देना... जैसे पूरनमासी के चाँद में आज भी उस बुढ़िया को ढूंढना, जिसकी कहानी दादी-नानी सुनाया करती थीं बचपन में... जैसे मूंगफली खाने के बाद आज भी बचे हुए छिलकों में गिरा हुआ दाना ढूँढना... जैसे मंदिर के सामने से गुज़रते हुए सर का अपने आप ही सजदे में झुक जाना...
हम्म... कितनी मासूम और भोली सी आदतें हैं ना... हम सब में होती हैं ये... बचपन से ही शायद... पता नहीं इन आदतों की आदत कब पड़ती है पर ये ता-उम्र हमारे साथ चलती हैं... ये और ऐसी जाने कितनी ही आदतें जो जाने-अनजाने कुछ इस तरह से आत्मसात हो जाती हैं हमारे अन्दर कि वो हमारे जीने का ढंग बन जाती हैं... सही कहा है गुलज़ार साब ने... "आदतें भी अजीब होती हैं..."