Saturday, May 16, 2020

बनारस डायरीज़ 2 - सुबह-ए-बनारस !



बनारस ! ये नाम लेते ही कुछ चीज़ें अनायास ही जुबां पर चली आती हैं.. जैसे बनारस की गलियाँ, बनारसी साड़ी, काशी विश्वनाथ मंदिर और सुबह-ए-बनारस... बनारस गए और इनसे रु-ब-रु नहीं हुए तो यूँ समझिये आप बनारस से मिले ही नहीं पूरी तरह.. उसे देखा तो पर जिया नहीं... और बनारस तो फिर बनारस है...  इसका नशा चढ़ते चढ़ते चढ़ता है और एक बार चढ़ गया तो रूह में बस जाता है हमेशा के लिए... बनारस का नशा भी कुछ कुछ प्रेम में होने जैसा है... कि होता है तो बस हो जाता है... आप ठीक ठीक कह नहीं सकते कि उसकी वजह क्या है...

गंगा आरती देखने के बाद जो देखने की सबसे ज़्यादा इच्छा थी वो थी बनारस की सुबह... न जाने कब से सुनते आ रहे थे सुबह-ए-बनारस और शाम-ए-अवध का कोई जोड़ नहीं... अब लखनऊ में जन्म लिया और पले-बढ़े तो यहाँ की शाम से तो बहुत अच्छे से वाबस्ता हैं... पर हिन्दुस्तान के इतने शहरों की एक से बढ़कर एक खूबसूरत सुबहें देखने के बाद ये उत्सुकता ज़रूर थी की बनारस की सुबह में ऐसा क्या ख़ास है... तो सुबह होते ही चल दिये दशाश्वमेध घाट, की सूर्योदय तो वहीं से देखेंगे... 

घाट की सीढ़ियाँ उतरते हुए जो सामने का दृश्य था उस एक पल में समझ आ गया की सुबह-ए-बनारस इतनी मशहूर है तो आख़िर क्यूँ कर है... गंगा पार से उगता हुआ सूरज गंगा के माथे पे यूँ तिलक लगा रहा था गोया किसी ब्राह्मण ने सुबह सवेरे गंगा स्नान कर के चन्दन का तिलक लगाया हो... आखें सुनहरी आभा में लिपटी गंगा माँ को निहारते नहीं थक रही थीं... घाट पर दूर तलक लोग गंगा स्नान और पूजा पाठ करते दिख रहे थे... किनारे हर तरह की छोटी बड़ी नाव की कतारें लगी थीं... सुना था की बनारस की ख़ूबसूरती को देखने का सबसे अच्छा तरीका नाव में बैठ के गंगा की लहरों के बीच से होता है... तो नौकाविहार भला कैसे ना करते... नाव पर बैठ कर जब आप गंगा की स्वर्णिम  धाराओं के बीच पहुँचते हैं तो बनारस की एक अलग ही छवि आपको दिखती है... चमचमाती हुई... एकदम अद्भुत ! मानो शिव के माथे पे सजा अर्ध चन्द्र गंगा किनारे आ लगा  हो... एक दुसरे से जुड़े फिर भी एक दुसरे से जुदा तकरीबन चौरासी घाट जिन पर पूरी की पूरी एक सभ्यता बसी थी...



बनारस के बारे में कहा जाता है की ये शहर इतिहास से भी ज़्यादा प्राचीन है.. ये शिव की काशी है.. शिव की वो नगरी जिसका उल्लेख स्वयं ऋग्वेद में है... और तबसे ही मानो ये नगरी यूँ ही गंगा किनारे अर्ध चंद्रकार रूप में खड़ी है... सुबह का सूरज जब इन घाटों और इमारतों पर पड़ता है तो वो यूँ चमक उठते हैं मानो आज ही रंग रोगन कर के इन्हें सजाया संवारा गया हो... कहते हैं कभी यहाँ 360 घाट हुआ करते थे... अब 84 बचे हैं पर वो भी अपने आप में बहुत हैं... एक छोर पर अस्सी घाट से ले कर दूसरे छोर पर आदि केशव घाट तक...


कुछ प्रमुख घाटों की बात करें तो उनमें हैं अस्सी घाट जो अस्सी और गंगा नदी के संगम पर बसा है, यहाँ रोज़ सुबह गंगा जी की आरती करी जाती है और सुबह-ए-बनारस नाम से शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम का आयोजन भी करा जाता है.. दशाश्वमेध घाट कहते हैं इसे स्वयं ब्रह्मा जी ने शिव के स्वागत में बनवाया था और यहाँ यज्ञ में दस अश्वों की बलि दी थी,  मणिकर्णिका घाट और हरिश्चंद्र घाट जहाँ कहते हैं चिता की अग्नि कभी ठंडी नहीं पड़ती... तुलसी घाट, ऐसा कहा जाता है कि यहीं बैठ कर तुलसीदास जी ने रामचरित मानस लिखी थी...













बनारस के मल्लाह भी बड़े किस्सागो होते हैं.. उनसे तमाम सच्चे झूठे किस्से कहानी सुनते सुनते घंटों कब बीत जाते हैं पता ही नहीं चलता... संगीत से ले कर राजनीति तक और इतिहास से लेकर भविष्य तक वो घंटों आपके साथ हर विषय पर चर्चा कर सकते हैं... नाव में बैठे बैठे सारे घाटों को देखते बनारस की जो छवि मन में बस चुकी थी उसका रंग जल्दी फीका नहीं पड़ने वाला... इसे वरुणा और अस्सी नदियों के संगम से बना वाराणसी कहिये या महादेव की काशी या फक्कड़पन में डूबा बनारस... इस शहर को जानना हो तो इसके घाटों पर बैठिये... इसकी गलियों में भटकिये... ये शहर ज़िन्दगी के तमाम रसों से आपका साक्षात्कार करवाता है !

3 comments:

  1. जीवंत लेखन और सुंदर चित्रों से आपने बनारस की धड़कनों को जैसे स्क्रीन पर साकार कर दिया है

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  2. ना जाने कब से इच्छाएँ दबी हुई हैं मन में....बनारस, केरल, लद्दाख, कोणार्क और ऐसे ही कई जगह घूमने की। पर कभी पैसा नहीं, कभी वक्त नहीं और जब दोनों हुए तो घूमने की आजादी नहीं !
    फिर भी, जैसे ही मौका मिले बनारस जरूर जाऊँगी। आपके इस लेख ने तो लालच बढ़ा दिया है।

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दिल की गिरह खोल दो... चुप ना बैठो...