Thursday, May 21, 2020

ख़ानाबदोश !



ये मन भी कितना चंचल होता है न... कभी एक जगह टिकता ही नहीं... बिलकुल उस तितली की तरह जो फूलों से भरे बाग़ीचे में पहुँच कर एकदम पागल सी हो जाती है.... एक पल इस फूल पे बैठती है तो अगले ही पल उड़ के दूसरे फूल पर और फिर तीसरे और चौथे पर... जैसे उसे समझ ही नहीं आ रहा होता कि किस फूल का रस उसे सबसे ज़्यादा पसंद आया...

मन भी बिलकुल ऐसा ही होता है... इस एक छोटे से जीवन में ही उसे सब कर लेना है... कभी लगता है एक पेंटर बनना है तमाम पेंटिंग्स बनानी हैं... फिर कभी लगता है फ़ोटोग्राफ़ी करनी है... कभी लगता है की कम्प्यूटर्स की पढ़ाई ग़लत कर ली दिल तो घर बनाने और सजाने में लगता है... आर्किटेक्चर की पढ़ाई करनी चाहिये थी... फिर अगले ही पल लगता है ये सब मोह माया है... हमें तो कहीं पहाड़ पे छोटा सा एक कॉटेज बना के वहीं रहना है... मटीरिअलिस्टिक चीज़ों की ज़्यादा लालसा नहीं तो गाँव के किसी पहाड़ी स्कूल में बच्चों को पढ़ा के अपना ख़र्चा तो चल जाएगा... कितना तो ख़ाली समय मिलेगा उसमें बाग़वानी करेंगे... किताबें पढ़ेंगे... 

फिर कभी ये भी दिल करता है कि एक बी & बी चलाना है किसी पहाड़ पर.. घर का घर हो जायेगा और कमायी की कमायी और होम स्टे में जो तमाम लोग आयेंगे दुनियाभर से उनसे दुनिया जहान की बातें भी... और पहाड़ पे रहने का सपना पूरा होगा सो अलग...   फिर कभी दिल में दुनिया घूमने की ललक ज़ोर पकड़ती है...  लगता है काश किसी ट्रेवल चैनल में नौकरी मिल जाये तो सारी दुनिया घूम लें...

दरअसल हमारा मन बिलकुल किसी ख़ानाबदोश के जैसा है... हर कुछ दिन में अपना ठिकाना बदलता हुआ... कितनी तो क्षण भृंगुर लालसायें उपजती रहती है इस मन की ज़मीन पे हर रोज़... चचा ग़ालिब क्या ख़ूब कह गये हैं हम जैसों के ही लिये "हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले..."

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कोई भटकन है मेरे भीतर
कोई यायावर
कि बुझती नहीं जिसकी प्यास
किसी दरिया किनारे भी
न तृप्त होती है आत्मा
न भटकन ख़त्म होती है

कुछ करना है उसे
कुछ अलग
क्या
नहीं मालूम
पर कुछ तो

वो नन्हां सा टुकड़ा 
ख़्वाब का
जो धुंधला धुंधला अटका है 
याद के चिटके काँच में 
उसे रंगों से देनी है शक़्ल
किसी शफ्फाक़ कैनवस पर

कोई इक कविता कहनी है
बिना बाँधे शब्दों को
किसी भी पैमाने में
बस बिखेर देना है
कागज़ पर
जो महके सौन्धे सौन्धे

कुछ पौधे उगाने हैं
रंगीन फूलों के
के जिन पे तितलियाँ आयें
उनसे ढेरों बातें करनी हैं
दोपहरें रातें करनी हैं
हाँ इक जुगनू पकड़ना है

कोई जंगल है जो भीतर
अनगढ़ से विचारों का
उसे बाहर लाना है
किसी ऊँची पहाड़ी पे
एक घर भी बनाना है

हो इक छोटा सा कमरा
जिसमें इक खिड़की बड़ी हो
छत हो लाल पत्थर की
पेड़ पे झूला पड़ा हो
मखमली घास का हो इक गलीचा
किसी अलसायी दोपहरी में
कोई किताब पढ़नी है

बुलेट भी तो चलानी है
दुनिया की सैर करनी है
तमाम लोगों से मिलना है
नई नई कितनी 
भाषायें सीखनी है
समय की सीमायें लांघनी है

प्रवासी परिंदों संग 
सुनहरी सुबहें देखनी हैं
स्पिति की सफ़ेद रातों में
तमाम रतजगे करने हैं
आकाशगंगा में झिलमिल 
अनगिन तारे गिनने हैं

समय की चाँदी जब
चमकेगी बालों में
शाम का पिघला सोना चुनना है
सुनहले साहिल की रेत से
पैरों में भटकन बाँध
यूँ ही बस चलते जाना है

ये भटकन ही तो हासिल है
यही कामिल है 
रगों में यूँ ही तो 
भटकता है लहू भी
और साँसे धड़कनों में
मुझे भी बस भटकना है
यूँ ही उम्र भर... ख़ानाबदोश !
-- ऋचा



Saturday, May 16, 2020

बनारस डायरीज़ 2 - सुबह-ए-बनारस !



बनारस ! ये नाम लेते ही कुछ चीज़ें अनायास ही जुबां पर चली आती हैं.. जैसे बनारस की गलियाँ, बनारसी साड़ी, काशी विश्वनाथ मंदिर और सुबह-ए-बनारस... बनारस गए और इनसे रु-ब-रु नहीं हुए तो यूँ समझिये आप बनारस से मिले ही नहीं पूरी तरह.. उसे देखा तो पर जिया नहीं... और बनारस तो फिर बनारस है...  इसका नशा चढ़ते चढ़ते चढ़ता है और एक बार चढ़ गया तो रूह में बस जाता है हमेशा के लिए... बनारस का नशा भी कुछ कुछ प्रेम में होने जैसा है... कि होता है तो बस हो जाता है... आप ठीक ठीक कह नहीं सकते कि उसकी वजह क्या है...

गंगा आरती देखने के बाद जो देखने की सबसे ज़्यादा इच्छा थी वो थी बनारस की सुबह... न जाने कब से सुनते आ रहे थे सुबह-ए-बनारस और शाम-ए-अवध का कोई जोड़ नहीं... अब लखनऊ में जन्म लिया और पले-बढ़े तो यहाँ की शाम से तो बहुत अच्छे से वाबस्ता हैं... पर हिन्दुस्तान के इतने शहरों की एक से बढ़कर एक खूबसूरत सुबहें देखने के बाद ये उत्सुकता ज़रूर थी की बनारस की सुबह में ऐसा क्या ख़ास है... तो सुबह होते ही चल दिये दशाश्वमेध घाट, की सूर्योदय तो वहीं से देखेंगे... 

घाट की सीढ़ियाँ उतरते हुए जो सामने का दृश्य था उस एक पल में समझ आ गया की सुबह-ए-बनारस इतनी मशहूर है तो आख़िर क्यूँ कर है... गंगा पार से उगता हुआ सूरज गंगा के माथे पे यूँ तिलक लगा रहा था गोया किसी ब्राह्मण ने सुबह सवेरे गंगा स्नान कर के चन्दन का तिलक लगाया हो... आखें सुनहरी आभा में लिपटी गंगा माँ को निहारते नहीं थक रही थीं... घाट पर दूर तलक लोग गंगा स्नान और पूजा पाठ करते दिख रहे थे... किनारे हर तरह की छोटी बड़ी नाव की कतारें लगी थीं... सुना था की बनारस की ख़ूबसूरती को देखने का सबसे अच्छा तरीका नाव में बैठ के गंगा की लहरों के बीच से होता है... तो नौकाविहार भला कैसे ना करते... नाव पर बैठ कर जब आप गंगा की स्वर्णिम  धाराओं के बीच पहुँचते हैं तो बनारस की एक अलग ही छवि आपको दिखती है... चमचमाती हुई... एकदम अद्भुत ! मानो शिव के माथे पे सजा अर्ध चन्द्र गंगा किनारे आ लगा  हो... एक दुसरे से जुड़े फिर भी एक दुसरे से जुदा तकरीबन चौरासी घाट जिन पर पूरी की पूरी एक सभ्यता बसी थी...



बनारस के बारे में कहा जाता है की ये शहर इतिहास से भी ज़्यादा प्राचीन है.. ये शिव की काशी है.. शिव की वो नगरी जिसका उल्लेख स्वयं ऋग्वेद में है... और तबसे ही मानो ये नगरी यूँ ही गंगा किनारे अर्ध चंद्रकार रूप में खड़ी है... सुबह का सूरज जब इन घाटों और इमारतों पर पड़ता है तो वो यूँ चमक उठते हैं मानो आज ही रंग रोगन कर के इन्हें सजाया संवारा गया हो... कहते हैं कभी यहाँ 360 घाट हुआ करते थे... अब 84 बचे हैं पर वो भी अपने आप में बहुत हैं... एक छोर पर अस्सी घाट से ले कर दूसरे छोर पर आदि केशव घाट तक...


कुछ प्रमुख घाटों की बात करें तो उनमें हैं अस्सी घाट जो अस्सी और गंगा नदी के संगम पर बसा है, यहाँ रोज़ सुबह गंगा जी की आरती करी जाती है और सुबह-ए-बनारस नाम से शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम का आयोजन भी करा जाता है.. दशाश्वमेध घाट कहते हैं इसे स्वयं ब्रह्मा जी ने शिव के स्वागत में बनवाया था और यहाँ यज्ञ में दस अश्वों की बलि दी थी,  मणिकर्णिका घाट और हरिश्चंद्र घाट जहाँ कहते हैं चिता की अग्नि कभी ठंडी नहीं पड़ती... तुलसी घाट, ऐसा कहा जाता है कि यहीं बैठ कर तुलसीदास जी ने रामचरित मानस लिखी थी...













बनारस के मल्लाह भी बड़े किस्सागो होते हैं.. उनसे तमाम सच्चे झूठे किस्से कहानी सुनते सुनते घंटों कब बीत जाते हैं पता ही नहीं चलता... संगीत से ले कर राजनीति तक और इतिहास से लेकर भविष्य तक वो घंटों आपके साथ हर विषय पर चर्चा कर सकते हैं... नाव में बैठे बैठे सारे घाटों को देखते बनारस की जो छवि मन में बस चुकी थी उसका रंग जल्दी फीका नहीं पड़ने वाला... इसे वरुणा और अस्सी नदियों के संगम से बना वाराणसी कहिये या महादेव की काशी या फक्कड़पन में डूबा बनारस... इस शहर को जानना हो तो इसके घाटों पर बैठिये... इसकी गलियों में भटकिये... ये शहर ज़िन्दगी के तमाम रसों से आपका साक्षात्कार करवाता है !

Friday, May 15, 2020

बनारस डायरीज़ 1 - रस रस बनारस !


बनारस ! पहली नज़र में यूँ लगता है मानो भीड़ का अम्बार... जैसे कोई मेला देखने, रेला का रेला भागता चला जा रहा हो... रिक्शा, ऑटो, साइकिल, कार, पैदल... जिसको जैसी सुविधा हो... पहली नज़र में आप घबरा जाते हैं.. उफ़ इतनी भीड़! ये कहाँ फंस गये... क्या यही शिव की प्रिय काशी है? क्या यही इतिहास का वो सबसे पुराना शहर है जहाँ लोग मोश प्राप्त करने आते हैं... इतने शोर शराबे के बीच... मोक्ष... सोच के ही अजीब सा लगता है... जी उकताने लगता है पहले १० मिनट में ही... फ़िर आप सोचते हैं अब आ ही गये हैं तो एक दिन रुक के गंगा घाट तो देख ही आते हैं कम से कम...

आप भी भीड़ के रेले में शामिल हो जाते हैं और मन में अनेक पूर्वाग्रह पाले जगह जगह लगे जाम के बीच बढ़ चलते हैं शहर-ए-बनारस से मिलने... इतनी भीड़ के बावजूद आप देखते हैं की हर कोई अपने आप में मस्त है... किसी के चेहरे पर कोई ख़ास शिकन नहीं... सब बस चले जा रहे हैं... कोई काशी विश्वनाथ मंदिर... कोई लंका.. कोई सिगरा... कोई बी.एच.यू. ... कितने ही देशों के टूरिस्ट आपको रास्ते में मिलते हैं और आप सोचते हैं की हम हिन्दू तो चलो मोक्ष पाने की लालसा में आये हैं पर उन्हें भला दूर देशों से यहाँ क्या खींच लाया बनारस... कैसे इतनी भीड़ में वो ख़ुशी ख़ुशी हर चीज़ इतने अचरज से देखते हैं... 

गंगा घाट पहुँच के थोड़ी शांति तो मिलती है पर सुकून तब भी नहीं... थोड़ी देर एक जगह बैठ के मन होता है चलो थोड़ा टहल के देखते हैं.. एक घाट से दूसरे घाट पैदल चलते आप तमाम रंगों से रूबरू होते हैं... कोई गंगा नहा के आपने पाप धोने में मशगूल है.. तो कोई साधू वहीँ घाट पे धुनी रमाये बैठा है... कोई चिलम फूँक रहा है... कहीं कोई चित्रकार बैठा किसी घाट के रंग अपनी पेंटिंग में उतारने में व्यस्त है... वहीं कोई अघोरी तन पे शमशान की राख लपेटे अपनी ही दुनिया मे खोया है... कुछ लोग नावों में बैठ कर घाट के चक्कर लगा रहे हैं... वहीं कुछ और हैं जो गंगा पार जा कर तर्पण आदि कर रहे हैं... कहीं बच्चे उसी गंगा में तैरना सीख रहे हैं... कहीं कोई कपड़े धो रहा है... कोई घाट की सफाई में लगा है... कोई खोमचा लगा कर समोसा कचौरी बेच रहा है तो कोई चाय... यूँ तो कहने को आज बस चौरासी घाट ही हैं पर एक पूरी की पूरी सभ्यता बसी है इन घाटों पर...



आपको धीरे धीरे ये अनोखापन ख़ुद से बांध लेता है... अब आप फिर थक के घाट पे बैठते हैं तो घंटों बैठे रहते है... शून्य में देखते हुए.. जाने क्या सोचते हुए... वहाँ से उठने का मन ही नहीं होता... 

संध्या आरती का समय हो आया है... आप क्योंकि पहले से वहाँ हैं तो आराम से जगह ले कर बैठ जाते हैं... आरती की तैयारी होते देखना भी अपने आप में एक अनुभव है... कैसे हर किसी का काम बंटा हुआ है... पहले धुलाई सफाई... फिर पूजा आरती के लिये एक जैसे पाँच मंच तैयार करना जिसपर खड़े हो कर पाँच पुरोहित एक साथ संध्या आरती करेंगे... एक लड़का आता है जो पाँचो जगह घंटी लोटे और पूजा थाल रख जाता है.. फिर कोई आता है जो धूप कपूर रख जाता है.. फिर कोई फूल.. कोई कपड़ा.. कोई जल... 

बीच वाले मंच पर गंगा माँ की प्रतिमा श्रृंगार कर के तैयार करी जाती है... इधर आरती का समय पास आते आते भीड़ बेहद बढ़ जाती है.. एक एक व्यक्ति को ठीक से बैठाना, उसके लिए जगह बनाना अपने आप में बढ़े ही धैर्य का काम है जो उतने ही धैर्य और शालीनता से किया जाता है... कब आपके आसपास सौ पचास की भीड़ हज़ार, दो हज़ार, पाँच हज़ार में तब्दील हो जाती है आपको पता ही नहीं चलता.. जितने लोग मंच के पीछे ज़मीन और सीढ़ियों पर उससे कहीं ज़्यादा सामने गंगा जी मे नावों पर... अजीब समां बंध जाता है... और जब आरती शुरू होती है तो यूँ लगता है मानो कोई जादूगर आपको सम्मोहित कर के किसी दूसरे ही लोक में ले जाता है... आलौकिक !



पाँचों पुरोहित जब एक साथ आरती करते हैं बिल्कुल सिंक्रनाइज़ तरीके से तो जो समां बंधता है और दिल को जिस ख़ुशी का एहसास होता है उस एहसास को ख़ुद महसूसना पड़ता है... शब्दों में उसे बयान करना बेहद मुश्किल है.. आप आस्तिक न भी हों... किसी भी देश धर्म के हों... आप उसे देख कर उस पल की ख़ूबसूरती से प्रभावित हुए बिना रह ही नहीं सकते... मन में एक तसल्ली एक सुकून के साथ वापस लौटते हैं... बनारस अब कुछ कुछ अच्छा लगने लगता है... वो भीड़ भी अब ज़्यादा परेशान नहीं करती...!