Monday, December 13, 2010

मंज़िल जैसी राह...


ता-उम्र ढूँढता रहा मंज़िल मैं इश्क़ की
अंजाम ये कि गर्द-ए-सफ़र ले के आ गया

एक अंधे धावक कि तरह तमाम उम्र हम आँख बन्द किये बस दौड़ते रहते हैं... बेतहाशा... बदहवास से... उस मंज़िल तक पहुँचने के लिये जो हमें पता ही नहीं, है भी या नहीं और है तो कहाँ है... जब तक हम वहाँ पहुंचेंगे क्या वो वहीं रहेगी ? और ग़र मिल भी गई तो क्या हम सफ़ल कहलायेंगे... क्या तृप्त हो पायेंगे... शायद नहीं... क्यूँकि हम इंसान फ़ितरत से ही अतृप्त और अधीर होते हैं... कितना भी मिल जाये कम ही होता है हमारे लिये... हमारी लालसा और प्यास निरंतर बढ़ती ही रहती है...

मंज़िल तक पहुँचने की इतनी जल्दी होती है हमें... इतनी हड़बड़ी... की उस मंज़िल तक पहुँचाने वाले रास्ते की ख़ूबसूरती का लुत्फ़ ही नहीं उठाते और ना ही अपने हमसफ़र के साथ का आनंद उठाते हैं... ठीक उसी तरह अपने हर रिश्ते को अंजाम तक पहुँचाने की इतनी जल्दी होती है हमें की उसे दिल से कभी जीते ही नहीं... हम ये भूल जाते हैं कि किसी भी रिश्ते का असल सार तो उस रास्ते में घुला होता है जो हम साथ मिल के तय करते हैं... उस भावनात्मक पुल में जो एक रिश्ते के दोनों सिरों को जोड़ता है... उसे मज़बूत बनता है... उस रिश्ते को महज़ मंज़िल तक पहुँचा के मुकम्मल करने में नहीं...

ऐसा ही एक रिश्ता निभाया अमृता-इमरोज़ ने... किसी अलग ही दुनिया के बाशिंदे थे दोनों... भीड़ से अलग... अपनी धुन में मस्त... किसी मंज़िल की कोई तलाश नहीं... बस एक दूसरे के साथ को जीते और उसका आनंद लेते... कभी कोई बंदिश नहीं लगाई एक दूसरे की किसी भी बात पर... ना कभी अमृता ने इमरोज़ को रोका उन्हें चाहने से ना कभी इमरोज़ ने अमृता को रोका साहिर को चाहने से... दोनों इस बात को अच्छे से समझते थे कि आप ना तो किसी को ज़बरदस्ती प्यार करने के लिये मजबूर कर सकते हो और ना ही किसी को प्यार करने से रोक सकते हो... दोनों ने अपनी उम्र का एक लम्बा अरसा एक दूसरे के साथ बिताया... सामाजिक रस्मों रवायतों से परे... एक अनाम अपरिभाषित रिश्ता... जिसे आप प्यार, मोहब्बत, दोस्ती कुछ भी कह लीजिये... या सिर्फ़ साथ... एक दूसरे का साथ... निस्वार्थ साथ... 

सामने कई राह दिख रही थीं
मगर कोई राह ऐसी ना थी,
जिसके साथ मेरा अपना आप चल सके
सोचता कोई हो मंज़िल जैसी राह...

वह मिली तो जैसे
एक उम्मीद मिली ज़िन्दगी को
यह मिलन चल पड़ा
हम अक्सर मिलने लगे और मिलकर चलने लगे
चुपचाप कुछ कहते, कुछ सुनते
चलते-चलते कभी-कभी
एक दूसरे को देख भी लेते

एक दिन चलते हुए
उसने अपने हाथों की उँगलियाँ
मेरे हाथ की उँगलियों में मिलाकर
मेरे तरफ़ इस तरह देखा
जैसे ज़िन्दगी एक बुझारत पूछ रही हो
कि बता तेरी उँगलियाँ कौन सी हैं
मैंने उसकी तरफ़ देखा
और नज़र से ही उससे कहा...
सारी उँगलियाँ तेरी भी, सारी उँगलियाँ मेरी भी

एक तारीख़ी इमारत के
बग़ीचे में चलते हुए
मेरा हाथ पकड़कर कुछ ऐसे देखा
जैसे पूछ रही हो इस तरह मेरे साथ
तू कहाँ तक चल सकता है ?
मैंने कितनी ही देर
उसका हाथ अपने हाथ में दबाये रखा
जैसे हथेलियों के रास्ते ज़िन्दगी से कह रहा होऊं
जहाँ तक तुम सोच सको -

कितने ही बरस बीत गए इस तरह चलते हुए
एक-दूसरे का साथ देते हुए, साथ लेते हुए
इस राह पर
इस मंज़िल जैसी राह पर...

-- इमरोज़


10 comments:

  1. कितने ही बरस बीत गए इस तरह चलते हुए
    एक-दूसरे का साथ देते हुए, साथ लेते हुए
    इस राह पर
    इस मंज़िल जैसी राह पर...

    bahut khoob.. aapne apne andaz me pesh kar ise aur bhi pathniya bana diya..

    Happy Blogging

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  2. एक दिन चलते हुए
    उसने अपने हाथों की उँगलियाँ
    मेरे हाथ की उँगलियों में मिलाकर
    मेरे तरफ़ इस तरह देखा
    जैसे ज़िन्दगी एक बुझारत पूछ रही हो
    कि बता तेरी उँगलियाँ कौन सी हैं
    मैंने उसकी तरफ़ देखा
    और नज़र से ही उससे कहा...
    सारी उँगलियाँ तेरी भी, सारी उँगलियाँ मेरी भी
    isse pahle kuch nahi
    iske baad bhi to kuch nahi

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  3. यह तस्वीर बड़ी प्यारी है... इमरोज़ राजकपूर जैसे लग रहे हैं गौर से देखिये... और अमृता (क्या नर्गिस) जैसी नहीं ?

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  4. बस साथ हो तो ऐसा…………मौन ही बतियाता रहे और दिल सुनते रहें।

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  5. कुछ चीज़ों पे आप चाह कर भी नहीं बोल पाते .......ऐसा ही कुछ हुआ :-) इसलिए अपनी अटेंडेंस लगा रहे हैं यहाँ

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  6. अभी कुछ दिन पहले ही अमृता जी कि एक किताब पढ़ रहा था जिसमे उन्होंने इमरोज़ के बारे में बहुत कुछ लिखा था.

    आपकी ये पोस्ट बहुत अच्छी लगी...

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  7. बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट।

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  8. This comment has been removed by the author.

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  9. beautiful post dear

    जैसे ज़िन्दगी एक बुझारत पूछ रही हो
    कि बता तेरी उँगलियाँ कौन सी हैं

    ye lines to...wah....badi pyaari nazm post ki tumne

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  10. ऋचा जी

    एक अपना ही शेर कहता हूँ ...

    है बहुत बेचैन मंजिल पर पहुँच कर
    यद् उसको रास्ता अब आ रहा है ....

    सचमुच अमृता इमरोज़ रास्ते को जीत रहे उम्र भर ...बहुत तमन्ना थी दोनों से मिलने की ..पर अमृता गुजर गयीं ...रह गए इमरोज़ ..उनसे मिलना हुआ तो लगा ही नहीं की अमृता नहीं हैं... उनकी हर बात में अमृता होती हैं ..और अब सफर जारी सा लगता है उनका ... और सचमुच उनकी राह ही उनकी मंजिल है ... बहुत बहुत शुक्रिया उनकी यह नज़्म बांटनें के लिए ...

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दिल की गिरह खोल दो... चुप ना बैठो...