Friday, May 15, 2020

बनारस डायरीज़ 1 - रस रस बनारस !


बनारस ! पहली नज़र में यूँ लगता है मानो भीड़ का अम्बार... जैसे कोई मेला देखने, रेला का रेला भागता चला जा रहा हो... रिक्शा, ऑटो, साइकिल, कार, पैदल... जिसको जैसी सुविधा हो... पहली नज़र में आप घबरा जाते हैं.. उफ़ इतनी भीड़! ये कहाँ फंस गये... क्या यही शिव की प्रिय काशी है? क्या यही इतिहास का वो सबसे पुराना शहर है जहाँ लोग मोश प्राप्त करने आते हैं... इतने शोर शराबे के बीच... मोक्ष... सोच के ही अजीब सा लगता है... जी उकताने लगता है पहले १० मिनट में ही... फ़िर आप सोचते हैं अब आ ही गये हैं तो एक दिन रुक के गंगा घाट तो देख ही आते हैं कम से कम...

आप भी भीड़ के रेले में शामिल हो जाते हैं और मन में अनेक पूर्वाग्रह पाले जगह जगह लगे जाम के बीच बढ़ चलते हैं शहर-ए-बनारस से मिलने... इतनी भीड़ के बावजूद आप देखते हैं की हर कोई अपने आप में मस्त है... किसी के चेहरे पर कोई ख़ास शिकन नहीं... सब बस चले जा रहे हैं... कोई काशी विश्वनाथ मंदिर... कोई लंका.. कोई सिगरा... कोई बी.एच.यू. ... कितने ही देशों के टूरिस्ट आपको रास्ते में मिलते हैं और आप सोचते हैं की हम हिन्दू तो चलो मोक्ष पाने की लालसा में आये हैं पर उन्हें भला दूर देशों से यहाँ क्या खींच लाया बनारस... कैसे इतनी भीड़ में वो ख़ुशी ख़ुशी हर चीज़ इतने अचरज से देखते हैं... 

गंगा घाट पहुँच के थोड़ी शांति तो मिलती है पर सुकून तब भी नहीं... थोड़ी देर एक जगह बैठ के मन होता है चलो थोड़ा टहल के देखते हैं.. एक घाट से दूसरे घाट पैदल चलते आप तमाम रंगों से रूबरू होते हैं... कोई गंगा नहा के आपने पाप धोने में मशगूल है.. तो कोई साधू वहीँ घाट पे धुनी रमाये बैठा है... कोई चिलम फूँक रहा है... कहीं कोई चित्रकार बैठा किसी घाट के रंग अपनी पेंटिंग में उतारने में व्यस्त है... वहीं कोई अघोरी तन पे शमशान की राख लपेटे अपनी ही दुनिया मे खोया है... कुछ लोग नावों में बैठ कर घाट के चक्कर लगा रहे हैं... वहीं कुछ और हैं जो गंगा पार जा कर तर्पण आदि कर रहे हैं... कहीं बच्चे उसी गंगा में तैरना सीख रहे हैं... कहीं कोई कपड़े धो रहा है... कोई घाट की सफाई में लगा है... कोई खोमचा लगा कर समोसा कचौरी बेच रहा है तो कोई चाय... यूँ तो कहने को आज बस चौरासी घाट ही हैं पर एक पूरी की पूरी सभ्यता बसी है इन घाटों पर...



आपको धीरे धीरे ये अनोखापन ख़ुद से बांध लेता है... अब आप फिर थक के घाट पे बैठते हैं तो घंटों बैठे रहते है... शून्य में देखते हुए.. जाने क्या सोचते हुए... वहाँ से उठने का मन ही नहीं होता... 

संध्या आरती का समय हो आया है... आप क्योंकि पहले से वहाँ हैं तो आराम से जगह ले कर बैठ जाते हैं... आरती की तैयारी होते देखना भी अपने आप में एक अनुभव है... कैसे हर किसी का काम बंटा हुआ है... पहले धुलाई सफाई... फिर पूजा आरती के लिये एक जैसे पाँच मंच तैयार करना जिसपर खड़े हो कर पाँच पुरोहित एक साथ संध्या आरती करेंगे... एक लड़का आता है जो पाँचो जगह घंटी लोटे और पूजा थाल रख जाता है.. फिर कोई आता है जो धूप कपूर रख जाता है.. फिर कोई फूल.. कोई कपड़ा.. कोई जल... 

बीच वाले मंच पर गंगा माँ की प्रतिमा श्रृंगार कर के तैयार करी जाती है... इधर आरती का समय पास आते आते भीड़ बेहद बढ़ जाती है.. एक एक व्यक्ति को ठीक से बैठाना, उसके लिए जगह बनाना अपने आप में बढ़े ही धैर्य का काम है जो उतने ही धैर्य और शालीनता से किया जाता है... कब आपके आसपास सौ पचास की भीड़ हज़ार, दो हज़ार, पाँच हज़ार में तब्दील हो जाती है आपको पता ही नहीं चलता.. जितने लोग मंच के पीछे ज़मीन और सीढ़ियों पर उससे कहीं ज़्यादा सामने गंगा जी मे नावों पर... अजीब समां बंध जाता है... और जब आरती शुरू होती है तो यूँ लगता है मानो कोई जादूगर आपको सम्मोहित कर के किसी दूसरे ही लोक में ले जाता है... आलौकिक !



पाँचों पुरोहित जब एक साथ आरती करते हैं बिल्कुल सिंक्रनाइज़ तरीके से तो जो समां बंधता है और दिल को जिस ख़ुशी का एहसास होता है उस एहसास को ख़ुद महसूसना पड़ता है... शब्दों में उसे बयान करना बेहद मुश्किल है.. आप आस्तिक न भी हों... किसी भी देश धर्म के हों... आप उसे देख कर उस पल की ख़ूबसूरती से प्रभावित हुए बिना रह ही नहीं सकते... मन में एक तसल्ली एक सुकून के साथ वापस लौटते हैं... बनारस अब कुछ कुछ अच्छा लगने लगता है... वो भीड़ भी अब ज़्यादा परेशान नहीं करती...!


2 comments:

  1. You have drawn a live picture of Banaras by your words.Amazing city.I don't know about Moksha but being there is a different experience itself.

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  2. बहुत सुंदर वर्णन।

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दिल की गिरह खोल दो... चुप ना बैठो...