Friday, December 5, 2014

जागते जीते हुए दूधिया कोहरे से लिपट कर, साँस लेते हुए इस कोहरे को महसूस किया है ?



सर्दियाँ हमेशा से बड़ी पसंद हैं हमें... कि थोड़ा अलसाया, थोड़ा रूमानी, थोड़ा मिस्टीरियस, थोड़ा सूफ़ियाना सा ये मौसम बिलकुल अपने जैसा लगता है...

इन सर्दियों के पहले कोहरे ने आज सुबह सवेरे दस्तक दी... अमूमन आजकल देर से ही उठाना हो रहा है... गलती हमारी नहीं है... ये कम्बख्त रज़ाइयाँ तैयार ही नहीं होती अपनी गिरफ़्त से आज़ाद करने को... ख़ैर आज सुबह उनकी तमाम कोशिशों को नाकाम कर के बरामदे में पहुँचे तो देखा नर्म शफ्फाफ़ कोहरा अपनी पुर असरार ख़ुश्बू का मलमली शॉल ओढ़े लिपटा हुआ है धरती के आग़ोश में... जैसे सदियों से बिछड़े प्रेमी मिले तो बस एक दूजे से लिपट गए सब लोक लाज छोड़ छाड़ के... कितने देर तलक उनके इस पाकीज़ा मिलन को यूँ एक टक तकती रही... सोचा के फ्रीज़ कर लूँ इन दिव्य लम्हों को मन के कैमरे में...

मेरी इस टकटकी को तोड़ा बातूनी कबूतरों के एक जोड़े ने... जाने क्या गुटर गूं  - गुटर गूं लगा रखी थी सुबह सुबह... आप बेवजह हमें बोलते हो की हम बहुत बक बक करते हैं.. देखो इन्हें... इत्ती ठंडी में भी चैन नहीं है... ज़रूर मम्मी को कोई बहाना मार के आये होंगे सुबह सुबह कि बड़ा ज़रूरी कोई काम है और यहाँ कोहरे में छुप के बातें कर रहे हैं... ख़ैर करने दो.. हमें क्या...

ये कोहरा देख के हर बार ही मन होता है कि हाथ बढ़ा के छू लूँ इसे... या फूँक कर उड़ा दूँ... ताज़ी धुनकी रुई के जैसे कोहरे के इन फाहों को... जो बैठ गए हैं हर एक चीज़ पर और सब कुछ इनके ही रंग में रंग गया है.. या चुटकी भर ये कोहरा चाय में घोल के पी जाऊँ... या फ़िर लेप लूँ अपने तन मन पर मुट्ठी भर ये मदहोश कर देने वाली गंध... के जैसे साधू कोई भस्म लगा लेता है तन पर...

जानते हो कैसे मिली इसे ये भीनी ख़ुश्बू ? कोहरे और धरती के उस पाकीज़ा मिलन से... पर तुम तो न कुछ समझते ही नहीं... याद है कितना हँसे थे तुम... इक बार जब कहा था मैंने कि मुझे इस कोहरे की ख़ुश्बू बहुत अच्छी लगती है... कितना मज़ाक बनाया था तुमने मेरा... ये कह के कि तुम पागल हो बिलकुल... कोहरे की भी भला कोई ख़ुश्बू होती है... देखो न जान आज फिर से वही महक तारी है फिज़ा में अल-सुबह से... आज फिर तुम हँस रहे हो मुझ पर...

मुझे इस कोहरे की ख़ुश्बू वाला कोई इत्र ला दो न जानां.. कि ये कोहरे वाली सर्दियाँ पूरे साल नहीं रहतीं...!


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दिल की गिरह खोल दो... चुप ना बैठो...