कुछ ख़ुश्बूएँ दिल के कितने क़रीब होती हैं... कभी होता है ना बैठे
बैठे अचानक कोई ख़ुश्बू याद आ जाती है और बस मन बच्चों सा मचल
उठता है उसे महसूस करने को... हाँ, इन ख़ुश्बुओं को बस महसूस करा जा सकता
है बताया या समझया नहीं जा सकता... रूहानी सी कुछ ख़ुश्बूएँ... किसी नन्हें
से बच्चे के हाथों से आती भीनी सी
महक जैसी... पाकीज़ा सी कुछ ख़ुश्बूएँ... हवन वेदी से उठती पवित्र गंध
जैसी... कोहरे में भीगी पहाड़ी पर चीड़ और देवदार से आती पुर-असरार सी कोई
ख़ुश्बू, सम्मोहित कर के अपने मोहपाश में बाँध लेने वाली... रूमानी सी कोई
ख़ुश्बू... जैसे बारिश की हल्की सी फुहारें पड़ने के बाद मिट्टी से उठने
वाली सौंधी सी महक जो बस पागल ही कर देती है... सुकून देती कोई ख़ुश्बू
जैसे सर्दियों की सुबह पेड़ से छन के आने वाली धूप की महक...
सर्दियों की रात अंगीठी में जलते कोयले की ख़ुश्बू... बारिश में भीगे
मिट्टी के चूल्हे में जलती लकड़ी और उसमें सिंकती रोटी की ख़ुश्बू... सरसों
के खेत से उठती सरसों के फूलों की तीखी गंध... आम के पेड़ पर आये नये
कोपलों और बौर की ख़ुश्बू... गीली मेहँदी की ख़ुश्बू... किसी बेहद अज़ीज़
किताब के पन्नों से आती अतीत की ख़ुश्बू... इलायची वाली चाय की ख़ुश्बू...
पुदीने की चटनी की ख़ुश्बू... गरम गरम भुट्टे पर नींबू और नमक की
ख़ुश्बू... ताज़े भुने हुए अनाज की ख़ुश्बू... सर्दी की सुबह धुँध की
ख़ुश्बू... जंगली फूलों की ख़ुश्बू... दादी के आँचल से आती वात्सल्य की
ख़ुश्बू... बच्चों की आँखों से झाँकती शरारत की ख़ुश्बू... ब्लैक कॉफी से उठती कोई तल्ख़ सी ख़ुश्बू... सुबह सुबह झरे हरसिंगार की ख़ुश्बू..
आधी रात भीगे हुए मोगरे की ख़ुश्बू... चाँदनी की ख़ुश्बू...
यादों की ख़ुश्बू... ख़्वाबों की ख़ुश्बू... साहिल की भीगी रेत की
ख़ुश्बू... पीले गुलाब की ख़ुश्बू... पहले प्यार की ख़ुश्बू... लब-ए-यार की ख़ुश्बू... तुम्हारी
ख़ुश्बू.....!
जाने ख़ुद को तुझमें छोड़ आयी हूँ या तुम्हें ख़ुद में बसा लायी
हूँ... हमेशा
के लिये... जाने क्या हुआ है पर कुछ तो हुआ है... आँखें भारी सी हो रही हैं
गोया सदियों की नींद भरी हो उनमें... सोने का मन भी होता है पर नींद नहीं
आती... भूख लगती है पर कुछ खाया नहीं जाता... किसी काम में दिल नहीं लग
रहा... अजीब हाल है... बेवजह मुस्कुरा रही हूँ... बाँवरी सी... लगता है
जैसे कोई बेहद ख़ूबसूरत ख़्वाब देखा है... या हक़ीक़त ख़्वाबों सी ख़ूबसूरत
हो आई है... ये कैफ़ियत... ये गफ़्लत... उफ़ ! ये क्या कर दिया है तुमने
मुझे...
धड़कने भी जाने कैसी दीवानी सी हो गई हैं... जाने किस सप्तक के सुर छेड़
रही
हैं हर पल... बीथोवन की सातवीं सिम्फनी सी... ये कैसा सुरूर छाया हुआ है
मुझ पर... नशे के ये किस भंवर में आ फँसी हूँ... जिस्म पर ये कैसी मदहोशी
तारी है... साँसों में भी कुछ नशा सा घुलता हुआ महसूस होता है... जैसे नशे
के किसी नमकीन महासागर में डूब के आयी हूँ... तुम्हारी कसम शराब को तो
कभी हाथ भी नहीं लगाया... फिर ये नशा कैसा है... मैं सच में अपने होश खो
बैठी हूँ क्या ?
ये कैसा मायावी जाल फेंका है कि ख़ुद-ब-ख़ुद खिंचती
चली जा रही हूँ इसमें... ये कैसी कसमकस है... ये कैसी क़शिश है कि इससे बाहर
निकलने का भी दिल नहीं होता... तुम सच में मायावी हो... जाने किस देस से
आये हो... और आते ही मेरे दिल दिमाग़ सब पर तो कब्ज़ा कर लिया है... ना कुछ
सोच पाती हूँ ना समझ पाती हूँ... फिर भी ख़ुश हूँ... बहुत ख़ुश... सुनो...
इस क़ैद से कभी आज़ाद मत करना... ये बन्धन ज़िन्दगी बन गया है... इससे आज़ाद
हुई तो मर जाऊँगी !
"प्यार"... दुनिया का सबसे ख़ूबसूरत एहसास... अपने नाम जितना ही
प्यारा... कहते हैं इन्सान को ज़िन्दगी में एक बार प्यार ज़रूर करना
चाहिये... प्यार इन्सान को बहुत अच्छा बना देता है... जिसे आप प्यार करते
हैं उसके लिये जीना सिखा देता है और बेख़ौफ़ हो के मरना भी... जब आप किसी के
प्यार में होते हैं तो सारी दुनिया किसी परी-कथा सी हो जाती है... जन्नत
जैसी !
शुरू शुरू में प्यार किसी पहाड़ी नदी सा चंचल होता है... अल्हड़
और गतिशील... अपनी राह ख़ुद बनता हुआ... अपने रास्ते में आने वाली हर
मुश्किल हर बाधा को अपने ही साथ बहा ले जाता हुआ... अच्छा बुरा, सही
ग़लत... बिना कुछ सोचे समझे हम बस बहते चले जाते हैं उसके वेग में... सोच
के वैसे भी कब किया जाता है प्यार... वो तो बस हो जाता है... सब अच्छा सब
सही... प्यार में कुछ भी बुरा या ग़लत कब होता है... वो तो बिलकुल एक नन्हे
बच्चे के समान होता है... मासूम और निश्छल... वो चंचल या अल्हड़ भले ही हो
पर बुरा या ग़लत नहीं हो सकता... बच्चे को कब सही ग़लत का ज्ञान होता
है...
समय बीतता है... उम्र का एक और पड़ाव आता है... प्यार में भी ठहराव आता
है... अब वो पहले सा वेग नहीं रहता... जैसे मैदानी इलाके में आकर नदी का
आवेग भी शान्त हो जाता है... एक स्थिरता आ जाती है... पर ध्यान से देखिये
तो उसका फैलाव बढ़ जाता है और गहराव भी... अब आप उसमें डूब तो सकते हैं बह
नहीं सकते... दिमाग़ कुछ कुछ दिल पे हावी होने कि कोशिश करता रहता है जब
कब... तर्क वितर्क भी अपने पाँव पसारने लगते हैं मौका पाते ही... ज़्यादातर
तो दिमाग़ हार ही जाता है ये लड़ाई... पर दिल तो दिल ठहरा... कभी कभार पसीज
ही जाता है... दिमाग़ को भी एक लड़ाई जीत कर ख़ुद पे इतराने का मौका दे
देता है...
दिल और दिमाग़ की ये जंग यूँ ही चला करती है... रही सही कसर परिस्थितियां
पूरी कर देती हैं... कुछ भी अब पहला सा नहीं रहता... समय निरंतर बीतता रहता
है... नदी भी धीरे धीरे बहते हुए अपने गंतव्य कि ओर बढ़ती रहती है... उसे
एक दिन सागर में ही मिल जाना है... उसकी यात्रा का यही अंत है... पर
प्यार... उसका क्या कोई अंत होता है कभी ? शायद नहीं... वो बीते लम्हों की
यादें बन कर ठहर जाता है हमारे ही भीतर...
ये जो साग़र कि लहरें होती हैं ना... दरअसल ये वो सारे बीते हुए खुशनुमां
पल होते हैं... नदी के शुरुआती दिनों का वेग जो लहरें बन जाता है... जाने
कैसी ज़िद होती है फिर से वापस लौटने की... उन बीते हुए दिनों को फिर से एक
बार जीने की... ये जानते हुए भी कि यात्रा अब ख़त्म हो चुकी... गुज़रा वक़्त
दोबारा नहीं आएगा... फिर भी... यादें बन कर लहरें बार बार साहिल तक आती
हैं... जाने किस तलाश में... ख़ाली हाथ वापस जाती हैं... पर हारती नहीं...
थकती नहीं... शायद यही प्यार है... कभी ना थकने वाला... कभी ना हारने
वाला...
भटकती फिरती हूँ
बंजारों सी
हर रोज़
सुबह शाम
तुम्हारी तलाश में
जाने किस घड़ी
तुम मिल जाओ
फिर से
उम्र के किसी
अनजान मोड़ पे
तुम्हारी यादों का इक घना जंगल
बसा है मेरे भीतर कहीं...
कैसी होती होगी वो हवा जो तुम्हारे देस में बहती है... कैसे होते होंगे वो
लोग जो तुम्हें देख सकते होंगे.. छू सकते होंगे... तुमसे रु-ब-रु बात कर
सकते होंगे... उस हवा में साँस लेते होंगे जहाँ तुम रहते हो... जानते हो
न्यूज़ चैनल बदलते हुए कभी जब तुम्हारे शहर का ज़िक्र आता है तो उँगलियाँ
ख़ुद-ब-ख़ुद रुक जाती हैं... जैसे उन्हें भी सुनाई देता है तुम्हारे शहर का
नाम... उस भीड़ में जाने किस अनदेखे चेहरे को तलाशने लगती हैं आँखें... कोई
बात भी करता है ना तुम्हारे शहर की तो दिल करता है उससे कहूँ बस ऐसे ही
बोलता रहे और मैं ऐसे ही सुनती रहूँ उसे... जी भर के...
झूठ कहते हैं लोग कि दुनिया छोटी हो रही है, दूरियाँ सिमट रही हैं... दूरियाँ तो और
बढ़ गई हैं... कल हमारे बीच महज़ ७०० किलोमीटर की दूरी थी जिसे हम बस चंद
लम्हों में तय कर लिया करते थे... आज वो दूरी सुदूर बसे किसी ग्रह जैसी
लगती है... सैकड़ों प्रकाशवर्ष दूर... चाह कर भी दूरियाँ अब सिमट नहीं
पातीं... तुम तक मेरी पुकार अब नहीं पहुँच पाती... बीच में ही कहीं राह भटक
कर हमेशा के लिये खो जाती है ब्रह्माण्ड में...
हमारा मिलना ऐसा था जैसे आरती कि थाली में जलता हुआ कपूर... पवित्र...
सुगन्धित... किन्तु क्षणिक... तुम मेरे अंधेरों में रौशनी की तरह आये...
तुम्हारी उँगली थाम उम्र की एक पथरीली पगडंडी पार करी... ठीक वैसे ही जैसे
एक नन्हा सा बच्चा किसी की उँगली थाम चलना सीखता है और अपनी ज़िन्दगी का
पहला क़दम बढ़ाता है... तुमने जीने की नई वजह दी... एक लम्बे अरसे बाद
मुझे ख़ुद से मिलवाया...
जानती हूँ तुम्हारी ज़िम्मेदारियाँ अब तुम्हें आवाज़ दे रही हैं... मैं भी क्या करूँ... तुम्हारी आदत हो गयी है... तुम्हारी
उँगली थामे बिना चलना शायद वैसा ही हो जैसा उस नन्हें बच्चे का होता है...
थोड़ा डरूँगी... कुछ पल डगमगाऊँगी... शायद गिरूँ भी... पर तुम मत डरना...
थोड़ा समय लगेगा पर संभल जाऊँगी... तुम जाओ... अपनी ज़िम्मेदारियाँ पूरी
करो... उम्र के किसी पड़ाव पर गर फ़ुर्सत मिले कभी और याद आये मेरी या
मिलने का मन करे... तो चले आना... मैं यहीं मिलूँगी... यहीं, जहाँ हम पहली
बार मिले थे...
हो सके तो बस इतना करना कि भरोसा नहीं टूटने देना... विश्वास
रखना... मैं यहीं मिलूँगी... तुम्हारा इंतज़ार करते... सुनो... पहचान तो लोगे ना ?
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एक कहानी याद आ रही है... बहुत जल्दी ना हो तो सुनते जाओ.. गुलज़ार साब कि
आवाज़ में -
[ ये खेल आख़िर किसलिये ? मन नहीं ऊबता ? कई-कई बार तो खेल चुके हैं ये खेल हम
अपनी ज़िन्दगी में... खेल खेला है... खेलते रहे हैं... नतीजा फिर वही...
एक जैसा... क्या बाक़ी रहता है ? हासिल क्या होता है ? ज़िन्दगी भर एक दूसरे
के अँधेरे में गोते खाना ही इश्क़ है ना ? आख़िर किसलिये ?
एक कहानी है... सुनाऊँ ? कहानी दो प्रेमियों की... दोनों जवान, ख़ूबसूरत, अक्लमंद... एक का दूसरे से बेपनाह प्यार... कसमों में बंधे हुए कि
जन्म-जन्मान्तर में एक दूसरे का साथ निभायेंगे... मगर फिर अलग हो गये...
नौजवान फ़ौज में चला गया... गया तो लौट कर नहीं आया... लापता हो गया.. लोगों
ने कहा मर गया... मगर महबूबा अटल थी... बोली... वो लौटेगा ज़रूर...
लौटेगा... पूरे चालीस सालों तक साधना में रही... वफ़ादारी से इंतज़ार
किया... आख़िर एक रोज़ महबूब का संदेसा मिला... मैं आ गया हूँ, शिवान
वाले मंदिर में मिलो... कहने लगी, देखा.. मैंने कहाँ था ना...
दौड़ कर गई... मंदिर पहुंची... पर प्रेमी ना दिखाई दिया... एक आदमी बैठा
था... एकदम बूढ़ा... पोपला मुँह.. टांट गंजी... आँखों में मैल... बोली.. यहाँ
तो कोई नहीं... ज़रूर किसी ने शरारत की है... मायूस हो कर घर लौटी...
वहाँ मंदिर में इंतज़ार करते करते वो भी थक गया... कोई नहीं आया... चिड़िया
का बच्चा तक नहीं.. हाँ, एक बुढ़िया आयी थी... कमर से झुकी हुई.. बाल उलझे
हुए.. आँख में मोतिया-बिंध... मंदिर में झाँक कर देखा... कुछ बुड़बुड़ाई...
और अपने ही साथ बात करते हुए दूर चली गई... निराश हो गया बेचारा...
बोला... उसने इंतज़ार नहीं किया... गृहस्ती रचाकर मुझे भूल गई... संदेसा
भेजा था, फिर भी मिलने तक नहीं आयी... किसलिये ? ... आख़िर किसलिये ये खेल ? ... मन
नहीं ऊबता ? -- गुलज़ार ]
ये कहाँ की दोस्ती है के बने हैं दोस्त नासेह
कोई
चारासाज़ होता कोई ग़मगुसार
होता
-- मिर्ज़ा ग़ालिब
कभी
कभी सोचती हूँ ग़ालिब साहब का एक अरसे पहले लिखा ये शेर आज के समय में भी
कितना प्रासंगिक है... जब आप ज़िन्दगी के एक ऐसे बुरे दौर से गुज़र रहे हो
कि कुछ ना सूझे, कुछ समझ ना आये... जब ग़म और ना-उम्मीदी के बादलों ने आपको
घेर रखा हो... आप चाह कर भी इन हालातों से बाहर ना निकल पा रहे हों... घर
वाले... बाहर वाले... सारी दुनिया के लोग सिर्फ़ और सिर्फ़ आपको उपदेश देने
में लगे हों... और तो और आपके दोस्त भी आपको नसीहतें ही देने लगें तो मन
झुंझला जाता है... ऐसे में दिल करता है कि कोई ऐसा दोस्त हो जो बस आपको सुन
भर ले... कोई नसीहत ना दे... एक ऐसा दोस्त जिसके काँधे पर सिर टिका कर आप
चुपचाप बैठे रहें... कुछ ना कहें फिर भी ख़ुद को बेहद हल्का महसूस करें...
वो दोस्त जो आपकी परेशानियाँ नहीं बस थोड़ी सी ख़ामोशी बाँट ले... यकीन
जानिये जिस किसी के पास ऐसे दोस्त होते हैं दुनियाँ में उनसे ज़्यादा
ख़ुशनसीब और कोई नहीं होता...
दोस्ती... हमारी नज़र से
देखिये तो दुनिया का सबसे ख़ूबसूरत रिश्ता... हर दुनियावी रिश्ते से
बड़ा... शायद "प्यार" से भी बड़ा... जहाँ ना कोई स्वार्थ होता है, ना कोई
नसीहत... दोस्त कभी जजमेंटल नहीं होते... आलोचनात्मक नहीं होते... हाँ आपका
भला ज़रूर चाहते हैं, चाहते हैं कि आप हमेशा ख़ुश रहें और अगर आपमें कोई
कमी है, कोई बुराई है तो वो सुधर जाये... पर इस सब के बावजूद आप जैसे भी
हों आपके दोस्त आपको वैसे ही अपनाते हैं आपकी कमियों के साथ... आपकी
नाकामियों के साथ... किसी भी हाल में वो आपको अकेला नहीं छोड़ते...
आज के मतलबपरस्त दौर में जब दुनिया के तमाम रिश्ते अपने मायने खोते जा रहे
हैं... रिश्तों पर से आपका विश्वास डगमगाने लगा है... ऐसे दौर में भी
दोस्ती एक ऐसा रिश्ता है जिसने उम्मीद की लौ को जलाए रखा है... हर लड़खड़ाते
कदम पर आपका हाथ थामा है... आपको वो सुकून दिया है वो हिम्मत दी है कि आप
अकेले नहीं हैं... कोई है जो हर पल हर हाल में आपके साथ खड़ा है... आपका
दोस्त !
*********
कल रात दो बेहद करीबी दोस्तों ने दो बिलकुल अलहदा सी बातें कहीं... एक ने
दोस्ती का शुक्रिया अदा किया तो दूसरे ने हमसे दूर जाने कि बात कही...
दोनों ही बातें दिल को छू गयीं... तो पहले दोस्त से बस इतना कहना है कि
दोस्ती में शुक्रिया नहीं किया करते दोस्त और दूसरे से ये कि तुम्हारा
मुझसे दूर जाना हम किसी भी हाल में बर्दाश्त नहीं कर सकते... ऐसा दोबारा
फिर कभी ना सोचना ना कहना... "I really need u my friend... can't fight
this situation alone... don't u ever dare think of going anywhere..."
तुमसे जब बात नही होती किसी दिन ऐसे चुपचाप गुज़रता है सुनसान सा दिन एक सीधी सी बड़ी लंबी सड़क पे जैसे साथ-साथ चलता हुआ, रूठा हुआ दोस्त कोई मुँह फुलाए हुए, नाराज़ सा, ख़ामोश, उदास
और जब मिलता हूँ हँस पड़ता है ये रूठा हुआ दिन गुदगुदाकर मुझे कहता है, "कहो, कैसे हो यार"
मन बहुत उदास है आज सुबह से... पिछले कोई आठ दस साल से घर के सामने ख़ाली पड़े प्लॉट में एक नीम का पेड़ उग आया था... एक अजीब सा रिश्ता हो गया था उससे... बेनाम.. बेआवाज़... सिर्फ़ आँखों का रिश्ता.. अजब सा सुकून मिलता था उसे देख कर... जैसे घर का कोई बड़ा बुज़ुर्ग... आते जाते भले उसे ना भी देखूँ तो भी उसके होने का एहसास साथ रहता था... कितने ही दिन उसने माँ के आँचल कि तरह खिड़की से आती धूप को रोका और मेरी नींद नहीं टूटने दी... कितने ही दिन एक प्रेमिका कि तरह चाँद को अपने आग़ोश में छुपा के ज़िद पर अड़ गई आज कहीं नहीं जाने दूँगी तुम्हें.. आज तुम सिर्फ़ मेरे हो... मेरे चाँद... सिर्फ़ मेरे लिये चमकोगे... दुनिया में अमावास होती है तो हो जाये...
एक छोटे बच्चे से व्यस्क होते देखा उसे... बेहद घना और छायादार.. जाने कितने ही पँछियों का आशियाना बना हुआ था... दो कोयल भी रहती थीं उसपर... सारा दिन बोल बोल कर दिमाग़ खाती रहती थीं... वो कोयल अब न बोलेंगी... इन्सान ने एक बार फिर अपना आशियाना बनाने के लिये उनका आशियाना छीन लिया... क्या कोई सरकार उन्हें मुआफ्ज़े में नया आशियाना देगी... वो मासूम तो हम इंसानों कि तरह अपने हक़ के लिये लड़ भी नहीं सकते...
अब तक उस नीम की चीख सुनाई दे रही है... कैसे कराह रहा था बेचारा जब एक एक डाल काट कर उसके तने से अलग करी जा रही थीं... उसकी ख़ाली करी हुई जगह पर कुछ ही दिनों में एक नया कंक्रीट का आशियाना बन जायेगा... नये लोग बस जायेंगे... एक बार फिर वो जगह आबाद हो जायेगी.. हम भी भूल ही जायेंगे उस नीम को कुछ दिनों में... आख़िर एक पेड़ ही तो था बस... यही दुनिया है... डार्विन ने सही कहा था.. "सर्वाइवल ऑफ़ दा फिटेस्ट"... अंत में ताकतवर ही जीतता है... उसे ही हक़ है इस दुनिया में रहने का...
दोस्त अक्सर मुझसे कहते हैं... तुम सोचती बहुत हो... स्टॉप बीइंग सो इमोशनल... बी प्रैक्टिकल यार !!
कभी कभी लगता है वो सही कहते हैं...
हमें पेड़ों की पोशाकों से इतनी सी ख़बर तो मिल ही जाती है
बदलने वाला है मौसम...
नये आवेज़े कानों में लटकते देख कर कोयल ख़बर देती है
बारी आम की आई...!
कि बस अब मौसम-ऐ-गर्मा शुरू होगा
सभी पत्ते गिरा के गुल मोहर जब नंगा हो जाता है गर्मी में
तो ज़र्द-ओ-सुर्ख़, सब्ज़े पर छपी, पोशाक की तैयारी करता है
पता चलता है कि बादल की आमद है!
पहाड़ों से पिघलती बर्फ़ बहती है धुलाने पैर 'पाइन' के
हवाएँ झाड़ के पत्ते उन्हें चमकाने लगती हैं
मगर जब रेंगने लगती है इन्सानों की बस्ती
हरी पगडन्डियों के पाँव जब बाहर निकलते हैं
समझ जाते हैं सारे पेड़, अब कटने की बारी आ रही है
यही बस आख़िरी मौसम है जीने का, इसे जी लो !
( आओ आज फिर एक सपना देखते हैं... तुम हो... मैं हूँ... तारों भरा आसमां हो... बादलों में छुप के चाँद भी झाँकता हो... लजाया सा... कुछ कुछ शरमाया सा... पार्श्व में ये धुन हो मद्धम मद्धम बजती हुई... तुम्हारे गले में बाहें डाले, काँधे पे सर रखे, आँखें मूंदे... सारी उम्र थिरकती रहूँ... बस यूँ ही !!! )
बारिशें सिर्फ़ बारिशें कहाँ होती हैं... वो अक्सर हमारी कैफ़ियत का आइना होती हैं... हम ख़ुश होते हैं तो वो भी ख़ुशी से नाचती झूमती लगती हैं... हम उदास होते हैं तो वो भी कुछ उदास सी बरसती हैं.. गोया बादल का भी दिल भर आता है कभी और फफ़क के रो पड़ता है वो छोटे बच्चों कि मानिंद... कहीं किसी ज़रूरी काम से जाना हो और बारिश रुकने का नाम ना ले तो कैसी खीज सी उठती है... दिल करता है डांट दें उसे ज़ोर से कि कोई और काम नहीं है क्या.. जाओ जा के कहीं और बरसो... और दिल ख़ुश होता है तो बरबस ही गुनगुनाने लगते हैं "फिर से आइयो बदरा बिदेसी तेरे पंखों पे मोती जड़ूँगी..."
जब हम किसी के प्रेम में होते हैं तो उसके साथ बीते हुए लम्हों की वो बे-हिसाब यादें भी बरसती हैं बारिश में... हम दोनों बाहें फैला के ख़ुशी से लिपट जाते हैं उन रिमझिम बरसती बूंदों से और वो भी प्यार से चूम के हमें गले लगा लेती हैं जैसे सिर्फ़ हमारे लिये बरस रही हों... हमें ख़ुश करने के लिये...
बरसात के इस मौसम से जाने कैसा रिश्ता है... बचपन से ही... जब काग़ज़ की कश्तियाँ तैराया करते थे घर के बाहर भर गये मटमैले बरसाती पानी में.. और दूर तलक उसे तैरते हुए जाते देखते थे... कोई डूब जाती ज़रा दूर जा के तो दिल कैसे भर आता था जैसे काग़ज़ की नहीं सच की नाव हो... "प्लीज़ भगवान जी! ये बारिश मत रोकना आज... इसे और तेज़ कर दो..." सुबह सुबह स्कूल के टाइम पर करी हुई ये मासूम इल्तिजा आज भी याद आती है... और वो "रेनी डे" की तमाम छुट्टियाँ भी, जब भगवान जी को हम बच्चों पे तरस आ जाया करता था और सारा दिन बस धमा-चौकड़ी करते और काग़ज़ की नाव तैराते बीतता था...
कॉलेज के दिनों को याद करें तो यूनीवर्सिटी की कैंटीन, चाय-पकौड़ी, दोस्त और अनगिनत गप्पें... सारा-सारा दिन... रेन कोट होते हुए भी बारिश में भीगते हुए घर आना... मम्मी का डांटना... और हमारा मुस्कुरा के बस इतना ही कहना कि अब तो भीग ही लिये...
और एक आज का समय है... ऑफिस के कमरे में बैठे हुए कब सुबह से शाम हो जाती है पता ही नहीं चलता... बारिशों का पता अब अक्सर घर लौटते वक़्त गीली सड़कों से लगता है... जाने कब बादल आते हैं और बरस के चले भी जाते हैं... शायद आवाज़ लगाते होंगे आज भी... पर ऑफिस की दीवारों को भेद के अन्दर तक नहीं पहुँचती अब उनकी आवाज़... ना ही अब खिड़कियों पे बूंदों से वो संदेसे लिख के जाती हैं कि बाहर आ जाओ मिल के भीगते हैं... उफ़... "छोटी सी कहानी से, बारिशों के पानी से, सारी वादी भर गई... ना जाने क्यूँ दिल भर गया... ना जाने क्यूँ आँख भर गई..."
बारिश के इन मुख्तलिफ़ रंगों को गुलज़ार साब के साथ-साथ और बहुत से शायरों ने बड़ी ही ख़ूबसूरती के साथ अपनी नज़्मों में क़ैद करा है... तो बरसात के इस मौसम में उछाल रही हूँ बारिश की कुछ बूँदें आपकी ओर भी... अपनी कैफियत के हिसाब से कैच कर लीजिये और हो जाइये सराबोर बारिश के इन तमाम रंगों में...
बारिश आती है तो मेरे शहर को कुछ हो जाता है
टीन की छत, तर्पाल का छज्जा, पीपल, पत्ते, पर्नाला
सब बजने लगते हैं
तंग गली में जाते-जाते,
साइकिल का पहिया पानी की कुल्लियाँ करता है
बारिश में कुछ लम्बे हो जाते हैं क़द भी लोगों के
जितने ऊपर हैं, उतने ही पैरों के नीचे पानी में
ऊपर वाला तैरता है तो नीचे वाला डूब के चलता है
खुश्क था तो रस्ते में टिक टिक छतरी टेक के चलते थे
बारिश में आकाश पे छतरी टेक के टप टप चलते हैं !
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पानी का पेड़ है बारिश
जो पहाड़ों पे उगा करता है
शाखें बहती हैं
उमड़ती हुई बलखाती हुई
बर्फ़ के बीज गिरा करते हैं
झरने पकते हैं तो झुमकों की तरह
बोलने लगते हैं गुलिस्तानों पर
बेलें गिरती हैं छतों से...
मौसमी पेड़ है
मौसम में उगा करता है !
कार का इंजन बन्द कर के
और शीशे चढ़ा के बारिश में
घने-घने पेड़ों से ढंकी "सेंट पॉल रोड" पर
आँखें मींच के बैठे रहो और कार की छत पर
ताल सुनो तब बारिश की !
गीले बदन कुछ हवा के झोंके
पेड़ों कि शाखों पर चलते दिखते हैं
शीशे पे फिसलते पानी की तहरीर में उँगलियाँ चलती हैं
कुछ ख़त, कुछ सतरें याद आती हैं
मॉनसून की सिम्फ़नी में !
-- गुलज़ार
गुलज़ार साब की आवाज़ में बारिश के कुछ और रंग -
इंदिरा वर्मा जी की आवाज़ में "पिछली बरसात का मौसम तो अजब था जानां.."
[ प्रिया की "स्पेशल रिक्वेस्ट" पर नज़्म के बोल जोड़ रही हूँ पोस्ट में :-) ]
पिछली बरसात का मौसम तो अजब था जानां
शाख़ दर शाख़ चमकती थी सुनहरी किरणें
भीगे सूरज से सराबोर थी तजदीद-ए-वफ़ा
और बादल से बरसती थी मोहब्बत कि घटा
रूह में रूह का एहसास हुआ करता था
पैराहन फूल कि मानिंद खिला जाता था
दिल का अरमान फिज़ाओं कि मधुर दुनिया में
ऊँचे पेड़ों कि बुलंदी से गुज़र जाता था
जाने वो किसका था एहसान सर-ए-इश्क़-ए-नियाज़
छनछनाती हुई बूंदों में छुपा था सरगम
शोर करती हुई चलती थीं हवाएँ हरदम
बर्क चमके तो बदलता था फिज़ा का नक्शा
दोनों हांथों से छुपाती थी मैं अपना चेहरा
मुझको तन्हाई में बरसात डरा देती थी
बेसबब ख़्वाब के पहलू में सुला देती थी
अबके जब आये रुपहला सा सुहाना मौसम
ख़्वाब के साथ हक़ीक़त में उतर जाना तुम
ऐसा चेहरे पे मोहब्बत का सजाना गाज़ा
बूँद बारिश कि जो ठहरे तो बने इक तारा
तन्हां तन्हां ना रहे दिल मेरा
जानां जानां...
-- इंदिरा वर्मा
जाते जाते बारिश का एक रंग ये भी... ये बारिशें बहुत मुबारक़ हों आप सब को !
बचपन में पढ़ा था "एनर्जी" के बारे में
ना तो उसे बनाया जा सकता है
ना ही ख़त्म किया जा सकता है
सिर्फ़ उसका रूप बदला जा सकता है
वैज्ञानिकों ने ये साबित भी कर दिया
युगों पहले कृष्ण के दिये गीता उपदेश
अब तलक इस ब्रह्माण्ड में घूम रहे हैं
और "बीटल्स" का संगीत भी...
"साउंड एनर्जी" का तो समझ आता है
पर तुम्हारी ख़ामोशी के सुर कैसे गूंजा करते हैं
यूँ अविराम... अविरल... हर पल...
मेरी धड़कन में...
किस सप्तक के सुर हैं ये
कि कोई और नहीं सुन पाता इन्हें
तुम्हारे दिल से निकलते हैं
और मेरे दिल को सुनाई देते हैं बस
तुमसे मीलों दूर बैठे हुए भी
मुझ तक पहुँचते कैसे हैं ये...
इस मीलों लम्बे निर्वात में
कौन है इन सुरों का संवाहक ?
हंसो नहीं... बताओ ना प्लीज़
देखो ना
आज भी मेरी फ़िज़िक्स
बेहद कमज़ोर है...
-- ऋचा
बाँसुरी पर पं. हरी प्रसाद चौरसिया, संतूर पर पं. शिव कुमार शर्मा और गिटार पर पं. ब्रिज भूषण काबरा
राग : पहाड़ी, ताल : कहरवा
अल्बम : कॉल ऑफ़ दा वैली (1967)
एक छोटी सी जिज्ञासा कभी-कभी ढेरों ऐसी अनूठी जानकारियाँ दे जाती है कि आप सोच भी नहीं सकते... ऐसा ही कुछ हुआ कल हमारे साथ...
पेड़ पौधों का हमें बचपन से ही शौक़ रहा है... शायद पापा से विरासत में मिला है... अभी भी याद आता है कैसे बचपन में जब भी छुट्टियों में गाँव जाते थे तो वो बाग़ में घुमाने ले जाते थे और पूछा करते थे अच्छा बताओ ये कौन सा पौधा है, वो किस चीज़ का फूल है... या कभी किसी जंगली पेड़ का फल या बीज तोड़ लाते थे और कहते थे पता है ये क्या है... बस समझिये तभी से ये लत लग गई... फूलों और पौधों को पहचानने और उनका नाम याद रखने की...
कल शाम किसी के यहाँ गृह प्रवेश की पूजा में गये थे... घर के बाहर सड़क के किनारे यही कोई ६-७ फुट का एक छोटा सा पेड़ लगा हुआ था... गहरे भूरे रंग का बहुत सी दरारों वाला सूखा सा तना... बिलकुल महीन महीन सी हल्की हरी पत्तियां... और उसमें लगे बड़े ही अनूठे किस्म के छोटे से ब्रश के आकार के फूल, जिसका पिछला हिस्सा गहरा गुलाबी रंग का था और अगला सिरा पीला... जाने क्या था उस पेड़ में जो बार बार अपनी ओर आकर्षित कर रहा था... जब नहीं रहा गया तो जा कर एक छोटी सी टहनी तोड़ ही ली उसकी... घर आ कर पापा को दिखाया कि आख़िर ये फूल है कौन सा जो हमें नहीं पता... उस छोटी सी टहनी के आधार पर पापा भी पक्की तरह से कुछ नहीं बता पाये पर बोले कि पत्तियों से तो लग रहा है कि शायद "शमी" है... और ये भी बताया कि इसकी पत्तियाँ पूजा में काम आती हैं..
अब ये तो नाम ही हमने पहली बार सुना था तो हो गई खुजली शुरू... गूगल बाबा की जय हो... और बस खोजने बैठ गये कि आख़िर ये "शमी" क्या बला है... और फिर जो जानकारियों का पिटारा खुला तो बस खुलता ही गया... अब इतनी रोचक जानकारियाँ थीं तो सोचा क्यूँ ना ये सब आपके साथ भी सांझा कर लिया जाये कि ये "शमी" आख़िर है क्या बला :)
शमी जो खेजड़ी या सांगरी नाम से भी जाना जाता है मूलतः रेगिस्तान में पाया जाने वाला वृक्ष है जो थार के मरुस्थल एवं अन्य स्थानों पर भी पाया जाता है... अंग्रेजी में यह प्रोसोपिस सिनेरेरिया नाम से जाना जाता है.
विजयादशमी या दशहरे के दिन शमी के वृक्ष की पूजा करने की प्रथा है... कहा जाता है ये भगवान श्री राम का प्रिय वृक्ष था और लंका पर आक्रमण से पहले उन्होंने शमी वृक्ष की पूजा कर के उससे विजयी होने का आशीर्वाद प्राप्त करा था... आज भी कई जगहों पर लोग रावण दहन के बाद घर लौटते समय शमी के पत्ते स्वर्ण के प्रतीक के रूप में एक दूसरे को बाँटते हैं और उनके कार्यों में सफलता मिलने कि कामना करते हैं...
शमी वृक्ष का वर्णन महाभारत काल में भी मिलता है... अपने १२ साल के वनवास के बाद एक साल के अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने अपने सारे अस्त्र इसी पेड़ पर छुपाये थे जिसमें अर्जुन का गांडीव धनुष भी था... कुरुक्षेत्र में कौरवों के साथ युद्ध के लिये जाने से पहले भी पांडवों ने शमी के वृक्ष की पूजा करी थी और उससे शक्ति और विजय की कामना करी थी... तब से ही ये माना जाने लगा जो भी इस वृक्ष कि पूजा करता है उसे शक्ति और विजय मिलती है...
हे शमी, आप पापों का क्षय करने वाले और दुश्मनों को पराजित करने वाले हैं
आप अर्जुन का धनुष धारण करने वाले हैं और श्री राम को प्रिय हैं
जिस तरह श्री राम ने आपकी पूजा करी मैं भी करता हूँ
मेरी विजय के रास्ते में आने वाली सभी बाधाओं से दूर कर के उसे सुखमय बना दीजिये
एक और कथा के अनुसार कवि कालिदास ने शमी के वृक्ष के नीचे बैठ कर तपस्या कर के ही ज्ञान कि प्राप्ति करी थी.
शमी वृक्ष की लकड़ी यज्ञ की समिधा के लिए पवित्र मानी जाती है... शनिवार को शमी की समिधा का विशेष महत्त्व है... शनि देव को शान्त रखने के लिये भी शमी की पूजा करी जाती है... शमी को गणेश जी का भी प्रिय वृक्ष माना जाता है और इसकी पत्तियाँ गणेश जी की पूजा में भी चढ़ाई जाती हैं...
बिहार और झारखण्ड समेत आसपास के कई राज्यों में भी इस वृक्ष को पूजा जाता है और इसे लगभग हर घर के दरवाज़े के दाहिनी ओर लगा देखा जा सकता है... किसी भी काम पर जाने से पहले इसके दर्शन को शुभ मना जाता है...
राजस्थान के खेजराली गाँव में रहने वाले बिशनोई समुदाय के लोग शमी वृक्ष को अमूल्य मानते हैं और इसे कटने से बचाने के लिये सन १७३० में अमृता देवी के नेतृत्व में चिपको आन्दोलन कर के ३६३ बिशनोई लोग अपनी जान तक दे चुके हैं... ये चिपको आन्दोलन की सबसे पहली घटना थी...
कहते हैं ये पेड़ जहाँ होता है वहाँ की ज़मीन और अधिक उपजाऊ हो जाती है... इसकी जड़ से हल भी बनाया जाता है...
एक आख़िरी बात जो पता चली इस पेड़ के बारे में वो ये कि ऋग्वेद के अनुसार शमी के पेड़ में आग पैदा करने कि क्षमता होती है और ऋग्वेद की ही एक कथा के अनुसार आदिम काल में सबसे पहली बार पुरुओं (चंद्रवंशियों के पूर्वज) ने शमी और पीपल की टहनियों को रगड़ कर ही आग पैदा करी थी...
उफ़... एक नन्हां सा कौतुहल और कितना कुछ जाना एक पेड़ के बारे में... एक दोस्त अक्सर कहा करता है... तुम्हें बड़ी फ़ुर्सत से बनाया है भगवान ने... अब भला बताइये फ़ुर्सत से ना बनाया होता तो इत्ती सारी जानकारी मिलती आपको ?
इस वीकेंड एक फिल्म देखी "दसवेदानिया - दा बेस्ट गुड बाय एवर"... यूँ तो ये फिल्म तकरीबन तीन साल पुरानी है... २००८ में रिलीज़ हुई थी... काफ़ी पसंद भी करी गई थी... और तब से ही ये फिल्म हमारी "थिंग्स टू डू" लिस्ट में पड़ी हुई थी... तो आख़िरकार देख ही डाली... अब हमारे जैसे आलसी ने तीन साल बाद भी इसे याद रखा और देख लिया ये भी क्या कोई कम अचीवमेंट है :) ख़ैर.. अपने अचीवमेंट्स का बखान फिर कभी...
हाँ तो वापस आते हैं फिल्म पर... इस फिल्म का जो नायक है बहुत ही सीधा साधा इन्सान है, आजकल के परिपेक्ष में सही-सही बोलें तो एकदम बोरिंग, भोंदू टाइप... ना कोई यार-दोस्त ना सोशल लाइफ... सिर्फ़ अपनी बूढ़ी माँ की सेवा करता है और नौकरी करता है... अकाऊंट्स मेनेजर है और अच्छा ख़ासा कमाता है पर ज़िन्दगी जीना नहीं जानता... वही रोज़ मर्रा की ज़रूरतों में सुबह से शाम करता है बस... हाँ एक काम और करता है, रोज़ाना सुबह उठ के सबसे पहले एक थिंग्स टू डू लिस्ट बनाता है - माँ कि दवाई लानी है, गीज़र सही करवाना है, ऑफिस से लौटते हुए सब्ज़ी लानी है, सब्ज़ी में तरोई नहीं लानी है... वगैरह, वगैरह, वगैरह...
एक दिन उसे पता चलता है कि उसे स्टमक कैंसर है... और उसके पास सिर्फ़ तीन महीने की ज़िन्दगी बाक़ी है... उसे समझ ही नहीं आता कि वो क्या करे... कैसे इस सिचुएशन को फेस करे... ऐसे में उसकी मदद के लिये आती है उसकी अंतरात्मा... वो रोज़ की तरह ही एक और लिस्ट बना रहा होता है... वही दवाई, गीज़र, इलेक्ट्रीशियन, तरोई टाइप... तो उसकी अंतरात्मा उससे पूछती है क्या उसकी ज़िन्दगी में और कोई ख़्वाहिशें नहीं हैं ? उसने सारी ज़िन्दगी यही तो किया है... ज़िन्दगी बीत गई पर उसे कभी जिया ही नहीं... तो क्यूँ ना ये बाक़ी बचे तीन महीने वो वो सब करे जो वो वाकई करना चाहता है... उन सारी अधूरी ख्वाहिशों को पूरा कर के इस दुनिया से, इस ज़िन्दगी से विदा ले... और सही मायने में उसके बाद शुरू होती है उसकी ज़िन्दगी... तीन महीने की ज़िन्दगी... जो वो सच में जीता है... दिल से...
ख़ैर ये तो थी फिल्म की बात... कभी मौका मिले और आपने भी हमारी तरह ना देखी हो अब तक तो ये फिल्म ज़रूर देखिएगा... अब आते हैं मुद्दे की बात पे... ये फिल्म देख कर बहुत से विचार उमड़े मन में... सोचा सही ही तो है... भविष्य तो कोई भी देख कर नहीं आया... कल हमारे साथ क्या होने वाला है किसी को कुछ नहीं पता... तो क्या अब तक जो ज़िन्दगी हमने गुज़ारी उसे क्या वाकई जिया या सिर्फ़ बिता दी... यूँ ही... आज अगर हमारी ज़िन्दगी का आख़िर दिन हो तो क्या हम संतुष्ट हो के जायेंगे इस दुनिया से... शायद नहीं... तो क्यूँ ना जो आज हमारे पास है उसे ही दिल से जियें... क्यूँ चीज़ों को उस कल पे टालें जिसका कुछ पता ही नहीं...
एक और सवाल आया मन में.. कि अगर इस फिल्म के नायक कि तरह हमारे पास भी चंद दिन ही बचे हो ज़िन्दगी के तो वो क्या सब है जो हम करना चाहेंगे यहाँ से जाने से पहले... मतलब हमारी "थिंग्स टू डू बिफोर आई डाय" लिस्ट :) ... अब यूँ तो हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले... और ये ख़्वाहिशें गाहे-बगाहे आप सब से शेयर भी करते आये हैं हम... तो इस बार आपका टर्न... सारी ना सही, एक-आध ख़्वाहिश आप भी शेयर कर लीजिये हमारे साथ... जो आप सच में करना चाहते हैं.. दिल से...
बहुत ज़्यादा तो नहीं हैं मेरी ख़्वाहिशें...
बस इक ठंडी सी सुबह
तुम्हारे काँधे पे सर रख के
पहाड़ों के बीच उगता सूरज देखना चाहती हूँ !
तुम्हारा हाथ थाम
साहिल की चमकती रेत पर कुछ दूर तलक
पैरों के दो जोड़ी निशान छोड़ना चाहती हूँ !
हरी की पौड़ी पर
एक बार तुम्हारे साथ
संध्या आरती देखना चाहती हूँ !
झील के पानी में घुले
शफ़क के पिघले रंगों को चुन
तुम्हारी एक तस्वीर बनाना चाहती हूँ !
तितली का पीछा करते कभी
किसी गहरे घने जंगल में कुछ पल
भटक जाना चाहती हूँ... तुम्हारे साथ !
इक चाँदनी रात में
छत पर तुम्हारी आग़ोश में बैठे हुए
एक टूटते तारे को देखना चाहती हूँ !
उस टूटते तारे से तुमको माँगना चाहती हूँ
हमेशा... हर जन्म के लिये...
क्या करूँ कि मेरी ख्वाहिशों का दायरा
बहुत छोटा है
तुम्ही से शुरू होता है
तुम पर ही सिमट जाता है !
-- ऋचा
A Thousand Desires such as these... A thousand moments to set this night on fire... Reach out and you can touch them... You can touch them with your silences... You can reach them with your lust... Rivers, mountains, rain... Rain against a torrid hill-scape... A thousand desires such as these....
ये जो मन है ना उलझनों का वेयर-हॉउस है... ऊपर से किसी नीली झील के जैसे शान्त दिखने वाले मन कि हर तह में ढेरों उलझनें छुपी रहती हैं... हमेशा... हर वक़्त... पढ़ाई-लिखाई, कैरियर, नौकरी, प्यार, मोहब्बत, दोस्ती से ले कर आपके घर-परिवार, शादी, समाज, सामाजिक मान्यताओं तक की... यही नहीं आपके स्वभाव, बर्ताव, लोगों के आपके प्रति नज़रिए और समय के साथ बदलते उनके और आपके रवैये तक की... समझ नहीं आता क्या सही है और क्या ग़लत... कब क्या करना चाहिये क्या नहीं... सच क्या है वो जो दिखता है या वो जो जिसपर हम यकीन करते हैं... सवाल ढेरों हैं और उलझनें अनंत...
आख़िर कितनी उलझनों को सुलझाएँ... और कब तक... एक की गिरहें किसी तरह खोलो तो दूसरी गाँठ लगा के बैठ जाती है... उफ़... तंग आ गये हैं अब तो... कभी कभी तो दिल करता है इन सारी उलझनों की पोटली बनायें और दूर कहीं छोड़ आयें किसी जंगल में... जहाँ से ये सब फिर कभी वापस ना आ सकें.. काश कि ऐसा कर पाते... मन कितना हल्का हो जाता ना... ये जानवर कितने अच्छे होते हैं... किसी तरह कि कोई उलझन नहीं... जब जी चाहा खाया... जहाँ जी चाहा सोये... जिसके साथ दिल किया जंगल में दौड़ लगा ली...
ये ज़िन्दगी कभी कभी कितनी ठहरी हुई लगती है ना... फिर भी साँसें चलती रहती हैं... वक़्त भी कहाँ रुकता है... वो तो बहता रहता है अपनी ही रौ में और हम कहीं पीछे, बहुत पीछे छूट जाते हैं... अपनी उलझनों के साथ... अकेले...
कभी किसी छोटे बच्चे के हाथ से अपनी उंगली छुड़ाई है आपने ? कैसे अपनी नन्हीं नन्हीं आँखों में उम्मीद के बड़े बड़े आँसू भरे आपको दूर तलक जाते हुए देखता है... आपको पता होता है ये आप सही नहीं कर रहे... आप ख़ुश भी नहीं होते... फिर भी आप चलते रहते हैं... एक टीस सी उठती है दिल में और आप खुद को किसी गुनहगार से कम नहीं समझते.. कैसे इतने कठोर हो पाते हैं आप उस पल कि उस छोटे से बच्चे के आँसू भी आपको रोक नहीं पाते... इतने कठोर ? बिल्कुल पत्थर के जैसे... एकदम खुदगर्ज़... ऐसे तो नहीं हैं ना आप... फिर कैसे और क्यूँ आप ऐसे बन जाते हैं... वो भी एक रोते हुए बच्चे के सामने...
इन उलझनों में कितना वेग होता है... बिलकुल किसी भंवर कि तरह... एक बार इसमें फंस गये तो निकलने का कोई रास्ता नहीं... कुछ ऐसी ही तो होती हैं यादें भी... ना समय देखती हैं, ना जगह, ना माहौल... बस वक़्त बे-वक़्त आपको आ के घेर लेती हैं... कितना मुश्किल हो जाता है उनसे उंगली छुड़ा के आगे बढ़ना... ना चाहते हुए भी सब भूल जाना... या कम से कम भूलने का नाटक करना... कितना दर्द होता है... वैसी ही टीस उठती है... और आप एक बार फिर गुनहगार जैसा महसूस करते हैं... ख़ुद को और ज़माने को धोखा देते हुए...
बादलों कि ओट में चाँद छुपा क्यूँ
हौले से वो लेता अंगड़ाइयां है क्यूँ
मुखड़े पे लिखी-लिखी है उलझन
जानता है आसमां वो तन्हां है क्यूँ
खिले-खिले चेहरे हैं सूने से नयन
द्वार पे रंगोली है ख़ाली-ख़ाली मन
चलना अकेले है जो सबको यहाँ
चलें साथ-साथ परछाइयाँ भी क्यूँ
चूरा-चूरा है अँधेरा हवा सन-नन
हाथ-हाथ ढूंढें हाथ, हाथ कि छुअन
दूर-दूर दिल और पास है भरम
हँसते-हँसते लगता है क्यूँ हँसे थे हम
जी में आता है रो-रो सुजा लें आँखें हम
रेत के वो पाँव जाने कहाँ खो गये
रूठी-रूठी हुई पुरवाइयाँ हैं क्यूँ
अन्कन्डिशनल लव - बेशर्त प्यार... आज तक प्यार के बारे में जितना कुछ सुना, समझा, पढ़ा उससे हमेशा यही जाना कि प्यार में शर्तें नहीं होती और बिना किसी शर्त का प्यार ही सच्चा प्यार है, "ट्रू लव" ... क़िस्से, कहानियों और परीकथाओं जैसा... वो प्यार जो आजकल की दुनिया में मिलना नामुमकिन सी बात लगती है... पर असल में देखिये तो क्या प्यार वाकई ऐसा होता है ?
अच्छा एक बात बताइये... क्या हम इस बात का अनुमान पहले से लगा सकते हैं कि हमें प्यार होने वाला है ? क्या प्यार करने से पहले हम ये शर्त रख पाते हैं कि हमें कब, किससे, कहाँ और कैसे प्यार होगा ? क्या हम प्यार के होने ना होने को काबू में कर पायें हैं कभी ? नहीं ना ?
प्यार तो बस हो जाता है... बिना हमारे कुछ करे.. बिना हमारे कुछ सोचे...
तो फिर प्यार में ये शर्तें आती कब हैं ? और क्या वाकई ये शर्तें होती हैं... शायद नहीं... ये तो बस छोटी छोटी अपेक्षाएं होती हैं... उस इन्सान से जिसे हम दिल कि गहराइयों से प्यार करते हैं... आख़िर हम उनसे क्या चाहते हैं... कोई बड़ा ख़ज़ाना तो नहीं मांगते कभी... बस छोटी छोटी चंद अपेक्षाएं, इच्छाएं होती हैं उनसे और वो ही पूरी हो जाएँ तो हमें किसी बड़े ख़ज़ाने मिलने जैसी ख़ुशी दे जाती हैं... हम बस इतना ही तो चाहते हैं ना कि अगर हम उन्हें फ़ोन करें तो बदले में वो भी हमें कभी कॉल कर लें... हम उन्हें दस चिट्ठियाँ लिखें तो कम से कम वो भी एक चिट्ठी लिख दे हमें... हम उनका ख़्याल रखते हैं तो वो भी हमारा ख़्याल रखें... हम उनकी परवाह करते हैं और बदले में यही उम्मीद ख़ुद के लिये भी रखते हैं... हम प्यार देते हैं और चाहते हैं कि हमें भी वो प्यार मिले... तो इसमें ग़लत क्या है ?
झूठ बोलते हैं वो लोग जो कहते हैं उन्हें किसी से कोई अपेक्षा नहीं... या उन्होंने उम्मीदें रखना छोड़ दिया है... ये तो इन्सानी फ़ितरत है... हमारे स्वभाव का हिस्सा है... ये भला कैसे बदल सकता है... हम जैसा महसूस करते हैं उसे झुठला तो नहीं सकते... ना ही अपनी संवेदनाओं को दबा सकते हैं... हम किसी से प्यार पाना तो चाह सकते हैं पर प्यार ना पाना भला कैसे चाह सकते हैं...
अन्कन्डिशनल लव का मतलब ये नहीं होता कि हम जिसे प्यार करें उससे बदले में प्यार ना चाहें या जिसका ख़्याल रखें, परवाह करें, जिसकी कद्र करें उससे बदले में उस सब की उम्मीद ना रखें... क्यूँकि ऐसा करना हमारे बस में नहीं है... अन्कन्डिशनल लव बिना शर्तों का प्यार नहीं होता, क्यूँकि हम कोई भगवान नहीं हैं, हम सब आम इन्सान हैं और हम अपनी भावनाओं और उम्मीदों को नियंत्रित नहीं सकते... उम्मीद कि लौ तो हम तब भी जलाए रखते हैं, हम तब भी ये चाहते हैं कि सब ठीक हो जाये जब हमें ये पता होता है कि वास्तव में कुछ भी ठीक होने वाला नहीं है...
अन्कन्डिशनल लव का मतलब दरअसल ये तमाम उम्मीद और अपेक्षाएं रखने के बावजूद उनके साथ समझौता करना होता है, उनके साथ सामंजस्य बनाना होता है... उस इन्सान के लिये... जिसे हम प्यार करते हैं...
अन्कन्डिशनल लव अपेक्षाएं रखने के साथ साथ ये स्वीकार करना भी होता है कि ज़रूरी नहीं वो सारी अपेक्षाएं पूरी हों... पूरी होती हैं तो उससे अच्छा कुछ भी नहीं पर अगर पूरी नहीं होतीं तो भी बुरा मत मानिये... क्यूँकि अंत में हमारे लिये इन अपेक्षाओं के पूरा होने से ज़्यादा उस इन्सान से प्यार करना मायने रखता है... और अगर आप किस्मतवाले हैं तो आपको भी बदले में वो प्यार ज़रूर मिलता है...
शायद उस तरह से नहीं जिस तरह से आप चाहते थे पर हाँ जिस भी तरह से वो इन्सान आपको प्यार दे सकता है, पूरे दिल से...
और फिर आप प्यार करते हैं - सिर्फ़ प्यार - बिना शर्तों का - अन्कन्डिशनल लव !
[ ऐसा ही एक आर्टिकल हाल ही में एक इंग्लिश मैग्ज़ीन में पढ़ा था... उसे ही अपने शब्दों में पेश करने कि एक छोटी सी कोशिश है बस... ]
मैं
दिये की लौ सी जलती रहूँगी
निरंतर
तुम्हारे लिये
बिना किसी चाह
अपने प्यार से सदा
रौशन करती रहूँगी
ज़िन्दगी तुम्हारी
तुम बस इतना करना
जब मद्धम पड़ने लगे कभी
रौशनी मेरी
या बुझने लगूँ मैं
तो थाम लेना मेरी लौ हाथों के घेरे से
और अपने प्यार का घी डाल देना
थोड़ा सा
और मैं फिर जल उठूँगी
एक बार फिर रौशन करने
ज़िन्दगी तुम्हारी
और जलती रहूँगी
निरंतर
यूँ ही
तुम्हारे लिये...
-- ऋचा
जाने क्यूँ आज ये गाना बड़ी शिद्दत के साथ याद आ रहा है... सोचा आप लोगों को भी सुनवा दूँ... कैनेडियन सिंगर शनाया ट्वेन का गाया हुआ - "यू आर स्टिल द वन"...
धरती बनना बहुत सरल है कठिन है बादल हो जाना
संजीदा होने में क्या है मुश्किल है पागल हो जाना
रंग खेलते हैं सब लेकिन कितने लोग हैं ऐसे जो
सीख गये हैं फागुन की मस्ती में फागुन हो जाना !!!
-- डॉ. कुमार विश्वास
मुलायम, चमकीले हरे कोपलों की चोली, सेमल का सुर्ख़ रेशमी घाघरा, सरसों की पीली महकती चुनर और केसरिया पलाश की पायल पहने... छन छन करती... हँसती खिलखिलाती... फिज़ाओं में खुशियों के रंग बिखेरती... किसी अल्हड़ नवयौवना सी फागुन ऋतु दस्तक दे चुकी है... होली बस अगले ही मोड़ पर है... एकदम क़रीब... हवाओं में बौराए आम का नशा घुलने लगा है... ठंडाई का स्वाद ज़बान पर आने लगा है... गुजिया की मिठास होंठों पर तैरने लगी है... चटख रंगीले अबीर गुलाल से रंगे जाने को बच्चों से ले कर बड़ों तक सभी बेताब हैं...
एक बार फिर हर गली मोहल्ले में होली का राष्ट्रगान बजने लगा है - "पी ने मारी पिचकारी मोरी भीगी अंगिया... रंग रसिया ओ रंग रसिया... होली है !!! हो रंग बरसे भीगे चुनर वाली... रंग बरसे..."
सच कभी कभी तो मन करता है... नहीं कभी कभी क्या रोज़ ही मन करता है उस ईश्वर को दिल से धन्यवाद देने का जो इस भारत माँ की संतान होने का सौभाग्य मिला... ऐसी धरती पर जन्म लिया जहाँ रंगों से लेकर रिश्तों और रौशनियों हर चीज़ के त्यौहार मनाये जाते हैं... कभी जीवन के हर रंग में ख़ुश रहने की सीख देते हैं ये त्यौहार... तो कभी अमावास की काली रात को भी उम्मीद के दियों से रौशन करने की...
यहाँ हम हर रिश्ते का उत्सव मनाते हैं... फिर चाहे वो भाई बहन का रिश्ता हो, पति पत्नी का या बेटे बेटियों का... और होली का त्यौहार उस सब से ऊपर है जो सिखाता है सारे गिले शिकवे भूल कर दोस्त ही क्या दुश्मनों को भी हँस के गले लगाओ... ये ज़िन्दगी लड़ाई झगड़े, शिकवे शिकायतों के लिये बहुत छोटी है... इसे प्यार के रंगों से रंग लो...
आज जब इस दौड़ती, भागती, हांफती ज़िन्दगी में खुशियों के पल बहुत कम होते जा रहे हैं... क्या आप नहीं चाहते फागुन की मस्ती में एक बार फिर से फागुन हो जाना... पिचकारी में प्यार भर के अपनों को एक बार फिर उस प्यार में रंग देना... दोनों मुट्ठियों में अबीर गुलाल भर के यूँ ही हवा में उड़ा देना और ख़ुद भी उसमें सराबोर हो जाना सारी परेशानियाँ भूल के... हम तो बिलकुल तैयार हैं... तो आइये हो जाये... एक बार फिर मिल के होली मनाएँ... नाचे गायें... शोर मचाएं... होली है भाई होली है... बुरा ना मानो... होली है :)
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
ख़ुम शीशे-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की।
हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग भरे
कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग भरे
दिल फूले देख बहारों को, और कानों में आहंग भरे
कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे
कुछ घुंगरू ताल छनकते हों, तब देख बहारें होली की
गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हों और हाथों में पिचकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।।
और एक तरफ़ दिल लेने को, महबूब भवइयों के लड़के,
हर आन घड़ी गत फिरते हों, कुछ घट घट के, कुछ बढ़ बढ़ के,
कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के, कुछ होली गावें अड़ अड़ के,
कुछ लचके शोख़ कमर पतली, कुछ हाथ चले, कुछ तन फड़के,
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों, तब देख बहारें होली की।।
ये धूम मची हो होली की, ऐश मज़े का झक्कड़ हो
उस खींचा खींची घसीटी पर, भड़वे खन्दी का फक़्कड़ हो
माजून, रबें, नाच, मज़ा और टिकियां, सुलफा कक्कड़ हो
लड़भिड़ के 'नज़ीर' भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़ पत्थड़ हो
जब ऐसे ऐश महकते हों, तब देख बहारें होली की।।
-- नज़ीर अकबराबादी
[ गीत मुज़फ्फ़र अली जी के एल्बम हुस्न-ए-जाना से, छाया गांगुली जी की आवाज़ में ]
जाने क्यूँ ये दिल बंजारों के जैसा भटक रहा था पिछले कुछ दिनों से... यहाँ वहाँ.. वहाँ यहाँ... पहाड़... झरने... जंगल... बादल... नदी... बारिश... कहीं भी चैन नहीं था... जाने क्या ढूंढ़ रहा था... न जाने किसकी तलाश थी... जानती थी ये भटकाव अच्छा नहीं है... पर दिल था कि कुछ सुनने मानने को ही तैयार नहीं था... ज़िद्दी हो गया है आजकल... लगता है हम पर ही गया है :)
ख़ैर... आज जनाब को जाने कहाँ से सेमल और पलाश के फूल याद आ गये... और बस हमारी उँगली पकड़ के ज़िद शुरू... चलो न किसी जंगल में... सेमल और पलाश के फूल चुन के लायेंगे... ढेर सारे... सुर्ख़... दहकते हुए से... कितने ख़ूबसूरत लगते हैं न... एक अलग सा तेज... एक अलग सी आभा लिये हुए... जैसे लाल जोड़े में सजी कोई दुल्हन खड़ी अपने प्रियतम का इंतज़ार कर रही हो...
हाँ तो ये जनाब कहाँ मानने वाले... ज़िद पे अड़ गये तो अड़ गये... हमने समझाया भी यहाँ कहाँ रखा है जंगल और ये पेड़... पर नहीं, उन्हें तो फूल चाहिये... तो भाई उनका हाथ थाम चल दिये हम भी... हम, वो और हमारा कैमरा... ;)
कंक्रीट के इस जंगल में अभी भी कभी कभार ये भूले बिसरे पेड़ देखने को मिल जाते हैं... सो हमें भी मिल गया एक सेमल का पेड़... श्रृंगार रस से ओत-प्रोत किसी कविता सा... और बस दिल रीझ सा गया उसकी ये सुर्ख़ सुनहरी धज देख कर... बंजारा दिल बाँवरा हो गया... ना ट्रैफिक की परवाह... ना आते जाते लोगों की और ना अचरज से देखती उनकी निगाहों की... कि आख़िर इस लड़की को हो क्या गया है... बीच सड़क कैमरा ले कर सेमल कि फोटो लेने में ऐसी मगन है कि कुछ ख़्याल ही नहीं दीन दुनिया का... अब क्या किया जाये... "कुछ तो लोग कहेंगे... लोगों का काम है कहना..." तो उन्हें कहने दिया और हम मगन रहे... ढेर सारी फोटो लीं... ज़मीं पर बिछी सुर्ख़ चादर से कुछ फूल उठाये और वापस चल दिये... होंठों पे मुस्कान और दिल में संतुष्टि ले कर... जैसे जग जीत आये हों :)
पर ये ज़िद्दी दिल वापस आने को तैयार ही नहीं था... फिर क्या था कर दी एक शाम इस पागल ज़िद्दी दिल के नाम :) ... पास ही एक पार्क था... चल दिये उधर... कुछ देर टहले और फिर एक लोहे की बेंच पे बैठ के शाम की ठंडी हवा और पेड़ पौधों का लुत्फ़ उठा ही रहे थे कि अपने घोंसलों में लौटते कुछ पंछियों का झुण्ड वहाँ से गुज़रा और दिल फिर उड़ चला उन के साथ "पंछी बनू उड़ती फिरूँ मस्त गगन में..." गाते हुए...
सच कहूँ तो उसे रोकने का मन नहीं हुआ... आज कितने दिनों बाद इतना ख़ुश था... बच्चों के जैसे निश्छलता से खिलखिला रहा था... थक गया था शायद ख़ुद को समझाते बहलाते... ये सही है ये ग़लत... ये करो ये नहीं... लोग क्या कहेंगे... कोई बच्ची हो क्या तुम... उफ़... उफ़... उफ़... बस यार ! कब तक आख़िर दुनिया की, दुनियादारी की, सही-ग़लत की परवाह करे... आज बिना किसी की परवाह किये उड़ रहा था... आज़ाद... बेफिक्र...
ओ दिल बंजारे... जा रे... खोल डोरियाँ सब खोल दे... !!!
... उन दिनों सुबहें कितनी जल्दी हुआ करतीं थीं... शामें भी कुछ जल्दी घिर आया करती थीं तब... फूलों की महक भीनी हुआ करती थी और तितलियाँ रंगीन... और इन्द्रधनुष के रंग थोड़े चमकीले, थोड़े गीले हुआ करते थे... आँखों में तैरते ख़्वाबों जैसे... सुबह होते ही चीं-चीं करती गौरैया छत पर आ जाया करतीं थीं, दाना चुगने... उस प्यारी सी आवाज़ से जब नींदें टूटा करती थीं तो बरबस ही एक मुस्कुराहट तैर जाया करती थी होंठों पर... यूँ लगता था जैसे किसी ने बड़े प्यार से गालों को चूम के, बालों पर हौले से हाथ फेरते हुए बोला हो "उठो... देखो कितनी प्यारी सुबह है... इसका स्वागत करो..." ... सच! कितने प्यारे दिन थे वो... बचपन से मासूम... रूहानी एहसास भरे...
कोहरे और धुँध को बींधती हुई धूप जब नीम के पेड़ से छन के आया करती थी छज्जे में तो कितनी मीठी हुआ करती थी... गन्ने के ताज़े ताज़े रस जैसी... ख़ुशबूदार और एकदम मुलायम... दादी की नर्म गोद सी... खुले आँगन में जब दादी अलाव जलाया करती थीं तो सर्दी कैसे फ़ौरन ग़ायब हो जाया करती थी... अब बन्द कमरों में घंटो हीटर के सामने बैठ कर भी नहीं जाती... उस अलाव में कैसे हम सब भाई बहन अपने अपने आलू और शकरकंद छुपा दिया करते थे और बाद में लड़ते थे "तुमने मेरा वाला ले लिये वापस करो..." कितनी मीठी लड़ाई हुआ करती थी... वो मिठास कहाँ मिलती है अब माइक्रोवेव में रोस्टेड आलू और शकरकंद में...
कभी सरसों के पीले पीले खेत में दोनों बाहें फैला के नंगे पैर दौड़े हैं आप ? हम्म... यूँ लगता है मानो पूरी क़ायनात सिमट आयी हो आपके आग़ोश में... कभी महसूस करी है सरसों के फूलों की वो तीखी गंध ? क्या है कोई इम्पोर्टेड परफ्यूम जो उसकी बराबरी कर सकता है कभी ? शायद नहीं... आज भी याद आती हैं गाँव में बीती वो गर्मियों की छुट्टियाँ... सुबह आँख खुलते ही सबसे पहले वो आम के बाग़ में जा के खट्टी-खट्टी कैरियों का नाश्ता करना और फिर घंटों ट्यूब वेल के पानी में खेलना... बचपन और गाँव... दोनों अपने आप में ही ख़ूबसूरत और साथ मिल जाएँ तो यूँ समझिये दुनिया में उससे ज़्यादा ख़ूबसूरत और कुछ भी नहीं...
जाने क्यूँ आज दिल यादों की उन ख़ूबसूरत सी गलियों में फिर भटक रहा है... आज जब कुछ भी पहले सा नहीं है... कुछ भी पहले सा नहीं हो सकता... जी कर रहा है एक बार फिर उस बचपन में, उस गाँव में लौट जाएँ... मिट्टी के चूल्हे में पकी वो सौंधी सी रोटी जो धुएँ की महक को आत्मसात कर के कुछ और सौंधी और मीठी हो जाया करती थी... वो हँसी ठिठोली... वो देवी माँ का मंदिर, वो कमल के फूलों से भरा तालाब... वो गुलमोहर, वो नीम, वो नीम की डाली पे पड़ा लकड़ी के तख्ते वाला झूला... उस पर बैठे हम सब भाई बहन... पींग बढ़ाते हुए... शोर मचाते हुए.. "और तेज़... और तेज़... और तेज़..."
गाँव के इस तेज़ी से बदलते परिवेश पर हाल ही में अजेय जी की एक कविता पढ़ी कविताकोश पर... दिल को छू गई... आप भी पढ़िये...
मेरे गाँव की गलियाँ पक्की हो गई हैं।
गुज़र गई है एक धूल उड़ाती सड़क
गाँव के ऊपर से
खेतों के बीचों बीच
बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ
लाद ले जाती हैं शहर की मंडी तक
नकदी फसल के साथ
मेरे गाँव के सपने
छोटी छोटी खुशियाँ --
मिट्टी की छतों से
उड़ा ले गया है हेलीकॉप्टर
एक टुकड़ा नरम धूप
सर्दियों की चहल पहल
ऊन कातती औरतें
चिलम लगाते बूढ़े
"छोलो" की मंडलियाँ
और विष-अमृत खेलते बच्चे।
टीन की तिरछी छतों से फिसल कर
ज़िन्दगी
सिमेंटेड मकानों के भीतर कोज़ी हिस्सों में सिमट गई है
रंगीन टी० वी० के
नकली किरदारों में जीती
बनावटी दु:खों में कुढ़ती --
"कहाँ फँस गए हम!
कैसे निकल भागे पहाड़ों के उस पार?"
आए दिन फटती हैं खोपड़ियाँ जवान लड़को की
बहुत दिन हुए मैंने पूरे गाँव को
एक जगह/एक मुद्दे पर इकट्ठा नहीं देखा।
गाँव आकर भूल गया हूँ अपना मकसद
अपने सपनों पर शर्म आती है
मेरे सपनों से बहुत आगे निकल गया है गाँव
बहुत ज्यादा तरक्की हो गई है
मेरे गाँव की गलियाँ पक्की हो गई हैं।
-- अजेय
तरक्क़ी.. सुख-सुविधायें... ऐश-ओ-आराम... आगे बढ़ना... किसे पसंद नहीं होता... पर इस सब के बदले जो क़ीमत चुकानी पढ़ती है... अपने गाँव से, अपने घर से, अपने अपनों से बिछड़ने की... उस टीस को जसवंत सिंह जी की गायी हुई इस ग़ज़ल में बख़ूबी महसूस करा जा सकता है... "वक़्त का ये परिंदा रुका है कहाँ..."
नये साल की ये पहली पोस्ट है... तो सबसे पहले तो इस्तक़बाल... ख़ैर मक़दम... ख़ुश आमदीद... २०११ में आप सब का स्वागत है... नये साल की ढेर सारी शुभकामनाएँ आप सभी को... हाँ बाबा, माना ये शुभकामनाएँ थोड़ी सी पुरानी हो गयीं हैं... पर ८ दिन पुराना ही सही फिर भी साल तो नया है ना :) असल में हुआ ये की एक तोहफ़ा तैयार करने लगे थे आप सभी के लिये... अब कितना पसंद आएगा आपको ये तो पता नहीं पर हमने अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश करी... और ये कोशिश अकेले नहीं करी... हमारा साथ दिया दो दोस्तों ने...
अभी कुछ दिन पहले, मतलब पिछले साल, हमने एक कैलेंडर शेयर करा था आप सब के साथ गुलज़ार साब का... तो उसे देख कर भास्कर जी ने हमें मेल करा की ऐसा ही कोई कैलेंडर २०११ के लिये आये तो ज़रूर बताइयेगा... फिर उन्होंने ही आईडिया दिया की आपकी रचनायें ले कर ये कैलेंडर ख़ुद ही क्यूँ ना बना लिया जाये... अब कैलेंडर के लिये क्षणिकाएं हमें लिखनी थीं और बनाने वाले भास्कर जी थे पर कुछ व्यस्तता के चलते वो उतना समय नहीं दे पाए... पर उनके आईडिया से हम इंस्पायर हो गये और क्रिएटिविटी के कीड़े जो बहुत दिनों से निष्क्रिय पड़े थे अचानक से जाग पड़े... तो सबसे पहले तो भास्कर जी का शुक्रिया इस आईडिया के लिये... और फिर शुक्रिया हमारे उस दोस्त का जिसके बिना ये बनाना शायद हमारे जैसे आलसी के लिये सम्भव ही ना हो पाता :)... अब उस दोस्त ने मदद तो करी ये डेस्कटॉप कैलेंडर बनाने में पर इस शर्त पर की उसका नाम यहाँ नहीं लिया जाये... अब वैसे तो दोस्ती और प्यार में शर्तें नहीं होती पर दोस्त का कहा टाला भी नहीं जाता... तो लीजिये नहीं लिया नाम... बस दोस्त कहना ही काफ़ी है... है ना :)
चलिए जी बहुत हो गई बातें... अब हमसे और सब्र नहीं होता... जल्दी से देख के बताइये तोहफ़ा कैसा लगा... और हाँ अनलिमिटेड स्टॉक है, जी भर के डाउनलोड करिये... जितना मर्ज़ी :)
अपने बारे में क्या बताऊँ आपको, नवाबों के शहर लखनऊ में पली बढ़ी एक आम लड़की हूँ, a software engineer by profession... लेखिका नहीं हूँ सो शब्दों से खेलना नहीं आता, पर सराहना ज़रूर आता है और ज़िन्दगी की छोटी छोटी चीज़ों में खुशियाँ तलाशना आता है... बच्चों की मासूम किलकारी, फूलों की ख़ुश्बू, प्रकृति की शान्ति, रंग बिरंगी तितलियाँ, हवा में उड़ते गुब्बारे, बारिश की बूँदें, मिट्टी की सौंधी सी महक... बरबस ही हमें अपनी ओर खींच लेते हैं... i believe, with all its complications and uncertainties, life is still beautiful and worth living... u just have to face it with a positive attitude and take everything in ur stride !!
अच्छा लगता है न जब आपका लिखा कुछ लोगों तक पहुँचे... ख़ासकर उन लोगों तक जिनका आना जाना ब्लॉग और इन्टरनेट की इन तकनीकी गलियों में नहीं है... वो, जिनके लिए पढ़ने का ज़रिया आज भी अखबार और किताबें ही हैं... तो बेशक़ हमारे लिखे को उन लोगों तक पहुँचाइये... अगर हमारा लिखा इस लायक है... हाँ एक चिट्टी हमारे पते पर भी ज़रूर छोड़ते जाइये... थोड़ा सा हम भी ख़ुश हो लें !