Friday, December 31, 2010

मुश्किल है जीना उम्मीद के बिना...


मुश्किल है जीना उम्मीद के बिना
थोड़े से सपने सजायें
थोड़ा सा रूमानी हो जाएँ...

2010 की आख़िरी शाम बैठ के बीते साल पे नज़र दौडाती हूँ... सोचती हूँ... कितना कुछ बीता, कितना कुछ बदला इस बीते साल में... हमारे आस पास... हमारे साथ... हमारे अपनों के साथ... कुछ नये दोस्त मिले, कुछ बिछड़े... कुछ नाम के रिश्ते टूटे... कुछ बेनाम रिश्ते जिये... बहुत कुछ बदला... वक़्त बदला... हालात बदले... ख़ुशी और प्यार का पैमाना भी... हाँ, कुछ हादसों और कुछ हौसलों के बीच कुछ नहीं बदला तो वो है "उम्मीद"... उम्मीद, की वो इंतज़ार है जिसका वो सहर कभी तो आएगी... वो सहर जब धुएँ और धूल से दूषित इस वातावरण में भी सूरज की किरणें हम तक अपनी रश्मियों की मुलायमियत पहुँचायेंगी... जब लोग यू.वी. और अल्ट्रा रेड किरणों के डर के बिना धूप सेक सकेंगे, एक बार फिर... वो सहर जब सपने नींद से निकल कर साकार होंगे... वो सहर जब हम रिश्तों और भावनाओं की तिजारत बन्द कर देंगे... प्यार करने से पहले उसके साइड इफेक्ट्स के बारे में सोचना बन्द कर देंगे... वो सहर जब दिमाग़, दिल का रास्ता काटना छोड़ देगा... हर फैसले से पहले...

इस साल की शुरुआत कुछ रेल हादसों के साथ हुई... कुछ भारतीय छात्रों पर हमले हुए ऑस्ट्रेलिया में... आतंकवादियों ने इस बार पुणे की धरती को रंगा, चंद मासूमों के खून से... प्रतापगढ़ के मंदिर में भगदड़ मची... बहुत सी जाने गयीं... सोचती हूँ बच्चों के मन में जाने कौन सा पाप होगा जो वो इस हादसे का शिकार हुए... अजमल कसाब क्यूँ अभी तक ज़िन्दा है... ज़रूर उसने कोई पुण्य किया होगा किसी जन्म में... "धनुष" और "पृथ्वी" का परीक्षण सफ़ल हुआ... रूस के साथ न्यूक्लियर रिएक्टर डील साइन हुई... ढाबे पे काम करते बच्चों को देखती हूँ तो सोचती हूँ इसी साल तो सरकार ने नि:शुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा अधिनियम लागू करते हुए शिक्षा को बच्चों का मौलिक अधिकार बनाया था...

सोचती हूँ ये नक्सलवादी... ये माओवादी क्या इन्सान नहीं होते... उनके ख़ून का रंग कैसा होता है... दिल तो उनके सीने में भी धड़कता होगा ना... पर किसके लिये... एयर इंडिया का विमान हवाई पट्टी पे फ़िसल गया... गोया विमान ना हुआ मयक़दे से निकलता हुआ शराबी हो गया जो गली में फ़िसल गया... इन्द्रदेव इस साल कुछ ज़्यादा ही प्रसन्न रहे मुम्बई वासियों पर... दिल्ली सुना था बह जायेगी इस बार बाढ़ में, पर बच गई... अब सुना है वहाँ बर्फ़ पड़ने के आसार हैं... ये मौसम वैज्ञानिक ये क्यूँ नहीं पता लगाते इन आतंकवादियों के दिल कब पिघलेंगे... उसमें कब जज़्बातों का सैलाब आएगा...

कॉमन वेल्थ खेलों के चलते दिल्ली दुल्हन सी सजाई गई... प्री ब्राइडल पैकेज में कुछ गड़बड़ियाँ हुईं थीं पर समय रहते सब संभाल लिया गया... उदघाटन समारोह की भव्यता देखते ही बनती थी... नाज़ हुआ एक बार फिर ख़ुद के भारतीय होने पर... फिर एक तरफ़ बरखा दत्त और दूसरी तरफ़ विनायक सेन भी याद हो आते हैं... शशि थरूर जी की माने तो हम कैटल क्लास लोगों को तो जीने का ही हक़ नहीं... जो पाँच सितारा होटल के सामने से गुज़रते हुए सोचते हैं... यहाँ आयेंगे ज़रूर एक दिन... बस सोचते हैं... हम्म...

सोचना कितना बड़ा काम है अपने आप में... है ना ? आज मौसम बहुत सर्द है... महावट अपने साथ कुछ ठिठुरती हुई भीगी सी यादें भी ले आया... हाँ, मौसम से याद आया इस साल मौसम में होने वाले बदलावों पर काफ़ी बैठके हुईं, बातें हुईं, सेमिनार्स हुए... सुनने में आया की 2012 में धरती का अस्तित्व ख़त्म होने वाला है... तो सोचा अभी 2 साल हैं... जी लो जी भर के... जो कुछ नहीं कर पाये सब कर लो... क्या जाने फिर कभी किसी ग्रह पर जीवन संभव हो कि ना हो... पर ये एक साल तो ऐसे ही बीत गया.. यूँ ही... बिना कुछ किये... ख़ैर... उम्मीद अभी भी नहीं टूटी... एक साल अभी भी बाक़ी है... पूरे 365 दिन...

Wednesday, December 22, 2010

कैफ़ियत



वो साहिल की रेत में दबी
किताब सा मिला
कुछ नम, कुछ रुखा,
नम पन्नों पर
कुछ धूल सी जम आयी थी

सीलन से
कुछ वर्क ग़ल गये थे
कुछ हर्फ़ भी पिघल गये थे
कुछ सीमे हुए से किरदार मिले
उन आधे अधूरे पन्नो में
बड़े ही दिलचस्प थे
पूरा पढ़ना चाहा, पर
ठीक से पढ़ ना सकी...


अजीब कैफ़ियत है
अजीब क़िस्सा है
ना इब्तिदा है कोई
ना अंजाम तक ही पहुँचा
फिर भी पढ़ती हूँ
अक्सर उसे
उन अनसुलझे किरदारों से
अजीब शनासाई है...

-- ऋचा

Monday, December 13, 2010

मंज़िल जैसी राह...


ता-उम्र ढूँढता रहा मंज़िल मैं इश्क़ की
अंजाम ये कि गर्द-ए-सफ़र ले के आ गया

एक अंधे धावक कि तरह तमाम उम्र हम आँख बन्द किये बस दौड़ते रहते हैं... बेतहाशा... बदहवास से... उस मंज़िल तक पहुँचने के लिये जो हमें पता ही नहीं, है भी या नहीं और है तो कहाँ है... जब तक हम वहाँ पहुंचेंगे क्या वो वहीं रहेगी ? और ग़र मिल भी गई तो क्या हम सफ़ल कहलायेंगे... क्या तृप्त हो पायेंगे... शायद नहीं... क्यूँकि हम इंसान फ़ितरत से ही अतृप्त और अधीर होते हैं... कितना भी मिल जाये कम ही होता है हमारे लिये... हमारी लालसा और प्यास निरंतर बढ़ती ही रहती है...

मंज़िल तक पहुँचने की इतनी जल्दी होती है हमें... इतनी हड़बड़ी... की उस मंज़िल तक पहुँचाने वाले रास्ते की ख़ूबसूरती का लुत्फ़ ही नहीं उठाते और ना ही अपने हमसफ़र के साथ का आनंद उठाते हैं... ठीक उसी तरह अपने हर रिश्ते को अंजाम तक पहुँचाने की इतनी जल्दी होती है हमें की उसे दिल से कभी जीते ही नहीं... हम ये भूल जाते हैं कि किसी भी रिश्ते का असल सार तो उस रास्ते में घुला होता है जो हम साथ मिल के तय करते हैं... उस भावनात्मक पुल में जो एक रिश्ते के दोनों सिरों को जोड़ता है... उसे मज़बूत बनता है... उस रिश्ते को महज़ मंज़िल तक पहुँचा के मुकम्मल करने में नहीं...

ऐसा ही एक रिश्ता निभाया अमृता-इमरोज़ ने... किसी अलग ही दुनिया के बाशिंदे थे दोनों... भीड़ से अलग... अपनी धुन में मस्त... किसी मंज़िल की कोई तलाश नहीं... बस एक दूसरे के साथ को जीते और उसका आनंद लेते... कभी कोई बंदिश नहीं लगाई एक दूसरे की किसी भी बात पर... ना कभी अमृता ने इमरोज़ को रोका उन्हें चाहने से ना कभी इमरोज़ ने अमृता को रोका साहिर को चाहने से... दोनों इस बात को अच्छे से समझते थे कि आप ना तो किसी को ज़बरदस्ती प्यार करने के लिये मजबूर कर सकते हो और ना ही किसी को प्यार करने से रोक सकते हो... दोनों ने अपनी उम्र का एक लम्बा अरसा एक दूसरे के साथ बिताया... सामाजिक रस्मों रवायतों से परे... एक अनाम अपरिभाषित रिश्ता... जिसे आप प्यार, मोहब्बत, दोस्ती कुछ भी कह लीजिये... या सिर्फ़ साथ... एक दूसरे का साथ... निस्वार्थ साथ... 

सामने कई राह दिख रही थीं
मगर कोई राह ऐसी ना थी,
जिसके साथ मेरा अपना आप चल सके
सोचता कोई हो मंज़िल जैसी राह...

वह मिली तो जैसे
एक उम्मीद मिली ज़िन्दगी को
यह मिलन चल पड़ा
हम अक्सर मिलने लगे और मिलकर चलने लगे
चुपचाप कुछ कहते, कुछ सुनते
चलते-चलते कभी-कभी
एक दूसरे को देख भी लेते

एक दिन चलते हुए
उसने अपने हाथों की उँगलियाँ
मेरे हाथ की उँगलियों में मिलाकर
मेरे तरफ़ इस तरह देखा
जैसे ज़िन्दगी एक बुझारत पूछ रही हो
कि बता तेरी उँगलियाँ कौन सी हैं
मैंने उसकी तरफ़ देखा
और नज़र से ही उससे कहा...
सारी उँगलियाँ तेरी भी, सारी उँगलियाँ मेरी भी

एक तारीख़ी इमारत के
बग़ीचे में चलते हुए
मेरा हाथ पकड़कर कुछ ऐसे देखा
जैसे पूछ रही हो इस तरह मेरे साथ
तू कहाँ तक चल सकता है ?
मैंने कितनी ही देर
उसका हाथ अपने हाथ में दबाये रखा
जैसे हथेलियों के रास्ते ज़िन्दगी से कह रहा होऊं
जहाँ तक तुम सोच सको -

कितने ही बरस बीत गए इस तरह चलते हुए
एक-दूसरे का साथ देते हुए, साथ लेते हुए
इस राह पर
इस मंज़िल जैसी राह पर...

-- इमरोज़


Monday, December 6, 2010

साँझ...


सुबह की धूप सी, शाम के रूप सी, मेरी साँसों में थीं जिसकी परछाइयाँ... देख कर तुमको लगता है तुम हो वही, सोचती थीं जिसे मेरी तन्हाईयाँ... था तुम्हारा ही मुझे इंतज़ार... हाँ इंतज़ार...

Friday, December 3, 2010

क्या कहिये मियां क्या है इश्क़...


लोग बहुत पूछा करते हैं, क्या कहिये मियां क्या है इश्क़
कुछ कहते हैं सर-ए-इलाही, कुछ कहते हैं ख़ुदा है इश्क़
उल्फ़त से परहेज़ किया कर, कुल्फ़त इसमें निहायत है
यानी दर्द-ओ-रंज-ओ-ताब है, आफ़त-ए-जां है, बला है इश्क़
-- मीर तक़ी मीर


"यहाँ" फिल्म की नायिका जब आतंकवाद से ऊब कर अपनी जन्नत जैसी कश्मीर की धरती को उजड़ता हुआ देखती है और एक मासूम सा सवाल करती है अपनी दादी से "हम प्यार करना भूल गये क्या दादी ?" ... तो दिल सोचने को मजबूर हो जाता है... क्या वाकई ? हम प्यार करना भूल गये हैं ? या प्यार की परिभाषा बदल गई है ? प्यार की कोई परिभाषा होती भी है क्या ? प्यार को परिभाषित करना सम्भव है क्या ?

प्यार... अनंत काल से चला आ रहा एक गूढ़ रहस्य है शायद... मनु श्रद्धा के समय से... या उससे भी पहले से... जब इस सृष्टि का निर्माण हुआ था... या फिर दिमाग़ में हुआ कोई "केमिकल लोचा"... जैसा कि आजकल के वैज्ञानिक कहते हैं... या मीरा का समर्पण... या राधा का पागलपन... या फिर कान्हां की बाँसुरी... जिसके सुरों के जादू से मंत्रमुग्ध हो इन्सान तो क्या पशु, पक्षी तक खिंचे चले आते थे... या फिर आजकल के सन्दर्भ में लें तो "इन्फ़ैचुएशन" या सिर्फ़ "फ़िज़िकल अट्रैक्शन"...

आख़िर है क्या ये प्यार... कभी लगता है ईश्वर है... भक्ति है... शक्ति है... निष्पाप... निश्छल... निस्वार्थ... कभी लगता है ये ज़िन्दगी का सबसे ख़ूबसूरत एहसास है जिसके बिना ज़िन्दगी कितनी खोखली हो जायेगी... कभी लगता है बन्धन है और कभी लगता है इसमें डूब के ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है... ये मिलन भी है... जुदाई भी... ये ख़ुदा भी है... ख़ुदाई भी... अपरिमित और असीम... कभी राम... कभी रहीम... कभी आशा कभी विश्वास... कभी अनुराग कभी विराग... कभी ज्वर कभी भंवर तो कभी एक शान्त सरोवर...

प्यार इक दुआ है... और उस दुआ का कुबूल होना भी... प्यार एक प्यारा सा एहसास है जो आपके समस्त अस्तित्व को ख़ुशी से भर देता है... क्यूँ होता है ये तो नहीं पता, बस होता है तो होता है और जब होता है तो आपको पूर्ण होने का एहसास देता है... एक ऐसी निस्वार्थ भावना जो आपको अपने प्रिय के लिये बिना किसी स्वार्थ कुछ भी करने के लिये प्रेरित करती है... प्यार ख़ुशबू है... प्यार जादू है... प्यार ये सब है और बस प्यार है....

जाते जाते प्यार के दो रंग छोड़े जा रही हूँ आपके लिये, देखिये, सुनिये और मोहब्बत में डूब जाइये बस...





इक लफ्ज़-ए-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है


Monday, November 29, 2010

ख़्वाहिश !



लम्हा लम्हा ज़िन्दगी बीतती जाती है, चंद यादों को सिरजते दिन गुज़रते जाते हैं... अच्छे बुरे, सारे पल, फ़ना होते जाते हैं... अपने पीछे मुट्ठी भर ख़ुशियाँ, ओक भर क़सक और चंद कतरे प्यास छोड़ के... साल दर साल हम यूँ ही जिये जाते हैं... कभी फ़ुर्सत में बैठ के नज़र दौड़ाओ उस गुज़रे हुए कल की तरफ़ तो लगता है... काश, ज़िन्दगी को एक रेत घड़ी की तरह उलट सकते और एक बार फिर से वो सारे बीते हुए पल जी पाते अपने हिसाब से... तो उन्हें कुछ यूँ जीते... अपनी तरह से... वो सब जो तब नहीं कर पाये थे शायद अब कर लेते... थोड़ी ख़ुशियाँ और बटोर लेते... थोड़ी ग़लतियाँ और सुधार लेते... थोड़ी सी मिठास और भर लेते रिश्तों में... ज़िन्दगी में... ये ख़्वाहिशें भी ना... कितनी अजीब होती हैं...

सच... कभी कभी मन होता है काश की एक टाइम मशीन होती जिसमें बैठ के हम समय के इस चक्र को घुमा सकते... जहाँ मर्ज़ी आ जा सकते... अपने हिसाब से... ये वक़्त हमारा ग़ुलाम होता... हमारे हिसाब से चलता... सोचिये अगर ऐसा हो जाये तो... ज़िन्दगी को एक रिवाइंड और फॉरवर्ड बटन लग जाये तो... हां, एक पॉज़ बटन भी... सोच कर ही दिल ख़ुश हो जाता है... कितने सारे पल हैं ना जो फिर से जी सकेंगे... कितने लम्हों को फ्रीज़ कर सकेंगे... अच्छा बताइए वो कौन से पल हैं जिन्हें आप दोबारा जीना चाहेंगे... जिन्हें आप बदलना चाहेंगे :) हम्म... ढेर सारे !! है ना ?

अब फिलहाल तो ऐसी कोई टाइम मशीन आयी नहीं... तो सोच के ही ख़ुश हो लेते हैं :) कभी आयी तो आजमाएंगे ज़रूर....


कभी कभी सोचती हूँ
जो दे दे मौका
इक बार ज़िन्दगी
उसे फिर से जीने का

तो ज़िन्दगी का हाथ थाम
ले जाऊँ उसे पीछे
बहुत पीछे...

उस मोड़ तक
जहाँ से तुम्हारे साथ
तय कर सकूँ ये सफ़र

और बस चलती रहूँ
तुम्हारा हाथ थामे
ज़िन्दगी की आढ़ी-तिरछी
पगडंडियों पर...

-- ऋचा

Saturday, November 13, 2010

स्पर्श


मौन आँखों में चंद ख़्वाब
और होंठों पर दुआ लिये
हाँथों से टटोल-टटोल के
तुम्हारा हर क़तरा महसूसते हुए
हर्फ़-हर्फ़, सफ़्हा-सफ़्हा
रोज़ यूँ पढ़ती हूँ तुम्हें
गोया
तुम हो इक क़ुरान
और मैं बे-नूर आबिदा कोई
देख नहीं सकती तुम्हें, लेकिन
चूम के महसूस करती हूँ
तुम्हारी पेशानी की आयतें कभी
और कभी ताबीज़ सा तुझे
गले में बाँध लेती हूँ...

-- ऋचा

Wednesday, November 10, 2010

दस्तक गुलाबी मौसम की...


जाड़ों की नर्म धूप और आँगन में लेट कर
आँखों पे खींच कर तेरे आँचल के साये को
औंधे पड़े रहें कभी करवट लिये हुए
दिल ढूंढता है फिर वो ही फ़ुर्सत के रात दिन...
-- गुलज़ार

ओस की बूंदों को बींधती सुबह की धूप आजकल अच्छी लगने लगी है... शाम की हवाएँ फिर से सिहराने लगी हैं... गुलाबी सर्दियाँ एक बार फिर दस्तक देने को हैं... ये सर्दियाँ बचपन से ही हमारी फ़ेवरेट रही हैं... कुछ है इन सर्दियों के मौसम में जो बहुत "फैसिनेट" करता आया है हमेशा से ही... वो सुबह के कोहरे से झाँकती पीले गुलाब की नर्म पंखुड़ियाँ... हरी-हरी घास पर चादर से बिछे सफ़ेद नारंगी हरसिंगार के फूल... और उस पर चमकीले मोतियों सी सजीं ओस की शफ्फाफ़ बूँदें... सब कुछ बेहद ख़ूबसूरत लगता है... एकदम "मिस्टिकल" सा... आत्मा तक ठंडक पहुंचाता हुआ...

सुबह-सुबह शॉल लपेटे हुए ओस से सजी घास पर नंगे पैर टहलना और हवा का हौले से आपके गालों को चूमते हुए गुज़रना और फिर आपके बालों में ग़ुम हो जाना... बड़ा प्यारा सा एहसास भर देते हैं आपके भीतर... मीठा-मीठा... कुछ रूमानी सा... सर्दियों की सुबह नीम के पेड़ से छन के आती धूप की महक भी कुछ ऐसी मीठी हो जाती है मानो माँ ने अभी-अभी नन्हें को नहला के जॉनसन्स बेबी पावडर लगाया हो... बिलकुल नर्म मुलायम भीनी सी महक... आपको एकदम तरोताज़ा करती हुई...

सर्दियों के साथ बड़ी सारी यादें जुड़ी हैं बचपन की... जैसे दोपहर को छत पे बैठ कर कॉलोनी की सभी महिलाओं (आंटियों) का मूंगफली खाते हुए गप्पे मारना और हम बच्चों का सारी दोपहर धमा चौकड़ी करना... या फिर शाम को दादी का अलाव जलाना और हम सब भाई बहनों का उसके चारों ओर बैठ कर दादी से भूत और जिन्न वाली कहानी सुनना और फिर डर के मारे वहीं दुबके रहना अम्मा की गोद में... और हाँ उस अलाव में आलू भून के खाना हरी धनिया के नमक के साथ :)

कुछ आदतें हैं जो बचपन से आजतक वैसी की वैसी हैं... जैसे आज भी ऑफिस से वापस जा कर एक ही रजाई में घुस के बैठना भाई के साथ और फिर एक दूसरे को ठन्डे-ठन्डे पैर छुआ के लड़ना... "मम्मी देख लो इसे... ठन्डे पैर लगा रहा है... ओफ़्फ़ो सारी रजाई क्या तुम ही ओढ़ोगे... देखो हमारी तरफ़ से हवा आ रही है... तुम अपनी रजाई उठा के लाओ... नहीं ये मेरी है तुम लाओ जा के अपनी..." कितनी मज़ेदार लड़ाई होती है ना... सोच के ही हँसी आ रही है... :) उस प्यारी सी नोक झोंक का मौसम एक बार फिर आ रहा है...

सर्दियों के बारे में एक चीज़ और हमें बेहद पसंद है... वो है उसकी रहस्यमयिता... धुँध में ढकी छुपी सड़कें कितनी रहस्यमयी सी मालूम होती हैं... ना आगाज़ का पता ना अंजाम का... जाने कहाँ से आती हैं... ना जाने कहाँ को जाना है... बस चले जाती हैं... अनजान मुसाफ़िरों की तरह... हाँ ऐसी धुँध भरी सर्दियों की शाम जब लैम्प-पोस्ट की लाइट बड़ी मुश्किल से धुँध को चीरती हुई धुंधली सी रौशनी बिखेर रही हो... साँस लो तो मुँह से भी धुआँ निकले... ऐसे में हमें आइसक्रीम खाना बेहद पसंद है :)


सब्ज़ पत्ते धूप की ये आग जब पी जाएँगे
उजले फर के कोट पहने हल्के जाड़े आएँगे

गीले-गीले मंदिरों में बाल खोले देवियाँ
सोचती हैं उनके सूरज देवता कब आएँगे

सुर्ख नीले चाँद-तारे दौड़ते हैं बर्फ़ पर
कल हमारी तरह ये भी धुंध में खो जाएँगे

दिन में दफ़्तर की कलम,
मिल की मशीनें सब हैं हम
रात आएगी तो पलकों पे सितारे आएँगे

दिल के इन बागी फ़रिश्तों को सड़क पर जाने दो
बच गए तो शाम तक घर लौटकर आ जाएँगे

-- बशीर बद्र

Wednesday, November 3, 2010

इस दिवाली आओ कुछ नया करें...


दिवाली की रौनक फिज़ाओं में घुलने लगी है... वो मिठाइयाँ, वो पटाखे, वो दिये, वो रौशनी, वो सारी ख़ुशियाँ बस दस्तख़ देने ही वाली हैं... भाई-बहनों, दोस्तों-रिश्तेदारों के साथ मिल के वो सारा-सारा दिन हँसी-ठिठोली, वो मौज-मस्ती, वो धमा-चौकड़ी, वो हो-हल्ला... सच हमारे त्योहारों की बात ही अलग होती है... हमारी संस्कृति की यही चमक दमक... ये रौनक... बरसों से लोगों की इसकी ओर आकर्षित करती आयी है...

आजकल तो बाजारों की रौनक भी बस देखते ही बनती है... दुकानें तो लगता है जैसे आपको रिझाने के लिये ब्यूटी पार्लर से सज-धज के आयी हैं... इतनी भीड़ भाड़ के बीच तो लगता है ये महंगाई का रोना जो रोज़ न्यूज़ चैनल्स और अखबारों की सुर्खियाँ में रहता है मात्र दिखावा है... अगर महंगाई सच में बढ़ी है, तो खरीदारों की ये भीड़ क्यूँ और कैसे... सच तो ये है की महंगाई और व्यावसायिकता तो बढ़ी ही है साथ ही साथ लोगों की "बाईंग कपैसिटी" भी बढ़ी है... और दिखावा भी, नहीं थोड़ा सोफिस्टीकेटेड तरीके से कहें तो सो कॉल्ड "सोशल स्टेटस" मेन्टेन करने की चाह भी...

बिना सोचे समझे हम त्यौहार के नाम पर नये कपड़ों, मिठाई और पटाखों पर हज़ारों रूपये मिनटों में फूँक देते हैं... उस पर ये दलील की फिर कमाते किस लिये हैं ? ... त्योहारों पर ख़ुशी मानना बिलकुल भी ग़लत नहीं है पर बेवजह सिर्फ़ दिखावे के लिये इतने पैसे ख़र्च करना कहाँ तक सही है ? ... और अगर ख़र्च ही करने हैं तो आइये इस साल कुछ नया कर के देखें ? आइये इस दिवाली किसी की ज़िन्दगी में उजाला करते हैं... किसी महरूम का सहारा बन के देखते हैं... किसी के होंठों पर एक मुस्कान खिला के देखते हैं... किसी के सपनों में रंग भर के देखते हैं... उस ख़ुशी को महसूस कर के देखते हैं जो खोखली नहीं होती...

ये हज़ारों रुपये जो हम बस यूँ ही फूँक देते हैं, किसी बच्चे की एक साल की फीस हो सकती है, किसी के पढ़ने की किताबें हो सकती हैं, किसी की स्कूल यूनिफ़ॉर्म हो सकती है, वो बच्चे जो बड़े होकर कुछ बनना चाहते हैं पढ़ लिख कर... वो बच्चे जो पढ़ना तो चाहते हैं पर उनके पास इतने पैसे नहीं हैं की अपने इस सपने में रंग भर सकें... हमारी एक छोटी सी मदद उनके सपनों के साकार होने का एक ज़रिया हो सकती है... वैसे भी मदद कभी छोटी बड़ी नहीं होती... सागर की हर बूँद उतनी ही अनमोल होती है... किसी की ज़िन्दगी में एक पल की ख़ुशी भी ला पायें हम तो शायद ज़िन्दगी सार्थक हो जाये...

अपने लिये और अपनों के लिये तो सभी करते हैं पर उनके लिये करना जिन्हें आप जानते तक नहीं और जिनसे इंसानियत के सिवा आपका और कोई रिश्ता नहीं, बड़ी ही अनोखी ख़ुशी दे जाता है... कभी महसूस करी है आपने ? ऐसी ही एक संस्था है "स्माइल इंडिया फाउंडेशन" जो ऐसे बेसहारा और महरूम बच्चों के लिये काम करती है... उनकी शिक्षा और स्वास्थ का ध्यान रखती है... शायद आपको याद हो पिछले साल स्माइल इंडिया फाउंडेशन ने एन.डी.टी.वी. के साथ मिल के "छूने दो आसमां" नाम से एक पहल करी थी, ऐसे ही बच्चों की शिक्षा के लिये... उनका वो प्रयास दिल को छू गया और हम भी उस मुहिम का छोटा सा हिस्सा बन गये... चाहें तो आप भी अपना सहयोग दे सकते हैं... सोचिये अगर हम सब अपनी तरफ़ से थोड़ा थोड़ा सा भी सहयोग दे दें तो कितने बच्चों का भविष्य बन सकता है... तो क्या इस दिवाली आप कुछ नया करना चाहेंगे ?


इस दिवाली
आओ कुछ नया करें...

अमावास की
स्याह रात के आँचल में
विश्वास का
चमकीला चाँद उगायें

नैराश्य को दूर कर
आशाओं की रंगोली सजायें
आकांक्षाओं के बंदनवार को
भरोसे के धागे से बाँध
प्यार की गाँठ लगायें

कुछ सूनी आँखों में
विश्वास की लौ जलायें
कुछ डगमगाते क़दमों को
सहारा दे के गिरने से बचायें

घी की जगह
उम्मीद के दिये जलायें
कुछ उदास होंठों पे
फिर से मुस्कान खिलायें

रोते हुए बच्चों को हँसाएँ
बूढ़ी आँखों की रौशनी बन जाएँ
मिल के साथ फिर से हँसे खिलखिलाएँ
उनके बोझल जहाँ को फिर से जगमगायें

इस दिवाली
आओ कुछ नया करें !!!

-- ऋचा




Monday, October 25, 2010

ये भी साल जमा कर लो...


पिछले तकरीबन डेढ़ सालों की ब्लॉगिंग में ना जाने कितनी ही बार गुलज़ार साहब की नज्में आप सब के साथ बांटी... अब तक तो हमारा गुलज़ार प्रेम जग ज़ाहिर हो चुका है :) ख़ैर... अभी हाल ही में एक ख़ज़ाना हाथ लगा तो सोचा हमारी तरह ही ना जाने कितने गुलज़ार साहब के मुरीद हैं तो उन सब के साथ उस ख़ज़ाने को साँझा कर लूँ...

अब आप सोच रहे होंगे की ये किस ख़ज़ाने की बात कर रहे हैं हम... तो सुनिये... हुआ यूँ कि एक दिन यूँ ही गूगलिंग कर रहे थे :) अभी कुछ दिन पहले ही और ये हाथ लग गया... कहने को तो ये वर्ष 2010 का कैलेंडर है... अब आप सोचेंगे की यहाँ साल ख़त्म होने को आया और हम अब कैलेंडर की बात कर रहे हैं और उसे पा कर इतने ख़ुश हो रहे हैं... तो भईया राज़ की बात ये है की उस कैलेंडर में हर महीने के लिये गुलज़ार साहब ने एक ख़ास नज़्म लिखी है... जो हमने तो पहली बार ही पढ़ी हैं... कुछ एक तो बस कमाल हैं... बेहद ख़ूबसूरत तरीके से बेजान चीज़ों में जान फूंकी है गुलज़ार साब ने...

ये कैलेंडर मुझे मिला फोटोग्राफर विवेक रानाडे की वेबसाइट पर... चुराया नहीं है "डाउनलोड फ्री स्टफ़" में मिला :) इस कैलेंडर के लिये नज्में जैसा हमने अभी बताया लिखी हैं गुलज़ार साब ने, फोटोग्राफी है विवेक जी की और उन नज़्मों को ख़ूबसूरत तरीके से सजा के लिखा है कलिग्रफर अच्युत पलव जी ने...

लीजिये आप भी पढ़िये... देखिये... महसूस कीजिये और संजो लीजिये...

कैलेंडर की शुरुआत होती है गुलज़ार साहब की इस नज़्म से -

ये भी साल जमा कर लो २०१०

अकबर का लोटा रखा है शीशे की अलमारी में
रना के "चेतक" घोड़े की एक लगाम
जैमल सिंह पर जिस बंदूक से अकबर ने
दाग़ी थी गोली

रखी है !

शिवाजी के हाथ का कब्जा
"त्याग राज" की चौकी, जिस पर बैठ के रोज़
रियाज़ किया करता था वो
"थुन्चन" की लोहे की कलम है
और खड़ाऊँ "तुलसीदास" की
"खिलजी" की पगड़ी का कुल्ला...

जिन में जान थी, उन सब का देहांत हुआ
जो चीज़ें बेजान थीं, अब तक ज़िन्दा हैं !!

-- गुलज़ार



(कैलेंडर के सभी फोटो को बड़े साइज़ में देखने के लिये फोटो पर क्लिक करें और पॉप-अप विंडो को अलाऊ कर दें)

जनवरी -
(कैमरा)
सर के बल आते थे
तस्वीर खिंचाने हम से
मुँह घुमा लेते हैं अब
सारे ज़माने हम से


फ़रवरी -
(छाता)
सर पे रखते थे
जहाँ धूप थी, बारिश थी
घर पे देहलीज़ के बाहर ही
मुझे छोड़ दिया


मार्च -
(शीशा)
कुछ नज़र आता नहीं
इस बात का ग़म है
अब हमारी आँख में भी
रौशनी कम है


अप्रैल -
(अलार्म घड़ी)
कोई आया ही नहीं
कितना बुलाया हमने
उम्र भर एक ज़माने को
जगाया हमने


मई -
(बाइस्कोप)
वो सुरैया और नर्गिस का ज़माना
सस्ते दिन थे, एक शो का चार आना
अब न सहगल है, न सहगल सा कोई
देखना क्या और अब किस को दिखाना


जून -
(सर्च लाइट)
दिल दहल जाता है
अब भी शाम को
आठ दस की जब कभी
गाड़ी गुज़रती है


जुलाई -
(टाइप राइटर)
हर सनीचर,
जो तुम्हें लिखता था दफ़्तर से
याद आते हैं वो
सारे ख़त मुझे


अगस्त -
(रेडियो)
नाम गुम हो जायेगा,
चेहरा ये बदल जायेगा
मेरी आवाज़ ही पहचान है,
गर याद रहे


सितम्बर -
(ताला)
सदियों से पहनी रस्मों को
तोड़ तो सकते हो
इन तालों को चाभी से
तुम खोल नहीं सकते !


अक्टूबर -
(पानदान)
मुँह में जो बच गया था,
वो सामान भी गया
ख़ानदान की निशानी,
पानदान भी गया


नवम्बर -
(टेलीफ़ोन)
हम को हटा के जब से
नई नस्लें आई हैं
आवाज़ भी बदल गई,
चेहरे के साथ साथ


दिसम्बर -
(माइक)
मेरे मुँह न लगना
मैं लोगों से कह दूँगा
तुम बोलोगे तो मैं
तुम से ऊँचा बोलूँगा




इस कैलेंडर का डाउनलोड लिंक है - http://vivekranade.com/free-downloads.htm

* सभी फोटो साभार vivekranade.com

Monday, October 18, 2010

लोग ग़ुस्से में बम नहीं बनते !!!


बस, हवा ही भरी है गोलों में
सुई चुभ जाए तो पिचक जाएँ

लोग ग़ुस्से में बम नहीं बनते !

-- गुलज़ार

ग़ुस्सा... प्यार ही की तरह हमारे व्यक्तित्व का एक हिस्सा होता है... बुरा ही सही, पर होता है... हर किसी में... कितनी बार ऐसा होता है कि हम जाने-अनजाने, अपने अपनों को कुछ ऐसा बोल देते हैं ग़ुस्से में, जो उन्हें तो तकलीफ़ देता ही है साथ ही ख़ुद हमें भी उतनी ही चोट पहुंचाता है... पर वो कहते हैं ना कमान से निकला हुआ तीर और मुँह से निकले हुए शब्द कभी वापस नहीं आ पाते... वो तो एक बार निकलने के बाद बस चोट ही पहुँचाते हैं... कोई "undo" कमांड नहीं चलता उनपे... और आप फिर चाह कर भी कुछ नहीं कर पाते सिवाय अफ़सोस के, कि आपने ऐसा क्यूँ कहा...

ऐसा क्यूँ होता है कि आप जिसे सबसे ज़्यादा प्यार करते हैं उसे ही सबसे ज़्यादा चोट पहुँचाते हैं जाने-अनजाने, ना चाहते हुए भी... फिर चाहे वो हमारे माँ-बाबा हों, भाई-बहन हों, यार-दोस्त हों या कोई भी अपना, जिसे आप दिल से सिर्फ़ और सिर्फ़ प्यार करते हैं... जिसका बुरा करना तो दूर की बात है, आप उसके बारे में बुरा सोच भी नहीं सकते... पर इन्सान हैं तो ग़लतियाँ करना भी लाज़मी है... परफेक्ट तो हो नहीं सकते... हम ग़लतियाँ भी करते हैं और उनका एहसास होने पर पछतावा भी...

पर ये सब तब होता है जब ग़ुस्सा कर के अपना और सामने वाले का, दोनों का ही मूड ख़राब कर चुके होते हैं... उस वक़्त तो ग़ुस्से में कुछ समझ ही नहीं आता सही-ग़लत... पता है ये ग़ुस्सा बहुत बुरा होता है... आपसे सारे अच्छे शब्द छीन लेता है और सारे बुरे और कड़वे शब्द आपको दे जाता है... जिन्हें बोलने का आपको बाद में अफ़सोस होता है... इसलिए ग़ुस्से में हमेशा शान्त रहना चाहिये... हम भी ऐसा ही करते हैं अक्सर... पर कभी कभी जाने कहाँ से ये कड़वे शब्द आ ही जाते हैं... देखो ज़रा अभी दिमाग़ शान्त है तो हम भी कैसी समझदारी की बातें कर रहे हैं :) ग़ुस्सा सच में बड़ा बुरा होता है...

अब ग़लती तो होती है हमसे, तो उसके लिये माफ़ी माँगना भी बनता है, पर माफ़ी जब भी माँगे दिल से माँगे... सिर्फ़ औपचारिकतावश "सॉरी" बोल देना माफ़ी माँगना नहीं होता... वो तो सिर्फ़ अपने लिये होता है... ख़ुद का अपराधबोध दूर करने के लिये... कोशिश करें कि जिस वजह से सामने वाले का दिल दुखा वो काम ही ना करें दोबारा... और एक बात तो है हमें पता है भले ही हम कितना भी नाराज़ हो जाएँ या ग़ुस्सा कर लें... हमारे अपने हमेशा हमारे साथ रहते हैं... भले सामने से ऐसा दिखाएँ ना पर दिल से तो साथ ही होते हैं...

पर जैसे ही आपको अपनी ग़लती का एहसास हो... माफ़ी मांगने में कभी देर मत करिये... झिझकिये मत... क्यूँकि कई बार ज़िन्दगी हमें ये मौका भी नहीं देती...


बस इक लम्हे का झगड़ा था
दर-ओ-दीवार पे ऐसे छनाके से गिरी आवाज़
जैसे कांच गिरता है
हर इक शै में गयीं उड़ती हुई, जलती हुई किर्चें !
नज़र में, बात में, लहजे में,
सोच और सांस के अन्दर...
लहू होना था इक रिश्ते का,
सो वो हो गया उस दिन !
उसी आवाज़ के टुकड़े उठा के फ़र्श से उस शब,
किसी ने काट लीं नब्ज़ें
न की आवाज़ तक कुछ भी,
कि कोई जाग न जाये !!

-- गुलज़ार


Saturday, October 9, 2010

दिल का परिंदा...



मैं हूँ ग़ुबार या तूफ़ान हूँ, कोई बताये मैं कहाँ हूँ... जाने क्यूँ आज जी कर रहा है "गाइड" की रोज़ी जैसे झूम उठूँ इस गीत की धुन पे...


Thursday, October 7, 2010

अडवांसड टेक्नॉलजी... परेशाँ सा ख़ुदा !!


हैरां परेशाँ सा ख़ुदा एक दिन, बैठा-बैठा सोच रहा था
इन्सान की खाल चढ़ाए ये मशीन आख़िर किसने बनायी ?

मैंने जो बनाया था "इन्सां", उसमें तो एक दिल भी था !


बेचारा ख़ुदा!! कहाँ सोचा होगा उसने कि उसकी बनायी सबसे अनुपम कृति एक दिन इस क़दर बदल जायेगी कि उसे पहचानना तक मुश्किल हो जाएगा... मनु से उत्पन्न हुआ मनुष्य, मनुष्य ने बनायी मशीन और मशीन ने इस मशीनी युग का मशीनी इन्सान... जिसमें इंसानियत के सिवा बाक़ी सब कुछ है... समय के साथ इन्सान एकदम हाई-टेक हो गया है... रहन-सहन... खान-पान... आचार-विचार... यहाँ तक की बोल-चाल की भाषा भी... हर चीज़ बदल गयी है... और तो और इमोशंस तक प्लास्टिक हो चले हैं...

कम्प्यूटर के इस युग ने ख़ासा प्रभाव डाला है आज की पीढ़ी पर... कुछ चीज़ें तो जैसे आत्मसात सी हो गयी हैं आज हमारी ज़िन्दगी में... आज ये हाल हो गया है की कंप्यूटर ही क्या आम ज़िन्दगी में भी कुछ ढूँढना हो तो मुँह से बरबस ये ही निकलता है की "गूगल" कर लो :) ... पढ़ते हुए अगर किताब में कुछ नहीं मिलता है तो लगता है काश इस किताब में भी Ctrl+F (Find Key) काम करता या फिर कहीं से कुछ देख कर लिखना पड़े तो लगता है "क्या यार Ctrl+C (Copy Key), Ctrl+V (Paste Key) होता तो कैसे चुटकियों में काम हो जाता..." कभी कुछ गलती होती तो झट से Ctrl+Z कर के Undo कर देते... ये कुछ ऐसी आदतें और ऐसे जुमले हैं जो बड़ी तेज़ी से प्रचलित हो रहे हैं आज की युवा पीढ़ी के बीच...

इस बदलती दुनिया की बदलती भाषा से प्रेरित हो कुछ बे-ख़याल से ख़याल आये थे कभी और यूँ ही कुछ अब्स्ट्रैक्ट सा लिख गया था... "इमोशंस" और "टेक्नॉलजी" की एक कॉकटेल सी बन गयी है... जाने कैसा स्वाद आया हो... ज़रा चख के बताइये तो :)


"Advanced Technology"

सुनते हैं टेक्नॉलजी बहुत अडवांसड हो गयी है
इन्टरनेट ने इन्सान की दुनिया बदल दी है
दुनिया भर की जानकारी पलों में ढूढ़ देते हैं
ये सर्च इंजन...
मैं बहुत टेक्नॉलजी सैवी नहीं हूँ
मेरी हेल्प करोगे क्या प्लीज़ ?
थोड़ा सा सुकून ढूंढ़ दो इस पर
और थोड़ा सा प्यार और विश्वास
हाँ थोड़े से फ़ुर्सत भरे पल भी...





"Oxygen"

तुम्हारे साथ के पल
अब बहुत छोटे हो चले हैं
इतने, की अब ठीक से
साँस भी नहीं आती
बीती यादों का ऑक्सीजन
कब तक ज़िन्दा रखेगा इन्हें
देखना, एक दिन इन पलों का भी
दम घुट जाएगा...







"Shift+Del"

कोई ई-मेल हो तो डिलीट कर दूँ
चैट हो तो चैट हिस्टरी से इरेज़ कर दूँ
कोई पुराना डॉक्युमेंट हो तो
शिफ्ट+डिलीट कर के
रिसाइकल बिन से भी हटा दूँ
पर क्या करूँ इन यादों का,
कि दिल की हार्ड डिस्क पर
कोई कमांड नहीं चलता...





"Dialysis"

तुम कहते हो
गुज़रे लम्हों को याद ना करूँ
"वो लम्हें" जो हर इक रग में
बह रहे हैं ज़िन्दगी बन कर...
तो फिर आओ
कुछ नये ताज़ा लम्हें
डोनेट कर दें इस रिश्ते को
डायलिसिस कर के
इसे फिर नयी ज़िन्दगी दे दें...

-- ऋचा

Wednesday, September 29, 2010

आदतें भी अजीब होती हैं...


वक़्त का पहिया तेज़ी से घूमता है... ना ख़ुद कभी रुकता है ना ही किसी को रुकने देता है... समय के साथ हर चीज़ बदलती है... कुछ भी सदा स्थिर नहीं रहता... कुछ भी हमेशा एक सा नहीं रहता... ना वक़्त, ना हालात, ना सोच, ना ख़यालात, ना परिस्थितियाँ और ना हम... शायद यूँ निरंतर बदलते रहना... समय के साथ यूँ आगे बढ़ते रहना ही ज़िन्दगी है... जो थम गया, रुक गया उसमें ज़िन्दगी कहाँ रह जायेगी...

अपनी गलतियों से और अपने अनुभवों से सीखता हुआ... कभी गिरता और फिर ख़ुद ही संभलता हुआ एक बच्चा ऐसे ही तो आगे बढ़ता है... विकसित होता है, परिपक्व होता है... यूँ निरंतर सीखते रहना, विकसित होते रहना, "इवॉल्व" होते रहना... यही इंसानी प्रकृति है...

पर इन सब बदलावों के बीच भी कुछ है जो कभी नहीं बदलता... क्या हुआ ? सोच में पड़ गये ? इस तेज़ी से बदलती दुनिया में ऐसा क्या है जो बदलता नहीं... अरे और क्या... हमारी आदतें... सारी नहीं... फिर भी बहुत सी आदतें हैं जो कभी नहीं बदलतीं... चाहे आप कितने ही बड़े हो जाओ...

... जैसे हवाईजहाज़ की आवाज़ सुन कर उसे देखने के लिये आज भी बरबस ही आँखें आसमान की ओर उठ जाती हैं... जैसे गली में क्रिकेट खेलते बच्चों को देख कर आज भी मन होता है की एक-दो शॉट लगा ही लें... जैसे छोटे भाई को हक़ से डांटना और अपना बड़ा होना जताना आज भी बड़ी अच्छी सी फीलिंग दे जाता है... जैसे तौलिया होते हुए भी माँ की साड़ी में हाथ पोछना और फिर उनका डांटना - "हे भगवान! कब बड़े होगे तुम लोग..."

... जैसे इन्द्रधनुष देख कर ख़ुद-बा-ख़ुद चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाना... जैसे पहली बारिश में भीगने के लिये आज भी मचल जाना... जैसे कोयल की आवाज़ सुन कर पेड़ में ये ढूंढने की कोशिश करना की कहाँ छुप कर बोल रही है... जैसे रेत के घरौंदे बना कर ख़ुश होना... जैसे सरसों का पीला-पीला खेत देख कर मन होना की बाहें फैला के उसके बीच दौड़ लगा लें कुछ दूर... जैसे किसी स्कूल के सामने से गुज़रते समय आज भी वो इमली, चूरन और भेलपुरी वाले को ढूँढना और दिख जाने पर ख़ुश हो जाना... जैसे जामुन खाने के बाद ये मिलाना की किसकी जीभ ज़्यादा काली हुई है... जैसे पेड़ पर पड़े झूले को देख कर मन का मचल जाना एक बार झूलने के लिये...

... जैसे तालाब या नदी के पानी में पत्थर फेंक कर आपस में ये कॉम्पटिशन करना की किसका पत्थर ज़्यादा दूर जाएगा... जैसे लूडो या कैरम खेलते हुए जब हारने लगना तो चुपके से गोटियाँ हिला देना या बदल देना... जैसे पूरनमासी के चाँद में आज भी उस बुढ़िया को ढूंढना, जिसकी कहानी दादी-नानी सुनाया करती थीं बचपन में... जैसे मूंगफली खाने के बाद आज भी बचे हुए छिलकों में गिरा हुआ दाना ढूँढना... जैसे मंदिर के सामने से गुज़रते हुए सर का अपने आप ही सजदे में झुक जाना...

हम्म... कितनी मासूम और भोली सी आदतें हैं ना... हम सब में होती हैं ये... बचपन से ही शायद... पता नहीं इन आदतों की आदत कब पड़ती है पर ये ता-उम्र हमारे साथ चलती हैं... ये और ऐसी जाने कितनी ही आदतें जो जाने-अनजाने कुछ इस तरह से आत्मसात हो जाती हैं हमारे अन्दर कि वो हमारे जीने का ढंग बन जाती हैं... सही कहा है गुलज़ार साब ने... "आदतें भी अजीब होती हैं..."



यूँ वक़्त बे-वक़्त
आ के घेर लेती हैं
तुम्हारी यादें
के जैसे
तुम्हारी तरह
उन्हें भी आदत हो
मुझे सताने की
छेड़ के रुलाने की
रुला के फिर मनाने की
गुदगुदा के कभी हँसाने की
या कभी ख़ुद ही रूठ जाने की

हम्म... ये आदतें भी ना
सच में अजीब होती हैं...

-- ऋचा

Wednesday, September 22, 2010

भीगी है रात "फैज़" ग़ज़ल इब्तिदा करो...


पिछले क़रीब डेढ़ साल से ब्लॉग जगत में सक्रिय हूँ... इस दौरान बहुत से लोगों को पढ़ा... बहुत सी उभरती हुई प्रतिभाओं से भी रु-बा-रु हुए... इन सब के बीच कुछ नामी गिरामी शायरों को डेडिकेटेड ब्लॉग्स भी दिखे... बहुत अच्छा लगा अपने प्रिय शायर या शायरा के लिये लोगों का ये प्यार देख कर...

फिर चाहे वो गुलज़ार साब को समर्पित पवन झा जी का ख़ुशबू.ए.गुलज़ार हो या रंजू भाटिया जी और अन्य ब्लॉगर साथियों द्वारा संचालित सामूहिक ब्लॉग गुलज़ार नामा हो जो पिछले एक साल से जाने क्यूँ सुस्त पड़ा है

यदि आप अमृता प्रीतम जी के प्रशंसक हैं तो रंजू भाटिया जी का अमृता प्रीतम की याद में..... ज़रूर पढ़ा होगा आपने

और यदि ग़ालिब के फैन हैं तो अनिल कान्त जी का मिर्ज़ा ग़ालिब भी किसी से कम नहीं जो ग़ालिब की रूह को आज के युग में भी ज़िन्दा रखे हुए है...

ऐसे ही साहिर लुधियानवी साहब को डेडिकेटेड एक बहुत ही अच्छा ब्लॉग है साहिर की क़लम से जिसे sahir.fanatic नाम से उनके कोई फैन चलाते हैं

पर इन तमाम लोगों के बीच फैज़ को समर्पित किसी भी ब्लॉग की कमी बड़ी खली या शायद हमारी ही नज़र नहीं पड़ी कभी... तो सोचा चलो ये नेक काम हम ही कर देते हैं...

फैज़ के बारे में फिलहाल इतना ही कहना चाहूँगी की आधुनिक काल का शायद ही कोई ऐसा शायर होगा जिसने रूमानियत और इन्क़ेलाब से ओतप्रोत विचारों को इस ख़ूबसूरती के साथ अपने शब्दों में घोला है की वो सीधे आपकी रूह को झकझोरते हैं...

सियासी और सामाजिक मुद्दों पर फैज़ के लिखे बेबाक अशआर किस कदर का असर छोड़ते थे लोगों पर इस बात का अंदाज़ा आप गुलज़ार साब की फैज़ के लिये लिखी इस नज़्म से ही लगा सकते हैं -

चाँद लाहोर की गलियों से गुज़र के इक शब
जेल की ऊँची फसीलें चढ़ के,
यूँ 'कमांडो' की तरह कूद गया था 'सेल' मे,
...कोई आहट ना हुई,
पहरेदारों को पता ही ना चला !

"फ़ैज़" से मिलने गया था, ये सुना है,
"फ़ैज़" से कहने, कोई नज़्म कहो,
वक़्त की नब्ज़ रुकी है !
कुछ कहो, वक़्त की नब्ज़ चले !!

-- गुलज़ार


यूँ तो अपने इस ब्लॉग में भी पहले फैज़ साहब की कुछ रचनायें आप सब के साथ शेयर करी हैं... पर इस बार थोड़ा तफ़सील से फैज़ को आप तक पहुँचाने के लिये ये नया ब्लॉग बनाया है -

भीगी है रात "फैज़" ग़ज़ल इब्तिदा करो...

बस एक छोटी सी कोशिश है फैज़ कि लेखनी को आप के साथ बांटने की... उम्मीद है पसंद आएगी और आपका प्यार और प्रोत्साहन बदस्तूर जारी रहेगा...

Monday, September 20, 2010

समय से परे...



वक़्त की नाव में बैठ कर
आओ चलें कुछ दूर
समय से परे

वहाँ,
जहाँ सूरज सदा चमकता है
फिर भी तपता नहीं
सिर्फ़ बिखेरता है
झिलमिल सी रश्मियाँ
जो ठंडक पहुंचाती हैं मन को...

वहाँ,
जहाँ कोई शोर गुल नहीं है
सिर्फ़ भीनी सी सरगोशियाँ हैं
हवाओं के कंगन की
पानियों की झांझर की
और मीलों फैले सुकून की...

वहाँ,
जहाँ समय थम जाता है
"तुम" और "मैं" का भ्रम मिट जाता है
बस वो एक लम्हा
जिसमे सिर्फ़ "हम" हों
एकाकार...

और फिर वक़्त की शाख़ से
तोड़ के उस लम्हें को
क़ैद कर के मुट्ठी में
नक्श कर के ज़हन में
समय के दायरे में
लौट आयेंगे...

-- ऋचा

Monday, September 6, 2010

इमेजिज़


कितना कुछ चलता रहता है हमारे आस-पास... हर वक़्त... कितनी ही इमेजिज़ बदलती रहती हैं हर पल ज़िन्दगी के पन्नों पर... इक पल बेहद चमकीला... जैसे आफ़ताब उतार आया हो कहीं से... और इक पल थोड़ा मद्धम... जैसे मुश्किलों के बादलों ने चाँदनी को अपनी आग़ोश में ले लिया हो... पर कौन थाम पाया है वक़्त की नब्ज़... कौन रोक पाया है इन गुज़रते लम्हों को... अच्छे-बुरे... रौशन-मद्धम... जैसे भी हों... बीत ही जाते हैं... हम तो बस इनके साथ बहते रहते हैं... इनकी ही रौ में... उन्हें थामना हमारे बस में नहीं... बस देखते रहते हैं बीतते हुए... उन खुशियों को... उन ग़मों को... उन पलों को...

और जब थाम नहीं सकते उन्हें तो आइये जी ही लेते हैं... जी भर के... बह लेते हैं कुछ दूर उनके साथ... बिना किसी शिकायत... बिना किसी अफ़सोस... और "फ्रीज़" कर लेते हैं उन्हें यादों के सफ़्हों में... पेंट कर लेते हैं उन्हें ज़हन के कैन्वस पर... कल जब फ़ुर्सत के पलों में कभी यादों की गैलरी में एग्ज़ीबिशन लगायेंगे तो ये तमाम पल हमारी ज़िन्दगी के गवाह होंगे... उस सफ़र के गवाह होंगे जो हमने बस "यूँ ही" तय नहीं किया, तय करने के लिये... उस सफ़र का लुत्फ़ उठाया... उसे जिया... और संजोया... यादों में... हर पल...

ऐसे ही कुछ मुख्तलिफ़ से लम्हों की इमेजिज़ सजायीं हैं आज यहाँ... ज़िन्दगी की किताब से उतार कर ब्लॉग के सफ़्हे पर... उम्मीद है पसंद आयेंगे शब्दों में पिरोये ये चंद लम्हे...



कल ऑफिस से वापस आते वक़्त देखा था
सूरज ने नदी में कूद के ख़ुदकुशी कर ली
कुछ देर बाद वहीं से
इक सफ़ेद सा साया उभरा
ज़रूर उसका भूत होगा
लोग कहते हैं "चाँद" निकला है !!!

**********







अपने हाथों की लकीरों को देखती हूँ
और सोचती हूँ
जो तुम मिल नहीं सकते
तो तुम मिले ही क्यूँ
जो मिले हो तो फिर
मिलते क्यूँ नहीं....

**********










जवाब जानती हूँ
फिर भी ना जाने क्यूँ
कुछ सवाल हैं
जो तुमसे पूछने को जी चाहता है
जवाब की दरकार भी नहीं है
बस तुम्हारे चेहरे के बदलते रंगों
को पढ़ना चाहती हूँ...

**********









एक तन्हां सा सूरज कल शब
यूँ पेड़ पर ठुड्डी टिका के बैठा था
के जैसे एक शरारती बच्चा
माँ से डांट खा कर
आँखों में आँसू भरे
मुँह फुलाए बैठा हो...

**********










फैला के बाहों का दायरा
आग़ोश में लिया कुछ लम्हों को
और ओक में भर के कुछ पल
यूँ घूँट-घूँट ज़िन्दगी पी आज
कि आत्मा कुछ ऐसे तृप्त हुई
मानो अमृत चख लिया...

-- ऋचा

Monday, August 30, 2010

गुमशुदा...


बहुत परेशाँ हूँ कल से
कितना ढूंढा मिल ही नहीं रही
जाने कहाँ रख के भूल गयी हूँ
कल तुम्हें रुखसत करते वक़्त
दिखी थी आख़री बार
तब से पता नहीं कहाँ खो गयी है
मन के आले पे ही तो रखी थी
उतार कर शायद
पर अब वहाँ नहीं है
कमबख्त! जाने कहाँ गयी
अभी तुम आते होगे
और फिर डांटोगे
"कितनी बार कहा
ये मुस्कराहट हमेशा पहने रहा करो,
तुम मुस्कुराती हुई अच्छी लगती हो..."

-- ऋचा

Wednesday, August 18, 2010

सब "गुलज़ार" हो जाये...


सबसे पहले तो अपने सबसे पसंदीदा शायर को उनके जन्मदिन पर ढेर सारी दुआएँ, बधाईयाँ और प्यार और ये चंद अल्फ़ाज़ हमारी ओर से उनको जन्मदिन का छोटा सा तोहफ़ा -

वो जो फूँक दे जान लफ़्जों में
तो नज़्म भी साँस लेने लगे
धड़क उठे ग़ज़लों का दिल
और त्रिवेणियाँ बह निकलें
सफ़्हा दर सफ़्हा
किरदार जी उठें
हर्फ़ों को मानी मिल जाये
सब "गुलज़ार" हो जाये...

गुलज़ार साब के बारे में क्या कहें या कहाँ से कहना शुरू करें... कुछ धुंधला-धुंधला सा याद पड़ता है... जब छोटे थे तो लोग उनके बारे में ये मज़ाक में कहा करते थे जो समझ ना आये वो गुलज़ार... आज सोचते हैं तो हँसी आती है... गर वो लोग समझ पाते तो शायद जानते की गुलज़ार कौन हैं और क्या हैं... कलम के ऐसे जादूगर जो अपने शब्दों से बस जादू सा कर देते हैं... वो भी ऐसा जादू जो सीधे दिल को छूता है और सर चढ़ के बोलता है... नज़्मों, ग़ज़लों, त्रिवेणियों, कविताओं या कहानियों की गलियों से जब भी गुज़रे हैं, हर बार, बात को कहने का उनका मुख्तलिफ़ अंदाज़ दिल से "वाह !" निकलवाये बिना नहीं माना... ज़िन्दगी को देखने, समझने और अभिव्यक्त करने का उनका अनूठा अंदाज़, रिश्तों की बारीकियाँ, कुछ कही-अनकही बातें, आपको हर बार एक नया नज़रिया दे जाती हैं चीज़ों को देखने और समझने का...

गुलज़ार साब के लेखन की सबसे बड़ी विशिष्टता ये है की वो "आम" होते हुए भी ख़ास है... वैसी ही भाषा जैसा हम रोज़-मर्रा की आम ज़िन्दगी में बोलते हैं... शायद इसीलिए उनके लेखन से हम इनती आसानी से जुड़ पाते हैं... लगता है यही तो हम कहना चाह रहे थे... बस गुलज़ार साब ने हमारी सोच को शब्द दे दिये... उनकी नज़्मों में कभी एकदम बेबाक सी सच्चाई होती है जो आपको सोचने पे मजबूर कर देती है तो कभी कोई ख़ूबसूरत सी फैंटसी जो दिल को भीतर तक गुदगुदा जाती है... उनकी नज़्मों में पिरोई हुई उदासी भी हसीन लगने लगती है... अपने शब्दों से वो ऐसे बिम्ब और लैंडस्केप्स उकेर देते हैं की मानो किसी पेंटर ने शब्दों की कोई ख़ूबसूरत सी पेंटिंग बना दी हो या किसी फोटोग्राफ़र ने तमाम ख़ूबसूरती को अपनी फोटो में क़ैद कर लिया हो...

वो जो भी लिखते हैं बिलकुल उस किरदार में घुस के लिखते हैं... फिर चाहे वो संजीदा सी नज्में या कहानियाँ हों या बच्चों के लिये लिखे गीत और कवितायें... वो तो याद ही होगा आपको "जंगल जंगल बात चली है पता चला है, अरे चड्डी पहन के फूल खिला है, फूल खिला है..." स्कूल टाइम में हम बच्चों के लिये किसी नेशनल एंथम से कम नहीं हुआ करता था वो... :)

और चाँद के साथ उनका राब्ता तो जग ज़ाहिर हैं... वो एक सौ सोलह चाँद की रातें कोई कैसे भुला सकता है भला :) ... या फिर वो "बल्लीमारां के मोहल्ले की पेचीदा दलीलों की सी गलियाँ"... अरे उनके पसंदीदा शायर की ग़ालिब साब की बात कर रहे हैं हम जिनके ऊपर उन्होंने एक कमाल का सीरियल बनाया था "मिर्ज़ा ग़ालिब" जो की एक ज़माने में दूरदर्शन पर आया करता था... तब तो ख़ैर क्या ही समझ आता था पर अभी हाल ही में दोबारा देखा सी.डी. पर और बस मज़ा आ गया... क्या कमाल का डायरेक्शन था और क्या बेहतरीन श्रद्धांजलि थी अपने पसंदीदा शायर को... आपने नहीं देखा तो हमारी मानिये और ज़रूर देखिये... ग़ालिब के लिये ना सही गुलज़ार के लिये ही सही :)

वैसे तो आजतक गुलज़ार साब की बहुत सी नज़्में शेयर करीं हैं आप सब के साथ पर आज उनकी अपनी नज़्मों के साथ एक गुफ़्तगू शेयर करने जा रहे हैं... अस्तित्व की लड़ाई यहाँ भी है... एक शायर और उसकी नज़्म के बीच... पर उम्मीद है आपको पसंद आएगी...

कभी-कभी, जब मैं बैठ जाता हूँ
अपनी नज़्मों के सामने निस्फ़ दायरे में
मिज़ाज पूछूँ
कि एक शायर के साथ कटती है किस तरह से ?

वो घूर के देखती हैं मुझ को
सवाल करती हैं ! उनसे मैं हूँ ?
या मुझसे हैं वो ?
वो सारी नज़्में,
कि मैं समझता हूँ
वो मेरे 'जीन' से हैं लेकिन
वो यूँ समझती हैं उनसे है मेरा नाक-नक्शा
ये शक्ल उनसे मिली है मुझको !

मिज़ाज पूछूँ मैं क्या ?
कि एक नज़्म सामने आती है
छू के पेशानी पूछती है -
"बताओ गर इन्तिशार है कोई सोच में तो ?
मैं पास बैठूँ ?
मदद करूँ और बीन दूँ उलझने तुम्हारी ?"

"उदास लगते हो," एक कहती है पास आ कर
"जो कह नहीं सकते तुम किसी को
तो मेरे कानों में डाल दो राज़
अपनी सरगोशियों के, लेकिन,
गर इक सुनेगा, तो सब सुनेंगे !"

भड़क के कहती है एक नाराज़ नज़्म मुझसे
"मैं कब तक अपने गले में लूँगी
तुम्हारी आवाज़ कि खराशें?"

एक और छोटी सी नज़्म कहती है
"पहले भी कह चुकी हूँ शायर,
चढ़ान चढ़ते अगर तेरी साँस फूल जाये
तो मेरे कंधे पे रख दे,
कुछ बोझ मैं उठा लूँ !"

वो चुप-सी इक नज़्म पीछे बैठी जो टकटकी बाँधे
देखती रहती है मुझे बस,
न जाने क्या है उसकी आँखों का रंग
तुम पर चला गया है
अलग-अलग हैं मिज़ाज सब के
मगर कहीं न कहीं वो सारे मिज़ाज मुझमे बसे हुए हैं
मैं उनसे हूँ या....

मुझे ये एहसास हो रहा है
जब मैं उनको तखलीक़ दे रहा था
वो मुझे तखलीक़ दे रही थीं !!

-- गुलज़ार


जाते जाते गुलज़ार साब के जन्म दिन पर एक बार फिर से उनको ढेरों बधाईयाँ और ढेर सारी दुआएँ... ईश्वर उन्हें लम्बी उम्र दे और सदा स्वस्थ रखे... लॉन्ग लिव गुलज़ार साब !!!

Wednesday, August 11, 2010

वक़्त की कतरने...


ये जो रंग बिरंगी कतरने हैं ना
तुम्हारे साथ बिताये वक़्त की
जी चाहता है इन कतरनों को जोड़
एक मुकम्मल उम्र सी लूँ
एक ख़ूबसूरत ज़िन्दगी बना लूँ

एक लम्बा सा दिन सियूँ
तुम्हारे साथ का
और एक लम्बी सी रात
हाँ कुछ सुस्त से लम्हों को चुन
एक फ़ुर्सत भरी दोपहर भी

वो कुछ पल कि जिनमे तुम
सिर्फ़ मेरे पास होते हो
दिल और दिमाग से
उन चमकीले पलों को जोड़
एक शबनमी शाम भी सी लूँ

सोचो गर ऐसा कर पाऊँ
ये ज़िन्दगी कितनी ख़ूबसूरत हो जाये
हर एक पल में तुम्हारा साथ पा के
और मैं इस ख़ूबसूरत उम्र को पहन
इतराती फिरूँ इस दुनियाँ में...

-- ऋचा

Tuesday, August 3, 2010

दिल तो बच्चा है जी...


लखनऊ कल सुबह से ही चेरापूंजी बना हुआ था... सारा दिन रुक रुक कर बरसात होती रही... और ऐसे मौसम में ऑफिस की जेल जैसी दीवारों के भीतर, मन को बड़ी मुश्किल से समझा बुझा के किसी छोटे बच्चे की मानिंद बैठाया हुआ था... लॉलीपॉप का लालच दे के... की बस थोड़ी देर और फिर यहाँ से रिहा हो के खुली फिज़ा में साँस लेते हुए चलेंगे वापस... मौसम को एन्जॉय करते हुए...

किसी तरह बेमन जैसे-तैसे ऑफिस का काम निपटाया... शाम होते होते बादल एक बार फिर बाँवरे हो उठे... सूरज अंकल को तो खैर सुबह से ही किडनैप कर रखा था उन्होंने... ऊपर से एकदम काले बादल... इतना रूमानी मौसम हो गया था की क्या बतायें... काश की ऐसे में "कोई" साथ होता तो कसम से आज निकल ही जाते लॉन्ग ड्राइव पे... हम्म... ख़्वाहिशें :) ...

हाँ तो उस "जेल" से छूट के चंद क़दम ही आगे बढ़े थे की बरखा रानी फुल मूड में आ गयीं हमसे मिलने... और बस मन मचल गया उन्हें गले लगाने को... अब इतने प्यार से आयी थीं तो इनकार कैसे करते... हमने भी सोचा अब थोड़ा तो भीग ही गये हैं और जब तक गाड़ी रोक के रेनकोट पहनेंगे और ज़्यादा भीग जायेंगे... पर दिमाग़ था की अपनी ही लगा रखी थी... ज़्यादा भीग गये तो, बीमार पड़ गये तो... दिल बेचारा दिमाग़ को समझाने में लगा ही था की इतने में अन्दर छुपा बच्चा भी लॉलीपॉप वॉलीपॉप छोड़-छाड़ के बाहर आ ही गया... छोड़ो यार... घर ही तो जाना है... आज भीगते हुए चलते हैं... :)

बस फिर क्या था... हम और हमारी एक्टिवा चल पड़े मौसम और बारिश से बातें करते हुए... अमूमन ४५ - ५० मिनट लगते हैं ऑफिस से घर आने में... पिछले कुछ दिनों से मन कुछ अच्छा नहीं हो रहा था... तो आज पूरा टाइम था उसे आराम से मनाने बहलाने का... मन का रेडियो जाने कौन कौन से गाने प्ले करता रहा सारे रास्ते... कभी ओल्ड मेलोडीज़... आज मौसम बड़ा बेईमान है... रिमझिम गिरे सावन... मौसम मौसम लवली मौसम... तो कभी गुलज़ार साब ये कहते हुए आ जाते... याद है वो बारिशों के दिन पंचम... और बैकग्राउंड में बजता... कच्चे रंग उतार जाने दो... आ चल डूब के देखें... उफ़... दिल तो बच्चा है जी :)

बारिश कुछ और तेज़ हुई तो रेडियो में बजते गानों ने कॉमर्शियल ब्रेक लिया... और मन की ख़याली फैक्ट्री ने एक ख़याल और प्रड्यूस किया... ये हेलमेट में वाइपर्स क्यूँ नहीं होते... अँधेरा भी कुछ बढ़ गया था... आगे चलती गाड़ियों की लाइट्स और बारिश की बूँदें अब मिल कर हेलमेट के शीशे पर बॉल-डांस कर रही थीं... कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था तो शीशा हटाना पड़ा... अब चेहरे पे बूँदें इस तेज़ी से पड़ रही थीं की मानो ढेर सारी चीटियाँ एक साथ काट रही हों... उहूँ... थोड़ा रूमानी अंदाज़ में कहें तो यूँ लग रहा था मानो बारिश ने बढ़ के अपने आग़ोश में ले लिया हो और प्यार से चूम रही हो और रोम-रोम वो एहसास जज़्ब करता जा रहा हो... इक ठंडक भरा सुकून डायरेक्ट आत्मा तक पहुँच रहा था...

खैर ऑलमोस्ट ५० मिनट बाद ये रूमानी सफ़र ख़त्म हुआ और फाइनली हमने अपने रूमानी ख़यालों और एकसासों के साथ घर के गेट में एंट्री करी...

कट... सीन चेंज... जिरह शुरू... :)

मम्मी जो परेशान सी बाहर बरामदे में बैठी इंतज़ार कर रही थीं देखते ही बोलीं...
- भीग गयीं ?
- नहीं तो... एकदम सूखे हैं... भगवान जी ने वॉटरप्रूफिंग कर के जो भेजा है ऊपर से :)
( अब इतनी बारिश हो रही है, कपड़ों से पानी चू रहा है, ऐसे में क्या लॉजिकल क्वेस्चन है... मम्मी भी ना... पर हँस भी नहीं सकते अभी... बड़ी मजबूरी है )

अगला सवाल, नहीं ऐक्चूअली सवाल ही सवाल, जवाब देने का मौका ही नहीं...
- रेनकोट नहीं ले गयी थी ? पहना क्यूँ नहीं ? ठण्ड लगी ? गाड़ी तेज़ तो नहीं चलाई ? वगैरा वगैरा वगैरा...

फिर जैसे अचानक उन्हें याद आया की वो मेरी मम्मी हैं...

कट... सीन चेंज... ट्रॅन्स्फर्मेशन... अब प्यार बरसना शुरू... :)

इतनी बड़ी हो गयी है भगवान जाने कब अक्ल आएगी इस लड़की को...
पागल हो एकदम...
जाओ जा के जल्दी चेंज करो नहीं तो ठण्ड लग जायेगी... हम अदरक वाली चाय बना देते हैं तब तक... :)

और हम चल देते हैं एक बार फिर गाते हुए... दिल तो बच्चा है जी... :)


चलिए जी फिर मिलते हैं... और जाते जाते गुलज़ार साब को छोड़े जाते हैं आपके पास -


कल सुबह जब बारिश ने आ कर
खिड़की पर दस्तक दी थी
नींद में था मैं - बाहर अभी अँधेरा था !
ये तो कोई वक़्त नहीं था,
उठ कर उससे मिलने का
मैंने पर्दा खींच दिया
गीला गीला इक हवा का झोंका उसने
फूँका मेरे मुँह पर, लेकिन
मेरी "सेन्स ऑफ़ ह्यूमर" भी कुछ नींद में थी
मैंने उठ कर ज़ोर से
खिड़की के पट उस पर भेड़ दिये
और करवट ले कर फिर बिस्तर में डूब गया !
शायद बुरा लगा था उसको
गुस्से में खिड़की के कांच पे
हत्थड़ मार के लौट गयी वो,
दोबारा फिर आयी नहीं
खिड़की पर वो चटख़ा काँच अभी बाक़ी है !

-- गुलज़ार





एक त्रिवेणी भी सुन लीजिये जाते जाते... अभी लिखी.... एकदम लेटेस्ट... ताज़ा :)

बहुत भरा था मन पिछले कुछ दिनों से
बारिशें ओढ़ वो जी भर के रोई कल शब

कुछ नक़ाब जज़्बात भी छुपा लेते हैं

-- ऋचा
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