Wednesday, September 29, 2010

आदतें भी अजीब होती हैं...


वक़्त का पहिया तेज़ी से घूमता है... ना ख़ुद कभी रुकता है ना ही किसी को रुकने देता है... समय के साथ हर चीज़ बदलती है... कुछ भी सदा स्थिर नहीं रहता... कुछ भी हमेशा एक सा नहीं रहता... ना वक़्त, ना हालात, ना सोच, ना ख़यालात, ना परिस्थितियाँ और ना हम... शायद यूँ निरंतर बदलते रहना... समय के साथ यूँ आगे बढ़ते रहना ही ज़िन्दगी है... जो थम गया, रुक गया उसमें ज़िन्दगी कहाँ रह जायेगी...

अपनी गलतियों से और अपने अनुभवों से सीखता हुआ... कभी गिरता और फिर ख़ुद ही संभलता हुआ एक बच्चा ऐसे ही तो आगे बढ़ता है... विकसित होता है, परिपक्व होता है... यूँ निरंतर सीखते रहना, विकसित होते रहना, "इवॉल्व" होते रहना... यही इंसानी प्रकृति है...

पर इन सब बदलावों के बीच भी कुछ है जो कभी नहीं बदलता... क्या हुआ ? सोच में पड़ गये ? इस तेज़ी से बदलती दुनिया में ऐसा क्या है जो बदलता नहीं... अरे और क्या... हमारी आदतें... सारी नहीं... फिर भी बहुत सी आदतें हैं जो कभी नहीं बदलतीं... चाहे आप कितने ही बड़े हो जाओ...

... जैसे हवाईजहाज़ की आवाज़ सुन कर उसे देखने के लिये आज भी बरबस ही आँखें आसमान की ओर उठ जाती हैं... जैसे गली में क्रिकेट खेलते बच्चों को देख कर आज भी मन होता है की एक-दो शॉट लगा ही लें... जैसे छोटे भाई को हक़ से डांटना और अपना बड़ा होना जताना आज भी बड़ी अच्छी सी फीलिंग दे जाता है... जैसे तौलिया होते हुए भी माँ की साड़ी में हाथ पोछना और फिर उनका डांटना - "हे भगवान! कब बड़े होगे तुम लोग..."

... जैसे इन्द्रधनुष देख कर ख़ुद-बा-ख़ुद चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाना... जैसे पहली बारिश में भीगने के लिये आज भी मचल जाना... जैसे कोयल की आवाज़ सुन कर पेड़ में ये ढूंढने की कोशिश करना की कहाँ छुप कर बोल रही है... जैसे रेत के घरौंदे बना कर ख़ुश होना... जैसे सरसों का पीला-पीला खेत देख कर मन होना की बाहें फैला के उसके बीच दौड़ लगा लें कुछ दूर... जैसे किसी स्कूल के सामने से गुज़रते समय आज भी वो इमली, चूरन और भेलपुरी वाले को ढूँढना और दिख जाने पर ख़ुश हो जाना... जैसे जामुन खाने के बाद ये मिलाना की किसकी जीभ ज़्यादा काली हुई है... जैसे पेड़ पर पड़े झूले को देख कर मन का मचल जाना एक बार झूलने के लिये...

... जैसे तालाब या नदी के पानी में पत्थर फेंक कर आपस में ये कॉम्पटिशन करना की किसका पत्थर ज़्यादा दूर जाएगा... जैसे लूडो या कैरम खेलते हुए जब हारने लगना तो चुपके से गोटियाँ हिला देना या बदल देना... जैसे पूरनमासी के चाँद में आज भी उस बुढ़िया को ढूंढना, जिसकी कहानी दादी-नानी सुनाया करती थीं बचपन में... जैसे मूंगफली खाने के बाद आज भी बचे हुए छिलकों में गिरा हुआ दाना ढूँढना... जैसे मंदिर के सामने से गुज़रते हुए सर का अपने आप ही सजदे में झुक जाना...

हम्म... कितनी मासूम और भोली सी आदतें हैं ना... हम सब में होती हैं ये... बचपन से ही शायद... पता नहीं इन आदतों की आदत कब पड़ती है पर ये ता-उम्र हमारे साथ चलती हैं... ये और ऐसी जाने कितनी ही आदतें जो जाने-अनजाने कुछ इस तरह से आत्मसात हो जाती हैं हमारे अन्दर कि वो हमारे जीने का ढंग बन जाती हैं... सही कहा है गुलज़ार साब ने... "आदतें भी अजीब होती हैं..."



यूँ वक़्त बे-वक़्त
आ के घेर लेती हैं
तुम्हारी यादें
के जैसे
तुम्हारी तरह
उन्हें भी आदत हो
मुझे सताने की
छेड़ के रुलाने की
रुला के फिर मनाने की
गुदगुदा के कभी हँसाने की
या कभी ख़ुद ही रूठ जाने की

हम्म... ये आदतें भी ना
सच में अजीब होती हैं...

-- ऋचा

Wednesday, September 22, 2010

भीगी है रात "फैज़" ग़ज़ल इब्तिदा करो...


पिछले क़रीब डेढ़ साल से ब्लॉग जगत में सक्रिय हूँ... इस दौरान बहुत से लोगों को पढ़ा... बहुत सी उभरती हुई प्रतिभाओं से भी रु-बा-रु हुए... इन सब के बीच कुछ नामी गिरामी शायरों को डेडिकेटेड ब्लॉग्स भी दिखे... बहुत अच्छा लगा अपने प्रिय शायर या शायरा के लिये लोगों का ये प्यार देख कर...

फिर चाहे वो गुलज़ार साब को समर्पित पवन झा जी का ख़ुशबू.ए.गुलज़ार हो या रंजू भाटिया जी और अन्य ब्लॉगर साथियों द्वारा संचालित सामूहिक ब्लॉग गुलज़ार नामा हो जो पिछले एक साल से जाने क्यूँ सुस्त पड़ा है

यदि आप अमृता प्रीतम जी के प्रशंसक हैं तो रंजू भाटिया जी का अमृता प्रीतम की याद में..... ज़रूर पढ़ा होगा आपने

और यदि ग़ालिब के फैन हैं तो अनिल कान्त जी का मिर्ज़ा ग़ालिब भी किसी से कम नहीं जो ग़ालिब की रूह को आज के युग में भी ज़िन्दा रखे हुए है...

ऐसे ही साहिर लुधियानवी साहब को डेडिकेटेड एक बहुत ही अच्छा ब्लॉग है साहिर की क़लम से जिसे sahir.fanatic नाम से उनके कोई फैन चलाते हैं

पर इन तमाम लोगों के बीच फैज़ को समर्पित किसी भी ब्लॉग की कमी बड़ी खली या शायद हमारी ही नज़र नहीं पड़ी कभी... तो सोचा चलो ये नेक काम हम ही कर देते हैं...

फैज़ के बारे में फिलहाल इतना ही कहना चाहूँगी की आधुनिक काल का शायद ही कोई ऐसा शायर होगा जिसने रूमानियत और इन्क़ेलाब से ओतप्रोत विचारों को इस ख़ूबसूरती के साथ अपने शब्दों में घोला है की वो सीधे आपकी रूह को झकझोरते हैं...

सियासी और सामाजिक मुद्दों पर फैज़ के लिखे बेबाक अशआर किस कदर का असर छोड़ते थे लोगों पर इस बात का अंदाज़ा आप गुलज़ार साब की फैज़ के लिये लिखी इस नज़्म से ही लगा सकते हैं -

चाँद लाहोर की गलियों से गुज़र के इक शब
जेल की ऊँची फसीलें चढ़ के,
यूँ 'कमांडो' की तरह कूद गया था 'सेल' मे,
...कोई आहट ना हुई,
पहरेदारों को पता ही ना चला !

"फ़ैज़" से मिलने गया था, ये सुना है,
"फ़ैज़" से कहने, कोई नज़्म कहो,
वक़्त की नब्ज़ रुकी है !
कुछ कहो, वक़्त की नब्ज़ चले !!

-- गुलज़ार


यूँ तो अपने इस ब्लॉग में भी पहले फैज़ साहब की कुछ रचनायें आप सब के साथ शेयर करी हैं... पर इस बार थोड़ा तफ़सील से फैज़ को आप तक पहुँचाने के लिये ये नया ब्लॉग बनाया है -

भीगी है रात "फैज़" ग़ज़ल इब्तिदा करो...

बस एक छोटी सी कोशिश है फैज़ कि लेखनी को आप के साथ बांटने की... उम्मीद है पसंद आएगी और आपका प्यार और प्रोत्साहन बदस्तूर जारी रहेगा...

Monday, September 20, 2010

समय से परे...



वक़्त की नाव में बैठ कर
आओ चलें कुछ दूर
समय से परे

वहाँ,
जहाँ सूरज सदा चमकता है
फिर भी तपता नहीं
सिर्फ़ बिखेरता है
झिलमिल सी रश्मियाँ
जो ठंडक पहुंचाती हैं मन को...

वहाँ,
जहाँ कोई शोर गुल नहीं है
सिर्फ़ भीनी सी सरगोशियाँ हैं
हवाओं के कंगन की
पानियों की झांझर की
और मीलों फैले सुकून की...

वहाँ,
जहाँ समय थम जाता है
"तुम" और "मैं" का भ्रम मिट जाता है
बस वो एक लम्हा
जिसमे सिर्फ़ "हम" हों
एकाकार...

और फिर वक़्त की शाख़ से
तोड़ के उस लम्हें को
क़ैद कर के मुट्ठी में
नक्श कर के ज़हन में
समय के दायरे में
लौट आयेंगे...

-- ऋचा

Monday, September 6, 2010

इमेजिज़


कितना कुछ चलता रहता है हमारे आस-पास... हर वक़्त... कितनी ही इमेजिज़ बदलती रहती हैं हर पल ज़िन्दगी के पन्नों पर... इक पल बेहद चमकीला... जैसे आफ़ताब उतार आया हो कहीं से... और इक पल थोड़ा मद्धम... जैसे मुश्किलों के बादलों ने चाँदनी को अपनी आग़ोश में ले लिया हो... पर कौन थाम पाया है वक़्त की नब्ज़... कौन रोक पाया है इन गुज़रते लम्हों को... अच्छे-बुरे... रौशन-मद्धम... जैसे भी हों... बीत ही जाते हैं... हम तो बस इनके साथ बहते रहते हैं... इनकी ही रौ में... उन्हें थामना हमारे बस में नहीं... बस देखते रहते हैं बीतते हुए... उन खुशियों को... उन ग़मों को... उन पलों को...

और जब थाम नहीं सकते उन्हें तो आइये जी ही लेते हैं... जी भर के... बह लेते हैं कुछ दूर उनके साथ... बिना किसी शिकायत... बिना किसी अफ़सोस... और "फ्रीज़" कर लेते हैं उन्हें यादों के सफ़्हों में... पेंट कर लेते हैं उन्हें ज़हन के कैन्वस पर... कल जब फ़ुर्सत के पलों में कभी यादों की गैलरी में एग्ज़ीबिशन लगायेंगे तो ये तमाम पल हमारी ज़िन्दगी के गवाह होंगे... उस सफ़र के गवाह होंगे जो हमने बस "यूँ ही" तय नहीं किया, तय करने के लिये... उस सफ़र का लुत्फ़ उठाया... उसे जिया... और संजोया... यादों में... हर पल...

ऐसे ही कुछ मुख्तलिफ़ से लम्हों की इमेजिज़ सजायीं हैं आज यहाँ... ज़िन्दगी की किताब से उतार कर ब्लॉग के सफ़्हे पर... उम्मीद है पसंद आयेंगे शब्दों में पिरोये ये चंद लम्हे...



कल ऑफिस से वापस आते वक़्त देखा था
सूरज ने नदी में कूद के ख़ुदकुशी कर ली
कुछ देर बाद वहीं से
इक सफ़ेद सा साया उभरा
ज़रूर उसका भूत होगा
लोग कहते हैं "चाँद" निकला है !!!

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अपने हाथों की लकीरों को देखती हूँ
और सोचती हूँ
जो तुम मिल नहीं सकते
तो तुम मिले ही क्यूँ
जो मिले हो तो फिर
मिलते क्यूँ नहीं....

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जवाब जानती हूँ
फिर भी ना जाने क्यूँ
कुछ सवाल हैं
जो तुमसे पूछने को जी चाहता है
जवाब की दरकार भी नहीं है
बस तुम्हारे चेहरे के बदलते रंगों
को पढ़ना चाहती हूँ...

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एक तन्हां सा सूरज कल शब
यूँ पेड़ पर ठुड्डी टिका के बैठा था
के जैसे एक शरारती बच्चा
माँ से डांट खा कर
आँखों में आँसू भरे
मुँह फुलाए बैठा हो...

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फैला के बाहों का दायरा
आग़ोश में लिया कुछ लम्हों को
और ओक में भर के कुछ पल
यूँ घूँट-घूँट ज़िन्दगी पी आज
कि आत्मा कुछ ऐसे तृप्त हुई
मानो अमृत चख लिया...

-- ऋचा